क्या घरेलू कामकाज थैंकलैस जौब है? जी हां, यह सच है. अगर ऐसा नहीं होता तो हिंदुस्तान में कामगार के तौर पर महिलाओं की इज्जत पुरुषों से ज्यादा होती, क्योंकि वे पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा काम करती हैं. उन का काम हर समय जारी रहता है, केवल सोने के समय को छोड़ कर. यह बात एनएसएसओ यानी नैशनल सैंपल सर्वे और्गेनाइजेशन के सालाना राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण से सामने आई है. 68वें चक्र के इस सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि महिलाएं चाहे शहरों में रहती हों या गांवों में, वे पुरुषों से कहीं ज्यादा काम करती हैं.
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 68वें चक्र के आंकड़े एक और गलतफहमी दूर करते हैं कि शहरी महिलाएं शिक्षित होने के नाते अधिक कामकाजी होती हैं. आंकड़ों से मालूम होता है कि ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में शहरी क्षेत्र की महिलाएं गैरमेहनताने वाले घरेलू कार्य में अधिक व्यस्त रहती हैं. एनएसएसओ के 68वें चक्र के अनुसार, 64% महिलाएं जो 15 वर्ष या उस से अधिक आयु की हैं घरेलू कामकाज में व्यस्त रहती हैं जबकि ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं का यह प्रतिशत 60 है.
अगर शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों की बहस को छोड़ दें तो इन आंकड़ों से मालूम होता है कि ज्यादातर महिलाएं घरेलू कामकाज में व्यस्त रहती हैं, जिस का उन्हें कोई आर्थिक लाभ नहीं मिलता है. इन आंकड़ों से भी इस मांग को बल मिलता है कि घरेलू कामकाज को श्रम माना जाए और महिलाओं को उस का मेहनताना दिया जाए. गौरतलब है कि ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में लगभग 92% महिलाएं अपना ज्यादातर समय घरेलू काम में व्यतीत करती हैं.
बहरहाल, प्रत्येक राज्य व केंद्र शासित प्रदेश में 1 लाख घरों को इस सर्वे में शामिल किया गया, जिस में चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि शहरी क्षेत्र की अधिकतर महिलाएं कहती हैं कि वे घरेलू काम अपनी व्यक्तिगत इच्छा के कारण करती हैं. जबकि ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं का कहना है कि वे घरेलू काम इसलिए करती हैं, क्योंकि उसे करने के लिए कोई और सदस्य उपलब्ध नहीं है.
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जुलाई, 2011 से जून, 2012 तक के इस 68वें चक्र से यह भी जाहिर होता है कि चूंकि शहरों में छोटे परिवार ज्यादा हो गए हैं, इसलिए घरेलू जिम्मेदारियों को बांटने के लिए सदस्यों की कमी रहती है, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में ऐसी स्थिति नहीं है.
दिलचस्प बात यह है कि लगभग 34% ग्रामीण महिलाओं ने इस बात की इच्छा व्यक्त की कि अगर उन्हें घर पर ही कोई अन्य काम दिया जाए तो वे उसे खुशीखुशी स्वीकार लेंगी, जबकि 28% शहरी महिलाओं ने ही घर पर रह कर कोई अन्य काम करने की इच्छा व्यक्त की. दोनों क्षेत्रों में मात्र 8% महिलाएं ही ऐसी हैं, जिन्हें अपना ज्यादातर समय घरेलू काम करते हुए गुजारना नहीं पड़ता.
अब सवाल यह है कि घरेलू काम के अतिरिक्त घर पर रहते हुए महिलाएं किस किस्म के काम को करने को अधिक प्राथमिकता देती हैं? सर्वे से मालूम पड़ता है कि सिलाई का काम महिलाओं को अधिक पसंद है. दोनों क्षेत्रों में 95% महिलाएं नियमित आधार पर कार्य करने को प्राथमिकता देती हैं. महिलाओं की दिलचस्पी स्वरोजगार में भी है, बशर्ते उन्हें व्यापार करने के लिए रिआयती व आसान दर पर ऋण दिया जाए.
दिलचस्प बात यह है कि इस सिलसिले में भी ग्रामीण महिलाओं का प्रतिशत (41), शहरी महिलाओं के प्रतिशत (29) से कहीं ज्यादा है. इस के अलावा 21% ग्रामीण महिलाओं और 27% शहरी महिलाओं ने कहा कि अपनी इच्छा का कार्य करने के लिए वे पहले ट्रेनिंग लेना पसंद करेंगी.
2011-12 के सर्वे से यह तथ्य भी सामने आया है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान शहरी क्षेत्र में घरेलू कार्य में जुटी महिलाओं का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में लगभग एक सा ही रहा है. घरेलू कार्य में जुटी महिलाओं का प्रतिशत 2004-05 में जहां 45.6 था, वहीं 2009-10 में बढ़ कर 48.2% हो गया, लेकिन 2009-10 और 2011-12 के बीच वह लगभग समान ही रहा है.
दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र में घरेलू कामों में जुटी महिलाओं का प्रतिशत निरंतर बढ़ता जा रहा है. मसलन, 61वें चक्र में यह प्रतिशत 35.3% था जो 66वें चक्र में बढ़ कर 40.1% हो गया और वर्तमान चक्र में यह 42.2% है. अगर क्षेत्र की दृष्टि से देखें तो उत्तरी राज्यों खासकर पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश में महिलाएं घरेलू काम में अधिक जुटी हुई हैं. दक्षिण व उत्तरपूर्व राज्यों में यह स्थिति कम है.
जरूरी है अर्थिक स्वतंत्रता
बहरहाल, जहां घरेलू काम को ‘उत्पादक श्रम’ की श्रेणी में शामिल करने की मांग बढ़ती जा रही है, वहीं एनएसएसओ से यह भी आग्रह किया जा रहा है कि वह ‘समय प्रयोग सर्वे’ को लागू करे. इस का एक फायदा यह होगा कि शोधकर्ताओं को मालूम हो जाएगा कि घर पर रहने वाली महिला कितना समय आर्थिक दृष्टि से उत्पादक गतिविधि में व्यतीत करती है.
इस में कोई संदेह नहीं है कि समाज में महिलाओं की स्थिति उसी सूरत में मजबूत हो सकती है जब वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों. जाहिर है, इस के लिए जरूरी है कि महिलाओं द्वारा किए जा रहे घरेलू कार्य को श्रम माना जाए और उन्हें इस का आर्थिक मेहनताना मिले. इस के अलावा यह भी जरूरी है कि महिलाओं की संपूर्ण स्थिति को सामने लाने के लिए एनएसएसओ उन से आधुनिक संदर्भों पर भी सवाल करे जैसे- क्या वे घर से बाहर कोई वेतन कार्य करना पसंद करेंगी या घरेलू काम के बोझ को वे किसी दूसरे के साथ बांटना चाहेंगी आदि.
किसी भी विकसित देश की तमाम अलगअलग परिभाषाओं में एक महत्त्वपूर्ण परिभाषा या फिर कहें उस के विकसित होने को साबित करने वाली स्थिति यह होती है कि उस देश की तमाम महिलाएं उस देश के पुरुषों की ही तरह कामकाजी होती हैं. कामकाजी होने से यहां आशय पुरुषों के बराबर महत्त्व वाले घर से बाहर के कामकाजों में हिस्सेदारी करना और उन्हीं के बराबर वेतन पाना है. जिन देशों में ऐसी स्थितियां नहीं हैं वे कम से कम विकसित देशों की सूची में नहीं आते. इसलिए भी हिंदुस्तान को अभी लंबा सफर तय करना है, क्योंकि हमारे यहां श्रम के मामले में महिलाएं यों तो पुरुषों से कहीं ज्यादा श्रम करती हैं, लेकिन उन के श्रम को उतना पारितोष नहीं मिलता जितना पुरुषों को मिलता है.
अगर 2020 तक भारत को एक बड़ी आर्थिक ताकत बनना है तो हमें अपने देश की महिलाओं के श्रम की महत्ता को समझना होगा. लेकिन समझने से आशय महज मुंहजबानी शाबाशी देना या यह कहना कि सब कुछ तुम्हारा ही तो है, से नहीं है, बल्कि इस से आशय महिलाओं के श्रम को आर्थिक दृष्टि से बराबर का सम्मान देना है और उन्हें तमाम आर्थिक गतिविधियों का अनिवार्य व बराबर की ताकत वाला महत्त्व देना है.
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सवाल जो सर्वे में नहीं पूछे गए
यह सच है कि नैशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों से बहुत कुछ पता चलता है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि अगर इस सर्वेक्षण को सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बनाना है, तो इस में हर उस सवाल को शामिल करना जरूरी होगा जो महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को विस्तार से बयां कर सके, क्योंकि महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इस सर्वे की कई खामियां हैं और वे आमतौर पर न पूछे गए जरूरी सवालों को ले कर ही हैं.
मसलन, सर्वे में महिलाओं से इस संबंध में सवाल नहीं किया गया कि क्या वे घर से बाहर के कामकाज में शामिल होना चाहेंगी? यह प्रश्न इसलिए भी आवश्यक था, क्योंकि घर पर रह कर घरेलू काम करने वाली महिलाओं में से बहुत कम ही ऐसी होंगी जो घर के बाहर जा कर काम करते हुए वेतन लेने की इच्छुक न हों. महिलाएं इस बात से भी काफी आहत रहती हैं कि पुरुषों के मुकाबले काफी ज्यादा काम करने के बावजूद उन के काम से ठोस रूप में घर वेतन नहीं आता, इसलिए उन के काम को महत्त्व नहीं दिया जाता.
यही नहीं, न सिर्फ महिलाओं के श्रम को नकद वेतन मिलने वाले श्रम के मुकाबले कम महत्त्व दिया जाता है, बल्कि उस श्रम की सामाजिक प्रतिष्ठा भी बहुत कम है. महिलाएं इस पीड़ा से अकसर दोचार होती रहती हैं. मगर इस सर्वेक्षण में उन की इस पीड़ा को व्यक्त करने वाला कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है. इस लिहाज से भी यह सर्वेक्षण की एक बड़ी खामी है.
अधूरी तसवीर
इस सर्वेक्षण में एक और जरूरी पहलू पर महत्त्वपूर्ण राय नहीं पता चल पाई कि अगर इस सर्वेक्षण में घर पर रहने वाली महिलाओं से यह सवाल किया जाता कि उन्हें सवेतन संबंधी काम करने के लिए आखिर किस चीज की ज्यादा जरूरत है- अच्छी क्वालिफिकेशन की, शुरू से घर से बाहर काम करने की मानसिकता के तहत की जाने वाली परवरिश की, अपना काम शुरू करने के लिए नकद पैसों की, परिवार के सदस्यों के प्रोत्साहन की या महिलाओं को घर के बाहर के कामकाज को बढ़ावा देने वाली संस्कृति की? यह जानना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि सामूहिक रूप से किसी विस्तृत राय के अभाव में हम लोग महज अनुमान लगाते हैं कि महिलाएं किस बात या चीज की कमी के चलते खुद को कोल्हू के बैल माफिक मानती हैं.
इस सवाल के अभाव में हम तार्किक रूप से यह भी नहीं जान सकते कि महिलाएं क्या सोचती हैं कि जब वे घर का काम नहीं करेंगी तो फिर उन की नजर में यह काम किसे करना चाहिए? जैसे आज की स्थिति में तमाम घर के काम उन के जिम्मे हैं क्या कल वे भी इसी तरह घर के तमाम कामों को पुरुषों के सिर पर डालना चाहती हैं? या फिर पुरुषों ने भले उन के साथ बराबरी का व्यवहार न किया हो और बाहर का काम करने के बाद भी उन से घर के पूरे काम की अपेक्षा करते हों, वे प्रोफैशनल कामकाजी होने के बाद घर के काम के लिए बराबरी के बंटवारे पर भरोसा करती हैं?
यह भी जानना जरूरी था कि महिलाएं नौकरी करना ज्यादा पसंद करती हैं या अपना काम? अगर अपना काम करना पसंद करती हैं, तो इस क्षेत्र में उन्हें सब से बड़ी बाधा फिलहाल क्या लगती है? इन जरूरी सवालों के अभाव में यह सर्वेक्षण महिलाओं के कामकाज की स्थिति और उन के आर्थिक आकलन की एक तसवीर तो पेश करता है, मगर यह तसवीर कुल मिला कर अधूरी ही है.
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