अधिक खुशी से रहरह कर अनन्या की आंखें भीग जाती थीं. अब उस ने एक मुकाम पा लिया था. संभावनाओं का विशाल गगन उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पत्रकारों के जाने के बाद अनन्या उठ कर अपने कमरे में आ गई. शरीर थकावट से चूर था पर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. एक पत्रकार के प्रश्न पर पति द्वारा कहे गए शब्द कि इन की जीत का सारा श्रेय इन की मेहनत, लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है, रहरह कर उस के जेहन में कौंध जाते.
कितनी आसानी से चंद्रशेखर ने अपनी जीत का सेहरा उस के सिर बांध दिया. अगर कदमकदम पर उसे उन का साथ और सहयोग नहीं मिला होता तो वह आज विधायक नहीं गांव के एक दकियानूसी जमींदार परिवार की दबीसहमी बहू ही होती.
इस मंजिल तक पहुंचने में दोनों पतिपत्नी ने कितनी मुश्किलों का सामना किया है यह वे ही जानते हैं. जीवन की कठिनाइयों से जूझ कर ही इनसान कुछ पाता है. अपने वजूद के लिए घोर संघर्ष करने वाली अनन्या सिंह इस महत्त्वपूर्ण बात की साक्षी थी.
उस का मन रहरह कर विगत की ओर जा रहा था. तकिए पर टेक लगा कर अधलेटी अनन्या मन को अतीत की उन गलियों में जाने से रोक नहीं पाई जहां कदमकदम पर मुश्किलों के कांटे बिछे पड़े थे.
बचपन से ही अनन्या का स्वभाव भावुक और संवेदनशील था. वह सब के आकर्षण का केंद्र बन कर रहना चाहती थी. दफ्तर से घर आने पर पिता अगर एक गिलास पानी के लिए कहीं उस के छोटे भाई या बहन को आवाज दे देते तो वह मुंह फुला कर बैठ जाती. पूछो तो होंठों पर बस, एक ही जुमला होता, ‘पापा मुझ से प्यार नहीं करते.’
बातबात पर उसे सब के प्यार का प्रमाण चाहिए था. कभीकभी मां बेटी की हठ देख कर चिंतित हो उठतीं. एक बार उन्होंने अनन्या के पिता से कहा भी था, ‘अनु का स्वभाव जरा अलग ढंग का है. अगर इसे आप इतना सिर पर चढ़ाएंगे तो कल ससुराल में कैसे निबाहेगी? न जाने कैसा घरपरिवार मिलेगा इसे.’
‘तुम चिंता क्यों करती हो, समय सबकुछ सिखा देता है. हम से जिद नहीं करेगी तो किस से करेगी?’ अनु के पिता ने पत्नी को समझाते हुए कहा था.
एक दिन अनन्या के मामा ने उस के लिए चंद्रशेखर का रिश्ता सुझाया तो उस के पिता सोच में पड़ गए.
‘अभी उस की उम्र ही क्या हुई है शिव बाबू, इंटर की परीक्षा ही तो दी है. इस साल आगे पढ़ने का उसे कितना चाव है.’
‘देखिए जीजाजी, इतना अच्छा रिश्ता हाथ से मत निकलने दीजिए, पुराना जमींदार घराना है. उन का वैभव देख कर भानजी के सुख की कामना से ही मैं यह रिश्ता लाया हूं. अनन्या के लिए इस से अच्छा रिश्ता नहीं मिलेगा,’ शिवप्रकाशजी ने समझाया तो अनन्या के पिता राजी हो गए.
पहली मुलाकात में ही चंद्रशेखर और उस का परिवार उन्हें अच्छा लगा था. उन्होंने बेटी को समझाते हुए कहा था, ‘चंद्रशेखर एक नेक लड़का है, तुम्हारी इच्छाओं का वह जरूर आदर करेगा.’
शादी के बाद अनन्या दुलहन बन कर ससुराल चली आई. गांव में बड़ा सा हवेलीनुमा घर, चौड़ा आंगन, लंबेलंबे बरामदे, भरापूरा परिवार, कुल मिला कर उस के मायके से ससुराल का परिवेश बिलकुल अलग था. मायके में कोई रोकटोक नहीं थी पर ससुराल में हर घड़ी लंबा घूंघट निकाले रहना पड़ता था. आएदिन बूढ़ी सास टोक दिया करतीं, ‘बहू, घड़ीघड़ी तुम्हारे सिर से आंचल क्यों सरक जाता है? ढंग से सिर ढंकना सीखो.’
चंद्रशेखर अंतर्मुखी प्रवृत्ति का इनसान था. प्रेम के एकांत पलों में भी वह मादक शब्दों के माध्यम से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और बचपन से ही बातबात पर प्रमाण चाहने वाली अनन्या उसे अपनी अवहेलना समझने लगी थी.
पुराना जमींदार घराना होने के कारण उस की ससुराल वाले बातबात पर खानदान की दुहाई दिया करते थे और उन के गर्व की चक्की में पिस जाती साधारण परिवार से आई अनन्या. सुनसुन कर उस के कान पक गए थे.
एक दिन अनन्या ने दुखी हो कर पति से कहा, ‘आप के जाने के बाद मैं अकेली पड़ी बोर हो जाती हूं. गांव में कहीं आनेजाने और किसी के साथ खुल कर बातें करने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं समय का सदुपयोग करना चाहती हूं. आप तो जानते ही हैं कि मैं ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया है. मैं और आगे पढ़ना चाहती हूं, पर मुझे नहीं लगता यह संभव हो पाएगा. बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी, दादी मां, बाबूजी क्या मुझे आगे पढ़ने देंगे?’
चंद्रशेखर ने पत्नी की ओर गहरी नजर से देखा. पत्नी के चेहरे पर आगे पढ़ने की तीव्र लालसा को महसूस कर उस ने मन ही मन परिवार वालों से इस बारे में सलाह लेने की सोच ली.
उधर पति को चुपचाप देख कर अनन्या सोच में पड़ गई. उस के अंतर्मन की मिट्टी से पहली बार शंका की कोंपल फूटी कि यह मुझ से प्यार नहीं करते तभी तो चुप रह गए. आखिर खानदान की इज्जत का सवाल है न.
अनन्या 2-3 दिनों तक मुंह फुलाए रही. चंद्रशेखर ने भी कुछ नहीं कहा. एक दिन आवश्यक काम से चंद्रशेखर को पटना जाना पड़ा. लौटा तो चेहरे पर एक अनजानी खुशी थी.
रात का खाना खाने के बाद चंद्रशेखर भी अपने बाबूजी के साथ टहलने चला गया. थोड़ी देर में बाबूजी का तेज स्वर गूंजा, ‘शेखर की मां, देखो, तुम्हारा लाड़ला क्या कह रहा है.’
‘क्या हुआ, क्यों आसमान सिर पर उठा रखा है?’ चंद्रशेखर की मां रसोई से बाहर आती हुई बोलीं.
‘यह कहता है कि बहू आगे पढ़ने कालिज जाएगी. विश्वविद्यालय जा कर एडमिशन फार्म ले भी आया है. कमाता है न, इसलिए मुझ से पूछने की जरूरत भी क्या है?’ ससुरजी फिर भड़क उठे थे.
‘लेकिन बाबूजी, इस में गलत क्या है?’ चंद्रशेखर ने पूछा तो मां बिदक कर बोलीं, ‘तेरा दिमाग चल गया है क्या? हमारे खानदान की बहू पढ़ने कालिज जाएगी. ऐसी कौन सी कमी है महारानी को इस घर में, जो पढ़लिख कर कमाने की सोच रही है?’
‘मां, तुम क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो? यह तुम से किस ने कहा कि यह पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती है? इसे आगे पढ़ने का चाव है तो क्यों न हम इसे बी.ए. में दाखिला दिलवा दें,’ चंद्रशेखर ने कहा तो अपने कमरे में परदे के पीछे सहमी सी खड़ी अनन्या को जैसे एक सहारा मिल गया.
पास ही खड़ी बड़ी भाभी मुंह बना कर बोलीं, ‘देवरजी, हम भी तो रहते हैं इस घर में, बी.ए. करो या एम.ए., आखिरकार चूल्हाचौका ही संभालना है.’
‘छोड़ो बहू, यह नहीं मानने वाला, रोज कमानेखाने वाले परिवार की बेटी ब्याह कर लाया है. छोटे लोग, छोटी सोच,’ अनन्या की सास ने कहा और भीतर चली गईं.
दरवाजे के पास खड़ी अनन्या सन्न रह गई, छोटे लोग छोटी सोच? यह क्या कह गईं मांजी? क्या अपने भविष्य के बारे में चिंतन करना छोटी सोच है? बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी यह क्यों भूल जाती हैं कि अच्छे खानदान की जड़ में अच्छे संस्कार होते हैं और शिक्षित इनसान ही अच्छे संस्कारों को हमेशा जीवित रखने का प्रयास करते हैं.
रात बहुत बीत चुकी थी. अनन्या की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. चंद्रशेखर भी करवटें बदल रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ‘अनन्या, तुम कल सुबह फार्म भर कर मुझे दे देना. मैं ने सोच लिया है कि तुम आगे जरूर पढ़ोगी.’
अनन्या को आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई, ‘सच?’
‘हां, मैं परसों पटना जा रहा हूं, तुम्हारा फार्म भी विश्वविद्यालय में जमा करता आऊंगा.’
एक दिन चंद्रेशेखर बैंक से लौटा तो बेहद खुश था. उस ने अनन्या से कहा, ‘आज पटना से मेरे दोस्त रमेश का फोन आया था. बता रहा था कि तुम्हारा नाम प्रवेश पाने वालों की सूची में है. प्रवेश लेने की अंतिम तिथि 25 है. तुम कल से ही सामान बांधना शुरू कर दो. हमें परसों जाना है क्योंकि जल्दी पहुंच कर तुम्हारे लिए होस्टल में रहने की भी व्यवस्था करनी होगी.’
‘मैं होस्टल में रहूंगी?’ अनन्या ने पूछा, ‘घर से दूर…अकेली…क्या यहां कालिज नहीं है?’ उस ने अपने मन की बात कह ही डाली.
‘देखो, विश्वविद्यालय की बात ही अलग होती है. तुम ज्यादा सोचो मत. चलने की तैयारी करो. मैं बाबूजी को बता कर आता हूं,’ कहते हुए चंद्रशेखर बाबूजी के कमरे की ओर चला गया.
पटना आते समय अनन्या ने सासससुर के चरणस्पर्श किए तो सास ने उसे झिड़क कर कहा था, ‘जाओ बहू, बेहद कष्ट में थीं न तुम यहां…अब बाहर की दुनिया देखो और मौज करो.’
चंद्रशेखर के प्रयास से अनन्या को महिला छात्रावास में कमरा मिल गया. उसे वहां छोड़ कर आते वक्त उस ने कहा था, ‘तुम्हारे भीतर की लगन को महसूस कर के ही मैं ने अपने परिवार वालों की इच्छा के खिलाफ यह कदम उठाया है. मैं जानता हूं कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी. किसी चीज की जरूरत हो तो फोन कर देना.’
अनन्या ने धीरे से सिर हिला दिया था. होस्टल के गेट पर खड़ी हो कर वह तब तक पति को देखती रही जब तक वह नजरों से ओझल नहीं हो गए.
उस का मन यह सोच कर दुख से भर उठा था कि उन्होंने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. कितनी निष्ठुरता से छोड़ गए मुझे. इतना तो कह ही सकते थे न कि अनु, मुझे तुम्हारी कमी खलेगी, पर नहीं, सच में मुझ से प्यार हो तब न…
आंसू पोंछ कर वह अपने कमरे में चली आई. कुछ दिनों तक उस का मन खिन्न रहा पर धीरेधीरे सबकुछ भूल कर वह पढ़ाई में रम गई. तेज दिमाग अनन्या ने बी.ए. फाइनल की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए.
एम.ए. में प्रवेश लेने के बाद वह कुछ दिन की छुट्टी में घर आई थी. एक दिन चंद्रशेखर ने उस से कहा, ‘एम.ए. में तुम्हें विश्वविद्यालय में पोजीशन लानी है. उस के लिए बहुत मेहनत की जरूरत है तुम्हें.’
अनु ने सोचा, छुट्टियों में घर आई हूं तब भी वही पढ़ाई की बातें, प्रेम की मीठीमीठी बातों का मधुरिम एहसास और वह दीवानापन न जाने क्यों चंद्रशेखर के मन में है ही नहीं. जब देखो पढ़ो, कैरियर बनाओ…उन्हें मुझ से जरा भी प्यार नहीं.
‘अनु, कहां खो गईं?’ चंद्रशेखर ने कहा, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं.’
चंद्रशेखर कहता जा रहा था और अनु जैसे जड़ हो गई थी. मन में विचारों का बवंडर चल रहा था, ‘क्या यही प्यार है? न रस पगे दो मीठे बोल, न मनुहार…ज्यादा खुश हुए तो गए और हिंदी साहित्य की किताब उठा कर ले आए. स्वार्थी कहीं के…’
‘अनु, मैं तुम्हें कुछ दिखा रहा हूं,’ चंद्रशेखर ने फिर कहा तो अनन्या बनावटी हंसी हंस कर बोली, ‘हां, अच्छी किताब है.’
अनन्या ने मन ही मन एक ग्रंथि पाल ली थी कि चंद्रशेखर मुझ से प्यार नहीं करते. तभी तो अपने से दूर मुझे होस्टल भेज कर भी खुश हैं. क्या प्रणय की वह स्वाभाविक आंच जो मुझे हर समय जलाती रहती है, उन्हें तनिक भी नहीं जलाती होगी? शायद नहीं, उन्हें मुझ से प्यार हो तब न…
इन्हीं दिनों अनन्या को पता चला कि वह मां बनने वाली है. पूरा परिवार खुश था. एक दिन चंद्रशेखर ने उस को समझाते हुए कहा, ‘तुम्हें बच्चे के जन्म के बाद परीक्षा देने जरूर जाना चाहिए. साल बरबाद मत करना, बीता समय फिर लौट कर नहीं आता.’
अनन्या पति के साथ कुछ दिनों के लिए मायके आई थी. एक शाम घूमने के क्रम में वह गोलगप्पे वाले खोमचे के सामने ठिठक गई तो चंद्रशेखर ने पूछ लिया, ‘क्या हुआ?’
‘मुझे गोलगप्पे खाने हैं.’
‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं चल गया. अपना नहीं तो कम से कम बच्चे का तो खयाल करो,’ चंद्रशेखर ने गुस्से से कहा तो अनन्या पैर पटकती हुई घर चली आई.
‘आप ने एक छोटी सी बात पर मुझे इतनी बुरी तरह क्यों डांटा? एक छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते? अरमान ही रह गया कि आप कभी कोई उपहार देंगे या फिर कहीं घुमाने ले जाएंगे. मेरी खुशी से आप को क्या लेनादेना…मुझ से प्यार हो तब न. जब देखो, पढ़ो…कैरियर बनाओ, जैसे दुनिया में और कुछ है ही नहीं,’ रात में अनन्या मन की भड़ास निकालते हुए बोली.
चंद्रशेखर कुछ पलों तक अपलक पत्नी को निहारता रहा फिर संजीदा हो कर बोला, ‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम से प्यार नहीं करता, पतिपत्नी का रिश्ता तो प्रेम और समर्पण की डोरी से बंधा होता है.’
‘अपनी सारी फिलासफी अपने तक ही रखिए. मैं अच्छी तरह जानती हूं कि आप मुझ से…’ ‘हांहां, मैं तुम से प्यार नहीं करता, मुझे प्रमाण देने की जरूरत नहीं है,’ चंद्रशेखर बीच में ही अनन्या की बात काट कर बोला.
एक दिन अनन्या गुडि़या जैसी बेटी की मां बन गई. जब बच्ची 3 महीने की हो गई तब चंद्रशेखर ने पत्नी से कहा कि उसे अब एम.ए. की परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए.
‘क्या मैं 6 महीने में परीक्षा की तैयारी कर पाऊंगी? सोचती हूं इस साल ड्राप कर दूं. अभी गुडि़या छोटी है.’
पत्नी की बातों को सुन कर उसे समझाते हुए चंद्रशेखर बोला, ‘देखो, अनन्या, पढ़ाईर् एक बार सिलसिला टूट जाने के बाद फिर ढंग से नहीं हो पाती. मैं गुडि़या के बारे में मां से बात करूंगा.’
अनन्या को लगा जैसे कोई मुट्ठी में ले कर उस का दिल भींच रहा हो. इतना बड़ा फैसला ऐसे सहज ढंग से सुना दिया जैसे छोटी सी बात हो. मेरी नन्ही सी बच्ची मेरे बिना कैसे रहेगी?
अनन्या की सास ने पोती को पास रखने से साफ मना कर दिया, ‘मुझे
तो माफ ही करो तुम लोग. कैसी मां है यह जो बेटी को छोड़ कर पढ़ने जाना चाहती है.’
अनन्या ने चीख कर कहना चाहा कि यह आप के बेटे की इच्छा है, मेरी नहीं पर कह नहीं पाई. एक दिन उस के पिता का फोन आया तो उस ने सारी बातें उन्हें बताते हुए पूछा, ‘अब आप ही बताइए, पापा, मैं क्या करूं?’
‘तुम गुडि़या को हमारे पास छोड़ कर होस्टल जा सकती हो बेटी, समय सब से बड़ी पूंजी है. इसे गंवाना नहीं चाहिए. मेरे खयाल से चंद्रशेखर बाबू ठीक कहते हैं,’ उस के पिता ने कहा.
अनन्या के सिर से एक बोझ सा हट गया. दूसरे ही दिन वह होस्टल जाने की तैयारी करने लगी. नन्ही सी बेटी को मायके छोड़ कर जाते समय अनन्या का दिल रोनेरोने को हो आया था पर मन को मजबूत कर वह रिकशे पर बैठ गई.
धीरेधीरे 6 माह बीत गए. अनन्या जब भी अपनी बेटी के बारे में सोचती उस का मन पढ़ाई से उचट जाता. वह इतनी भावुक हो जाती कि आंसुओं पर उस का बस नहीं रह जाता.
कभीकभी वह खुद को समझाती हुई सोचती कि जिंदगी में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. इस तरह के सकारात्मक सोच उस के मन में नवीन उत्साह भर जाते. आखिरकार उत्साह की परिणति लगन में और लगन की परिणति कठोर परिश्रम में हो गई. नतीजा सुखदायक रहा. अनन्या ने विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में दूसरा स्थान पाया.
चंद्रशेखर ने भी खुश हो कर कहा था, ‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी अनु.’
अनन्या ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से ‘नेट’ करने के बाद उस ने हिंदी साहित्य में पीएच.डी. की उपाधि भी हासिल की.
उच्च शिक्षा ने अनन्या की सोच को बहुत बदल डाला. सहीगलत की पहचान उसे होने लगी थी. कभीकभी वह सोचती कि आज उस के पास सबकुछ है. प्यारी सी बिटिया, स्नेही पति, उच्च शिक्षा, आगे की संभावनाएं. क्या यह बिना चंद्रशेखर के सहयोग के संभव था? उस की राह की सारी मुश्किलों को चंद्रशेखर ने अपने मजबूत कंधों पर उठा रखा था. वह जान गई थी कि प्रेम शब्दों का गुलाम नहीं होता. प्रेम तो एक अनुभूति है जिसे महसूस किया जा सकता है.
अनन्या को लेक्चरर पद के लिए इंटरव्यू देने जाना था. वह तैयार हो कर बैठक में आई तो एक सुखद एहसास से भीग उठी, जब उस ने यह देखा कि चंद्रशेखर उस की मार्कशीट और प्रमाणपत्रों को फाइल में सिलसिलेवार लगा रहे थे. उसे देखते ही चंद्रशेखर ने कहा, ‘जल्दी करो, अनु, नहीं तो बस छूट जाएगी.’
असीम स्नेह से पति को निहारती हुई अनन्या ने धीरे से कहा, ‘मुझे आप से कुछ कहना है.’
‘बातें बाद में होंगी, अभी चलो.’.
‘नहीं, आप को आज मेरी बात सुननी ही होगी.’
‘तुम क्या कहोगी, मुझे पता है, वही रटारटाया वाक्य कि आप मुझ से प्यार नहीं करते,’ चंद्रशेखर व्यंग्य से हंस कर बोला तो अनन्या झेंप गई.
‘ठीक है, चलिए,’ उस ने कहा और तेजी से बाहर निकल गई. आज वह अपने पति से कहना चाहती थी कि वह अपने प्रति उन के प्यार को अब महसूस करने लगी है. पर मन की बात मन में ही रह गई.
साक्षात्कार दे कर आई अनन्या को नौकरी पाने का पूरा भरोसा था. पर उस समय वह जैसे आकाश से गिरी जब उस ने चयनित व्याख्याताओं की सूची में अपना नाम नहीं पाया. हृदय इस चोट को सहने के लिए तैयार नहीं था अत: वह फूटफूट कर रोने लगी.
पत्नी को रोता देख कर चंद्रशेखर भी संज्ञाशून्य सा खड़ा रह गया. जानता था, असफलता का आघात मौत के समान कष्ट से कम नहीं होता.
‘देखो, अनु,’ पत्नी को दिलासा देते हुए चंद्रशेखर बोला, ‘यह भ्रष्टाचार का युग है. पैरवी और पैसे के आगे आज के परिवेश में डिगरियों का कोई महत्त्व नहीं रहा. तुम दिल छोटा मत करो. एक न एक दिन तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी.’
एक दिन चंद्रशेखर ने अनन्या को समझाते हुए कहा था, ‘शिक्षा का अर्थ केवल धनोपार्जन नहीं है. हमारे समाज में आज भी शिक्षित महिलाओं की कमी है, तुम इस की अपवाद हो, यही कम है क्या?’
‘आप मुझे गलत समझ रहे हैं. मैं केवल पैसों के लिए व्याख्याता बनने की इच्छुक नहीं थी. अपनी अस्मिता की तलाश…समाज में एक ऊंचा मुकाम पाने की अभिलाषा है मुझे. मैं आम नहीं खास बनना चाहती हूं. अपने वजूद को पूरे समाज की आंखों में पाना चाहती हूं मैं.’
चंद्रशेखर पत्नी की बदलती मनोदशा से अनजान नहीं था. समझता था, अनन्या अवसाद के उन घोर दुखदायी पलों से गुजर रही है जो इनसान को तोड़ कर रख देते हैं.
एक दिन चंद्रशेखर के दोस्त रमेश ने बातों ही बातों में उसे बताया कि 4-5 महीने में ग्राम पंचायत के चुनाव होने वाले हैं और उस की पत्नी निशा जिला परिषद की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ने वाली है.
चंद्रशेखर ने कहा, ‘आज के माहौल में तो कदमकदम पर राजनीति के दांवपेच मिलते हैं. कई लोग चुनाव मैदान में उतर जाएंगे. कुछ गुंडे होंगे, कुछ जमेजमाए तथाकथित नेता. ऐसे में एक महिला का मैदान में उतरना क्या उचित है?’
‘ऐसी बात नहीं है. पंचायत चुनाव में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है. अगर सीट महिला के लिए आरक्षित हो तो प्रयास करने में क्या हर्ज है? देखना, कई पढ़ीलिखी महिलाएं इस क्षेत्र में आगे आएंगी,’ रमेश ने समझाते हुए कहा.
चंद्रशेखर के मन में एक विचार कौंधा, अगर अनन्या भी कोशिश करे तो? उस ने इस बारे में पूरी जानकारी हासिल की तो पता चला कि उस के इलाके की जिला परिषद सीट भी महिला आरक्षित है. चंद्रशेखर के मन में एक नई सोच ने अंगड़ाई ले ली थी.
‘मैं चुनाव लडूं? क्या आप नहीं जानते कि आज की राजनीति कितनी दूषित हो गई है?’ अनन्या बोली.
‘इस में हर्ज ही क्या है. वैसे भी अच्छे विचार के लोग यदि राजनीति में आएंगे तो राजनीति दूषित नहीं रहेगी. तुम अपनेआप को चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लो.’
अनन्या के मन में 2-3 दिन तक तर्कवितर्क चलता रहा. आखिरकार उस ने हामी भर दी.
यह बात जब अनन्या के ससुर ने सुनी तो वह बुरी तरह बिगड़ उठे, ‘लगता है दोनों का दिमाग खराब हो गया है. जमींदार खानदान की बहू गांवगांव, घरघर वोट के लिए घूमती फिरे, यह क्या शोभा देता है? पुरखों की इज्जत क्यों मिट्टी में मिलाने पर तुले हो तुम लोग?’
‘ऐसा कुछ नहीं होगा, बाबूजी, इसे एक कोशिश कर लेने दीजिए. जरा यह तो सोचिए कि अगर यह जीत जाती है तो क्या खानदान का नाम रोशन नहीं होगा?’ चंद्रशेखर ने भरपूर आत्मविश्वास के साथ कहा था.
चंद्रशेखर ने निश्चित तिथि के भीतर ही अनन्या का नामांकनपत्र दाखिल कर दिया. फिर शुरू हुई एक नई जंग.
अनन्या ने आम उम्मीदवारों से अलग हट कर अपना प्रचार अभियान शुरू किया. वह गांव की भोलीभाली अनपढ़ जनता को जिला परिषद और उस से जुड़ी जन कल्याण की तमाम बातों को विस्तार से समझाती थी. धीरेधीरे लोग उस से प्रभावित होने लगे. उन्हें महसूस होने लगा कि जमींदार की बहू में सामंतवादी विचारधारा लेशमात्र भी नहीं है. वह जितने स्नेह से एक उच्च जाति के व्यक्ति से मिलती है उतने ही स्नेह से अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों से भी मिलती है. और उस का व्यवहार भी आम नेताओं जैसा नहीं है.
धीरेधीरे उस की मेहनत रंग लाने लगी. 50 हजार की आबादी वाले पूरे इलाके में अनन्या की चर्चा जोरों पर थी.
मतगणना के दिन ब्लाक कार्यालय के बाहर हजारों की भीड़ जमा थी. आखिरकार 2 हजार वोटों से अनन्या की जीत हुई. उस की जीत ने पूरे समाज को दिखा दिया था कि आज भी जनता ऊंचनीच, जातिपांति, धर्म- समुदाय और अमीरीगरीबी से ऊपर उठ कर योग्य उम्मीदवार का चयन करती है. बड़ी जाति के लोगों की संख्या इलाके में कम होने पर भी हर जाति और धर्म के लोगों से मिले अपार समर्थन ने अनन्या को जीत का सेहरा पहना दिया था.
घर लौट कर अनन्या ने ससुर के चरणस्पर्श किए तो पहली बार उन्होंने कहा, ‘खुश रहो, बहू.’
अनन्या आंतरिक खुशी से अभिभूत हो उठी. उसे लगा, वास्तव में उस की जीत तो इसी पल दर्ज हुई है.
उस ने फिर कभी मुड़ कर पीछे नहीं देखा. हमकदम के रूप में चंद्रशेखर जो हर पल उस के साथ थे. 3 साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी वह भारी बहुमत से विजयी हुई. उस का रोमरोम पति के सहयोग का आभारी था. अगर वह हर मोड़ पर उस का साथ न देते तो आज भी वह अवसाद के घने अंधेरे में डूबी जिंदगी को एक बोझ की तरह जी रही होती.
‘‘खट…’’ तभी कमरे का दरवाजा खुला और अनन्या की सोच पर विराम लग गया. चंद्रशेखर ने भीतर आते हुए पूछा, ‘‘तुम अभी तक सोई नहीं?’’
‘‘आप कहां रह गए थे?’’
‘‘कुछ लोग बाहर बैठे थे. उन्हीं से बातें कर रहा था. तुम से मिलना चाहते थे तो मैं ने कह दिया कि मैडम कल मिलेंगी,’’ चंद्रशेखर ने ‘मैडम’ शब्द पर जोर डाल कर हंसते हुए कहा.
भावुक हो कर अनन्या ने पूछा, ‘‘अगर आप का साथ नहीं मिलता तो क्या आज मैं इस मुकाम पर होती? फिर क्यों आप ने सारा श्रेय मेरी लगन और मेहनत को दे दिया?’’
‘‘तो मैं ने गलत क्या कहा? अगर हर इनसान में तुम्हारी तरह सच्ची लगन हो तो रास्ते खुद ही मंजिल बन जाते हैं. हां, एक बात और कि तुम इसे अपना मुकाम मत समझो. तुम्हारी मंजिल अभी दूर है. जिस दिन तुम सांसद बन कर संसद में जाओगी और इस घर के दरवाजे पर एक बड़ी सी नेमप्लेट लगेगी…डा. अनन्या सिंह, सांसद लोकसभा…उस दिन मेरा सपना सार्थक होगा,’’ चंद्रशेखर ने कहा तो अनन्या की आंखें खुशी से छलक पड़ीं.
‘‘हर औरत को आप की तरह प्यार करने वाला पति मिले.’’
‘‘अच्छा, इस का मतलब तो यह हुआ कि तुम अब मुझ पर यह आरोप नहीं लगाओगी कि मैं तुम से प्यार नहीं करता.’’
‘‘नहीं, कभी नहीं,’’ अनन्या पति के कंधे पर सिर टिका कर असीम स्नेह से बोली.
‘‘तो तुम अब यह पूरी तरह मान चुकी हो कि मैं तुम से सच्चा प्यार करता हूं,’’ चंद्रशेखर ने मुसकरा कर कहा तो अनन्या भी हंस कर बोल पड़ी, ‘‘हां, मैं समझ चुकी हूं, प्यार की परिभाषा बहुत गूढ़ है. कई रूप होते हैं प्रेम के,
कई रंग होते हैं प्यार करने वालों के, पर सच्चे प्रेमी तो वही होते हैं जो जीवन साथी की तरक्की के रास्ते में अपने अहं का पत्थर नहीं आने देते, ठीक आप
की तरह.’’
एक स्वर्णिम भोर की प्रतीक्षा में रात ढलने को बेताब थी. कुछ क्षणों में पूर्व दिशा में सूर्य की किरणें अपना प्रकाश फैलाने को उदित हो उठीं.