अब तो प्रकृति के साथ जीना पड़ेगा

अब एक सवाल हरेक के मन में उठने लगा है कि लौकडाउन को हटाने के बाद क्या होगा? क्या दुनिया लौकडाउन से पहले की तरह पटरी पर आ जाएगी और यह ?कोरोना वायरस एक बुरे सपने की तरह दिमाग के किसी कोने में बैठा रहेगा जो आज के बाद पैदा होने वाले बच्चों को बताने के काम आएगा या उस का दूरगामी असर होगा?

इस का असर होगा. यह असर भारत में हुई नोटबंदी में दिखा. यह असर इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता हटाने के बाद दिखा. यह असर उस से पहले मिखाइल गोरवाचोव के सोवियत यूनियन में आए सुधारों के प्रयासों में दिखा. छोटे कदमों का असर गहरा पड़ा.भारत में नोटबंदी से कोरोना से पहले टी उद्योग व व्यापार कराह रहे थे.

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नोटबंदी में लाइनें सिर्फ 2 माह तक लगीं और इन दोनों महीनों में लगभग सारे पुराने नोट बैंकों में चले गए थे पर देशभर का खुदरा नक्दी पर चलने वाला व्यापार वापस नहीं लौटा. व्यापारियों के पास बचा सारा पैसा या तो बैंकों में फंस गया या नोट बदलने के लिए दी गई कमीशनों में लग गया. नतीजा यह था जहां 2012 में घरेलू बचत आमदनी की 34.6% हुआ करती थी, नोटबंदी के बाद 30% रह गई. यह 4.6% का अंतर बड़ा है और इसी कमी के कारण बैंकों का व्यापार ठप्प हुआ.अब लौकडाउन के कारण 2-3 महीने कोई नया उत्पादन नहीं होगा, वेतन नहीं मिलेगा, महीनों तक कच्चा माल फैक्टरियों तक नहीं पहुंचेगा.

घरों को कम में काम चलाना होगा जैसे आज लौकडाउन के दिनों में चलाना पड़ रहा.शहरों से लाखों मजदूर अपने गांवों की ओर चल पड़े हैं. बीच में स्वास्थ्य कारणों से उन्हें रोक भी लिया गया तो लौकडाउन के बाद वे हो सकता है शहरों में न लौटें. शहरी लाइफस्टाइल बदल सकता है, क्योंकि घरेलू हैल्प अब शायद मिले ही नहीं.अभी महीनों तक भीड़ को कम करने की कोशिश करनी होगी, क्योंकि कोरोना वायरस कोविड-19 अभी मरा नहीं है, उस की वैक्सिन नहीं बनी है, बस उसे एक से दूसरे तक जाने भर रोका गया है. इस का मतलब है कि बहुत से व्यापार बंद हो जाएंगे और उन से जुड़े घरों के सामने नई चुनौतियां खड़ी हो जाएंगी.

किस घर पर गाज गिरेगी अभी पता नहीं और न ही अंदाजा लगाया जा सकता है पर कुछ फर्क जरूर पड़ेगा.कुछ अच्छे प्रभाव भी पड़ सकते हैं. हो सकता है लोग एक छत के नीचे रहने वालों के साथ ही सुखी रहने के नए फौर्मूले सीख लें. जो लोग अपने ही घरों के सदस्यों से कटे रहते थे, नए तरह के संबंध जीना सीख लें. हो सकता है कि बहुमंजिले मकानों में रहने वाले एकदूसरे को जानने लगें, जो उन्हें अब तक अनजाने ही लगते थे. कितने ही मकानों में आपसी लेनदेन बालकनियों से होने लगा है जिन में पहले सिर्फ रस्मी हैलोहाय होती थी.

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इन दिनों सारे शहरों की हवा एकदम साफ हो गई है. हो सकता है कि अब उस की कीमत पता चल जाए. प्रकृति के साथ जीने के नए गुर सीख जाएं. 40 या ज्यादा दिन का यह एकांतवास परिवारों को बहुत कुछ सिखा सकता है. आधुनिक चमकदमक के खिलाफ ऐसा संदेश दे सकता है जो बड़ेबड़े विज्ञापनों से नहीं मिला और न दिखने वाले पर बेहद ढीठ विषाणु ने दे दिया. किताबों की बातों कोन मानने वालों को एक नया गुरू मिला है और लौकडाउन के बाद भी वह यहीं कहीं रहेगा, छिपा हुआ, कभी भी फटकार लगाने के लिए आने को तैयार.

 

ज्यादा आफत के दिन तो अब शुरू होंगे

लौकडाउन के बाद देश पर बड़ी आफत आ सकती है. पहले से ही लड़खड़ाते बाजारों, व्यापारों, उद्योगों, बैंकों को 40 दिन बंद रहने के बाद घरघर तक पैसा पहुंचाना बहुत मुश्किल होगा. इन दिनों जो उत्पादन बंद हुआ वह तो एक बात है, इस से बड़ी बात यह है कि सप्लाई चेन टूट गई है.

उद्योगों में मशीनें बंद रहीं और जब खुलेंगी तो कई दिन तो साफसफाई और मरम्मत में चले जाएंगे. उस के बाद कच्चा माल आना शुरू होगा. जब तक गोदामों में है कुछ काम चलेगा पर उस के बाद उस की पूर्ति हो पाएगी मुश्किल लगता है.अंदाजा है कि लाखों नहीं करोड़ों की नौकरियां जा सकती हैं. हम जब नौकरी का नाम लेते हैं, लगता है कि कोई चीज पक्की है, आप की है पर यह केवल सरकारी नौकरियों के साथ है. देश के 3 करोड़ लोग ही सरकारी या अर्धसरकारी नौकरी करते हैं.

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इस के अलावा सब की नौकरी उस कंपनी के जिंदा रहने पर निर्भर है जिस में वे काम कर रहे हैं. 40 दिन काम पर न जाने के कारण जो उत्पादन को हानि हुई उस से करोड़ों की आय बंद हो जाएगी. अभी तक तो घरों की बचत से काम चला लिया है पर बाद में हरेक बचा भुगतान करना होगा, स्कूलों की फीस देनी होगी, किराया देना होगा, ब्याज देना होगा, बिजली का बिल भरना होगा, पानी का बिल देना होगा. ये सब खर्च एकसाथ आएंगे और आमदनी होगी नहीं.

हर घरवाली के लिए लौकडाउन खुलने के बाद बुरे दिन शुरू होंगे जब पुराने खर्चे वहीं के वहीं रहेंगे और नए अपना सिर उठाने लगेंगे. ऊपर से आमदनी का भरोसा नहीं होगा. व्यापारों को हुए नुकसान का खमियाजा हर घर को उठाना होगा. सरकारी नौकरियों में भी ऊपरी कमाई कम हो जाएगी, लोगों के पास पैसा होगा ही नहीं.इस का उपाय है.

सरकार नोट छाप कर उद्योगों और व्यापारों को आर्थिक सहायता दे कर उत्पादन बदल सकती है और मांग पैदा कर सकती है. घरवालियों के हाथों में पैसा आए इस के लिए सरकार नए नोट छाप कर इस लौकडाउन के दौरान हुए नुकसान को पूरा कर सकती है. इस से महंगाई बढ़ेगी पर मांग भी बढ़ेगी.भारत सरकार फिलहाल अपना निकम्मापन दिखाने के लिए जनता पर सीधे या परोक्ष रूप से टैक्स लगा रही है.

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कच्चे तेल के दाम कम हो गए हैं पर जनता को लाभ नहीं दे रही, क्योंकि सरकार को पैसे की सख्त जरूरत है. उसे यह चिंता नहीं कि आम घरवाली अपना बजट पूरा कैसे करेगी.कठिनाई यह है कि सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है कि एक आम घर सरकार की आर्थिक नीतियों से बुरी तरह कैसे आहत हो रहा है. उद्योग व्यापारों का टैंपरेचर तो स्टौक मार्केट से पता चल जाता है पर घरेलू टैंपरेचर केवल घर वालों को सहना पड़ा है. सरकार ऐसे समय धर्म या देशभक्ति के मुद्दों के झुनझुने पकड़ाती है ताकि रोते बच्चे चुप हो जाएं.

क्या पूरा देश एक लावे पर बैठा है

बेकारी और आर्थिक कठिनाइयों में परिवारों का क्या होगा इस पर सोचने का समय अभी शायद न हो पर यह समझ लें कि पूरा देश एक लावे पर बैठा है, जिस में भयंकर भूख, बेकारी, बिगड़ती अर्थव्यवस्था के साथसाथ टूटतेबिखरते परिवार भी होंगे. यह समस्या आज लौकडाउन की वजह से बीमारों और मरने वालों के मोटे होते कारपैटों के नीचे छिपी है पर समाज का निस्संदेह दीमक की तरह खा रही है.

आज हजारों परिवार ऐसे हैं, जिन में पति कहीं है, पत्नी कहीं है. इन में बच्चों वाले भी हैं, बिना बच्चों वाले भी. पति की कमाई का ठिकाना नहीं तो पत्नी और बच्चों को कैसे पालेगा, इस का भरोसा नहीं. यह गुस्सा चीन से आए कोरोना पर उतारना चाहिए पर उतरेगा पति पर. हर पत्नी यह मान कर चलती है कि उस की जिम्मेदारी पति की है.

हर पतिपत्नी जो एक छत के नीचे रह रहे हैं या दूरदूर हैं, बेहद तनाव में हैं. सामाजिक मेलजोल के खत्म होने, बोरियत होने, एक सा खाना 3 बार खाने से जो भड़ास पैदा हो रही है, वह एकदूसरे पर उतर रही है, अगर आज साथ रह रहे हैं तो तब उभरेगी, जब भी और मिलेंगे.

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यह न सोचें कि इन में गरीब मजदूर ही हैं जो बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के गांवों से बड़े शहरों में आए थे. इन में वे भी हैं जो अच्छे वेतन की खातिर देश या विदेश में फंसे हैं और सिवा फोनों के बात नहीं कर सकते. जो लोग कुछ दिन के लिए गए थे और लौकडाउन के थोड़े दिन पहले ही गए थे और भी ज्यादा तनाव में होंगे.

मनोवैज्ञानिक डा. डोन्नर वापटीस्टे जो नौर्थवैस्ट यूनिवर्सिटी में क्लीनिकल मनोविज्ञान पढ़ाती हैं, कहती हैं कि जबरन अलग होना भावनात्मक असुरक्षा और भविष्य के प्रति भ्रम पैदा कर देता है. इस में एकदूसरे पर विश्वास कम हो जाता है. प्यार की जगह धोखे का डर बस जाता है. यह तड़प अकसर उन जोड़ों में देखी जाती है, जिन्हें सेना की नौकरी, दूसरे देश में वीसा की कठिनाइयों के कारण अलगाव झेलना पड़ता है. सैक्स का अभाव एक अलग गुस्सा पैदा करता है.

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जो जोड़े साथ रहते हैं और बहुत ज्यादा सैक्स करने लगते हैं कि समय बिताना है, उन में तो सैक्स के प्रति वैसी ही वितृष्णा पैदा हो जाती है जैसी वेश्याओं में होती है जो किसी सैक्स संबंध का आनंद नहीं ले पातीं.

इस की वजह चाहे सरकार न हो पर जनता को भुगतना होगा. मध्य आयु के जोड़े तो इस तनाव को झेल जाएंगे पर युवा जोड़ों में 6 माह बाद तलाक की मांग होने लगे तो आश्चर्य न करें.

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