‘सिनेमा समाज का आईना होता है’ ये एक प्रचलित कहावत है. अधिकतर फिल्मों में हिरोइन का अस्तित्व हीरो की वजह से होता है. यही सच्चाई है हमारे समाज की. पुरुष प्रधान इस समाज में महिलाओं के अस्तित्व को पुरुष ये इतर सोचा नहीं जाता. पर समय के साथ समाज बदला और फिल्में भी बदली. सही मायनो में कहे तो अब फिल्में समाज को राह दिखा रही हैं. समाज और फिल्मों का ये बदला हुआ ट्रेंड आज का नहीं है. इसकी शुरुआत को एक लंबा अरसा हो चुका है.
आज महिलाओं की जो बेहतर स्थिति है उसमें हमारी फिल्मों का भी अहम रोल है. कुछ फिल्मों के सहारे हम आपको ये बताने की कोशिश करेंगे कि कैसे फिल्मों के बदलते संदेश, स्वरूप ने महिलाओं की स्थिति में बदलाव लाया. कैसे दशकों पुरानी फिल्मों के असर को आज समाज के बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है.
तो आइए जाने उन 10 बड़ी फिल्मों के बारे में जिन्होंने महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया ही बदल दिया.
मदर इंडिया
आजादी से ठीक 10 साल बाद 1957 में आई इस फिल्म ने देश की दशा को दुनिया के सामने ला दिया. फिल्म को औस्कर में नामांकन मिला. महमूद के निर्देशन में बनी इस फिल्म में नरगिस, राज कुमार, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार ने मुख्य किरदार निभाया. पर फिल्म की कहानी नरगिस के इर्दगिर्द घूमती रही. उनके उस किरदार ने महिला शक्ति को एक अलग ढंग से दुनिया के सामने परोसा. जिस दौर में महिला सशक्तिकरण की बहस तक मुख्यधारा में नहीं थी, उस बीच ऐसी फिल्म का बनना एक दूरदर्शी कदम समझा जा सकता है.
बैंडिट क्वीन
1994 में शेखर कपूर ने निर्देश में बनी ये फिल्म अपने वक्त की सबसे विवादित फिल्म थी. डाकू फूलन देवी के जीवन पर बनी इस फिल्म ने गरीबी, शोषण, महिलाओं की दयनीय स्थिति, जातिवादी व्यवस्था का भद्दा रूप सबके सामने लाया. फिल्म में फूलन देवी के डाकू वाली छवि से इतर, पितृसत्तात्मक समाज से लड़ाई लड़ने वाली एक लड़ाके के रूप में दिखाया गया. फिल्म ने लंबे समय से चले आ रहे महिला उत्थान, समाजिक सुधार के बहस को और गर्मा दिया. दुनिया के सामने भारतीय ग्रामीण महिलाओं की एक सच्ची छवि रख दी. फिल्म का जबरदस्त विरोध हुआ.
मैरी कौम
दुनियाभर में बौक्सिंग में देश का नाम रौशन करने वाली बौक्सर मैरी कौम लड़कियों के लिए किसी रोल मौडल कम नहीं हैं. 2014 में उनके संघर्ष, लड़ाई, मेहनत को बड़े पर्दे पर लाया निर्देशक ओमंग कुमार ने. फिल्म का बौक्स औफिस पर ठीकठाक प्रदर्शन रहा पर इसके संदेश ने महिलाओं की लड़ाई का एक चेहरा समाज के सामने लाया. फिल्म ने दिखाया कि अगर आपके पास जज्बा है, अगर आप जुनूनी हैं तो आपको आपकी मंजिल तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता. महिला सश्क्तिकरण का मैरी कौम एक बेहतरीन उदाहरण हैं.
राजी
2018 में आई इस फिल्म को स्पाई और इंटेलिजेंसी वाली फिक्शन फिल्मों से पुरुषों के एकाधिकार को खत्म करने वाली कुछ फिल्मों के तौर पर देखा जा सकता है. फिल्म में आलिया भट्ट के किरदार की खूब तारीफ हुई. फिल्म में विकी कैशल के बावजूद लीड रोल में आलिया रहीं, इसके बाद भी फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया. ये दिखाता है कि वक्त बदल रहा है हीरो के बिना भी फिल्मों को स्वीकारा जाता है.
क्वीन
हाल के कुछ वर्षों में महिला सशक्तिकरण के लिए क्वीन से बेहतर कोई फिल्म नहीं बनी. ऐसा बोल कर हम बाकी फिल्मों को नकार नहीं रहे. बल्कि हमारे ये कहने के पीछे एक कारण है जो आगे आपको समझ आएगा.
इस फिल्म में कंगना एक बेहद साधारण सी शहरी लड़की के किरदार में थी. किरदार ऐसा कि एक बड़ी आबादी इसे खुद से जोड़ सके. किसी भी फिल्म के लिए इससे बड़ी बात कुछ नहीं हो सकती कि वो एक बड़ी आबादी से जुड़ जाए. ‘पुरुष के बिना महिला का जीवन संभव नहीं’ इस बात पर एक तंमाचा है ये फिल्म. मिडिल क्लास लड़की जिसकी कोई कहानी नहीं होती, वो भी कैसे अपनी कहानी कह सकती है, इस फिल्म ने बताया. देश में महिला सशक्तिकरण पर बनी फिल्मों की लिस्ट क्वीन के बिना अधूरी है.
वाटर
रूढ़ीयां, कुरीतियां, धार्मिक जंजाल, पर एक करारा तमाचा है वाटर. फिल्म को बैन कर दिया गया था. इसका कंटेंट इसना सच्चा था कि समाज इसको अपनाने को तैयार ना हो सका. फिल्म ने दो मुद्दे प्रमुख रहें. एक बाल विवाह और दूसरा विधवाओं का जीवन. कैसे समाजिक कुरीतियां एक विधवा से खुश रहने की सारी वजहों को छीन लेता है, फिल्म में जबरदस्त अंदाज में दिखाया गया है.
पिंक
मौडर्न लाइफस्टाइल में, खास कर के मेट्रो शहरों में महिलाओं की क्या स्थिति है. फिल्म में दिखाया गया कि कैसे तथाकथित मौडर्न सोसाइटी आज भी महिलाओं को केवल एक भोग की वस्तु के रूप में देखती है. इस फिल्म के माध्यम से महिलाओं के प्रति समाज की नजर, रवैये, धारणाएं, पूर्वानुमान आदि चीजों को एक सलीके से बड़े पर्दे पर उतारा गया.
इंगलिश विंगलिश
श्रीदेवी की कुछ बेहतरीन फिल्मों में से एक है इंगलिश विंग्लिश. लेट एज अफेयर जैसे महत्वपूर्ण बिंदू को भी फिल्म में जगह दी गई. फिल्म से बच्चों का अपने मां बाप के प्रति नजरिए को भी प्रमुखता से दिखाया गया.
मौम
श्रीदेवी की फिल्म मौम एक सौतेली बेटी और मां के बीच की कहानी है. अपनी बेटी का रेप हो जाने के बाद कैसे एक मां आरोपी को सजा दिलाने के लिए कुछ भी कर सकती है फिल्म में बखूबी ढंग से दिखाया गया. समाज में महिलाओं के कमजोर छवि को दूर करने में फिल्म अहम योगदान निभाती है.
बेगम जान
बेगम जान बंगाली फिल्म ‘राजकहिनी’ का हिंदी रीमेक है. फिल्म में विद्या बालन एक तवाफ के किरदार में हैं. फिल्म में औरतों के आत्मसम्मान की लड़ाई को बेहतरीन अंदाज में दिखाया गया है.
पीरियड्स: एंड औफ सेंटेंस
इसी साल आई इस डौक्यूमेंट्री फिल्म ने दुनिया को हौरान कर दिया. 26 मिनट की इस डौक्यूमेंट्री ने हरियाणा के एक छोटे से गांव के हालात को पर्दे पर बयां कर औस्कर में ‘बेस्ट डौक्यूमेंट्री औवर्ड’ अपने नाम किया. पीरियड को ले कर लोगों के मन में जो धारणा है उसपर ये फिल्म एक व्यंग है. महिलाओं की सुधरती स्थिति और जागरुकता के तमाम दावों को धता बताते हुए फिल्म ने समाज की नंगी तस्वीर सामने लाई. ये फिल्म भारतीय नहीं है. चूंकि इसकी पृष्ठभूमि भारतीय है, हमने इसे अपनी लिस्ट में जगह दी.