मुक्ति : मां के मनोभावों से अनभिज्ञ नहीं था सुनील

टनटनटन मोबाइल की घंटी बजी और सुनील के फोन उठाने के पहले ही बंद भी हो गई. लगता है यह फोन भारत से आया होगा. भारत क्या, रांची से, शिवानी का. शिवानी, वह मुंहबोली भांजी, जिस के यहां वह अपनी मां को अमेरिका से ले जा कर छोड़ आया था. वहां से आए फोन के साथ ऐसा ही होता रहता है. घंटी बजती है और बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद फिर घंटी बज उठती है.

सुनील मोबाइल पर घंटी के फिर से बजने की प्रतीक्षा करने लगा है. इस के साथ ही उस के मन में एक दहशत सी पैदा हो जाती है. न जाने क्या खबर होगी? फोन तो रांची से ही आया होगा. बात यह थी कि उस की 90 वर्षीया मां गिर गई थीं और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. सुनील को पता था कि मां इस चोट से उबर नहीं पाएंगी, इलाज पर चाहे कितना भी खर्च क्यों न किया जाए और पैसा वसूलने के लिए हड्डी वाले डाक्टर कितनी भी दिलासा क्यों न दिलाएं. मां के सुकून के लिए और खासकर दुनिया व समाज को दिखाने के लिए भी इलाज तो कराना ही था, वह भी विदेश में काम कर के डौलर कमाने वाले इकलौते पुत्र की हैसियत के मुताबिक.

वैसे उस की पत्नी चेतावनी दे चुकी थी कि इस तरह हम अपने पैसे बरबाद ही कर रहे हैं. मां की बीमारी के नाम पर जितने भी पैसे वहां भेजे जा रहे हैं उन सब का क्या हो रहा है, इस का लेखाजोखा तो है नहीं? शिवानी का घर जरूर भर रहा है. आएदिन पैसे की मांग रखी जाती है. हालांकि यह सब को पता था कि इस उम्र में गिर कर कमर तोड़ लेना और बिस्तर पकड़ लेना मौत को बुलावा ही देना था.

शिवानी ने सुनील की मां की देखभाल के नाम पर दिनरात के लिए एक नर्स रख ली थी और उन्हीं के नाम पर घर में काफी सुविधाएं भी इकट्ठी कर ली थीं, फर्नीचर से ले कर फ्रिज, टीवी और एयरकंडीशनर तक. डाक्टर, दवा, फिजियोथेरैपिस्ट और बारबार टैक्सी पर अस्पताल का चक्कर लगाना तो जायज बात थी.

सुनील की पत्नी को इन सब दिखावे से चिढ़ थी. वह कहती  थी कि एक गाड़ी की मांग रह गई है, वह भी शिवानी मां के जिंदा रहते पूरा कर ही लेगी. कमर टूटने के बाद हवाखोरी के लिए मां के नाम पर गाड़ी तो चाहिए ही थी. सुनील चुप रह जाता. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता था कि शिवानी की मांगें बढ़ी हुई लगती थीं किंतु उन्हें नाजायज नहीं कहा जा सकता था.

शिवानी अपनी हैसियत के मुताबिक जो भी करती वह उस की मां के लिए काफी नहीं होता. मां के लिए गांवों में चलने वाली खाटें तो नहीं चल सकती थीं, घर में सीमित रहने पर मन बहलाने के लिए टीवी रखना जरूरी था, फिर वहां की गरमी से बचनेबचाने को एक एनआरआई की मां के लिए फ्रिज और एसी को फुजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता था.

अब यह कहां तक संभव या उचित था कि जब ये चीजें मां के नाम पर आई हों तो घर का दूसरा व्यक्ति उन का उपयोग ही न करे? पैसा बचा कर अगर शिवानी ने एक के बदले 2 एसी खरीद लिए तो इस के लिए उसे कुसूरवार क्यों ठहराया जाए? फ्रिज भी बड़ा लिया गया तो क्या हुआ, क्या मां भर का खाना रखने के लिए ही फ्रिज लेना चाहिए था?

आखिर मां की जो सेवा करता है उसे भी इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए थी. पर उस की पत्नी को यह सब गलत लगता था. सामान तो आ ही गया था, अब यह बात थोड़े थी कि मां के मरने के बाद कोई उन सब को उस से वापस मांगने जाता?

सुनील के मन के किसी कोने में यह भाव चोर की तरह छिपा था कि यह फोन शिवानी का न हो तो अच्छा है, क्योंकि वहां से फोन आने का मतलब था किसी न किसी नई समस्या का उठ खड़ा होना. साथ ही, हर बार शिवानी से बात कर के उसे अपने में एक छोटापन महसूस हुआ करता था.

अपनी बात के लहजे से वह उसे बराबर महसूस कराती रहती थी कि वह अपनी मां के प्रति अपने कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं कर रहा. केवल पैसा भेज देने से ही वह अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था, भारतीय संस्कृति में पैसा ही सबकुछ नहीं होता, उस की उपस्थिति ही अधिक कारगर हो सकती थी. और यहीं पर सुनील का अपराधबोध हृदय के अंतराल में एक और गांठ की परत बना देता. इस से वह बचना चाहता था और शायद यही वह मर्मस्थल भी था जिसे शिवानी बारबार कुरेदती रहती थी.

शिवानी का कहना था कि उसे तथा उस के पति को डाक्टर डांट कर भगा देते थे, जबकि सुनील की बात वे सुनते थे. सुनील का नाम तथा उस का पता जान कर ही लोग ज्यादा प्रभावित होते थे, न कि मात्र पैसा देने से. आजकल भारत में भी पैसे देने वाले कितने हैं, पर क्या अस्पताल के अधिकारी उन लोगों की बात सुनते भी हैं? सुनील फोन पर ही उन लोगों से जितनी बात कर लेता था वही वहां के अधिकारियों पर बहुत प्रभाव डाल देती थी.

इस के अतिरिक्त उस का खुद का भारत आना अधिक माने रखता था, मां की तसल्ली के लिए ही सही. थोड़ी हरारत भी आने पर मां सुनील का ही नाम जपना शुरू कर देती थीं.

शिवानी को लगता कि वह अपना शरीर खटा कर दिनरात उन की सेवा करती रहती है, जबकि उसे पैसे के लालच में काम करने वाली में शुमार कर के मां ही नहीं, परोक्ष रूप से सुनील भी उस के प्रति बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. यह खीझ शिवानी मां पर ही नहीं, बल्कि किसी न किसी तरह सुनील पर भी उतार लेती थी.

कुछ ही महीने पहले की बात थी. जिस दिन मां की कमर की हड्डी टूटी थी, अस्पताल में जब तक इमरजैंसी में मां को छोड़ कर शिवानी और उस के पति डाक्टर के लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे कि फोन पर इस दुर्घटना की खबर मिलने पर सुनील ने अमेरिका में बैठेबैठे न जाने किसकिस डाक्टर के फोन नंबर का ही पता नहीं लगा लिया बल्कि डाक्टर को तुरंत मां के पास भेज भी दिया. ऐसा क्या वहां किसी अन्य के किए पर हो सकता था?

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं.

सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं.

‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’

सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’

‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’

‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’

‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’

‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला.

‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’

‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’

‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’

शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को  अपने साथ अमेरिका में नहीं रख  सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.

चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’

‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’

‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्हीं रह गए हो, बेटा.’

सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’

सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

वैसे वह रिटायर हो चुका था. यह नहीं कि इस बीच वह भारत गया ही नहीं. हर वर्ष वह भारत जाता रहा था किंतु कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की जहमत उठाता. कभी अपने काम से तो कभी पत्नी को भारतभ्रमण कराने के चलते. किंतु रांची जाने में जितनी तकलीफ उठानी पड़ती थी, उस के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता था. मां को या शिवानी को पता भी नहीं चल पाता कि वह इस बीच कभी भारत आया भी है.

अमेरिका से फोन करकर वह यह बताता रहता कि अभी वह बहुत व्यस्त है, छुट्टी मिलते ही मां से मिलने जरूर आएगा. और मन को हलका करने के लिए वह कुछ अधिक डौलर भेज देता केवल मां के ही लिए नहीं, शिवानी के बच्चों के लिए या खुद शिवानी और उस के पति के लिए भी. तब शिवानी संक्षेप में अपना आभार प्रकट करते हुए फोन पर कह देती कि वह उस की व्यस्तता को समझ सकती है. पता नहीं शिवानी के उस कथन में उसे क्या मिलता कि वह उस में आभार कम और व्यंग्य अधिक पाता था.

सुनील के अमेरिका जाने के बाद से उस की मां उस की बहन यानी अपनी बेटी सुषमा के पास वर्षों रहीं. सुनील के पिता पहले ही मर चुके थे. इस बीच सुनील अमेरिका में खुद को व्यवस्थित करने में लगा रहा. संघर्ष का समय खत्म हो जाने के बाद उस ने मां को अमेरिका नहीं बुलाया.

बहन तथा बहनोई ने बारबार लिखा कि आप मां को अपने साथ ले जाइए पर सुनील इस के लिए कभी तैयार नहीं हुआ. उस के सामने 2 मुख्य बहाने थे, एक तो यह कि मां का वहां के समाज में मन नहीं लगेगा जैसा कि वहां अन्य बुजुर्ग व रिटायर्ड लोगों के साथ होता है और दूसरे, वहां इन की दवा या इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिल सकती. हालांकि वह इस बात को दबा गया कि इस बीच वह उन के भारत रहतेरहते भी उन्हें ग्रीनकार्ड दिला सकता था और अमेरिका पहुंचने पर उन्हें सरकारी मदद भी मिल सकती थी.

एक बार जब वह सुषमा की बीमारी पर भारत आया तो बहन ने ही रोरो कर बताया कि मां के व्यवहार से उन के पति ही नहीं, उस के बच्चे भी तंग रहते हैं. अपनी बात यदि वह बेटी होने के कारण छोड़ भी दे तो भी वह उन लोगों की खातिर मां को अपने साथ नहीं रख सकती. दूसरी ओर मां का यह दृढ़ निश्चय था कि जब तक सुषमा ठीक नहीं  हो जाती तब तक वे उसे छोड़ नहीं सकतीं.

सुनील ने अपने स्वार्थवश मां की हां में हां मिलाई. सुषमा कैंसर से पीडि़त थी. कभी भी उस का बुलावा आ सकता था. सुनील को उस स्थिति के लिए अपने को तैयार करना था.

सुषमा की मृत्यु पर सुनील भारत नहीं आ सका पर उस ने मां को जरूर अमेरिका बुलवा लिया अपने किसी संबंधी के साथ. अमेरिका में मां को सबकुछ बहुत बदलाबदला सा लगा. उन की निर्भरता बहुत बढ़ गई. बिना गाड़ी के कहीं जाया नहीं जा सकता था और गाड़ी उन का बेटा यानी सुनील चलाता था या बहू. घर में बंद, कोई सामाजिक प्राणी नहीं. बेटे को अपने काम के अलावा इधरउधर आनेजाने व काम करने की व्यस्तता लगी रहती थी. बहू पर घर के काम की जिम्मेदारी अधिक थी. यहां कोई कामवाली तो आती नहीं थी, घर की सफाई से ले कर बाहर के भी काम बहू संभालती थी.

मां के लिए परेशानी की बात यह थी कि सुनील को कभीकभी घर के काम में अपनी पत्नी की सहायता करनी पड़ती थी. घर का मर्द घर में इस तरह काम करे, घर की सफाई करे, बरतन मांजे, कपड़े धोए, यह सब देख कर मां के जन्मजन्मांतर के संस्कार को चोट पहुंचती थी. सुनील के बारबार यह समझाने पर भी कि यहां अमेरिका में दाईनौकर की प्रथा नहीं है, और यहां सभी घरों में पतिपत्नी मिल कर घर के काम करते हैं, मां संतुष्ट नहीं होतीं.

मां को यही लगता कि उन की बहू ही उन के बेटे से रोज काम लिया करती है. सभी कामों में वे खुद हाथ बंटाना चाहतीं ताकि बेटे को वह सब नहीं करना पड़े, पर 85 साल की उम्र में उन पर कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था. कहीं भूल से उन्हें चोट न लग जाए, घर में आग न लग जाए, वे गिर न पड़ें, इन आशंकाओं के मारे कोई उन्हें घर का काम नहीं करने देता था.

सुनील अपनी मां का इलाज  करवाने में समर्थ नहीं था.

अमेरिका में कितने लोग सारा का सारा पैसा अपनी गांठ से लगा कर इलाज करवा सकते थे? मां ऐसी बातें सुन कर इस तरह चुप्पी साध लेती थीं जैसे उन्हें ये बातें तर्क या बहाना मात्र लगती हों. उन की आंखों में अविश्वास इस तरह तीखा हो कर छलक उठता था जिसे झेल न सकने के कारण, अपनी बात सही होने के बावजूद सुनील दूसरी तरफ देखने लग जाता था. उन की आंखें जैसे बोल पड़तीं कि क्या ऐसा कभी हो सकता है कि कोई सरकार अपने ही नागरिक की बूढ़ी मां के लिए कोई प्रबंध न करे. भारत जैसे गरीब देश में तो ऐसा होता ही नहीं, फिर अमेरिका जैसे संपन्न देश में ऐसा कैसे हो सकता था?

सुनील के मन में वर्षों तक मां के लिए जो उपेक्षा भाव बना रहा था या उन्हें वह जो अपने पास अमेरिका बुलाने से कतराता रहा था शायद इस कारण ही उस में एक ऐसा अपराधबोध समा गया था कि वह अपनी सही बात भी उन से नहीं मनवा सकता था. कभीकभी वे रोंआसी हो कर यहां तक कह बैठती थीं कि दूसरे बच्चों का पेट काटकाट कर भी उन्होंने उसे डबल एमए कराया था और सुनील यह बिना कहे ही समझ जाता था कि वास्तव में वे कह रही हैं कि उस का बदला वह अब तक उन की उपेक्षा कर के देता रहा है जबकि उस की पाईपाई पर उन का हक पहले है और सब से ज्यादा है.

सुनील के सामने उन दिनों के वे दृश्य उभर आते जब वह कालेज की छुट्टियों में घर लौटता था और अपने मातापिता के साथ भाईबहनों को भी वह रूखासूखा खाना बिना किसी सब्जीतरकारी के खाते देखता था.

मां को सब से अधिक परेशानी इस बात की थी कि परदेश में उन्हें हंसनेबोलने के लिए कोई संगीसाथी नहीं मिल पाता था, और अकेले कहीं जा कर किसी से अपना परिचय भी नहीं बढ़ा सकती थीं. शिकागो जैसे बड़े शहर में भारतीयों की कोई कमी तो नहीं थी, पर सुनील दंपती लोगों से कम ही मिलाजुला करते थे.

कभीकभी मां को वे मंदिर ले जाते थे. उन्हें वहां पूरा माहौल भारत का सा मिलता था. उस परिसर में घूमती हुई किसी भी बुजुर्ग स्त्री को देखते ही वे देर तक उन से बातें करने के लिए आतुर हो जातीं. वे चाहती थीं कि वे वहां बराबर जाया करें, पर यह  भी कर सकना सुनील या उस की पत्नी के लिए संभव नहीं था. अपनी व्यस्तता के बीच तथा अपनी रुचि के प्रतिकूल सुनील के लिए सप्ताहदोसप्ताह में एक बार से अधिक मंदिर जाना संभव नहीं था और वह भी थोड़े समय के लिए.

कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था.

आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था.

मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

सुनील देखता था कि वे किस प्रकार घर का काम करने, विशेषकर खाना बनाने के लिए आगे बढ़ा करती थीं पर सुनील की पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने दे सकती थी. कहीं कुछ दुर्घटना घट जाती तो लेने के देने पड़ जाते. बिना इंश्योरैंस के सैकड़ों डौलर बैठेबिठाए फुंक जाते. तब भी, जबतब मां की अपनी विशेषज्ञता जोर पकड़ लेती और वे बहू से कह बैठतीं, यह ऐसे थोड़े बनता है, यह तो इस तरह बनता है. साफ था कि उस की पत्नी को उन से सीख लेने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी.

सुनील की मां के लिए अमेरिका छोड़ना हर प्रकार सुखकर हो, ऐसी भी बात नहीं थी. अपने बेटे की नजदीकी ही नहीं, बल्कि सारी मुसीबतों के बावजूद उस की आंखों में चमकता अपनी मां के प्रति प्यार आंखों के बूढ़ी होने के बाद भी उन्हें साफ दिख जाता था. दूसरी ओर अमेरिका में रहने का दुख भी कम नहीं था. उन का जीवन अपने ही पर भार बन कर रह गया था.

अब जहां वे जा रही थीं वहां से पारिवारिक संबंध या स्नेह संबंध तो नाममात्र का था, यह तो एक व्यापारिक संबंध स्थापित होने जा रहा था. ऐसी स्थिति में शिवानी से महीनों तक उन का किसी प्रकार का स्नेहसंबंध नहीं हो पाया. जो केवल पैसे के लिए उन्हें रख रही हो उस से स्नेहसंबंध क्या?

उन का यह बरताव उन की अपनी और अपने बेटे की गौरवगाथा में ही नहीं, बल्कि दिनप्रतिदिन की सामान्य बातचीत में भी जाहिर हो जाता था. उस में मेरातेरा का भाव भरा होता था. यह एसी मेरे बेटे का है, यह फ्रिज मेरा है, यह आया मेरे बेटे के पैसे से रखी गई है, इसलिए मेरा काम पहले करेगी, इत्यादि.

शिवानी को यह सब सिर झुका कर स्वीकार करना पड़ता, कुछ नानी की उम्र का लिहाज कर के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति को याद कर के और कुछ इस भार को स्वीकार करने की गलती का एहसास कर के.

मोबाइल की घंटी रात के 2 बजे फिर बज उठी. यह भी समय है फोन करने का? लेकिन होश आया, फोन जरूर मां की बीमारी की गंभीरता के कारण किया गया होगा. सुनील को डर लगा. फोन उठाना ही पड़ा. उधर से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानी तो अपना होश खो बैठी हैं.’’

‘‘क्या मतलब, होश खो बैठी हैं? डाक्टर को बुलाया’’ सुनील ने चिंता जताई.

‘‘डाक्टर ने कहा कि आखिरी वक्त आ गया है, अब कुछ नहीं होगा.’’

सुनील को लगा कि शिवानी अब उसे रांची आने को कहेगी, ‘‘शिवानी, तुम्हीं कुछ उपाय करो वहां. हमारा आना तो नहीं हो सकता. इतनी जल्दी वीजा मिलना, फिर हवाईजहाज का टिकट मिलना दोनों मुश्किल होगा.’’

‘‘हां अंकल, मैं समझती हूं. आप कैसे आ सकते हैं?’’ सुनील को लगा जैसे व्यंग्य का एक करारा तमाचा उस के मुंह पर पड़ा हो.

‘‘किसी दूसरे डाक्टर को भी बुला लो.’’

‘‘अंकल, अब कोई भी डाक्टर क्या करेगा?’’

‘‘पैसे हैं न काफी?’’

‘‘आप ने अभी तो पैसे भेजे थे. उस में सब हो जाएगा.’’

शिवानी की आवाज कांप रही थी, शायद वह रो रही थी. दोनों ओर से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग हो रहा था. कोई भी उस भयंकर शब्द को मुंह में लाना नहीं चाहता था. मोबाइल अचानक बंद हो गया. शायद कट गया था.

3 घंटे के बाद मोबाइल की घंटी बजी. सुनील बारबार के आघातों से बच कर एकबारगी ही अंतिम परिणाम सुनना चाहता था.

शिवानी थी, ‘‘अंकल, जान निकल नहीं रही है. शायद वे किसी को याद कर रही हैं या किसी को अंतिम क्षण में देखना चाहती हैं.’’

सुनील को जैसे पसीना आ गया, ‘‘शिवानी, पानी के घूंट डालो उन के मुंह में.’’

‘‘अंकल, मुंह में पानी नहीं जा रहा.’’ और वह सुबकती रही. फोन बंद हो गया.

सुबह होने से पहले घंटी फिर बजी. सुनील बेफिक्र हो गया कि इस बार वह जिस समाचार की प्रतीक्षा कर रहा था वही मिलेगा. अब किसी और अपराधबोध का सामना करने की चिंता उसे नहीं थी. उस ने बेफिक्री की सांस लेते हुए फोन उठाया और दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानीजी को मुक्ति मिल गई.’’ सुनील के कानों में शब्द गूंजने लगे, बोलना चाहता था लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे.

मुक्ति: जया ने आखिर अपनी जिंदगी में क्या भुगता

अचानक जया की नींद टूटी और वह हड़बड़ा कर उठी. घड़ी का अलार्म शायद बजबज कर थक चुका था. आज तो सोती रह गई वह. साढ़े 6 बज रहे थे. सुबह का आधा समय तो यों ही हाथ से निकल गया था.

वह उठी और तेजी से गेट की ओर चल पड़ी. दूध का पैकेट जाने कितनी देर से वैसे ही पड़ा था. अखबार भी अनाथों की तरह उसे अपने समीप बुला रहा था.

उस का दिल धक से रह गया. यानी आज भी गंगा नहीं आएगी. आ जाती तो अब तक एक प्याली गरम चाय की उसे नसीब हो गई होती और वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती. उसे अपनी काम वाली बाई गंगा पर बहुत जोर से खीज हो आई. अब तक वह कई बार गंगा को हिदायत दे चुकी थी कि छुट्टी करनी हो तो पहले बता दे. कम से कम इस तरह की हबड़तबड़ तो नहीं रहेगी.

वह झट से किचन में गई और चाय का पानी रख कर बच्चों को उठाने लगी. दिमाग में खयाल आया कि हर कोई थोड़ाथोड़ा अपना काम निबटाएगा तब जा कर सब को समय पर स्कूल व दफ्तर जाने को मिलेगा.

नल खोला तो पाया कि पानी लो प्रेशर में दम तोड़ रहा?था. उस ने मन ही मन हिसाब लगाया तो टंकी को पूरा भरे 7 दिन हो गए थे. अब इस जल्दी के समय में टैंकर को भी बुलाना होगा.  उस ने झंझोड़ते हुए पति गणेश को जगाया, ‘‘अब उठो भी, यह चाय पकड़ो और जरा मेरी मदद कर दो. आज गंगा नहीं आएगी. बच्चों को तैयार कर दो जल्दी से. उन की बस आती ही होगी.’’

पति गणेश उठे और उठते ही नित्य कर्मों से निबटने चले गए तो पीछे से जया ने आवाज दी, ‘‘और हां, टैंकर के लिए भी जरा फोन कर दो. इधर पानी खत्म हुआ जा रहा है.’’

‘‘तुम्हीं कर दो न. कितनी देर लगती है. आज मुझे आफिस जल्दी जाना है,’’ वह झुंझलाए.

‘‘जैसे मुझे तो कहीं जाना ही नहीं है,’’ उस का रोमरोम गुस्से से भर गया. पति के साथ पत्नी भले ही दफ्तर जाए तब भी सब घरेलू काम उसी की झोली में आ गिरेंगे. पुरुष तो बेचारा थकहार कर दफ्तर से लौटता है. औरतें तो आफिस में काम ही नहीं करतीं सिवा स्वेटर बुनने के. यही तो जब  तब उलाहना देते हैं गणेश.

कितनी बार जया मिन्नतें कर चुकी थी कि बच्चों के गृहकार्य में मदद कर दीजिए पर पति टस से मस नहीं होते थे, ऊपर से कहते, ‘‘जया यार, हम से यह सब नहीं होता. तुम मल्टी टास्किंग कर लेती हो, मैं नहीं,’’ और वह फिर बासी खबरों को पढ़ने में मशगूल हो जाते.

मनमसोस कर रह जाती जया. गणेश ने उस की शिकायतों को कुछ इस तरह लेना शुरू कर दिया?था जैसे कोई धार्मिक प्रवचन हों. ऊपर से उलटी पट्टी पढ़ाता था उन का पड़ोसी नाथन जो गणेश से भी दो कदम आगे था. दोनों की बातचीत सुन कर तो जया का खून ही खौल उठता था.

‘‘अरे, यार, जैसे दफ्तर में बौस की डांट नहीं सुनते हो, वैसे ही बीवी की भी सुन लिया करो. यह भी तो यार एक व्यावसायिक संकट ही है,’’ और दोनों के ठहाके से पूरा गलियारा गूंज उठा?था.

जया के तनबदन में आग लग आई थी. क्या बीवीबच्चों के साथ रहना भी महज कामकाज लगता?था इन मर्दों को. तब औरतों को तो न जाने दिन में कितनी बार ऐसा ही प्रतीत होना चाहिए. घर संभालो, बच्चों को देखो, पति की फरमाइशों को पूरा करो, खटो दिनरात अरे, आक्यूपेशन तो महिलाओं के लिए है. बेचारी शिकायत भी नहीं करतीं.

जैसेतैसे 4 दिन इसी तरह गुजर गए. गंगा अब तक नहीं लौटी थी. वह पूछताछ करने ही वाली थी कि रानी ने कालबेल बजाते हुए घर में प्रवेश किया.

‘‘बीबीजी, गंगा ने आप को खबर करने के लिए मुझ से कहा था,’’ रानी बोली, ‘‘वह कुछ दिन अभी और नहीं आ पाएगी. उस की तबीयत बहुत खराब है.’’

रानी से गंगा का हाल सुना तो जया उद्वेलित हो उठी.  यह कैसी जिंदगी थी बेचारी गंगा की. शराबी पति घर की जिम्मेदारियां संभालना तो दूर, निरंतर खटती गंगा को जानवरों की तरह पीटता रहता और मार खाखा कर वह अधमरी सी हो गई थी.

‘‘छोड़ क्यों नहीं देती गंगा उसे. यह भी कोई जिंदगी है?’’ जया बोली.

माथे पर ढेर सारी सलवटें ले कर हाथ का काम छोड़ कर रानी ने एकबारगी जया को देखा और कहने लगी, ‘‘छोड़ कर जाएगी कहां वह बीबीजी? कम से कम कहने के लिए तो एक पति है न उस के पास. उसे भी अलग कर दे तो कौन करेगा रखवाली उस की? आप नहीं जानतीं मेमसाहब, हम लोग टिन की चादरों से बनी छतों के नीचे झुग्गियों में रहते हैं. हमारे पति हैं तो हम बुरी नजर से बचे हुए हैं. गले में मंगलसूत्र पड़ा हो तो पराए मर्द ज्यादा ताकझांक नहीं करते.’’

अजीब विडंबना थी. क्या सचमुच गरीब औरतों के पति सिर्फ एक सुरक्षा कवच भर ?हैं. विवाह के क्या अब यही माने रह गए? शायद हां, अब तो औरतें भी इस बंधन को महज एक व्यवसाय जैसा ही महसूस करने लगी हैं.

गंगा की हालत ने जया को विचलित कर दिया था. कितनी समझदार व सीधी है गंगा. उसे चुपचाप काम करते हुए, कुशलतापूर्वक कार्यों को अंजाम देते हुए जया ने पाया था. यही वजह थी कि उस की लगातार छुट्टियों के बाद भी उसे छोड़ने का खयाल वह नहीं कर पाई.

रानी लगातार बोले जा रही थी. उस की बातों से साफ झलक रहा?था कि गंगा की यह गाथा उस के पासपड़ोस वालों के लिए चिरपरिचित थी. इसीलिए तो उन्हें बिलकुल अचरज नहीं हो रहा था गंगा की हालत पर.

जया के मन में अचानक यह विचार कौंध आया कि क्या वह स्वयं अपने पति को गंगा की परिस्थितियों में छोड़ पाती? कोई जवाब न सूझा.

‘‘यार, एक कप चाय तो दे दो,’’ पति ने आवाज दी तो उस का खून खौल उठा.

जनाब देख रहे हैं कि अकेली घर के कामों से जूझ रही हूं फिर भी फरमाइश पर फरमाइश करे जा रहे हैं. यह समझ में नहीं आता कि अपनी फरमाइश थोड़ी कम कर लें.

जया का मन रहरह कर विद्रोह कर रहा था. उसे लगा कि अब तक जिम्मेदारियों के निर्वाह में शायद वही सब से अधिक योगदान दिए जा रही थी. गणेश तो मासिक आय ला कर बस उस के हाथ में धर देता और निजात पा जाता. दफ्तर जाते हुए वह रास्ते भर इन्हीं घटनाक्रमों पर विचार करती रही. उसे लग रहा था कि स्त्री जाति के साथ इतना अन्याय शायद ही किसी और देश में होता हो.

दोपहर को जब वह लंच के लिए उठने लगी तो फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर सहेली पद्मा थी. वह भी गंगा के काम पर न आने से परेशान थी. जैसेतैसे संक्षेप में जया ने उसे गंगा की समस्या बयान की तो पद्मा तैश में आ गई, ‘‘उस राक्षस को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए. मैं तो कहती हूं कि हम उसे पुलिस में पकड़वा देते हैं. बेचारी गंगा को कुछ दिन तो राहत मिलेगी. उस से भी अच्छा होगा यदि हम उसे तलाक दिलवा कर छुड़वा लें. गंगा के लिए हम सबकुछ सोच लेंगे. एक टेलरिंग यूनिट खोल देंगे,’’ पद्मा फोन पर लगातार बोले जा रही थी.

पद्मा के पति ने नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश प्राप्त कर लिया था और घर से ही ‘कंसलटेंसी’ का काम कर रहे थे. न तो पद्मा को काम वाली का अभाव इतनी बुरी तरह खलता था, न ही उसे इस बात की चिंता?थी कि सिंक में पड़े बर्तनों को कौन साफ करेगा. पति घर के काम में पद्मा का पूरापूरा हाथ बंटाते थे. वह भी निश्चिंत हो अपने दफ्तर के काम में लगी रहती. वह आला दर्जे की पत्रकार थी. बढि़या बंगला, ऐशोआराम और फिर बैठेबिठाए घर में एक अदद पति मैनसर्वेंट हो तो भला पद्मा को कौन सी दिक्कत होगी.

वह कहते हैं न कि जब आदमी का पेट भरा हो तो वह दूसरे की भूख के बारे में भी सोच सकता?है. तभी तो वह इतने चाव से गंगा को अलग करवाने की योजना बना रही थी.

पद्मा अपनी ही रौ में सुझाव पर सुझाव दिए जा रही थी. महिला क्लब की एक खास सदस्य होने के नाते वह ऐसे तमाम रास्ते जया को बताए जा रही थी जिस से गंगा का उद्धार हो सके.

जया अचंभित थी. मात्र 4 घंटों के अंतराल में उसे इस विषय पर दो अलगअलग प्रतिक्रियाएं मिली थीं. कहां तो पद्मा तलाक की बात कर रही?थी और उधर सुबह ही रानी के मुंह से उस ने सुना था कि गंगा अपने ‘सुरक्षाकवच’ की तिलांजलि देने को कतई तैयार नहीं होगी. स्वयं गंगा का इस बारे में क्या कहना होगा, इस के बारे में वह कोई फैसला नहीं कर पाई.

जब जया ने अपना शक जाहिर किया तो पद्मा बिफर उठी, ‘‘क्या तुम ऐसे दमघोंटू बंधन में रह पाओगी? छोड़ नहीं दोगी अपने पति को?’’

जया बस, सोचती रह गई. हां, इतना जरूर तय था कि पद्मा को एक ताजातरीन स्टोरी अवश्य मिल गई थी.

महिला क्लब के सभी सदस्यों को पद्मा का सुझाव कुछ ज्यादा ही भा गया सिवा एकदो को छोड़ कर, जिन्हें इस योजना में खामियां नजर आ रही थीं. जया ने ज्यादातर के चेहरों पर एक अजब उत्सुकता देखी. आखिर कोई भी क्यों ऐसा मौका गंवाएगा, जिस में जनता की वाहवाही लूटने का भरपूर मसाला हो.

प्रस्ताव शतप्रतिशत मतों से पारित हो गया. तय हुआ कि महिला क्लब की ओर से पद्मा व जया गंगा के घर जाएंगी व उसे समझाबुझा कर राजी करेंगी.

गंगा अब तक काम पर नहीं लौटी थी. रानी आ तो रही?थी, पर उस का आना महज भरपाई भर था. जया को घर का सारा काम स्वयं ही करना पड़ रहा था. आज तो उस की तबीयत ही नहीं कर रही थी कि वह घर का काम करे. उस ने निश्चय किया कि वह दफ्तर से छुट्टी लेगी. थोड़ा आराम करेगी व पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार पद्मा को साथ ले कर गंगा के घर जाएगी, उस का हालचाल पूछने. यह बात उस ने पति को नहीं बताई. इस डर से कि कहीं गणेश उसे 2-3 बाहर के काम भी न बता दें.

रानी से बातों ही बातों में उस ने गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब से महिला मंडली की बैठक हुई थी, रानी तो मानो सभी मैडमों से नाराज थी, ‘‘आप पढ़ीलिखी औरतों का तो दिमाग चल गया है. अरे, क्या एक औरत अपने बसेबसाए घर व पति को छोड़ सकती है? और वैसे भी क्या आप लोग उस के आदमी को कोई सजा दे रहे हो? अरे, वह तो मजे से दूसरी ले आएगा और गंगा रह जाएगी बेघर और बेआसरा.’’

40 साल की रानी को हाईसोसाइटी की इन औरतों पर निहायत ही क्रोध आ रहा था.

टिन के उस जंगल में गंगा का घर खोजना तो सचमुच कुछ ऐसा ही था जैसे भूसे के ढेर में सूई ढूंढ़ना. बेतरतीब झोंपड़े, इधरउधर भागते बच्चों की टोलियां, उन्हें झिड़कती हुई माताओं को पार कर के उस के छोटे से एक कमरे वाले घर को तलाशने में ही पद्मा व जया की हालत खराब हो गई.

गंगा को उस ने अपनी खोली के एक अंधेरे कोने में दुबका हुआ पाया. चेहरे पर खरोंच यह बता रहे थे कि इस बार मरम्मत कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह से हुई थी. जया उस की खस्ता हालत को देख कर अचंभित तो थी ही, उस के जर्जर शरीर को देख कर उसे गहरा दुख भी हुआ.

उन्हें देख कर गंगा जल्दी से उठने लगी तो जया ने उसे हाथ बढ़ा कर रोक दिया.

‘‘बैठी रहो, गंगा,’’ उस ने आत्मीयता से कहा, ‘‘वैसे ही तुम्हारी हालत काफी नाजुक लग रही है.’’

1 मिनट का असाधारण मौन छा गया और फिर गंगा उन के लिए चाय बनाने उठी. लाख मना करने पर भी मानी नहीं.

चाय की चुसकियां लेते हुए जया व पद्मा ने बाहर कुछ आहट सुनी. पदचाप बाहर की ओर से आ रही थी. गंगा फुरती से उठी और 1 मिनट बाद लौटी, ‘‘मेरे पति हैं,’’ उस ने धीमी आवाज में कहा.

पद्मा तो मानो इसी घड़ी की प्रतीक्षा में थी. वह तुरंत उठी व पल्लू खोंसते हुए तेजी से बाहर की ओर रुख करने लगी. गंगा ने हाथ बढ़ा कर उसे रोक लिया और दयनीय स्वर में बोली, ‘‘उसे कुछ मत कहना, बीबीजी.’’

जया ने महसूस किया कि गंगा का पति नशे की हालत में ऊलजुलूल बड़बड़ा रहा?था. 1 मिनट बाद चारपाई पर उस के ढेर होने की आवाज आई.

‘‘लगता है सो गया,’’ गंगा मुसकरा कर बोली, ‘‘अब 3-4 घंटे बेसुध पड़ा रहे तो मैं अपना बचाखुचा काम भी समेट लूं.’’

जया को उस बेचारी पर तरस आया कि इस हालत में भी वह घर संभालने में लगी हुई थी और उस का पति आराम से चारपाई तोड़ रहा था. जया को लगा कि वह और पद्मा गंगा के दैनिक कार्यों में बाधा उत्पन्न कर रही हैं. लौटने के उद्देश्य से उस ने गंगा की ओर देखा, ‘‘गंगा, अपना खयाल रखना, बता देना कब लौटोगी.’’

जया ने पद्मा की ओर कनखियों से इशारा किया.

पद्मा तो जैसे भरी बैठी थी, ‘‘रुक भी जाओ, भूल गईं, किसलिए आए?थे यहां,’’ दांत भींचते हुए उस ने जया के हाथ से अपना हाथ छुड़ाया व गंगा की ओर मुखातिब हुई.

गंगा के चेहरे पर उस समय भाव कुछ ऐसे थे जैसे उसे अंदेशा हो गया था कि आगे क्या होगा. रानी ने शायद उसे पहले ही आगाह कर दिया था.

जया कहने लगी, ‘‘फिर कभी, आज नहीं.’’

दरअसल, वह यह नहीं समझ पा रही थी कि क्या यह सही वक्त था गंगा से तलाक के विषय में बात करने का. उस की कमजोर हालत जया को सोचने पर मजबूर कर रही थी.

‘‘नहीं, आज ही. मुझे क्यों रोक रही हो तुम,’’ पद्मा क्रोधित स्वर में जया से बोली, फिर वह गंगा से मुखातिब हुई, ‘‘देखो गंगा, अब और इस हालत से जूझते रहने का फायदा नहीं. क्या तुम्हें नहीं लग रहा कि तुम एक फटेहाल जिंदगी जी रही हो? क्या मिल रहा?है तुम्हें अपने पति से सिवा मारपीट व गालीगलौज के? तुम ने कभी सोचा नहीं कि उस आदमी को छोड़ कर तुम ज्यादा सुखी रहोगी? अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचो कुछ.’’

पद्मा की उद्वेग के मारे सांस फूल रही थी और वह लगातार गंगा को प्रेरित करती रही कि ऐसा निरीह जीवन जीने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी.

गंगा शांति से उन की बात सुन रही थी. पद्मा का रोष थोड़ा ठंडा हुआ, ‘‘देखो गंगा, अगर तुम चाहो तो हम तुम्हारे जीवनयापन के लिए कुछ न कुछ इंतजाम कर ही लेंगे. तुम्हारे लिए एक छोटी सी टेलरिंग यूनिट खोल देंगे. तुम निश्चय तो करो.’’

‘‘मैं ने सब सुना?है बीबीजी. रानी तो रोज आ कर आप लोगों की बातें बताती ही रहती है. पर नहीं. मुझे इन चीजों की जरूरत नहीं.

‘‘बिलकुल भी नहीं,’’ पद्मा ने आपत्ति उठाने के लिए मुंह बस खोला ही था कि बाहर से तेज अस्पष्ट आवाजें सुनाई देने लगीं.

इस से पहले कि जया और पद्मा कुछ समझतीं कि माजरा क्या है, गंगा बाहर भाग चुकी थी. उस के हाथ में 2 बड़ी बालटियां थीं. बाहर से लोगों की आवाजें दस्तक दे रही थीं, ‘‘टैंकर आ गया, टैंकर आ गया.’’

महानगर निगम के पानी का टैंकर पहुंच गया था. लोगों की अपार भीड़ एकत्र हो रही थी. जया व पद्मा बाहर आ कर नजारा देखने लगीं. यह समस्या तो इस शहर में कमज्यादा सभी तबकों की थी. आदमी सांस लेना भूल जाए पर टैंकर की आहट को नजरअंदाज कभी न कर पाए.

महिलाओं व पुरुषों की भीड़ गुत्थमगुत्था हो रही थी. टैंकर के सामने घड़ों, बरतनों, बालटियों की बेतरतीब कतारें लग गई थीं. जया की आंखें उस भीड़ में गंगा को ढूंढ़ने लगीं. उस ने पाया कि गंगा अपनी बीमारी को लगभग भूल कर लोगों से उलझ कर 2 बालटी पानी भर लाई?थी. घर के अहाते तक आतेआते उस का शरीर पसीने से भीग चुका था. माथे पर कुमकुम का निशान भीग कर अर्धकार हो गया था. जयाचंद्रा ने सहारा देने के उद्देश्य से उस से एक बालटी लेने की कोशिश की.

‘‘नहीं, नहीं, बीबीजी. मैं संभाल लूंगी,’’ उस ने जया का हाथ छुड़ाया और पति की ओर इंगित करने लगी, ‘‘यह निखट्टू भी तो है. अभी जगाती हूं इसे,’’ यह कहते हुए गंगा ने अपने दांत भींचे व अंदर की ओर भागी. लौटी तो उस के हाथों में 2 बालटियां और थीं. दोनों बालटियां उस ने आंगन के कोने में रखीं, कमर कस कर पति की चारपाई के करीब जा खड़ी हुई. जया डर रही थी कि जगाने पर वह निर्दयी गंगा के साथ न जाने कैसा सलूक करेगा. अलसाया सा, आधी नींद में वह बड़बड़ा रहा था.

और फिर वह अचंभा हुआ जिस की जया को कतई उम्मीद नहीं थी. गंगा ने चारपाई पर बेहोश पड़े पति को एक जोरदार लात मारी. मार के सदमे से वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. आंखें मींचता हुआ वह जायजा लेने लगा कि गाज कहां से गिरी.

‘‘उठ रे, शराबी,’’ गंगा ने दहाड़ मारी, ‘‘अभी नींद पूरी नहीं हुई या दूं मैं एक और लात.’’

वह आदमी धोती संभालता हुआ उठ खड़ा हुआ. 2 आगंतुक महिलाओं के सामने पिटने का एहसास जब हुआ तो बहुत देर हो चुकी थी. गंगा एक और लात जमाने के लिए तैयार खड़ी थी. लड़खड़ाए हुए पति के हाथ में उस ने बालटियां थमाईं और फरमान जारी किया, ‘‘जा, भर ला पानी, कमबख्त.’’

वह डगमगाता हुआ जब डोलने लगा तो गंगा ने 2 तमाचे और जड़ दिए, ‘‘अब जाता है कि…’’ और इसी के साथ दोचार मोटीमोटी गालियां भी पति के हिस्से में आ गईं.

जया व पद्मा अवाक् खड़ी थीं. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि अभी जिस महिषासुरमर्दिनी को उन्होंने देखा था यह वही छुईमुई सी गंगा थी, जिसे वे चुपचाप घर का काम निबटाते हुए देखा करती थीं. यह कैसा अनोखा रूप था उस का. मुंह खुला का खुला रह गया. होश आया तो पाया कि गंगा आसपास कहीं नहीं थी. वह फिर उसी रेले में शामिल हो गई थी. जीजान से अन्य महिलाओं से लड़ती हुई अपने हिस्से के जल को बालटियों में भरते हुए. महिलाएं एकदूसरे पर हावी हो रही थीं और उन की कर्कश आवाजों से वातावरण गूंज रहा था.

वे दोनों तब तक सन्न खड़ी रहीं जब तक गंगा घर में दोबारा आ नहीं गई. उन की फटी नजरों को भांपते हुए गंगा ने एक शर्मीली मुसकान बिखेरी.

‘‘गंगा, यह तुम थीं?’’ आवाज पद्मा के हलक से पहले निकली.

जया भी मुग्ध भाव से उसे देखे जा रही थी.

‘‘हां, बीबीजी, यह सब तो चलता रहता है. इसे मैं दोचार जमाऊंगी नहीं तो कैसे चलेगा. वह मुझ पर हाथ उठाता?है तो मैं भी उसे पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ती,’’ वह कुछ ऐसे बोल रही थी जैसे किसी शैतान बच्चे को राह पर लाने का नुस्खा समझा रही हो, ‘‘जब मैं चाहती हूं तब कमान अपने हाथ में ले लेती हूं,’’ झांसी की रानी जैसे भाव थे उस के चेहरे पर, ‘‘मैं जानती हूं बीबीजी, आप सब लोग हमारा?भला चाहती हैं. पर मुझे नहीं चाहिए यह तलाकवलाक. जरूरत नहीं है मुझे. मैं अपने तरीकों से इसे ‘लाइन’ पर ले आती हूं,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘कभीकभी कड़वी दवा पिला ही देती हूं मैं इसे. मिमियाता हुआ वापस आ जाता है बकरी की तरह. और किस के पास जाएगा. आना तो शाम को इसी घर में है न? जब होश आता है तो गलती का एहसास भी हो जाता है इसे. पता है इसे कि मेरे बगैर इस का गुजारा नहीं.’’

गंगा ने शायद अपने पति पर पूरा अनुसंधान कर रखा था. अब मानो वह उन्हें उस की रिपोर्ट पढ़ा रही हो. जया को लगा वाकई जीवन की बागडोर गंगा ने कुछ अपने तरीके से संभाली हुई थी. शायद उन से बेहतर प्रचारक थी वह नारी मुक्ति की. शायद प्रचार करने की आवश्यकता भी नहीं थी गंगा को. उस के तरीके बेहद सरल व प्रायोगिक थे. उस ने देखा गंगा एकदम सहज भाव से बतियाए जा रही थी. उसे इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि उस के इस रवैये पर अन्य लोगों की क्या प्रतिक्रिया रहेगी. इस बीच कब गंगा का पति शरमाता हुआ लौटा व एक सेट बरतन और ले गया पानी भर लाने के लिए, इस की उन्हें सुध न रही.

जया व पद्मा अचंभित हालत में अपने वाहन की ओर बढ़ रही थीं. एक अजब खामोशी छाई हुई थी दोनों के बीच में. जाहिर था, दोनों ही गंगा व उस के पति के बारे में सोच रही थीं. जया को लगा कि शायद उन का क्लब वाला प्रस्ताव बेहद बेतुका था. कनखियों से उस ने पद्मा की ओर देखा जो कुछ ऐसी ही उधेड़बुन में लिप्त थी.

भारतीय परिवारों में एक अनोखा ही समीकरण था पतिपत्नी के बीच में. कभी किसी का पलड़ा भारी रहा तो कभी किसी का. क्या यही वजह नहीं थी पद्मा व उस के पति ने आपसी सामंजस्य से अपनी जिम्मेदारियों को आपस में बदल लिया था. सब लोग अपनी आपसी उलझनों का कुछ अपने तरीके से ही हल ढूंढ़ लेते हैं. गंगा ने भी शायद कुछ ऐसा ही कर लिया था.

गाड़ी में जब पद्मा निश्चल सी बैठी रह गई तो जया से रहा न गया. उस ने एकाएक पद्मा के हाथ से ‘डिक्टाफोन’ छीना, ‘‘देवियो और सज्जनो, क्या आप जानते हैं कि गंगा और हम में क्या अंतर है? वह अपने पति को लात मार सकती है पर हम नहीं.’’

और फिर दोनों महिलाओं के ठहाके गूंजने लगे.

ड्राइवर उन्हें कुछ ऐसे देखने लगा जैसे वे दोनों पागल हो गई हों.

मुक्ति: कैसे बनाया जाए जीवन को सार्थक

फोन की घंटी रुक-रुक कर कई बार बजी तो जया झुंझला उठी. यह भी कोई फोन करने का समय है. जब चाहा मुंह उठाया और फोन घुमा दिया. झुंझलातीबड़बड़ाती जया ने हाथ बढ़ा कर टेबिल लैंप जलाया. इतनी रात गए किस का फोन हो सकता है? उस ने दीवार घड़ी की ओर उड़ती नजर डाली तो रात के 2 बजे थे. जया ने जम्हाई लेते हुए फोन उठाया और बोली, ‘‘हैलो.’’

‘‘मैं अभिनव बरुआ बोल रहा हूं,’’ अभिनव की आवाज बुरी तरह कांप रही थी.

‘‘क्या बात है? तुम इतने घबराए हुए क्यों हो?’’ जया उद्विग्न हो उठी.

‘‘सुनीता नहीं रही. अचानक उसे हार्टअटैक पड़ा और जब तक डाक्टर आया सबकुछ खत्म हो गया,’’ इतना कह कर अभिनव खामोश हो गया.

जया स्वयं बहुत घबरा गई लेकिन अपनी आवाज पर काबू रख कर बोली, ‘‘बहुत बुरा हुआ है. धीरज रखो. अपने खांडेकरजी और मुधोलकरजी को तुरंत बुला लो.’’

‘‘इतनी रात को?’’

‘‘बुरा वक्त घड़ी देख कर तो नहीं आता. ये अपने सहयोगी हैं. इन्हें निसंकोच तुरंत फोन कीजिए. इस के बाद अपने घर और रिश्तेदारों को सूचना देना शुरू करो. यह वक्त न तो घबराने का है और न आपा खोने का.’’

‘‘मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है.’’

‘‘तुम खुद घबराओगे तो बच्चों को कौन संभालेगा? क्रियाकर्म तो करना ही है.’’

टेबिल लैंप बिना बंद किए जया पलंग पर धम्म से बैठ गई. अभिनव की अभी उम्र ही क्या होगी? यही कोई 50 वर्ष. 4-5 साल में बच्चे अपनीअपनी घरगृहस्थी में रम जाएंगे तब वह बेचारा कितना अकेला हो जाएगा. आज भी तो वह कितना अकेला और असहाय है?  उस के दोनों बच्चे बाहर इंजीनियरिंग में पढ़ रहे हैं. घर में ऐसी घटना से अकेले जूझना कितना त्रासद होगा?

जया के दिमाग में एक बार सोच का सिलसिला चला तो चलता ही रहा. आजकल मानवीय संवेदनाएं भी तो कितनी छीज गई हैं. किसी को भी दूसरे के सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उसे इस मुसीबत की घड़ी में कोई अपना नहीं दिखाई दिया. कहने को तो उस के अपनों का परिवार कितना बड़ा है…भाईबहन, मांबाप, रिश्तेदार, पड़ोसी, सहकर्मी और न जाने कौनकौन. मुसीबत में तो वही याद आएगा जिस से सहायता और सहानुभूति की उम्मीद हो. उस ने सब से पहले फोन उसी को किया तो क्या उसे किसी अन्य से सहायता की उम्मीद नहीं है? वह क्या सहायता कर सकती है? एक तो महिला फिर रात के 2 बजे का वक्त. जो भी हो इस वक्त अभिनव के पास सहायता तो पहुंचानी ही होगी. मगर कैसे? वह तो स्वयं इस शहर में अकेली है.

अब तो अपना कहने को भी कुछ नहीं बचा है. भाईबहन अपनीअपनी जिंदगी में ऐसे रम गए हैं कि सालों फोन तक पर बात नहीं होती. उन दोनों की जिंदगी तो संवर ही चुकी है. अब बड़ी बहन जिए या मरे…उन्हें क्या लेनादेना है?

एक जन्मस्थान वाला शहर है, वहां भी अब अपना कहने को क्या रह गया है? जब पिता का देहांत हुआ था तब वह बी.ए. में पढ़ रही थी. घर में वह सब से बड़ी संतान थी. घर में छोटे भाईबहन भी थे. मां अधिक पढ़ीलिखी नहीं थीं. मां को मिलने वाली पारिवारिक पेंशन परिवार चलाने के लिए अपर्याप्त थी. यों तो भाई भी उस से बहुत छोटा न था. सिर्फ 2 साल का फर्क होगा. उस समय वह इंटर में पढ़ रहा था और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था. मां सोचती थीं कि वंश का नाम तो लड़का ही रौशन करेगा अत: भाई की पढ़ाई में कोई रुकावट न आए. परंपरागत रूप से हल का जुआ बैल की गरदन पर ही रखा जाता है लेकिन यहां पारिवारिक जिम्मेदारी का जुआ उस के ऊपर डाल दिया गया और भाई को भारमुक्त कर दिया गया.

पिता के फंड व बीमा के मिले रुपए भी मां ने भाई की पढ़ाई के लिए सुरक्षित बैंक में जमा कर दिए. वह मेधावी छात्रा तो थी ही. उस ने समझ लिया कि संघर्ष का रास्ता कठोर परिश्रम के दरवाजे से ही निकल सकता है. वह ट्यूशन कर के घरखर्च में सहयोग भी करती और मेहनत से पढ़ाई भी करती. एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतेकरते अभाव का दौर भी गुजर ही गया, लेकिन यह अभावग्रस्त जीवन मन में काफी कड़वाहट घोल गया.

पिता के किसी भी मित्र या रिश्तेदार ने मदद करना तो दूर, सहानुभूति के दो शब्द भी कभी नहीं बोले. समय अपनी चाल चलता रहा. उस ने एम.ए. में विश्वविद्यालय टौप किया. शीघ्र ही उसे अपने विभागाध्यक्ष के सहयोग से एक महाविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति भी मिल गई. यद्यपि उस की नियुक्ति अपने शहर से लगभग 200 किलोमीटर दूर हुई थी फिर भी उस की खुशी का पारावार न था. चलो, इस लंबे आर्थिक और पारिवारिक संघर्ष से तो मुक्ति मिली.

आर्थिक संघर्ष ने उसे सिर्फ तोड़ा ही नहीं था, कई बार आहत और लज्जित भी किया था. उस का अभिनव से परिचय भी महाविद्यालय में ही हुआ था. वह भी इतिहास विभाग में ही प्रवक्ता था. नई उम्र, नया जोश और अनुभव का अभाव जया की कमजोरी भी थे और ताकत भी. महाविद्यालय की गोष्ठी, सेमिनार, वार्षिकोत्सव जैसे अवसरों पर उस की अभिनव से अकसर भिड़ंत हो जाती थी. उसे लगता कि उस के जूनियर होने के कारण अभिनव उस पर हावी होना चाहता है.

महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव के स्टेज शो की प्रभारी कमेटी में ये दोनों भी शामिल थे. जया विद्यार्थी जीवन से ही स्टेज शो में हिस्सा लेती रही थी अत: उसे स्टेज शो की अच्छी जानकारी थी. अभिनव अपनी वरिष्ठता और पुरुष अहं के कारण जया की सलाह को अकसर जानबूझ कर नजरअंदाज करने की कोशिश करता. जया कहां बरदाश्त करने वाली थी. वह रणचंडी बन जाती और तीखी नोकझोंक के बाद अभिनव को हथियार डालने के लिए मजबूर कर देती. अभिनव खिसिया कर रह जाता.

सोचतेसोचते जया की आंख लग गई. फोन की घनघनाहट ने नींद में पुन: बाधा डाली. खिड़की के खुले परदों से कमरे में सुबह की धूप बिखर रही थी. घड़ी 8 बजा रही थी. इतनी देर तक तो वह कभी नहीं सोती. अनुमान सही निकला. यह अभिनव की ही काल थी.

‘‘सभी नजदीकी रिश्तेदारों को फोन कर दिया है. मैं ने न जाने किस मुहूर्त में सिलीगुड़ी से आ कर पूना में नौकरी की थी. सारे रिश्तेदार तो वहीं हैं. कोई भी कल शाम से पहले नहीं आ पाएगा.’

‘‘तो फिर?’’

‘‘क्रियाकर्म तो इंतजार नहीं कर सकता. सारी व्यवस्था अभी करनी है.’’

‘‘सब हो जाएगा. आखिर महा- विद्यालय परिवार किस दिन काम आएगा?’’

‘‘प्रिंसिपल साहब आ चुके हैं, 20-25 स्टाफ के लोग भी आ चुके हैं.’’

‘‘तब क्या मुश्किल है?’’

‘‘क्रियाकर्म के पहले सुनीता का स्नान और सिंगार भी होना है. तुम आ जातीं तो फोन कर के स्टाफ की दोचार महिलाएं ही बुला लेतीं.’’

‘‘ठीक है, मैं 15-20 मिनट में पहुंचती हूं,’’ जया के पास हां कहने के अलावा कोई विकल्प भी तो न था. विषम परिस्थितियों में अपने लोगों पर स्वत: विशेषाधिकार प्राप्त हो जाता है. तब संकोच का स्थान भी कहां बचता है? क्या आज अभिनव का यह विशेषाधिकार पूरे महाविद्यालय परिवार पर नहीं है? प्राचार्य तो अनुभवी हैं और सामाजिक परंपराओं से अच्छी तरह परिचित भी हैं. तो उन्होंने स्वयं इस समस्या का समाधान क्यों नहीं निकाला?

वहां बैठे हुए अन्य सहकर्मी भी बेवकूफ तो नहीं हैं. वे संवेदनशून्य क्यों बैठे हैं? आखिर अर्थी उठने के पहले की रस्में तो महिलाएं ही पूरा करेंगी. अब ये महिलाएं आएंगी कहां से? इस के लिए या तो महिला सहकर्मी आगे आएं या पुरुष सहकर्मियों के परिवारों से महिलाएं आएं. शुभअशुभ जैसी दकियानूसी बातों से तो काम चलेगा नहीं. अभिनव तो बाहरी व्यक्ति है और किराए के मकान में रह रहा है अत: महल्ले में सहयोग की अपेक्षा कैसे कर सकता है?

आज के दौर में नौकरी के लिए दूरदूर जाना सामान्य बात है. मौके बेमौके घरपरिवार वाले मदद करना भी चाहें तो भी आनेजाने की लंबी यात्रा और समय के कारण ये तुरंत संभव नहीं है. फिर दूर की नौकरी में परिवार से मेलमिलाप भी तो कम हो जाता है. ऐसे में संबंधों में वह ताप आएगा कहां से कि एकदूसरे की सहायता के लिए तुरंत दौड़ पड़ें. ऐसे में अड़ोस- पड़ोस और सहकर्मियों से ही पारिवारिक रिश्ते बनाने पड़ते हैं. क्या अभिनव ऐसे कोई रिश्ते नहीं बना पाया जो दुख की इस घड़ी में काम आते?

रिश्ते तो बनाने पड़ते हैं और उन्हें जतन से संजोना पड़ता है. और अधिकार बोध? ये तो मन के रिश्तों से उपजता है.

जया को याद आया. 10-12 वर्ष पुरानी घटना होगी. उस समय भी वह गर्ल्स होस्टल की वार्डेन थी. रात के 1 बजे होस्टल की एक छात्रा को भयंकर किडनी पेन शुरू हो गया. वह दर्द से छटपटाने लगी. होस्टल की सारी छात्राएं आ कर वार्डेन के आवास पर जमा हो गईं. वह रात को 1 बजे करे भी तो क्या? अगर कोई अनहोनी हो गई तो कालिज में बवंडर तय है. उस से भी बड़ी बात तो मानवीय सहायता और गुरुपद की गरिमा की थी. उस ने आव देखा न ताव, सीधा अभिनव को फोन घुमा दिया. 15 मिनट के अंदर अभिनव टैक्सी ले कर होस्टल के गेट पर खड़ा हो गया. उस दिन सारी रात अभिनव भी नर्सिंगहोम में जमा रहा.

जया ने अभिनव को धन्यवाद कहा तो अभिनव दार्शनिकों की भांति गंभीर हो गया.

‘धन्यवाद को इतना छोटा मत बनाइए. जिंदगी के न जाने किस मोड़ पर किस को किस से क्या सहायता की जरूरत पड़ जाए?’ टैक्सी और नर्सिंगहोम का भुगतान भी अभिनव ने ही किया था.

रिकशा अभिनव के दरवाजे पर जा कर रुका. जया का ध्यान टूटा. दरवाजे पर 40-50 आदमी जमा हो चुके थे, लेकिन कोई महिला सहकर्मी वहां नहीं थी. उसे थोड़ा संकोच हुआ. सामान्यत: ऐसे मौकों पर पुरुषों का ही आनाजाना होता है. सिर्फ परिवार, रिश्तेदार और पारिवारिक संबंधी महिलाएं ही ऐसे मौके पर आतीजाती हैं अत: अभिनव के घर महिलाओं का न पहुंचना स्वाभाविक ही था.

वह सीधी प्राचार्य के पास पहुंची और बोली, ‘‘सर, अब क्या देर है?’’

‘‘दोचार महिलाएं होतीं तो लाश का स्नान और सिंगार हो जाता.’’

जया को महाविद्यालय परिवार याद आया तो उस ने पूछ लिया, ‘‘महा- विद्यालय परिवार कहां गया?’’

प्राचार्य गंभीर हो कर बोले, ‘‘आमतौर पर महिला सहकर्मी ऐसे अशुभ मौकों पर नहीं आती हैं.’’

जया को मन ही मन क्रोध आया लेकिन मौके की नजाकत देख कर उस ने वाणी में अतिरिक्त मिठास घोली, ‘‘सर, यह सामान्य मौका नहीं है. अभिनव अपने घर से कोसों दूर नौकरी कर रहा है. इतनी जल्दी परिवार वाले तो आ नहीं सकते. क्रियाकर्म तो होना ही है.’’

प्राचार्य ने चुप्पी साध ली. अगल- बगल बैठे सहकर्मी भी बगलें झांकने लगे. जया की समझ में अच्छी तरह से आ गया कि महाविद्यालय परिवार की अवधारणा स्टाफ से काम लेने के लिए है, स्टाफ के काम आने की नहीं.

जया प्राचार्यजी के पास से उठ कर सीधी अंदर चल दी. मानवीय संवेदना के आगे परंपराएं और सामाजिक अवरोध स्वत: बौने हो गए. फिर यह चुनौती मानवीय संवेदना से कहीं आगे की थी. अगर एक नारी ही दूसरी नारी की गरिमा और अस्मिता की रक्षा नहीं कर सकती है तो इस रूढि़वादी सड़ीगली मानसिकता वाली भीड़ से क्या अपेक्षा की जा सकती है?

जातेजाते जया ने एक उड़ती हुई नजर वहां मौजूद जनसमूह पर भी डाली. भीड़ में ज्यादातर सहकर्मी ही थे जो छोटेछोटे समूहों में बंट कर इधरउधर गप्पें मार रहे थे.

अभिनव भी जया के पीछेपीछे अंदर जाने लगा. अभिनव की आंखों में बादल घुमड़ रहे थे, जो किसी भी क्षण फटने को तैयार थे. जया ने आंखों के इशारे से ही अभिनव को रोक दिया. इस रोकने में समय की न जाने कितनी मर्यादाएं छिपी हुई थीं.

अभिनव दरवाजे के बाहर से ही लौट गए. जया ने गीले कपड़े से पोंछ कर सुनीता को प्रतीक स्नान कराया. सुनीता के चेहरे पर योगिनी जैसी चिर शांति छाई हुई थी. जया सुनीता का रूप सौंदर्य देख कर विस्मित हो गई, तो अभिनव ने इतनी रूपसी पत्नी पाई थी? अभिनव ने पहले कभी पत्नी से मुलाकात भी तो नहीं कराई और आज मुलाकात भी हुई तो इस मोड़ पर. जया गमगीन हो गई.

कभी अभिनव ने उस के सामने भी तो विवाह का प्रस्ताव रखा था. उस समय वह रोंआसी हो कर बोली थी, ‘अभिनव, ये मेरा सौभाग्य होता. तुम बहुत अच्छे इनसान हो लेकिन परिवार की जिम्मेदारियां रहते मैं अपना घर नहीं बसा सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.’

फिर भी अभिनव ने कई वर्ष तक जया का इंतजार किया. वैसे उन दोनों के बीच प्रेमप्रसंग जैसी कोई बात भी नहीं थी.

पारिवारिक जिम्मेदारियां समाप्त होतेहोते बहुत देर हो गई. उस के बाद अगर वह चाहती तो आासनी से अपना घर बसा लेती लेकिन उस के मन ने किसी और से प्रणय स्वीकार ही नहीं किया.

अभी पिछले हफ्ते ही तो अभिनव उसे समझा रहा था, ‘जया, जिद छोड़ो, अपनी पसंद की शादी कर लो. युवावस्था का अकेलापन सहन हो जाता है, प्रौढ़ावस्था का अकेलापन कठिनाई से सहन हो पाता है. मगर वृद्धावस्था में अकेलेपन की टीस बहुत सालती है.’

जया ने हंस कर बात टाल दी थी, ‘अब इस उम्र में मुझ से शादी करने के लिए कौन बैठा होगा? फिर अगर आज शादी कर भी ली जाए तो 10-5 साल बाद मियांबीवी बैठ कर घुटनों में आयोडेक्स ही तो मलेंगे. अब यह भी क्या कोई मौजमस्ती की उम्र है? इस उम्र में तो आदमी अपने बच्चों की शादी की बात सोचता है.’

अभिनव ने प्रतिवाद किया था, ‘10 साल बाद की बात छोड़ो, वर्तमान में जीना सीखो. हम सुबह घूमने जाते हैं, उगता हुआ सूरज का गोला देखते हैं, फूल देखते हैं, सृष्टि के अन्य नजारे देखते हैं. मन में कैसा उजास भर जाता है. कुछ पलों के लिए हम जिंदगी के सभी अभावों को भूल कर प्रफुल्लित हो जाते हैं. क्या यह जीवन की उपलब्धि नहीं है?’

जया का ध्यान टूटा…सामने अभिनव की पत्नी की मृत देह पड़ी थी. वह धीमेधीमे सुनीता का सिंगार करने लगी. उसे लगा जैसे मन पूछ रहा है कि आज वह इस घर में किस अधिकार से अंदर चली आई? नहीं, वह इस घर में अनधिकार नहीं आई है. आज अभिनव को उस की बेहद जरूरत थी.

‘और अगर अभिनव को कल भी उस की जरूरत हुई तो?’ अचानक उस के मन में प्रश्न कौंधा.

जया ने हड़बड़ा कर सुनीता की मृत देह की ओर देखा : अब वह उस मृत देह का शृंगार कर के, अंतिम बार निहार कर बाहर आ गई. अन्य लोग उस की अंतिम क्रिया की तैयारी करने लगे.

मुक्ति

अचानक जया की नींद टूटी और वह हड़बड़ा कर उठी. घड़ी का अलार्म शायद बजबज कर थक चुका था. आज तो सोती रह गई वह. साढ़े 6 बज रहे थे. सुबह का आधा समय तो यों ही हाथ से निकल गया था.

वह उठी और तेजी से गेट की ओर चल पड़ी. दूध का पैकेट जाने कितनी देर से वैसे ही पड़ा था. अखबार भी अनाथों की तरह उसे अपने समीप बुला रहा था.

उस का दिल धक से रह गया. यानी आज भी गंगा नहीं आएगी. आ जाती तो अब तक एक प्याली गरम चाय की उसे नसीब हो गई होती और वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती. उसे अपनी काम वाली बाई गंगा पर बहुत जोर से खीज हो आई. अब तक वह कई बार गंगा को हिदायत दे चुकी थी कि छुट्टी करनी हो तो पहले बता दे. कम से कम इस तरह की हबड़तबड़ तो नहीं रहेगी.

वह झट से किचन में गई और चाय का पानी रख कर बच्चों को उठाने लगी. दिमाग में खयाल आया कि हर कोई थोड़ाथोड़ा अपना काम निबटाएगा तब जा कर सब को समय पर स्कूल व दफ्तर जाने को मिलेगा.

नल खोला तो पाया कि पानी लो प्रेशर में दम तोड़ रहा?था. उस ने मन ही मन हिसाब लगाया तो टंकी को पूरा भरे 7 दिन हो गए थे. अब इस जल्दी के समय में टैंकर को भी बुलाना होगा.  उस ने झंझोड़ते हुए पति गणेश को जगाया, ‘‘अब उठो भी, यह चाय पकड़ो और जरा मेरी मदद कर दो. आज गंगा नहीं आएगी. बच्चों को तैयार कर दो जल्दी से. उन की बस आती ही होगी.’’

पति गणेश उठे और उठते ही नित्य कर्मों से निबटने चले गए तो पीछे से जया ने आवाज दी, ‘‘और हां, टैंकर के लिए भी जरा फोन कर दो. इधर पानी खत्म हुआ जा रहा है.’’

‘‘तुम्हीं कर दो न. कितनी देर लगती है. आज मुझे आफिस जल्दी जाना है,’’ वह झुंझलाए.

‘‘जैसे मुझे तो कहीं जाना ही नहीं है,’’ उस का रोमरोम गुस्से से भर गया. पति के साथ पत्नी भले ही दफ्तर जाए तब भी सब घरेलू काम उसी की झोली में आ गिरेंगे. पुरुष तो बेचारा थकहार कर दफ्तर से लौटता है. औरतें तो आफिस में काम ही नहीं करतीं सिवा स्वेटर बुनने के. यही तो जबतब उलाहना देते हैं गणेश.

कितनी बार जया मिन्नतें कर चुकी थी कि बच्चों के गृहकार्य में मदद कर दीजिए पर पति टस से मस नहीं होते थे, ऊपर से कहते, ‘‘जया यार, हम से यह सब नहीं होता. तुम मल्टी टास्किंग कर लेती हो, मैं नहीं,’’ और वह फिर बासी खबरों को पढ़ने में मशगूल हो जाते.

मनमसोस कर रह जाती जया. गणेश ने उस की शिकायतों को कुछ इस तरह लेना शुरू कर दिया?था जैसे कोई धार्मिक प्रवचन हों. ऊपर से उलटी पट्टी पढ़ाता था उन का पड़ोसी नाथन जो गणेश से भी दो कदम आगे था. दोनों की बातचीत सुन कर तो जया का खून ही खौल उठता था.

‘‘अरे, यार, जैसे दफ्तर में बौस की डांट नहीं सुनते हो, वैसे ही बीवी की भी सुन लिया करो. यह भी तो यार एक व्यावसायिक संकट ही है,’’ और दोनों के ठहाके से पूरा गलियारा गूंज उठा?था.

जया के तनबदन में आग लग आई थी. क्या बीवीबच्चों के साथ रहना भी महज कामकाज लगता?था इन मर्दों को. तब औरतों को तो न जाने दिन में कितनी बार ऐसा ही प्रतीत होना चाहिए. घर संभालो, बच्चों को देखो, पति की फरमाइशों को पूरा करो, खटो दिनरात अरे, आक्यूपेशन तो महिलाओं के लिए है. बेचारी शिकायत भी नहीं करतीं.

जैसेतैसे 4 दिन इसी तरह गुजर गए. गंगा अब तक नहीं लौटी थी. वह पूछताछ करने ही वाली थी कि रानी ने कालबेल बजाते हुए घर में प्रवेश किया.

‘‘बीबीजी, गंगा ने आप को खबर करने के लिए मुझ से कहा था,’’ रानी बोली, ‘‘वह कुछ दिन अभी और नहीं आ पाएगी. उस की तबीयत बहुत खराब है.’’

रानी से गंगा का हाल सुना तो जया उद्वेलित हो उठी.  यह कैसी जिंदगी थी बेचारी गंगा की. शराबी पति घर की जिम्मेदारियां संभालना तो दूर, निरंतर खटती गंगा को जानवरों की तरह पीटता रहता और मार खाखा कर वह अधमरी सी हो गई थी.

‘‘छोड़ क्यों नहीं देती गंगा उसे. यह भी कोई जिंदगी है?’’ जया बोली.

माथे पर ढेर सारी सलवटें ले कर हाथ का काम छोड़ कर रानी ने एकबारगी जया को देखा और कहने लगी, ‘‘छोड़ कर जाएगी कहां वह बीबीजी? कम से कम कहने के लिए तो एक पति है न उस के पास. उसे भी अलग कर दे तो कौन करेगा रखवाली उस की? आप नहीं जानतीं मेमसाहब, हम लोग टिन की चादरों से बनी छतों के नीचे झुग्गियों में रहते हैं. हमारे पति हैं तो हम बुरी नजर से बचे हुए हैं. गले में मंगलसूत्र पड़ा हो तो पराए मर्द ज्यादा ताकझांक नहीं करते.’’

अजीब विडंबना थी. क्या सचमुच गरीब औरतों के पति सिर्फ एक सुरक्षा कवच भर ?हैं. विवाह के क्या अब यही माने रह गए? शायद हां, अब तो औरतें भी इस बंधन को महज एक व्यवसाय जैसा ही महसूस करने लगी हैं.

गंगा की हालत ने जया को विचलित कर दिया था. कितनी समझदार व सीधी है गंगा. उसे चुपचाप काम करते हुए, कुशलतापूर्वक कार्यों को अंजाम देते हुए जया ने पाया था. यही वजह थी कि उस की लगातार छुट्टियों के बाद भी उसे छोड़ने का खयाल वह नहीं कर पाई.

रानी लगातार बोले जा रही थी. उस की बातों से साफ झलक रहा?था कि गंगा की यह गाथा उस के पासपड़ोस वालों के लिए चिरपरिचित थी. इसीलिए तो उन्हें बिलकुल अचरज नहीं हो रहा था गंगा की हालत पर.

जया के मन में अचानक यह विचार कौंध आया कि क्या वह स्वयं अपने पति को गंगा की परिस्थितियों में छोड़ पाती? कोई जवाब न सूझा.

‘‘यार, एक कप चाय तो दे दो,’’ पति ने आवाज दी तो उस का खून खौल उठा.

जनाब देख रहे हैं कि अकेली घर के कामों से जूझ रही हूं फिर भी फरमाइश पर फरमाइश करे जा रहे हैं. यह समझ में नहीं आता कि अपनी फरमाइश थोड़ी कम कर लें.

जया का मन रहरह कर विद्रोह कर रहा था. उसे लगा कि अब तक जिम्मेदारियों के निर्वाह में शायद वही सब से अधिक योगदान दिए जा रही थी. गणेश तो मासिक आय ला कर बस उस के हाथ में धर देता और निजात पा जाता. दफ्तर जाते हुए वह रास्ते भर इन्हीं घटनाक्रमों पर विचार करती रही. उसे लग रहा था कि स्त्री जाति के साथ इतना अन्याय शायद ही किसी और देश में होता हो.

दोपहर को जब वह लंच के लिए उठने लगी तो फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर सहेली पद्मा थी. वह भी गंगा के काम पर न आने से परेशान थी. जैसेतैसे संक्षेप में जया ने उसे गंगा की समस्या बयान की तो पद्मा तैश में आ गई, ‘‘उस राक्षस को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए. मैं तो कहती हूं कि हम उसे पुलिस में पकड़वा देते हैं. बेचारी गंगा को कुछ दिन तो राहत मिलेगी. उस से भी अच्छा होगा यदि हम उसे तलाक दिलवा कर छुड़वा लें. गंगा के लिए हम सबकुछ सोच लेंगे. एक टेलरिंग यूनिट खोल देंगे,’’ पद्मा फोन पर लगातार बोले जा रही थी.

पद्मा के पति ने नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश प्राप्त कर लिया था और घर से ही ‘कंसलटेंसी’ का काम कर रहे थे. न तो पद्मा को काम वाली का अभाव इतनी बुरी तरह खलता था, न ही उसे इस बात की चिंता?थी कि सिंक में पड़े बर्तनों को कौन साफ करेगा. पति घर के काम में पद्मा का पूरापूरा हाथ बंटाते थे. वह भी निश्चिंत हो अपने दफ्तर के काम में लगी रहती. वह आला दर्जे की पत्रकार थी. बढि़या बंगला, ऐशोआराम और फिर बैठेबिठाए घर में एक अदद पति मैनसर्वेंट हो तो भला पद्मा को कौन सी दिक्कत होगी.

वह कहते हैं न कि जब आदमी का पेट भरा हो तो वह दूसरे की भूख के बारे में भी सोच सकता?है. तभी तो वह इतने चाव से गंगा को अलग करवाने की योजना बना रही थी.

पद्मा अपनी ही रौ में सुझाव पर सुझाव दिए जा रही थी. महिला क्लब की एक खास सदस्य होने के नाते वह ऐसे तमाम रास्ते जया को बताए जा रही थी जिस से गंगा का उद्धार हो सके.

जया अचंभित थी. मात्र 4 घंटों के अंतराल में उसे इस विषय पर दो अलगअलग प्रतिक्रियाएं मिली थीं. कहां तो पद्मा तलाक की बात कर रही?थी और उधर सुबह ही रानी के मुंह से उस ने सुना था कि गंगा अपने ‘सुरक्षाकवच’ की तिलांजलि देने को कतई तैयार नहीं होगी. स्वयं गंगा का इस बारे में क्या कहना होगा, इस के बारे में वह कोई फैसला नहीं कर पाई.

जब जया ने अपना शक जाहिर किया तो पद्मा बिफर उठी, ‘‘क्या तुम ऐसे दमघोंटू बंधन में रह पाओगी? छोड़ नहीं दोगी अपने पति को?’’

जया बस, सोचती रह गई. हां, इतना जरूर तय था कि पद्मा को एक ताजातरीन स्टोरी अवश्य मिल गई थी.

महिला क्लब के सभी सदस्यों को पद्मा का सुझाव कुछ ज्यादा ही भा गया सिवा एकदो को छोड़ कर, जिन्हें इस योजना में खामियां नजर आ रही थीं. जया ने ज्यादातर के चेहरों पर एक अजब उत्सुकता देखी. आखिर कोई भी क्यों ऐसा मौका गंवाएगा, जिस में जनता की वाहवाही लूटने का भरपूर मसाला हो.

प्रस्ताव शतप्रतिशत मतों से पारित हो गया. तय हुआ कि महिला क्लब की ओर से पद्मा व जया गंगा के घर जाएंगी व उसे समझाबुझा कर राजी करेंगी.

गंगा अब तक काम पर नहीं लौटी थी. रानी आ तो रही?थी, पर उस का आना महज भरपाई भर था. जया को घर का सारा काम स्वयं ही करना पड़ रहा था. आज तो उस की तबीयत ही नहीं कर रही थी कि वह घर का काम करे. उस ने निश्चय किया कि वह दफ्तर से छुट्टी लेगी. थोड़ा आराम करेगी व पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार पद्मा को साथ ले कर गंगा के घर जाएगी, उस का हालचाल पूछने. यह बात उस ने पति को नहीं बताई. इस डर से कि कहीं गणेश उसे 2-3 बाहर के काम भी न बता दें.

रानी से बातों ही बातों में उस ने गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब से महिला मंडली की बैठक हुई थी, रानी तो मानो सभी मैडमों से नाराज थी, ‘‘आप पढ़ीलिखी औरतों का तो दिमाग चल गया है. अरे, क्या एक औरत अपने बसेबसाए घर व पति को छोड़ सकती है? और वैसे भी क्या आप लोग उस के आदमी को कोई सजा दे रहे हो? अरे, वह तो मजे से दूसरी ले आएगा और गंगा रह जाएगी बेघर और बेआसरा.’’

40 साल की रानी को हाईसोसाइटी की इन औरतों पर निहायत ही क्रोध आ रहा था.

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Mother’s Day Special: मुक्ति-भाग 4

मां को सब से अधिक परेशानी इस बात की थी कि परदेश में उन्हें हंसनेबोलने के लिए कोई संगीसाथी नहीं मिल पाता था, और अकेले कहीं जा कर किसी से अपना परिचय भी नहीं बढ़ा सकती थीं. शिकागो जैसे बड़े शहर में भारतीयों की कोई कमी तो नहीं थी, पर सुनील दंपती लोगों से कम ही मिलाजुला करते थे.

कभीकभी मां को वे मंदिर ले जाते थे. उन्हें वहां पूरा माहौल भारत का सा मिलता था. उस परिसर में घूमती हुई किसी भी बुजुर्ग स्त्री को देखते ही वे देर तक उन से बातें करने के लिए आतुर हो जातीं. वे चाहती थीं कि वे वहां बराबर जाया करें, पर यह  भी कर सकना सुनील या उस की पत्नी के लिए संभव नहीं था. अपनी व्यस्तता के बीच तथा अपनी रुचि के प्रतिकूल सुनील के लिए सप्ताहदोसप्ताह में एक बार से अधिक मंदिर जाना संभव नहीं था और वह भी थोड़े समय के लिए.

कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था.

आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

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पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था.

मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

सुनील देखता था कि वे किस प्रकार घर का काम करने, विशेषकर खाना बनाने के लिए आगे बढ़ा करती थीं पर सुनील की पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने दे सकती थी. कहीं कुछ दुर्घटना घट जाती तो लेने के देने पड़ जाते. बिना इंश्योरैंस के सैकड़ों डौलर बैठेबिठाए फुंक जाते. तब भी, जबतब मां की अपनी विशेषज्ञता जोर पकड़ लेती और वे बहू से कह बैठतीं, यह ऐसे थोड़े बनता है, यह तो इस तरह बनता है. साफ था कि उस की पत्नी को उन से सीख लेने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी.

सुनील की मां के लिए अमेरिका छोड़ना हर प्रकार सुखकर हो, ऐसी भी बात नहीं थी. अपने बेटे की नजदीकी ही नहीं, बल्कि सारी मुसीबतों के बावजूद उस की आंखों में चमकता अपनी मां के प्रति प्यार आंखों के बूढ़ी होने के बाद भी उन्हें साफ दिख जाता था. दूसरी ओर अमेरिका में रहने का दुख भी कम नहीं था. उन का जीवन अपने ही पर भार बन कर रह गया था.

अब जहां वे जा रही थीं वहां से पारिवारिक संबंध या स्नेह संबंध तो नाममात्र का था, यह तो एक व्यापारिक संबंध स्थापित होने जा रहा था. ऐसी स्थिति में शिवानी से महीनों तक उन का किसी प्रकार का स्नेहसंबंध नहीं हो पाया. जो केवल पैसे के लिए उन्हें रख रही हो उस से स्नेहसंबंध क्या?

उन का यह बरताव उन की अपनी और अपने बेटे की गौरवगाथा में ही नहीं, बल्कि दिनप्रतिदिन की सामान्य बातचीत में भी जाहिर हो जाता था. उस में मेरातेरा का भाव भरा होता था. यह एसी मेरे बेटे का है, यह फ्रिज मेरा है, यह आया मेरे बेटे के पैसे से रखी गई है, इसलिए मेरा काम पहले करेगी, इत्यादि.

शिवानी को यह सब सिर झुका कर स्वीकार करना पड़ता, कुछ नानी की उम्र का लिहाज कर के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति को याद कर के और कुछ इस भार को स्वीकार करने की गलती का एहसास कर के.

मोबाइल की घंटी रात के 2 बजे फिर बज उठी. यह भी समय है फोन करने का? लेकिन होश आया, फोन जरूर मां की बीमारी की गंभीरता के कारण किया गया होगा. सुनील को डर लगा. फोन उठाना ही पड़ा. उधर से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानी तो अपना होश खो बैठी हैं.’’

‘‘क्या मतलब, होश खो बैठी हैं? डाक्टर को बुलाया’’ सुनील ने चिंता जताई.

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‘‘डाक्टर ने कहा कि आखिरी वक्त आ गया है, अब कुछ नहीं होगा.’’

सुनील को लगा कि शिवानी अब उसे रांची आने को कहेगी, ‘‘शिवानी, तुम्हीं कुछ उपाय करो वहां. हमारा आना तो नहीं हो सकता. इतनी जल्दी वीजा मिलना, फिर हवाईजहाज का टिकट मिलना दोनों मुश्किल होगा.’’

‘‘हां अंकल, मैं समझती हूं. आप कैसे आ सकते हैं?’’ सुनील को लगा जैसे व्यंग्य का एक करारा तमाचा उस के मुंह पर पड़ा हो.

‘‘किसी दूसरे डाक्टर को भी बुला लो.’’

‘‘अंकल, अब कोई भी डाक्टर क्या करेगा?’’

‘‘पैसे हैं न काफी?’’

‘‘आप ने अभी तो पैसे भेजे थे. उस में सब हो जाएगा.’’

शिवानी की आवाज कांप रही थी, शायद वह रो रही थी. दोनों ओर से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग हो रहा था. कोई भी उस भयंकर शब्द को मुंह में लाना नहीं चाहता था. मोबाइल अचानक बंद हो गया. शायद कट गया था.

3 घंटे के बाद मोबाइल की घंटी बजी. सुनील बारबार के आघातों से बच कर एकबारगी ही अंतिम परिणाम सुनना चाहता था.

शिवानी थी, ‘‘अंकल, जान निकल नहीं रही है. शायद वे किसी को याद कर रही हैं या किसी को अंतिम क्षण में देखना चाहती हैं.’’

सुनील को जैसे पसीना आ गया, ‘‘शिवानी, पानी के घूंट डालो उन के मुंह में.’’

‘‘अंकल, मुंह में पानी नहीं जा रहा.’’ और वह सुबकती रही. फोन बंद हो गया.

सुबह होने से पहले घंटी फिर बजी. सुनील बेफिक्र हो गया कि इस बार वह जिस समाचार की प्रतीक्षा कर रहा था वही मिलेगा. अब किसी और अपराधबोध का सामना करने की चिंता उसे नहीं थी. उस ने बेफिक्री की सांस लेते हुए फोन उठाया और दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानीजी को मुक्ति मिल गई.’’ सुनील के कानों में शब्द गूंजने लगे, बोलना चाहता था लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे.

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Mother’s Day Special: मुक्ति-भाग 3

वैसे वह रिटायर हो चुका था. यह नहीं कि इस बीच वह भारत गया ही नहीं. हर वर्ष वह भारत जाता रहा था किंतु कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की जहमत उठाता. कभी अपने काम से तो कभी पत्नी को भारतभ्रमण कराने के चलते. किंतु रांची जाने में जितनी तकलीफ उठानी पड़ती थी, उस के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता था. मां को या शिवानी को पता भी नहीं चल पाता कि वह इस बीच कभी भारत आया भी है.

अमेरिका से फोन करकर वह यह बताता रहता कि अभी वह बहुत व्यस्त है, छुट्टी मिलते ही मां से मिलने जरूर आएगा. और मन को हलका करने के लिए वह कुछ अधिक डौलर भेज देता केवल मां के ही लिए नहीं, शिवानी के बच्चों के लिए या खुद शिवानी और उस के पति के लिए भी. तब शिवानी संक्षेप में अपना आभार प्रकट करते हुए फोन पर कह देती कि वह उस की व्यस्तता को समझ सकती है. पता नहीं शिवानी के उस कथन में उसे क्या मिलता कि वह उस में आभार कम और व्यंग्य अधिक पाता था.

सुनील के अमेरिका जाने के बाद से उस की मां उस की बहन यानी अपनी बेटी सुषमा के पास वर्षों रहीं. सुनील के पिता पहले ही मर चुके थे. इस बीच सुनील अमेरिका में खुद को व्यवस्थित करने में लगा रहा. संघर्ष का समय खत्म हो जाने के बाद उस ने मां को अमेरिका नहीं बुलाया.

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बहन तथा बहनोई ने बारबार लिखा कि आप मां को अपने साथ ले जाइए पर सुनील इस के लिए कभी तैयार नहीं हुआ. उस के सामने 2 मुख्य बहाने थे, एक तो यह कि मां का वहां के समाज में मन नहीं लगेगा जैसा कि वहां अन्य बुजुर्ग व रिटायर्ड लोगों के साथ होता है और दूसरे, वहां इन की दवा या इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिल सकती. हालांकि वह इस बात को दबा गया कि इस बीच वह उन के भारत रहतेरहते भी उन्हें ग्रीनकार्ड दिला सकता था और अमेरिका पहुंचने पर उन्हें सरकारी मदद भी मिल सकती थी.

एक बार जब वह सुषमा की बीमारी पर भारत आया तो बहन ने ही रोरो कर बताया कि मां के व्यवहार से उन के पति ही नहीं, उस के बच्चे भी तंग रहते हैं. अपनी बात यदि वह बेटी होने के कारण छोड़ भी दे तो भी वह उन लोगों की खातिर मां को अपने साथ नहीं रख सकती. दूसरी ओर मां का यह दृढ़ निश्चय था कि जब तक सुषमा ठीक नहीं  हो जाती तब तक वे उसे छोड़ नहीं सकतीं.

सुनील ने अपने स्वार्थवश मां की हां में हां मिलाई. सुषमा कैंसर से पीडि़त थी. कभी भी उस का बुलावा आ सकता था. सुनील को उस स्थिति के लिए अपने को तैयार करना था.

सुषमा की मृत्यु पर सुनील भारत नहीं आ सका पर उस ने मां को जरूर अमेरिका बुलवा लिया अपने किसी संबंधी के साथ. अमेरिका में मां को सबकुछ बहुत बदलाबदला सा लगा. उन की निर्भरता बहुत बढ़ गई. बिना गाड़ी के कहीं जाया नहीं जा सकता था और गाड़ी उन का बेटा यानी सुनील चलाता था या बहू. घर में बंद, कोई सामाजिक प्राणी नहीं. बेटे को अपने काम के अलावा इधरउधर आनेजाने व काम करने की व्यस्तता लगी रहती थी. बहू पर घर के काम की जिम्मेदारी अधिक थी. यहां कोई कामवाली तो आती नहीं थी, घर की सफाई से ले कर बाहर के भी काम बहू संभालती थी.

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मां के लिए परेशानी की बात यह थी कि सुनील को कभीकभी घर के काम में अपनी पत्नी की सहायता करनी पड़ती थी. घर का मर्द घर में इस तरह काम करे, घर की सफाई करे, बरतन मांजे, कपड़े धोए, यह सब देख कर मां के जन्मजन्मांतर के संस्कार को चोट पहुंचती थी. सुनील के बारबार यह समझाने पर भी कि यहां अमेरिका में दाईनौकर की प्रथा नहीं है, और यहां सभी घरों में पतिपत्नी मिल कर घर के काम करते हैं, मां संतुष्ट नहीं होतीं.

मां को यही लगता कि उन की बहू ही उन के बेटे से रोज काम लिया करती है. सभी कामों में वे खुद हाथ बंटाना चाहतीं ताकि बेटे को वह सब नहीं करना पड़े, पर 85 साल की उम्र में उन पर कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था. कहीं भूल से उन्हें चोट न लग जाए, घर में आग न लग जाए, वे गिर न पड़ें, इन आशंकाओं के मारे कोई उन्हें घर का काम नहीं करने देता था.

सुनील अपनी मां का इलाज  करवाने में समर्थ नहीं था.

अमेरिका में कितने लोग सारा का सारा पैसा अपनी गांठ से लगा कर इलाज करवा सकते थे? मां ऐसी बातें सुन कर इस तरह चुप्पी साध लेती थीं जैसे उन्हें ये बातें तर्क या बहाना मात्र लगती हों. उन की आंखों में अविश्वास इस तरह तीखा हो कर छलक उठता था जिसे झेल न सकने के कारण, अपनी बात सही होने के बावजूद सुनील दूसरी तरफ देखने लग जाता था. उन की आंखें जैसे बोल पड़तीं कि क्या ऐसा कभी हो सकता है कि कोई सरकार अपने ही नागरिक की बूढ़ी मां के लिए कोई प्रबंध न करे. भारत जैसे गरीब देश में तो ऐसा होता ही नहीं, फिर अमेरिका जैसे संपन्न देश में ऐसा कैसे हो सकता था?

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सुनील के मन में वर्षों तक मां के लिए जो उपेक्षा भाव बना रहा था या उन्हें वह जो अपने पास अमेरिका बुलाने से कतराता रहा था शायद इस कारण ही उस में एक ऐसा अपराधबोध समा गया था कि वह अपनी सही बात भी उन से नहीं मनवा सकता था. कभीकभी वे रोंआसी हो कर यहां तक कह बैठती थीं कि दूसरे बच्चों का पेट काटकाट कर भी उन्होंने उसे डबल एमए कराया था और सुनील यह बिना कहे ही समझ जाता था कि वास्तव में वे कह रही हैं कि उस का बदला वह अब तक उन की उपेक्षा कर के देता रहा है जबकि उस की पाईपाई पर उन का हक पहले है और सब से ज्यादा है.

सुनील के सामने उन दिनों के वे दृश्य उभर आते जब वह कालेज की छुट्टियों में घर लौटता था और अपने मातापिता के साथ भाईबहनों को भी वह रूखासूखा खाना बिना किसी सब्जीतरकारी के खाते देखता था.

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Serial Story: मुक्ति – भाग 1

लेखक- आर केशवन

अचानक जया की नींद टूटी और वह हड़बड़ा कर उठी. घड़ी का अलार्म शायद बजबज कर थक चुका था. आज तो सोती रह गई वह. साढ़े 6 बज रहे थे. सुबह का आधा समय तो यों ही हाथ से निकल गया था.

वह उठी और तेजी से गेट की ओर चल पड़ी. दूध का पैकेट जाने कितनी देर से वैसे ही पड़ा था. अखबार भी अनाथों की तरह उसे अपने समीप बुला रहा था.

उस का दिल धक से रह गया. यानी आज भी गंगा नहीं आएगी. आ जाती तो अब तक एक प्याली गरम चाय की उसे नसीब हो गई होती और वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती. उसे अपनी काम वाली बाई गंगा पर बहुत जोर से खीज हो आई. अब तक वह कई बार गंगा को हिदायत दे चुकी थी कि छुट्टी करनी हो तो पहले बता दे. कम से कम इस तरह की हबड़तबड़ तो नहीं रहेगी.

वह झट से किचन में गई और चाय का पानी रख कर बच्चों को उठाने लगी. दिमाग में खयाल आया कि हर कोई थोड़ाथोड़ा अपना काम निबटाएगा तब जा कर सब को समय पर स्कूल व दफ्तर जाने को मिलेगा.

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नल खोला तो पाया कि पानी लो प्रेशर में दम तोड़ रहा?था. उस ने मन ही मन हिसाब लगाया तो टंकी को पूरा भरे 7 दिन हो गए थे. अब इस जल्दी के समय में टैंकर को भी बुलाना होगा.  उस ने झंझोड़ते हुए पति गणेश को जगाया, ‘‘अब उठो भी, यह चाय पकड़ो और जरा मेरी मदद कर दो. आज गंगा नहीं आएगी. बच्चों को तैयार कर दो जल्दी से. उन की बस आती ही होगी.’’

पति गणेश उठे और उठते ही नित्य कर्मों से निबटने चले गए तो पीछे से जया ने आवाज दी, ‘‘और हां, टैंकर के लिए भी जरा फोन कर दो. इधर पानी खत्म हुआ जा रहा है.’’

‘‘तुम्हीं कर दो न. कितनी देर लगती है. आज मुझे आफिस जल्दी जाना है,’’ वह झुंझलाए.

‘‘जैसे मुझे तो कहीं जाना ही नहीं है,’’ उस का रोमरोम गुस्से से भर गया. पति के साथ पत्नी भले ही दफ्तर जाए तब भी सब घरेलू काम उसी की झोली में आ गिरेंगे. पुरुष तो बेचारा थकहार कर दफ्तर से लौटता है. औरतें तो आफिस में काम ही नहीं करतीं सिवा स्वेटर बुनने के. यही तो जब  तब उलाहना देते हैं गणेश.

कितनी बार जया मिन्नतें कर चुकी थी कि बच्चों के गृहकार्य में मदद कर दीजिए पर पति टस से मस नहीं होते थे, ऊपर से कहते, ‘‘जया यार, हम से यह सब नहीं होता. तुम मल्टी टास्किंग कर लेती हो, मैं नहीं,’’ और वह फिर बासी खबरों को पढ़ने में मशगूल हो जाते.

मनमसोस कर रह जाती जया. गणेश ने उस की शिकायतों को कुछ इस तरह लेना शुरू कर दिया?था जैसे कोई धार्मिक प्रवचन हों. ऊपर से उलटी पट्टी पढ़ाता था उन का पड़ोसी नाथन जो गणेश से भी दो कदम आगे था. दोनों की बातचीत सुन कर तो जया का खून ही खौल उठता था.

‘‘अरे, यार, जैसे दफ्तर में बौस की डांट नहीं सुनते हो, वैसे ही बीवी की भी सुन लिया करो. यह भी तो यार एक व्यावसायिक संकट ही है,’’ और दोनों के ठहाके से पूरा गलियारा गूंज उठा?था.

जया के तनबदन में आग लग आई थी. क्या बीवीबच्चों के साथ रहना भी महज कामकाज लगता?था इन मर्दों को. तब औरतों को तो न जाने दिन में कितनी बार ऐसा ही प्रतीत होना चाहिए. घर संभालो, बच्चों को देखो, पति की फरमाइशों को पूरा करो, खटो दिनरात अरे, आक्यूपेशन तो महिलाओं के लिए है. बेचारी शिकायत भी नहीं करतीं.

जैसेतैसे 4 दिन इसी तरह गुजर गए. गंगा अब तक नहीं लौटी थी. वह पूछताछ करने ही वाली थी कि रानी ने कालबेल बजाते हुए घर में प्रवेश किया.

‘‘बीबीजी, गंगा ने आप को खबर करने के लिए मुझ से कहा था,’’ रानी बोली, ‘‘वह कुछ दिन अभी और नहीं आ पाएगी. उस की तबीयत बहुत खराब है.’’

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रानी से गंगा का हाल सुना तो जया उद्वेलित हो उठी.  यह कैसी जिंदगी थी बेचारी गंगा की. शराबी पति घर की जिम्मेदारियां संभालना तो दूर, निरंतर खटती गंगा को जानवरों की तरह पीटता रहता और मार खाखा कर वह अधमरी सी हो गई थी.

‘‘छोड़ क्यों नहीं देती गंगा उसे. यह भी कोई जिंदगी है?’’ जया बोली.

माथे पर ढेर सारी सलवटें ले कर हाथ का काम छोड़ कर रानी ने एकबारगी जया को देखा और कहने लगी, ‘‘छोड़ कर जाएगी कहां वह बीबीजी? कम से कम कहने के लिए तो एक पति है न उस के पास. उसे भी अलग कर दे तो कौन करेगा रखवाली उस की? आप नहीं जानतीं मेमसाहब, हम लोग टिन की चादरों से बनी छतों के नीचे झुग्गियों में रहते हैं. हमारे पति हैं तो हम बुरी नजर से बचे हुए हैं. गले में मंगलसूत्र पड़ा हो तो पराए मर्द ज्यादा ताकझांक नहीं करते.’’

अजीब विडंबना थी. क्या सचमुच गरीब औरतों के पति सिर्फ एक सुरक्षा कवच भर ?हैं. विवाह के क्या अब यही माने रह गए? शायद हां, अब तो औरतें भी इस बंधन को महज एक व्यवसाय जैसा ही महसूस करने लगी हैं.

गंगा की हालत ने जया को विचलित कर दिया था. कितनी समझदार व सीधी है गंगा. उसे चुपचाप काम करते हुए, कुशलतापूर्वक कार्यों को अंजाम देते हुए जया ने पाया था. यही वजह थी कि उस की लगातार छुट्टियों के बाद भी उसे छोड़ने का खयाल वह नहीं कर पाई.

रानी लगातार बोले जा रही थी. उस की बातों से साफ झलक रहा?था कि गंगा की यह गाथा उस के पासपड़ोस वालों के लिए चिरपरिचित थी. इसीलिए तो उन्हें बिलकुल अचरज नहीं हो रहा था गंगा की हालत पर.

जया के मन में अचानक यह विचार कौंध आया कि क्या वह स्वयं अपने पति को गंगा की परिस्थितियों में छोड़ पाती? कोई जवाब न सूझा.

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‘‘यार, एक कप चाय तो दे दो,’’ पति ने आवाज दी तो उस का खून खौल उठा.

जनाब देख रहे हैं कि अकेली घर के कामों से जूझ रही हूं फिर भी फरमाइश पर फरमाइश करे जा रहे हैं. यह समझ में नहीं आता कि अपनी फरमाइश थोड़ी कम कर लें.

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Serial Story: मुक्ति – भाग 2

लेखक- आर केशवन

जया का मन रहरह कर विद्रोह कर रहा था. उसे लगा कि अब तक जिम्मेदारियों के निर्वाह में शायद वही सब से अधिक योगदान दिए जा रही थी. गणेश तो मासिक आय ला कर बस उस के हाथ में धर देता और निजात पा जाता. दफ्तर जाते हुए वह रास्ते भर इन्हीं घटनाक्रमों पर विचार करती रही. उसे लग रहा था कि स्त्री जाति के साथ इतना अन्याय शायद ही किसी और देश में होता हो.

दोपहर को जब वह लंच के लिए उठने लगी तो फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर सहेली पद्मा थी. वह भी गंगा के काम पर न आने से परेशान थी. जैसेतैसे संक्षेप में जया ने उसे गंगा की समस्या बयान की तो पद्मा तैश में आ गई, ‘‘उस राक्षस को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए. मैं तो कहती हूं कि हम उसे पुलिस में पकड़वा देते हैं. बेचारी गंगा को कुछ दिन तो राहत मिलेगी. उस से भी अच्छा होगा यदि हम उसे तलाक दिलवा कर छुड़वा लें. गंगा के लिए हम सबकुछ सोच लेंगे. एक टेलरिंग यूनिट खोल देंगे,’’ पद्मा फोन पर लगातार बोले जा रही थी.

पद्मा के पति ने नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश प्राप्त कर लिया था और घर से ही ‘कंसलटेंसी’ का काम कर रहे थे. न तो पद्मा को काम वाली का अभाव इतनी बुरी तरह खलता था, न ही उसे इस बात की चिंता?थी कि सिंक में पड़े बर्तनों को कौन साफ करेगा. पति घर के काम में पद्मा का पूरापूरा हाथ बंटाते थे. वह भी निश्चिंत हो अपने दफ्तर के काम में लगी रहती. वह आला दर्जे की पत्रकार थी. बढि़या बंगला, ऐशोआराम और फिर बैठेबिठाए घर में एक अदद पति मैनसर्वेंट हो तो भला पद्मा को कौन सी दिक्कत होगी.

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वह कहते हैं न कि जब आदमी का पेट भरा हो तो वह दूसरे की भूख के बारे में भी सोच सकता?है. तभी तो वह इतने चाव से गंगा को अलग करवाने की योजना बना रही थी.

पद्मा अपनी ही रौ में सुझाव पर सुझाव दिए जा रही थी. महिला क्लब की एक खास सदस्य होने के नाते वह ऐसे तमाम रास्ते जया को बताए जा रही थी जिस से गंगा का उद्धार हो सके.

जया अचंभित थी. मात्र 4 घंटों के अंतराल में उसे इस विषय पर दो अलगअलग प्रतिक्रियाएं मिली थीं. कहां तो पद्मा तलाक की बात कर रही?थी और उधर सुबह ही रानी के मुंह से उस ने सुना था कि गंगा अपने ‘सुरक्षाकवच’ की तिलांजलि देने को कतई तैयार नहीं होगी. स्वयं गंगा का इस बारे में क्या कहना होगा, इस के बारे में वह कोई फैसला नहीं कर पाई.

जब जया ने अपना शक जाहिर किया तो पद्मा बिफर उठी, ‘‘क्या तुम ऐसे दमघोंटू बंधन में रह पाओगी? छोड़ नहीं दोगी अपने पति को?’’

जया बस, सोचती रह गई. हां, इतना जरूर तय था कि पद्मा को एक ताजातरीन स्टोरी अवश्य मिल गई थी.

महिला क्लब के सभी सदस्यों को पद्मा का सुझाव कुछ ज्यादा ही भा गया सिवा एकदो को छोड़ कर, जिन्हें इस योजना में खामियां नजर आ रही थीं. जया ने ज्यादातर के चेहरों पर एक अजब उत्सुकता देखी. आखिर कोई भी क्यों ऐसा मौका गंवाएगा, जिस में जनता की वाहवाही लूटने का भरपूर मसाला हो.

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प्रस्ताव शतप्रतिशत मतों से पारित हो गया. तय हुआ कि महिला क्लब की ओर से पद्मा व जया गंगा के घर जाएंगी व उसे समझाबुझा कर राजी करेंगी.

गंगा अब तक काम पर नहीं लौटी थी. रानी आ तो रही?थी, पर उस का आना महज भरपाई भर था. जया को घर का सारा काम स्वयं ही करना पड़ रहा था. आज तो उस की तबीयत ही नहीं कर रही थी कि वह घर का काम करे. उस ने निश्चय किया कि वह दफ्तर से छुट्टी लेगी. थोड़ा आराम करेगी व पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार पद्मा को साथ ले कर गंगा के घर जाएगी, उस का हालचाल पूछने. यह बात उस ने पति को नहीं बताई. इस डर से कि कहीं गणेश उसे 2-3 बाहर के काम भी न बता दें.

रानी से बातों ही बातों में उस ने गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब से महिला मंडली की बैठक हुई थी, रानी तो मानो सभी मैडमों से नाराज थी, ‘‘आप पढ़ीलिखी औरतों का तो दिमाग चल गया है. अरे, क्या एक औरत अपने बसेबसाए घर व पति को छोड़ सकती है? और वैसे भी क्या आप लोग उस के आदमी को कोई सजा दे रहे हो? अरे, वह तो मजे से दूसरी ले आएगा और गंगा रह जाएगी बेघर और बेआसरा.’’

40 साल की रानी को हाईसोसाइटी की इन औरतों पर निहायत ही क्रोध आ रहा था.

क्रमश:

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Serial Story: मुक्ति – भाग 3

लेखक- आर केशवन

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

पूर्व कथा

जया की नौकरानी गंगा कई दिनों से काम पर नहीं आ रही थी जिस की वजह से जया पर घर का सारा काम आ पड़ा था और वह परेशान रहने लगी थी. एक दिन रानी ने बताया कि गंगा 3-4 दिन और नहीं आएगी क्योंकि वह बीमार है तो जया की परेशानी और बढ़ गई. गंगा का पति अकसर उसे बुरी तरह पीटता था जिस की वजह से वह बीमार रहने लगी थी. जया ने रानी से कहा कि गंगा पति को छोड़ क्यों नहीं देती तो उस ने कहा कि पति चाहे कैसा हो वह पत्नी का सुरक्षा कवच होता है इसलिए वह उसे छोड़ नहीं सकती. दूसरी ओर जया की सहेली पद्मा जो एक पत्रकार थी और महिला क्लब की सदस्य भी, उस ने सुझाव रखा कि गंगा को उस के पति से तलाक दिलवाना ही ठीक रहेगा. जया ने बातोंबातों में रानी से गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब रानी को गंगा को ले कर महिला मंडल की बैठक होने का पता चला तो वह बोली, ‘‘आप पढ़ीलिखी मैडमों का दिमाग चल गया है. क्या एक औरत अपना बसाबसाया घर और पति को छोड़ सकती है. आप क्यों उसे बेसहारा करना चाहती हैं.’’ रानी को हाई सोसाइटी की इन औरतों पर बहुत क्रोध आ रहा था.

अब आगे…

टिन के उस जंगल में गंगा का घर खोजना तो सचमुच कुछ ऐसा ही था जैसे भूसे के ढेर में सूई ढूंढ़ना. बेतरतीब झोंपड़े, इधरउधर भागते बच्चों की टोलियां, उन्हें झिड़कती हुई माताओं को पार कर के उस के छोटे से एक कमरे वाले घर को तलाशने में ही पद्मा व जया की हालत खराब हो गई.

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गंगा को उस ने अपनी खोली के एक अंधेरे कोने में दुबका हुआ पाया. चेहरे पर खरोंच यह बता रहे थे कि इस बार मरम्मत कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह से हुई थी. जया उस की खस्ता हालत को देख कर अचंभित तो थी ही, उस के जर्जर शरीर को देख कर उसे गहरा दुख भी हुआ.

उन्हें देख कर गंगा जल्दी से उठने लगी तो जया ने उसे हाथ बढ़ा कर रोक दिया.

‘‘बैठी रहो, गंगा,’’ उस ने आत्मीयता से कहा, ‘‘वैसे ही तुम्हारी हालत काफी नाजुक लग रही है.’’

1 मिनट का असाधारण मौन छा गया और फिर गंगा उन के लिए चाय बनाने उठी. लाख मना करने पर भी मानी नहीं.

चाय की चुसकियां लेते हुए जया व पद्मा ने बाहर कुछ आहट सुनी. पदचाप बाहर की ओर से आ रही थी. गंगा फुरती से उठी और 1 मिनट बाद लौटी, ‘‘मेरे पति हैं,’’ उस ने धीमी आवाज में कहा.

पद्मा तो मानो इसी घड़ी की प्रतीक्षा में थी. वह तुरंत उठी व पल्लू खोंसते हुए तेजी से बाहर की ओर रुख करने लगी. गंगा ने हाथ बढ़ा कर उसे रोक लिया और दयनीय स्वर में बोली, ‘‘उसे कुछ मत कहना, बीबीजी.’’

जया ने महसूस किया कि गंगा का पति नशे की हालत में ऊलजुलूल बड़बड़ा रहा?था. 1 मिनट बाद चारपाई पर उस के ढेर होने की आवाज आई.

‘‘लगता है सो गया,’’ गंगा मुसकरा कर बोली, ‘‘अब 3-4 घंटे बेसुध पड़ा रहे तो मैं अपना बचाखुचा काम भी समेट लूं.’’

जया को उस बेचारी पर तरस आया कि इस हालत में भी वह घर संभालने में लगी हुई थी और उस का पति आराम से चारपाई तोड़ रहा था. जया को लगा कि वह और पद्मा गंगा के दैनिक कार्यों में बाधा उत्पन्न कर रही हैं. लौटने के उद्देश्य से उस ने गंगा की ओर देखा, ‘‘गंगा, अपना खयाल रखना, बता देना कब लौटोगी.’’

जया ने पद्मा की ओर कनखियों से इशारा किया.

पद्मा तो जैसे भरी बैठी थी, ‘‘रुक भी जाओ, भूल गईं, किसलिए आए?थे यहां,’’ दांत भींचते हुए उस ने जया के हाथ से अपना हाथ छुड़ाया व गंगा की ओर मुखातिब हुई.

गंगा के चेहरे पर उस समय भाव कुछ ऐसे थे जैसे उसे अंदेशा हो गया था कि आगे क्या होगा. रानी ने शायद उसे पहले ही आगाह कर दिया था.

जया कहने लगी, ‘‘फिर कभी, आज नहीं.’’

दरअसल, वह यह नहीं समझ पा रही थी कि क्या यह सही वक्त था गंगा से तलाक के विषय में बात करने का. उस की कमजोर हालत जया को सोचने पर मजबूर कर रही थी.

‘‘नहीं, आज ही. मुझे क्यों रोक रही हो तुम,’’ पद्मा क्रोधित स्वर में जया से बोली, फिर वह गंगा से मुखातिब हुई, ‘‘देखो गंगा, अब और इस हालत से जूझते रहने का फायदा नहीं. क्या तुम्हें नहीं लग रहा कि तुम एक फटेहाल जिंदगी जी रही हो? क्या मिल रहा?है तुम्हें अपने पति से सिवा मारपीट व गालीगलौज के? तुम ने कभी सोचा नहीं कि उस आदमी को छोड़ कर तुम ज्यादा सुखी रहोगी? अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचो कुछ.’’

पद्मा की उद्वेग के मारे सांस फूल रही थी और वह लगातार गंगा को प्रेरित करती रही कि ऐसा निरीह जीवन जीने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी.

गंगा शांति से उन की बात सुन रही थी. पद्मा का रोष थोड़ा ठंडा हुआ, ‘‘देखो गंगा, अगर तुम चाहो तो हम तुम्हारे जीवनयापन के लिए कुछ न कुछ इंतजाम कर ही लेंगे. तुम्हारे लिए एक छोटी सी टेलरिंग यूनिट खोल देंगे. तुम निश्चय तो करो.’’

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‘‘मैं ने सब सुना?है बीबीजी. रानी तो रोज आ कर आप लोगों की बातें बताती ही रहती है. पर नहीं. मुझे इन चीजों की जरूरत नहीं.

‘‘बिलकुल भी नहीं,’’ पद्मा ने आपत्ति उठाने के लिए मुंह बस खोला ही था कि बाहर से तेज अस्पष्ट आवाजें सुनाई देने लगीं.

इस से पहले कि जया और पद्मा कुछ समझतीं कि माजरा क्या है, गंगा बाहर भाग चुकी थी. उस के हाथ में 2 बड़ी बालटियां थीं. बाहर से लोगों की आवाजें दस्तक दे रही थीं, ‘‘टैंकर आ गया, टैंकर आ गया.’’

महानगर निगम के पानी का टैंकर पहुंच गया था. लोगों की अपार भीड़ एकत्र हो रही थी. जया व पद्मा बाहर आ कर नजारा देखने लगीं. यह समस्या तो इस शहर में कमज्यादा सभी तबकों की थी. आदमी सांस लेना भूल जाए पर टैंकर की आहट को नजरअंदाज कभी न कर पाए.

महिलाओं व पुरुषों की भीड़ गुत्थमगुत्था हो रही थी. टैंकर के सामने घड़ों, बरतनों, बालटियों की बेतरतीब कतारें लग गई थीं. जया की आंखें उस भीड़ में गंगा को ढूंढ़ने लगीं. उस ने पाया कि गंगा अपनी बीमारी को लगभग भूल कर लोगों से उलझ कर 2 बालटी पानी भर लाई?थी. घर के अहाते तक आतेआते उस का शरीर पसीने से भीग चुका था. माथे पर कुमकुम का निशान भीग कर अर्धकार हो गया था. जयाचंद्रा ने सहारा देने के उद्देश्य से उस से एक बालटी लेने की कोशिश की.

‘‘नहीं, नहीं, बीबीजी. मैं संभाल लूंगी,’’ उस ने जया का हाथ छुड़ाया और पति की ओर इंगित करने लगी, ‘‘यह निखट्टू भी तो है. अभी जगाती हूं इसे,’’ यह कहते हुए गंगा ने अपने दांत भींचे व अंदर की ओर भागी. लौटी तो उस के हाथों में 2 बालटियां और थीं. दोनों बालटियां उस ने आंगन के कोने में रखीं, कमर कस कर पति की चारपाई के करीब जा खड़ी हुई. जया डर रही थी कि जगाने पर वह निर्दयी गंगा के साथ न जाने कैसा सलूक करेगा. अलसाया सा, आधी नींद में वह बड़बड़ा रहा था.

और फिर वह अचंभा हुआ जिस की जया को कतई उम्मीद नहीं थी. गंगा ने चारपाई पर बेहोश पड़े पति को एक जोरदार लात मारी. मार के सदमे से वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. आंखें मींचता हुआ वह जायजा लेने लगा कि गाज कहां से गिरी.

‘‘उठ रे, शराबी,’’ गंगा ने दहाड़ मारी, ‘‘अभी नींद पूरी नहीं हुई या दूं मैं एक और लात.’’

वह आदमी धोती संभालता हुआ उठ खड़ा हुआ. 2 आगंतुक महिलाओं के सामने पिटने का एहसास जब हुआ तो बहुत देर हो चुकी थी. गंगा एक और लात जमाने के लिए तैयार खड़ी थी. लड़खड़ाए हुए पति के हाथ में उस ने बालटियां थमाईं और फरमान जारी किया, ‘‘जा, भर ला पानी, कमबख्त.’’

वह डगमगाता हुआ जब डोलने लगा तो गंगा ने 2 तमाचे और जड़ दिए, ‘‘अब जाता है कि…’’ और इसी के साथ दोचार मोटीमोटी गालियां भी पति के हिस्से में आ गईं.

जया व पद्मा अवाक् खड़ी थीं. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि अभी जिस महिषासुरमर्दिनी को उन्होंने देखा था यह वही छुईमुई सी गंगा थी, जिसे वे चुपचाप घर का काम निबटाते हुए देखा करती थीं. यह कैसा अनोखा रूप था उस का. मुंह खुला का खुला रह गया. होश आया तो पाया कि गंगा आसपास कहीं नहीं थी. वह फिर उसी रेले में शामिल हो गई थी. जीजान से अन्य महिलाओं से लड़ती हुई अपने हिस्से के जल को बालटियों में भरते हुए. महिलाएं एकदूसरे पर हावी हो रही थीं और उन की कर्कश आवाजों से वातावरण गूंज रहा था.

वे दोनों तब तक सन्न खड़ी रहीं जब तक गंगा घर में दोबारा आ नहीं गई. उन की फटी नजरों को भांपते हुए गंगा ने एक शर्मीली मुसकान बिखेरी.

‘‘गंगा, यह तुम थीं?’’ आवाज पद्मा के हलक से पहले निकली.

जया भी मुग्ध भाव से उसे देखे जा रही थी.

‘‘हां, बीबीजी, यह सब तो चलता रहता है. इसे मैं दोचार जमाऊंगी नहीं तो कैसे चलेगा. वह मुझ पर हाथ उठाता?है तो मैं भी उसे पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ती,’’ वह कुछ ऐसे बोल रही थी जैसे किसी शैतान बच्चे को राह पर लाने का नुस्खा समझा रही हो, ‘‘जब मैं चाहती हूं तब कमान अपने हाथ में ले लेती हूं,’’ झांसी की रानी जैसे भाव थे उस के चेहरे पर, ‘‘मैं जानती हूं बीबीजी, आप सब लोग हमारा?भला चाहती हैं. पर मुझे नहीं चाहिए यह तलाकवलाक. जरूरत नहीं है मुझे. मैं अपने तरीकों से इसे ‘लाइन’ पर ले आती हूं,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘कभीकभी कड़वी दवा पिला ही देती हूं मैं इसे. मिमियाता हुआ वापस आ जाता है बकरी की तरह. और किस के पास जाएगा. आना तो शाम को इसी घर में है न? जब होश आता है तो गलती का एहसास भी हो जाता है इसे. पता है इसे कि मेरे बगैर इस का गुजारा नहीं.’’

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गंगा ने शायद अपने पति पर पूरा अनुसंधान कर रखा था. अब मानो वह उन्हें उस की रिपोर्ट पढ़ा रही हो. जया को लगा वाकई जीवन की बागडोर गंगा ने कुछ अपने तरीके से संभाली हुई थी. शायद उन से बेहतर प्रचारक थी वह नारी मुक्ति की. शायद प्रचार करने की आवश्यकता भी नहीं थी गंगा को. उस के तरीके बेहद सरल व प्रायोगिक थे. उस ने देखा गंगा एकदम सहज भाव से बतियाए जा रही थी. उसे इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि उस के इस रवैये पर अन्य लोगों की क्या प्रतिक्रिया रहेगी. इस बीच कब गंगा का पति शरमाता हुआ लौटा व एक सेट बरतन और ले गया पानी भर लाने के लिए, इस की उन्हें सुध न रही.

जया व पद्मा अचंभित हालत में अपने वाहन की ओर बढ़ रही थीं. एक अजब खामोशी छाई हुई थी दोनों के बीच में. जाहिर था, दोनों ही गंगा व उस के पति के बारे में सोच रही थीं. जया को लगा कि शायद उन का क्लब वाला प्रस्ताव बेहद बेतुका था. कनखियों से उस ने पद्मा की ओर देखा जो कुछ ऐसी ही उधेड़बुन में लिप्त थी.

भारतीय परिवारों में एक अनोखा ही समीकरण था पतिपत्नी के बीच में. कभी किसी का पलड़ा भारी रहा तो कभी किसी का. क्या यही वजह नहीं थी पद्मा व उस के पति ने आपसी सामंजस्य से अपनी जिम्मेदारियों को आपस में बदल लिया था. सब लोग अपनी आपसी उलझनों का कुछ अपने तरीके से ही हल ढूंढ़ लेते हैं. गंगा ने भी शायद कुछ ऐसा ही कर लिया था.

गाड़ी में जब पद्मा निश्चल सी बैठी रह गई तो जया से रहा न गया. उस ने एकाएक पद्मा के हाथ से ‘डिक्टाफोन’ छीना, ‘‘देवियो और सज्जनो, क्या आप जानते हैं कि गंगा और हम में क्या अंतर है? वह अपने पति को लात मार सकती है पर हम नहीं.’’

और फिर दोनों महिलाओं के ठहाके गूंजने लगे.

ड्राइवर उन्हें कुछ ऐसे देखने लगा जैसे वे दोनों पागल हो गई हों.

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Mother’s Day Special: मुक्ति-भाग 2

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं.

सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं.

‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’

सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

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‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’

‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’

‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’

‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’

‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला.

‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’

‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’

‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’

शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को  अपने साथ अमेरिका में नहीं रख  सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.

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चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’

‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’

‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्हीं रह गए हो, बेटा.’

सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’

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सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

आगे पढ़ें- कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की…

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