दसरा फिल्म रिव्यू: नानी और कीर्ति सुरेश का शानदार अभिनय

 रेटिंग: तीन स्टार

निर्माताः सुधाकर चेरीकुरी

लेखकः श्रीकांत ओडेला,  जेला श्रीनाथ, अर्जुना पुटेरी,  वामसी कृष्णा पी

निर्देशक: श्रीकांत ओडेला

कलाकारः नानी, कीर्ति सुरेश,  दीक्षित शेट्टी, शाइन टामो चाको,  समुथिरकानी,  सई कुमार,  झांसी,  शामना कासिम,  राज षेखर अनिंगी

अवधि: दो घंटे 36 मिनट

बौलीवुड में सामाजिक मुद्दे या नारी उत्थान पर बनने वाली फिल्मों को इस तरह से बनाया जाता है कि यह सारे मुद्दे गायब हो जाते हैं और यह साफ नजर आने लगता है कि फिल्मसर्जक ने इस फिल्म को किस मकसद से बनाया है. जबकि दक्षिण भारतीय सिनेमा की खासियत यह है कि वह मुद्दे वाली फिल्म को भी मनोरंजक तरीके से बनाते हैं, परिणामतः उनकी फिल्में उपदेशात्मक भी नही लगती.  इसका ताजातरीन उदाहरण पहली बार स्वतंत्र लेखक व निर्देशक बने श्रीकांत ओडेला की तेलुगू फिल्म ‘‘दसरा’’ ( दशहरा), जो कि हिंदी सहित पांच भाशाओं में 30 मार्च को प्रदर्शित हुई है.

ग्रामीण पृष्ठभूमि में नारी की मर्जी के साथ ही ‘प्यार बड़ा या हवस बड़ा’ के सवाल को उठाने वाली फिल्म ‘दसरा’ एक ऐसी एक्शन प्रधान फिल्म है, जो अंत तक लोगों को बांधकर रखती है. जी हां! एक्शन प्रधान फिल्म ‘‘दसरा’’ बिना किसी शोरशराबे या भाषणबाजी के ग्रामीण राजनीति, सरपंच का चुनाव, दोस्ती, शराब में डूबे गांव के पुरूषों के चलते गांव में विधवा औरतांे की बढ़ती संख्या, जातिगत भेदभाव, दलित व मुस्लिम एकता, विधवा औरत की मर्जी के बिना उसे मंगल सूत्र पहनाना सही या गलत सहित कई मुद्दों पर बात करती है.

फिल्म ‘‘दसरा’’ यह संदेश भी देती है कि वर्तमान हालातों में रावण (राक्षसी प्रवृत्ति के लोग ) का विनाश करने के लिए राम नही रावण (राक्षसी प्रवृत्ति ही अपनाना) ही बनना पड़ेगा. फिल्म के नायक नानी दूसरी बार हिंदी भाषी दर्षकों के समक्ष हैं. इससे पहले हिंदी भाषी दर्शकों ने नानी को 2012 में एस एस राजामौली निर्देषित फिल्म ‘ईगा’ को हिंदी में डब होकर ‘मक्खी’ के नाम से प्रदर्षित हुई फिल्म में देखा था.

शाहिद कपूर की फिल्म ‘जर्सी’ इन्हीं नानी की इसी नाम की तेलुगू फिल्म की हिंदी रीमेक थी. इस बार नानी ने अपनी फिल्म ‘दसरा’ (दशहरा) का हिंदी ट्रेलर लखनउ, उत्तरप्रदेश में रिलीज किया था.

कहानीः

ग्रामीण पृष्ठभूमि में तमिलनाड़ु, अब तेलंगाना के कोयला खनन वाले वीरलापल्ली नामक की गांव की कहानी है. कहानी उस काल की है जब एन टी रामाराव मुख्यमंत्री थे और उन्होंने शराब बंदी लागू कर दी थी. यह गांव देश के मानचित्र पर एक धब्बा है. यह ऐसा गांव है, जहां सुबह होते ही गांव के सभी पुरूश ‘सिल्क बार’ पहुंचकर शराब का सेवन करना षुरू कर देते हैं. वह कोयले की खान में काम करते हैं और इसलिए उन्हें लगता है कि शराब पीना जरूरी है.

दलित व निचली जाति के लोगों को ‘सिल्क बार’ के अंदर जाने की इजाजत नही है. परिणामतः महिलाएं शोशण का षिकार होती रहती हैं. कहानी के केंद्र में धरणी (नानी) और सूरी (दीक्षित शेट्टी) और एक लड़की वेनेला(कीर्ति सुरेश)हैं. धरणी, सूरी व वेनेला बचपन से ही जिगरी दोस्त हैं. धरणी व सूरी चलती मालगाड़ियों से कोयले की चोरी करते रहते हैं. नम्र स्वभाव का धरणी परोपकारी है और टकरावों से दूर रहने में विश्वास करता है.

धरणी,  वेनेला को बचपन से ही प्यार करता आया है. पर जवानी मे जब पता चलता है कि सूरी और वेनेला एक दूसरे से प्यार करते हैं, तो वह अपना प्यार कुर्बान कर देता है. कई वर्षों के बाद,  गाँव और बार के नियंत्रण के लिए युद्ध में दो सौतेले भाइयों,  राजन्ना (साइकुमार) और शिवन्ना  (समुथिरकरानी) के बीच अनुचित सत्ता की राजनीति से प्रेम त्रिकोण बढ़ जाता है.  षिवन्ना का बेटा नंबी  (शाइन टॉम जैकब) आक्रामक स्वभाव का है, उसकी वजह से इस गांव की दिशा व दशा ही बदल जाती है.

धरणी, सूरी व वेनेला की जिंदगी में सारी समस्याओ की जड़ हवसी नंबी (शाइन टॉम जैकब) ही है. नंबी का अस्तित्व राजनीतिक और जातिगत दबदबे के कारण है. नंबी द्वारा रची गयी हिंसा से धरनी का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है और अब वह प्रतिशोध की योजना बनाने से लेकर खुद के अंदर साहस जुटाने में लग जाता है. डरपोक,  उत्तरदायित्व से जी चुराने वाला व्यक्ति धरणी अब तकदीर को मानने की बजाय कुछ कर गुजरने का फैसला ले लेता है.

लेखन व निर्देशनः

इंटरवल से पहले फिल्म की गति धीमी है. षुरूआती आधा घंटा निराशा जनक है. इंटरवल में जिस मोड़ पर फिल्म थमती है, उसे देखकर दर्षक जो कुछ सोचता है, उसके विपरीत इंटरवल के बाद कहानी न सिर्फ तेज गति से आगे बढ़ती है, बल्कि कई अलग अलग मोड़ आते हैं. तब लोगों की समझ में आता है कि इंटरवल से पहले धीमी गति से चलती हुई कहानी किस तरह किरदारों को परिभाषित करती है.

यह पटकथा लेखकों और निर्देशक का कमाल है. पटकथा लेखक व निर्देशक की खूबी यह है कि फिल्म का नाम ‘दसरा’ है, मगर क्लायमेक्स से पहले तक दर्षक के दिमाग में ‘दसरा’ (दशहरा) आता ही नही है. हम यहां याद दिला दें कि दक्षिण भारत में आज भी रावण की पूजा की जाती है. पर दशहरे के दिन रावण दहन की भी परंपरा है.

फिल्म ‘दसरा’ के सर्जक ने अपनी फिल्म की कहानी के लिए पात्र व उपमाएं हिंदू धर्म ग्रंथ ‘रामायण’ से ही चुने हैं. इंटरवल के बाद ही समझ में आता है कि धरणी, सूरी व वेनेला की जिंदगी में सारी समस्याओ की जड़ हवसी नंबी (शाइन टॉम जैकब) ही है. नंबी का अस्तित्व राजनीतिक और जातिगत दबदबे के कारण है.

फिल्म ‘दसरा’ देखकर लोगों की समझ में आएगा कि तीस साल पहले भी गांवों में किस तरह राजनीतिक प्रतिद्वंदिता व गांव का सरपंच आम लोगों का शोशण कर रहा था. फिल्म में जाति गत भेदभाव , प्रेम कहानी व दोस्ती को भी प्रभावी तरीके से उकेरा गया है.

फिल्म में फिल्म सर्जक ने जाति विभाजन के चलते सामाजिक परिणामों को अपने तीन मुख्य पात्रों के माध्यम से स्पष्ट तौर पर रेखंाकित किया है. फिल्म में सूरी व वेनेला की जाति एक ही है, जबकि धरणी की जाति अलग है. फिल्म में धरणी के हर निर्णय को सूरी के साथ अपनी प्रगाढ़ दोस्ती बताकर निर्देशक इस सवाल से जरुर बच गए कि वेनेला व सूरी एक ही जाति के हैं, इसलिए धरणी ने अपने प्यार को कुर्बान किया.

शायद इस मुद्दे से फिल्मकार खुद को अलग रखना चाहते थे. औरत की अपनी मर्जी के बिना कोई भी पुरूष उसके साथ कुछ नही कर सकता. इस पर बौलीवुड ने कई फिल्में बना डाली. जबकि इस फिल्म के लेखक व निर्देशक ने इसी सवाल को बिना भाशणबाजी के महज दो मिनट के अंदर पुरजोर तरीके से उठाया है. शादी के बाद हनीमून से पहले ही सूरी की हत्या के बाद जब वेनेला के सिर से सिंदूर, गले से मंगल सूत्र व हाथ की चूड़ियंा तोड़ी जाती है और उसे विधवा का दर्जा दिया जाता है, तभी धरणी वही मंगल सूत्र पुनः वेनेला को पहनाकर अपने घर ले आता है. पर उसके साथ धरणी दोस्ताना व्यवहार ही करता है.

उस वक्त मूक रही वेनेला बाद में स्पष्टीकरण मांगती है कि उसकी ओर से जीवन-परिवर्तनकारी निर्णय लेने से पहले उसकी सहमति क्यों नहीं मांगी गई?वह कहती है-‘‘मेरे गले में मंगलसूत्र डालने से पहले मेरी मर्जी क्यों नही पूछी गयी.’’ वेनेला के इस सवाल पर धरणी का जवाब एक तरह से माफी मांगने जैसा ही है. क्या बौलीवुड के फिल्मकार अपनी फिल्मों में इस तरह की बात करने का साहस दिखा सकते हैं?

फिल्म का कमजोर पक्ष यह है कि राख से भरे परिवेश, कालिख से भरी हवा व कोयले से भरी मालगाड़ी के अलावा कोयला खदान को स्थापित करने के लिए फिल्मकार ने कुछ नही किया. इसके अलावा फिल्म में राजन्ना का किरदार जबरन ठूंसा हुआ लगता है. क्योंकि राजन्ना राजनीति में कड़ुवाहट घोलने के बाद हर जगह सिर्फ शो पीस की तरह मौजूद रहता है.  अपने समर्थकों के पक्ष में भी कुछ नही करता.

फिल्म का क्लायमेक्स भी अनूठा है. फिल्म के कैमरामैन सत्थान सूर्यान की भी तारीफ करनी पड़ेगी. फिल्म के सभी गाने पार्श्व में चलते हैं, मगर पात्रों के मन की बात करते हुए कहानी को आगे बढ़ाते हैं. फिल्म के एक्शन दृष्यों की भी तारीफ की जानी चाहिए. कम से कम बौलीवुड के सर्जकों को ‘दसरा’ से सीखना चाहिए कि एक्शन क्या होता है?

अभिनयः

2008 में अभिनय जगत में कदम रखने वाले व कई भारतीय पुरस्कारों के साथ ही 2013 में ‘टोरंटो आफटर डार्क फिल्म फेस्टिवल’ में सर्वश्रेष्ठ हीरो का अवार्ड अपनी झोली में डाल चुके नानी की ‘दसरा’ 29वीं फिल्म है.

डिग्लैमरस धरणी के किरदार को नानी अपनी कुशाग्र बुद्धि से जीवंतता प्रदान करने में सफल रहे हैं. परोपकारी, अति विनम्र स्वभाव व झगड़े से दूर रहने वाले धरणी का कर्मठ युवा से लेकर निर्दयी इंसान बनने तक का जो बदलाव है, उसे बाखूबी परदे पर नानी ने जिया है.

इतना ही नहीं धरणी ने जिस तरह से अपने अंदर अपने प्यार को दबा रखा है, उसे नानी ने बाखूबी जिया है. अफसोस की बात यह है कि हिंदी में नानी के संवाद अभिनेता शरद केलकर ने डब किए हैं, जो कि नानी के किरदार धरणी पर फिट नही बैठते. यह फिल्म की कमजेार कड़ी है.

सूरी के किरदार में शेट्टी दीक्षित अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

वेनेला की जिंदगी में कई भावनात्मक उतार चढ़ाव आते हें और हर भाव को अपने चेहरे से उकेरने में सफल रहने वाली अभिनेत्री कीर्ति सुरेश ने 2018 में प्रदर्शित तेलुगू फिल्म ‘‘महानती’ में अपनी अभिनय प्रतिभा का परिचय दे चुकी हैं. मलयालम फिल्मों के निर्माता सुरेश कुमार और तमिल अभिनेत्री मेनका की बेटी कीर्ति सुरेश को अभिनय व फिल्म माहौल बचपन से मिला है.

बतौर बाल कलाकार भी वह तीन फिल्में कर चुकी हैं. कीर्ति सुरेश कमाल की अभिनेत्री हैं. नंबी के किरदार में अभिनेता शाइन टॉम चाको भी छा जाते हैं. उन्हे देखकर या उनकी बौडीलेंगवेज से यह कल्पना नही की जा सकती है कि इतना बुरा इंसान है.

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