प्रकृति की मार झेलता उत्तराखंड का छोटा गांव सेमला

गांव की व्यवस्था तभी किसी को समझ में आती है, जो गाँव से निकले है और वहां की मिटटी और वनस्पति से आती खुश्बू को महसूस किया हो. शहरों में रहने वालों को इसकी कीमत को समझना नामुमकिन होता है, उन्हें बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स में रहने की आदत होती है, सड़के और उनपर दौड़ती हुई कारें ही उन्हें डेवेलपमेंट का आभास कराती है, लेकिन इस आधुनिकरण की होड़ में वे भूल जाते है कि ये तभी संभव होगा, जब क्लाइमेट चेंज को रोका जाय, पर्यावरण में रहने वाले जीव-जंतु, पेड़-पौधे और मानव जीवन का संतुलन सही हो, नहीं तो धरती इसे खुद ही संतुलित कर लेती है मसलन कहीं बाढ़, कही सूखा तो कही खिसकते ग्लेशियर जिसमे हर साल लाखों की संख्या में लोग इन हादसों का शिकार हो रहे है, लेकिन कैसे संभव हो सकता है? इसी बात को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड के सेमला गांव में पली-बड़ी हुई निर्देशक और पटकथा लेखक सृष्टि लखेरा ने अपनी एक डोक्युमेंट्री फिल्म ‘एक था गांव’ के द्वारा समझाने की कोशिश की है, उनकी इस फिल्म ने कई अवार्ड जीते है.

क्लाइमेट चेंज को सम्हालने के लिए जमीनी स्तर पर काम जरुरी

गाँववालों की समस्या के बारें में सृष्टि कहती है किटिहरी गढ़वाल के गांव सेमला में काम करने वाली 80 साल की लीला ने अपना पूरा जीवन यहाँ बिताया है. उनके साथ रहने वालों की मृत्यु होने के बाद उन्हें अपना जीवन चलाना मुश्किल हो रहा है, फिर भी वह इस गांव को छोड़ना नहीं चाहती. इस गांव में गोलू ही ऐसी यूथ है, जो इस परित्यक्त गांव में रह गई है.अभी उनके साथ रहने वाले केवल घोस्ट ही है, क्योंकि पहले 50 परिवार के इस गांव में रहते थे, अब केवल 5 लोग इस गांव में रह गए है. इससे घाटी में जन-जीवन धीरे-धीरे ख़त्म होने लगा है. क्लाइमेट चेंज को लेकर बहुत बात होती है, लेकिन इसे रोकने के लिए जमीनी स्तर पर काम नहीं हो रहा है.

असंतुलित मौसम

स्टोरी की कांसेप्ट के बारें में सृष्टि बताती है कि उत्तराखंड के गाँव बहुत अधिक खाली हो रहे है, मेरे पिता भी गाँव से है, टिहरीगढ़वाल में स्थित सेमला से लोगों का पलायन हो रहा है, अभी केवल दो परिवार ही बचे है, इसे लेकर एक नोस्टाल्जिया, जो मेरे परिवार के अंदर है, उन्हें गांव खाली होने का डर सता रहा है,इसे हमेशा सुनते हुए और उनके दुखी मन को सांत्वना देने के लिए कोई शब्द नहीं थे,इसलिए इसे लेकर मैंने कुछ करने के बारें में सोचा, जिसमे खासकर पर्यावरण था. जब कोई खेत और जंगल छोड़ देता है, तो उसपर उगने वाले घासफूंस को जानवर भी नहीं चरना चाहते. अभी वहां पर चीर के पेड़ों की संख्या बहुत अधिक हो चुकी है, जिसका अधिक होना मिटटी और ग्राउंड वाटर के लिए खतरा होता है. इसका प्रभाव पर्यावरण संतुलन पर पड़ता है. ऐसे में इंसान का गाँव में रहना और खेती करना आवश्यक है, जिससे एक अच्छा जंगल पनप सकें. पानी जमीन में रहे. उपजाऊपन में कमी न हो. आज जंगल बन चुके स्थान ऐसा नहीं था. यहाँ लोग हज़ार साल से रह रहे थे उन्होंने खेती की और अपना जीवन निर्वाह किया. इस प्रकार परिवार के दुःख और पर्यावरण को देखते हुए मैंने ये फिल्म बनाई. सभी का गाँव से भागने की वजह से शहरों की भी हालत ख़राब है, वहां जनसंख्याँ का दबाव अधिक बढ़ रहा है. गांव में यूथ के लिए नौकरी नहीं है.

सामाजिक असामनता

तकनीक का प्रयोग इन गांवों में अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि ये पहाड़ी क्षेत्र है और यहाँ सीढ़ीनुमा खेतों में फार्मिंग की जाती है. सृष्टि आगे कहती है कि पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यहाँ की मिटटी पथरीली होती है. इसके अलावा शहर में रहकर भी खेती नहीं की जा सकती,लेकिन कॉपरेटिव फार्मिंग हो सकता है, जिसमें एक साथ 5 से 6 गांव साथ आकर पूरी जमीन को शेयर कर सकते है, लेकिन समाज टूटा हुआ होने की वजह से ऐसी फार्मिंग नहीं हो सकती. अधिकतर उच्च वर्ग के लोग पलायन करते है, दलित को जमीन की मालिकाना हक नहीं है, उनका उच्च वर्ग के साथ बनती नहीं है. दलितों के पास बहुत कम जमीन है. ऐसी कई समस्याएं है और इसका सीधा असर सामाजिक और पर्यावरण पर पड़ रहा है. भाई-चारा होने पर ऐसी स्थिति नहीं होती. जाति की समस्या और आपसी मनमुटाव ही इसकी जड़ है. यहाँ के बचे हुए लोग मनरेगा के अंतर्गत और पंचायत की टीम में मुर्गी पालन, पशुपालन आदि काम करते है, इससे थोड़ी आमदनी हो जाती है, लेकिन वे लोग अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है. इसके अलावा शहरों में रहने वाले पुरुषों की महिलाएं अधिकतर गाँव में रहती है, उन्हें समस्या अधिक होती है.

मिली प्रेरणा

सृष्टि इस फील्ड में पिछले 10 साल से निर्देशक के रूप में काम कर रही है, उन्होंने छोटी-छोटी प्रेरणादायक फिल्में दिल्ली में कई एनजीओ के लिए बनायीं है. इसके बाद उन्होंने अपने गांव के लिए फिल्म बनाई, क्योंकि वह इससे बहुत कनेक्ट रही. पर्यावरण के साथ समाज परिवार और जीव-जंतु सभी का एक जुड़ाव होता है. उसे उन्होंने सबके सामने रखने की कोशिश की है. इसे करने में अधिक मुश्किल उन्हें नहीं आई, क्योंकि ये उनके पिता की गांव है. 5 साल की मेहनत के बाद उन्होंने एक घंटे की फिल्म बनाई है.

 

करप्शन कम होती नहीं दिखती

सृष्टि आगे कहती है कि रिसर्च के दौरान मैंने काफी समय वहां बिताया है, लेकिन वहां किसी प्रकार की स्कीम या योजना गांववालों के लिए सरकार की तरफ से नहीं देखा. वहां रहने वालें दलित बहुत कम पढ़े-लिखे है. इससे उनको किसी बात की जानकारी नहीं होती. अपर कास्ट के लोग इनका शोषण करते है. इसे मैंने देखा और बहुत ख़राब लगा. पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए एक अच्छी कम्युनिटी का क्रिएट करना जरुरी है. वे संगठित तरीके से रह नहीं सकते,जिसमे औरतों का बहुत शोषण होता है. आपस में प्यार से न रह पाना ही पर्यवरण के लिए क्षति है और इसका असर सबको दिख रहा है. संगठित तरीके से काम अपनाने पर ही पर्यावरण का संरंक्षण हो सकता है. इसके अलावा उत्तराखंड में पहाड़ो को डायनामाईट से ब्लास्ट कर उस क्षेत्र में बिल्डिंग बनाई जा रही है, जो कानूनन मान्यता न होने पर भी हो रहा है, क्योंकि करप्शन बहुत अधिक है. यहाँ देखा गया है कि पर्यावरण से सम्बंधित कानून को लोग आसानी से तोड़ देते है, जो दुःख की बात है. उत्तराखंड में ये अधिक हो रहा है, ऐसे में पढ़े-लिखे संगठित समाज ही इन गलत चीजों के लिए अपनी आवाज उठा सकते है.

महिलाओं की ये बातें पुरुषों को करती हैं कन्फ्यूज

कहते हैं औरत ही औरत को समझती है. नारी चरित्र और उसको समझने के विषय में लम्बे चौड़े लेख लिखे जा चुके हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि नारी को समझना आसान काम नहीं है. खास तौर पर पुरुषों के लिए. महिलाएं रोजमर्रा के जीवन में भी कई बार पुरुषों के लिए पहेली बनी रहती हैं. कुछ ऐसी बाते हैं जो सामान्य तौर पर हर औरत कहती है जिसे समझना पुरुषों के लिए टेढ़ी खीर बन जाता है.

देखते हैं

ज्यादातर पुरुष स्पष्ट तौर पर बात करते हैं, वहीं महिलाएं बातों को गोल मोल कर देती हैं. इन गोल मोल बातों में शामिल है देखते हैं. दरअसल महिलाएं न कहना नहीं सीख पातीं. इसलिए ज्यादातर महिलाएं न बोलने की जगह देखते हैं बोलती हैं. ये शब्द पुरुषों को असमंजस में डाल देते हैं कि महिला काम को करेगी या नहीं.

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क्या मैं मोटी लग रही हूं?

एक ऐसा सवाल जो महिलाओं की जुबान पर आए दिन बना ही रहता है. खास तौर पर तब जब वो मन से तैयार हो रही हों. ऐसे में वो अपना पसंदीदा सवाल जब पुरुषों से करती हैं तो बदले में जवाब अपने मन माफिक ही चाहती हैं. लेकिन जवाब क्या देना है ये पुरुष आज तक तय नहीं कर पाए. क्योंकि अगर वो हां कहते हैं तो मुसीबत और न कहते हैं तो भी मुसीबत. इन दोनों ही जवाबों से महिलाएं संतुष्ट नहीं हो पाती.

क्या सोच रहे हो?

पुरुष को शांत और खुद में खोया देखकर महिलाएं जानने की इच्छुक हो जाती हैं कि पुरुष के मन में क्या चल रहा है. जब रहा नहीं जाता तो पूछ ही बैठती हैं कि क्या सोच रहे हो? अब जवाब क्या दें, ये पुरुष तय नहीं कर पाते. क्योंकि अगर वो सही जवाब देंगे तो उन्हें सौ सवालों का सामना करना पड़ेगा. इसलिए आम तौर पर पुरुषों का जवाब कुछ नहीं रहता है.

तुम बिल्कुल उसकी तरह हो

बीते रिश्ते से उबरना आसान नहीं होता. महिलाएं अक्सर अपने पूर्व साथी से अपने मौजूदा साथी की तुलना करती रहती हैं. दरअसल महिलाएं बहुत छोटी छोटी बातों को नोटिस करती हैं. ऐसे में कई बातें मानव स्वभाव में सामान्य तौर पर पाई जाती हैं. लेकिन अगर कोई बात उन्हें दोनो साथियों में समान दिखे तो वो यही बोलती हैं कि तुम बिल्कुल उसकी तरह हो. ऐसे में पुरुष समझ नहीं पाता कि वो उनकी किसी अच्छी बात की ओर इशारा कर रही या फिर वो कारण गिना रही जिस कारण पुराने साथी को छोड़ा था.

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मैं ठीक हूं

कैसी हो? जब महिलाएं दुखी या ठीक होती हैं तो जवाब में ठीक हूं बोलती हैं. साथ ही ये भी उम्मीद रखती हैं कि पुरुष उनके इस जवाब से समझ जाएं कि वो ठीक नहीं हैं. लेकिन हर बार ऐसा होना संभव नहीं. ऐसे में पुरुष पर उन्हें न समझ पाने जैसे तानों की झड़ी भी लगा देती हैं. महिलाओं का ये स्वभाव पुरुषों के लिए पहेली बना रहता है.

प्रकृति के नियमों पर कैसे चढ़ा धार्मिक रंग

क्या आप ने कभी देखा की चींटियों ने अपने ईष्ट देव के मंदिर बनाए, मूर्तियां गढ़ीं और पूजा की या मस्जिद बनाई और नमाज पढ़ी? चींटियों, दीमक की बांबियों में, मधुमक्खियों के छत्तों में क्या कोई कमरा ईश्वर के लिए भी होता है? क्या आप ने कभी देखा कि बंदरों ने व्रत रखा या त्योहार मनाया. पक्षी अपने अंडे देने के लिए कितनी कुशलता और तत्परता से सुंदरसुंदर घोंसले बनाते हैं, मगर इन घोंसलों में वे ईश्वर जैसी किसी चीज के लिए कोई पूजास्थल नहीं बनाते? ईश्वर जैसी चीज का डर मानव के सिवा धरती के अन्य किसी भी जीव में नहीं है. ईश्वर का डर मानवजाति के दिल में हजारों सालों से निरंतर बैठाया जा रहा है.

इस धरती पर करीब 87 लाख जीवों की विभिन्न प्रजातियां रहती हैं. इन लाखों जीवों में से एक मनुष्य भी है. ये लाखों जीव एकदूसरे से भिन्न आकारव्यवहार के हैं, मगर इन में एक चीज समान है कि इन में से प्रत्येक में 2 जातियां हैं, एक नर और एक मादा. प्रकृति ने इन 2 जातियों को एक ही काम सौंपा है कि वे एकदूसरे से प्रेम और सहवास के जरिए अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाए और धरती पर जीवन को चलाते रहें.

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जीवविज्ञानियों ने धरती पर पाए जाने वाले लाखों जीवों के जीवनचक्र को जानने के लिए तमाम खोजें, अनुसंधान और प्रयोग किए हैं. मगर आज तक किसी वैज्ञानिक ने अपनी रिसर्च में यह नहीं पाया कि मनुष्य को छोड़ कर इस धरती का कोई भी अन्य जीव ईश्वर जैसी किसी सत्ता पर विश्वास करता हो.

ईश्वर की सत्ता को साकार करने के लिए उस के नाम पर धर्म गढ़े गए. धर्म के नाम पर मंदिर, मस्जिद, शिवाले, गुरुद्वारे, चर्च ईजाद हुए. इन में शुरु हुए पूजा, भक्ति, नमाज, प्रार्थना जैसे कृत्य. इन कृत्यों को करवाने के लिए यहां महंत, पुजारी, मौलवी, पादरी, पोप बैठाए गए और उस के बाद यही लोग पूरी मानवजाति को धर्म और ईश्वर का डर दिखा कर अपने इशारों पर नचाने लगे. अल्लाह कहता है 5 वक्त नमाज पढ़ो वरना दोजख में जाओगे. ईश्वर कहता है रोज सुबह स्नान कर के पूजा करो वरना नरक प्राप्त होगा जैसी हजारों अतार्किक बातें मानवजगत में फैलाई गईं. हिंसा के जरीए उन का डर बैठाया गया. स्वयंभू धर्म के ठेकेदार इतने शक्तिशाली हो गए कि कोई उन से यह प्रश्न पूछने की हिम्मत ही नहीं कर पाया कि ईश्वर कब आया? कैसे आया? कहां से आया? दिखता कैसा है? सिर्फ तुम से ही क्यों कह गया सारी बातें, सब के सामने आ कर क्यों नहीं कहीं?

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मानवजगत ने बस स्वयंभू धर्माचार्यों की बातों पर आंख मूंद कर विश्वास किया, उन्होंने जैसा कहा वैसा किया. धर्माचार्यों ने तमाम नियम गढ़ दिए. ऐसे जियो, ऐसे मत जीयो. यह खाओ, वह न खाओ. यह पहनो, वह मत पहनो. यहां जाओ, वहां मत जाओ. इस से प्यार करो, उस से मत करो. यह अपना है, वह पराया है. अपने से प्यार करो, दूसरे से घृणा करो. इस में कोई संदेह नहीं है कि धर्माचार्यों ने इस धरती पर मानवजाति को भयंकर लड़ाइयों में झोंका है. किसी भी धर्म की जड़ों को तलाश लें, उस धर्म का उदय लड़ाई से ही हुआ है. हजारों सालों से धर्म के नाम पर भयंकर जंग जारी है. आज भी धरती के विभिन्न हिस्सों पर ऐसी लड़ाइयां चल रही हैं. यहूदी, मुसलमानों, ईसाइयों, हिंदुओं को हजारों सालों से धर्म और ईश्वर के नाम पर लड़ाया जा रहा है.

क्या इस धरती पर रह रहे किसी अन्य जीव को देखा है धर्म और ईश्वर के नाम पर लड़ते? वे नहीं लड़ते, क्योंकि उन के लिए इन 2 शब्दों (ईश्वर और धर्म) का कोई वजूद ही नहीं है. वे जी रहे हैं खुशी से, प्रेम से, जीवन को आगे बढ़ाते हुए, प्रकृति और सृष्टि के नियमों पर.

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धर्म ने सब से ज्यादा प्रताडि़त और दमित किया है औरत को, जो शारीरिक रूप से पुरुष से कमजोर है. अगर उस ने अपने ऊपर लादे जा रहे नियमों को मानने से इनकार किया तो उस के पुरुष को उस पर जुल्म करने के लिए उत्तेजित किया गया. उस से कहा गया अपनी औरत से यह करवाओ वरना ईश्वर तुम्हें दंड देगा. तुम नर्क में जाओगे, तुम जहन्नुम में जाओगे. और पुरुष लग गया अपने प्यार को प्रताडि़त करने में. उस स्त्री को प्रताडि़त करने में जो उस की मदद से इस धरती पर मानवजीवन को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी निभाती है.

1 धर्म की देन है वेश्यावृत्ति

प्रकृति ने पुरुष और स्त्री को यह स्वतंत्रता दी थी कि युवा होने पर वे अपनी पसंद के अनुरूप साथी का चयन कर के उस के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करें और सृष्टि को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दें. धर्म ने मानवजाति को अलग-अलग दायरों में बांध दिया. हिंदू दायरा, मुसलिम दायरा, क्रिश्चियन दायरा, पारसी, जैनी वगैरहवगैरह. इन दायरों के अंदर भी अनेक दायरे बन गए हैं. इंसान विभाजित होता चला गया.

हर दायरे को नियंत्रित करने वाले धर्माचार्यों ने नायकों या राजाओं का चयन किया और उन्हें तमाम अधिकारों से सुसज्जित किया. इन्हीं अधिकारों में से एक था स्त्री का भोग. धर्माचार्यों ने स्त्रीपुरुष समानता के प्राकृतिक नियम को खारिज कर के पुरुष को स्त्री के ऊपर बैठा दिया.

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धर्माचार्यों ने राजाओंनायकों को समझाया कि स्त्री मात्र भोग की वस्तु है. रंगमहलों में, हरम में भोग की इस वस्तु को जबरन इकट्ठा किया जाने लगा. 1-1 राजा के पास सैकड़ों रानियां होने लगीं. नवाबों के हरम में दासियां इकट्ठा हो गई. इसी बहाने से धर्माचार्यों ने अपनी ऐय्याशियों के सामान भी जुटाए.

देवदासी प्रथा की शुरुआत हुई. स्त्री नगरवधू बन गई. मरजी के बगैर सब के सामने नचाई जाने लगी. सब ने उस के साथ जबरन संभोग किया. देवदासियों का उत्पीड़न एक रिवाज बन गया. कालांतर में औरत तवायफ, रंडी, वेश्या के रूप में कोठों पर कैद हो गई और आज प्रौस्टीट्यूट या बार डांसर्स के रूप में होटलों में दिखती है. स्त्री की इस दशा का जिम्मेदार कौन है? सिर्फ धर्म.

2 धर्म की देन है वैधव्य

पुरुष साथी की मृत्यु के बाद स्त्री द्वारा दूसरे साथी का चुनाव करने पर धर्म और ईश्वर का डर दिखा कर धर्माचार्यों ने प्रतिबंध लगा दिया. पुरुष की मृत्यु किसी भी कारण से क्यों न हुई हो, इस का दोषी स्त्री को ठहराया गया. सजा उसे दी गई. उस से वस्त्र छीन लिए गए. बाल उतरवा लिए गए. शृंगार पर प्रतिबंध लगा दिया.

उसे उसी के घर में जेल जैसा जीवन जीने के लिए बाध्य किया गया. उसे नंगी जमीन पर सोने के लिए मजबूर किया गया. जिस ने चाहा उस के साथ बलात्कार किया. उसे रूखासूखा भोजन दिया गया. स्त्री की इच्छा के विरुद्ध ये सारे हिंसात्मक कृत्य धर्माचार्यों ने ईश्वर का डर दिखा कर पुरुष समाज से करवाए. विधवा को वेश्या बनाने में भी वे पीछे नहीं रहे.

इस धरती पर किसी अन्य जीव के जीवनचक्र में क्या ऐसा होते देखा गया है? किसी कारणवश नर की मृत्यु के बाद मादा दूसरे नर के साथ रतिक्रिया करती हुई सृष्टि के नियम को गतिमान बनाए रखती हैं. मादा की मृत्यु के बाद ऐसा ही नर भी करता है. वहां प्रताड़ना का सवाल ही पैदा नहीं होता, वहां सिर्फ प्रेम होता है.

3 धर्म की देन है सती और जौहर प्रथा

धर्माचार्यों ने अपने धर्म के प्रसार के लिए पहले लड़ाइयां करवाईं. उन में लाखों पुरुषों को मरवाया. लूटपाट मचाई, जीते हुए राजाओं और उन के सैनिकों ने हारने वाले राजाओं और उन के कबीले की औरतों पर जुल्म ढाए. सैनिकों ने उन से सामूहिक बलात्कार किए, उन की हत्याएं कीं, उन्हें दासियां बना कर ले गए. धर्माचार्यों ने इस कृत्य की सराहना की. इसे योग्य कृत्य बताया. कभी किसी धर्माचार्य ने इस कृत्य पर उंगली नहीं उठाई.

औरतों ने इस प्रताड़ना, शोषण, उत्पीड़न और बंदी बनाए जाने के डर से अपने राजा की सेना के हारने के बाद सती और जौहर का रास्ता इख्तियार कर लिया. धर्माचार्यों ने इस कृत्य को भी उचित ठहरा दिया. औरतें अपने पुरुष सैनिकों की लाशों के साथ खुद को जला कर खत्म करने लगीं. सामूहिक रूप से इकट्ठा हो कर आग में जिंदा कूद कर जौहर करने लगीं.

जरा सोचिए, कितना दर्द सहती होंगी वे. आप की उंगली जल जाए, फफोला पड़ जाए तो कितना दर्द होता है. और वे समूची आग में जलती रहीं, किसी धर्माचार्य ने उन के दर्द को महसूस नहीं किया, यह उस वक्त का सब से पुनीत धार्मिक कृत्य बताया जाता था.

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4 बाल विवाह भी धर्म की देन

धर्म के ठेकेदारों ने अपनेअपने धर्म के दायरे खींचे और स्त्रीपुरुष की इच्छाअनिच्छा को अपने कंट्रोल में कर लिया. पुरुष और स्त्री अपने धर्म के दायरे से निकल कर कहीं दूसरे के धर्म में प्रवेश न कर जाएं, किसी अन्य के धर्म के व्यक्ति को अपना जीवनसाथी न बना लें, इस पर नियंत्रण करने के लिए बाल विवाह की प्रथा शुरू की गई. नवजात बच्चों तक की शादियां करवाई जाने लगीं ताकि जवान होने के बाद वे अपनी पसंद या रुचि के अनुसार अपना प्रेम न चुन सकें.

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ताकि प्राकृतिक संतुलन बना रहे

वीगन यानी वैजिटेरियन व्यवसायों में अब काफी अवसर पैदा हो रहे हैं. बस थोड़े धैर्य और थोड़ी लगन की जरूरत है, जो वैसे भी हर व्यवसाय में जरूरी है. फैशन के क्षेत्र में वीगन होने का मतलब यह नहीं कि आप स्टाइल की कुरबानी दे दें. आजकल बहुत सा हाई फैशन सामान रिसाइकल पौलिएस्टर से बन सकता है. जानवरों को मारे बिना जूते, बैल्ट, पर्स आदि हजारों में औनलाइन और औफलाइन दुकानों में बिक रहे हैं.

जूतों में लगने वाला गोंद भी अब जरूरी नहीं कि जानवरों से आए या जानवरों पर टैस्ट किया जाए. वीगन बाजार नई दिल्ली में 3 साप्ताहिक और्गेनिक मार्केट लगती हैं और कोई भी इन्हें शुरू कर पैसा कमा सकता है. वहां बीज, पौधे, सब्जियां, तेल, चीज, विनेगर, चाय, साबुन, कौस्मैटिक प्रौडक्ट्स भी बिक सकते हैं और वहीं बैठ कर खाने का स्टाल भी लगवाया जा सकता है.

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आस्ट्रेलिया के शहर सिडनी में एक बड़ा वीगन मेला लगता है. आजकल वीगन बेकरियों के दीवाने भी कम नहीं हैं, जहां हर तरह की और्गेनिक मिठाई मिले, चौकलेट हों, कैरेमल हों, मार्शमैलो हों, मफिन और डोनट हों, इतना सामान हो कि गिफ्ट बास्केट बन सके. लेकिन इस तरह का व्यवसाय शुरू करना है तो अपने सप्लायर्स को सावधानी से चुनना होगा. पाम औयल की जगह कोकोनट औयल इस्तेमाल हो, मिठास के लिए गन्ने का रस या कोकोनट की चीनी हो सकती है. ये सब बिना डोनेटिक मोडिफाइड हो सकते हैं, जिन का पर्यावरण पर असर नहीं पड़ता.

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लोगों की पसंद व्यवसाय चलाने के लिए एक बुटीक टाइप शौप खोली जा सकती है जिस में सिर्फ तेल, घी, मक्खन हों. इस के साथ औलिव औयल, चिया बीज, काजू, बादाम, दूध, मेपल सिरप, सूरजमुखी तेल, पारंपरिक पोशाकें आदि भी बेची जा सकती हैं. लोग अब ऐसा खाना पसंद करने लगे हैं जो मीट जैसी दिखने वाली चीजों में बना हो ताकि लोग मीट प्रोडक्ट्स की जगह वीगन बनें. अगर आप कैफे शुरू कर रहे हैं तो प्लास्टिक का इस्तेमाल न करें.

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मोटे सादे कपड़े के नैपकिन अब बेचे जा सकते हैं जो स्टाइलिश भी हैं और सौफ्ट भी और जिन में हानिकारक कैमिकल रंग नहीं हैं. रिसाइकल पेपर पर कापी किताबों की भी भारी मांग है. यहां तक कि गाड़ी में खराब हुआ वनस्पति तेल तक इस्तेमाल करने की तकनीक उपलब्ध है. वीगन ब्यूटीपार्लर खोले जा सकते हैं जहां बिना पैट्रो प्रोडक्ट्स से बनी क्रीम, लोशन, शैंपू, स्किन केयर सामान इस्तेमाल किया जा सकता है, जो प्रकृति के लिए भी अच्छा है और ग्राहकों के लिए भी. इनसे ज्यादा से ऐलर्जी भी नहीं होती. प्रकृति प्रेमियों के लिए बहुत सी ऐसी चीजें बन रही हैं और बनाई जा सकती हैं जिन से प्राकृतिक संतुलन बना रहे. मेरे मंत्रालय में ऐसा बहुत कुछ इस्तेमाल हो रहा है और लोग खुश हैं.

स्वस्थ रहना है तो दवाइयों को भूल, जाएं प्रकृति की गोद में

किसी भी तरह की बीमारी होते ही हम दवाइयों के पीछे हो लेते हैं. इस खबर में हम आपको बताएंगे कि कुछ बीमारियों के लिए दवाइयों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है. हाल ही में हुए एक अध्ययन में ये बात सामने आई कि कई बीमारियों में दवाई की जरूरत नहीं है, दवाइयों के बजाए पेड़ पौधों के बीच रहने से ये बीमारियां खुद-ब-खुद खत्म हो जाती हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रकृति और हरियाली के बीच रहने से टाइप-2 डायबिटीज, दिल की समस्या, हाई ब्लड प्रेशर, तनाव जैसी बीमारियों के होने की संभावना बहुत कम होती जाती है.

शोधकर्ताओं ने माना कि ऐसी बीमारी में दवाइयों पर ज्यादा आश्रित रहना अच्छी बात नहीं है.  प्रकृति के बीच रहकर भी बिना दवाई खाए बीमारी को दूर किया जा सकता है. जानकारों का मानना है कि पेड़ों में सेहत को बेहतर करने के गुण होते हैं. इनसे निकलने वाले और्गेनिक कंपाउंड में एंटी बैक्टीरियल गुण पाए जाते हैं जो सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं.

स्टडी की रिपोर्ट में बताया गया है कि, प्रकृति के करीब रहने से नींद भी अच्छी आती है. हरियाली के आस पास रहने से शरीर में सेलीवरी कोर्टीसोल का स्तर कम हो जाता है. कोर्टीसोल शरीर में पाए जाने वाला हार्मोन है जिसकी वजह से तनाव होता है.

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