गांव की व्यवस्था तभी किसी को समझ में आती है, जो गाँव से निकले है और वहां की मिटटी और वनस्पति से आती खुश्बू को महसूस किया हो. शहरों में रहने वालों को इसकी कीमत को समझना नामुमकिन होता है, उन्हें बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स में रहने की आदत होती है, सड़के और उनपर दौड़ती हुई कारें ही उन्हें डेवेलपमेंट का आभास कराती है, लेकिन इस आधुनिकरण की होड़ में वे भूल जाते है कि ये तभी संभव होगा, जब क्लाइमेट चेंज को रोका जाय, पर्यावरण में रहने वाले जीव-जंतु, पेड़-पौधे और मानव जीवन का संतुलन सही हो, नहीं तो धरती इसे खुद ही संतुलित कर लेती है मसलन कहीं बाढ़, कही सूखा तो कही खिसकते ग्लेशियर जिसमे हर साल लाखों की संख्या में लोग इन हादसों का शिकार हो रहे है, लेकिन कैसे संभव हो सकता है? इसी बात को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड के सेमला गांव में पली-बड़ी हुई निर्देशक और पटकथा लेखक सृष्टि लखेरा ने अपनी एक डोक्युमेंट्री फिल्म ‘एक था गांव’ के द्वारा समझाने की कोशिश की है, उनकी इस फिल्म ने कई अवार्ड जीते है.
क्लाइमेट चेंज को सम्हालने के लिए जमीनी स्तर पर काम जरुरी
गाँववालों की समस्या के बारें में सृष्टि कहती है किटिहरी गढ़वाल के गांव सेमला में काम करने वाली 80 साल की लीला ने अपना पूरा जीवन यहाँ बिताया है. उनके साथ रहने वालों की मृत्यु होने के बाद उन्हें अपना जीवन चलाना मुश्किल हो रहा है, फिर भी वह इस गांव को छोड़ना नहीं चाहती. इस गांव में गोलू ही ऐसी यूथ है, जो इस परित्यक्त गांव में रह गई है.अभी उनके साथ रहने वाले केवल घोस्ट ही है, क्योंकि पहले 50 परिवार के इस गांव में रहते थे, अब केवल 5 लोग इस गांव में रह गए है. इससे घाटी में जन-जीवन धीरे-धीरे ख़त्म होने लगा है. क्लाइमेट चेंज को लेकर बहुत बात होती है, लेकिन इसे रोकने के लिए जमीनी स्तर पर काम नहीं हो रहा है.
असंतुलित मौसम
स्टोरी की कांसेप्ट के बारें में सृष्टि बताती है कि उत्तराखंड के गाँव बहुत अधिक खाली हो रहे है, मेरे पिता भी गाँव से है, टिहरीगढ़वाल में स्थित सेमला से लोगों का पलायन हो रहा है, अभी केवल दो परिवार ही बचे है, इसे लेकर एक नोस्टाल्जिया, जो मेरे परिवार के अंदर है, उन्हें गांव खाली होने का डर सता रहा है,इसे हमेशा सुनते हुए और उनके दुखी मन को सांत्वना देने के लिए कोई शब्द नहीं थे,इसलिए इसे लेकर मैंने कुछ करने के बारें में सोचा, जिसमे खासकर पर्यावरण था. जब कोई खेत और जंगल छोड़ देता है, तो उसपर उगने वाले घासफूंस को जानवर भी नहीं चरना चाहते. अभी वहां पर चीर के पेड़ों की संख्या बहुत अधिक हो चुकी है, जिसका अधिक होना मिटटी और ग्राउंड वाटर के लिए खतरा होता है. इसका प्रभाव पर्यावरण संतुलन पर पड़ता है. ऐसे में इंसान का गाँव में रहना और खेती करना आवश्यक है, जिससे एक अच्छा जंगल पनप सकें. पानी जमीन में रहे. उपजाऊपन में कमी न हो. आज जंगल बन चुके स्थान ऐसा नहीं था. यहाँ लोग हज़ार साल से रह रहे थे उन्होंने खेती की और अपना जीवन निर्वाह किया. इस प्रकार परिवार के दुःख और पर्यावरण को देखते हुए मैंने ये फिल्म बनाई. सभी का गाँव से भागने की वजह से शहरों की भी हालत ख़राब है, वहां जनसंख्याँ का दबाव अधिक बढ़ रहा है. गांव में यूथ के लिए नौकरी नहीं है.
सामाजिक असामनता
तकनीक का प्रयोग इन गांवों में अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि ये पहाड़ी क्षेत्र है और यहाँ सीढ़ीनुमा खेतों में फार्मिंग की जाती है. सृष्टि आगे कहती है कि पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यहाँ की मिटटी पथरीली होती है. इसके अलावा शहर में रहकर भी खेती नहीं की जा सकती,लेकिन कॉपरेटिव फार्मिंग हो सकता है, जिसमें एक साथ 5 से 6 गांव साथ आकर पूरी जमीन को शेयर कर सकते है, लेकिन समाज टूटा हुआ होने की वजह से ऐसी फार्मिंग नहीं हो सकती. अधिकतर उच्च वर्ग के लोग पलायन करते है, दलित को जमीन की मालिकाना हक नहीं है, उनका उच्च वर्ग के साथ बनती नहीं है. दलितों के पास बहुत कम जमीन है. ऐसी कई समस्याएं है और इसका सीधा असर सामाजिक और पर्यावरण पर पड़ रहा है. भाई-चारा होने पर ऐसी स्थिति नहीं होती. जाति की समस्या और आपसी मनमुटाव ही इसकी जड़ है. यहाँ के बचे हुए लोग मनरेगा के अंतर्गत और पंचायत की टीम में मुर्गी पालन, पशुपालन आदि काम करते है, इससे थोड़ी आमदनी हो जाती है, लेकिन वे लोग अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है. इसके अलावा शहरों में रहने वाले पुरुषों की महिलाएं अधिकतर गाँव में रहती है, उन्हें समस्या अधिक होती है.
मिली प्रेरणा
सृष्टि इस फील्ड में पिछले 10 साल से निर्देशक के रूप में काम कर रही है, उन्होंने छोटी-छोटी प्रेरणादायक फिल्में दिल्ली में कई एनजीओ के लिए बनायीं है. इसके बाद उन्होंने अपने गांव के लिए फिल्म बनाई, क्योंकि वह इससे बहुत कनेक्ट रही. पर्यावरण के साथ समाज परिवार और जीव-जंतु सभी का एक जुड़ाव होता है. उसे उन्होंने सबके सामने रखने की कोशिश की है. इसे करने में अधिक मुश्किल उन्हें नहीं आई, क्योंकि ये उनके पिता की गांव है. 5 साल की मेहनत के बाद उन्होंने एक घंटे की फिल्म बनाई है.
करप्शन कम होती नहीं दिखती
सृष्टि आगे कहती है कि रिसर्च के दौरान मैंने काफी समय वहां बिताया है, लेकिन वहां किसी प्रकार की स्कीम या योजना गांववालों के लिए सरकार की तरफ से नहीं देखा. वहां रहने वालें दलित बहुत कम पढ़े-लिखे है. इससे उनको किसी बात की जानकारी नहीं होती. अपर कास्ट के लोग इनका शोषण करते है. इसे मैंने देखा और बहुत ख़राब लगा. पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए एक अच्छी कम्युनिटी का क्रिएट करना जरुरी है. वे संगठित तरीके से रह नहीं सकते,जिसमे औरतों का बहुत शोषण होता है. आपस में प्यार से न रह पाना ही पर्यवरण के लिए क्षति है और इसका असर सबको दिख रहा है. संगठित तरीके से काम अपनाने पर ही पर्यावरण का संरंक्षण हो सकता है. इसके अलावा उत्तराखंड में पहाड़ो को डायनामाईट से ब्लास्ट कर उस क्षेत्र में बिल्डिंग बनाई जा रही है, जो कानूनन मान्यता न होने पर भी हो रहा है, क्योंकि करप्शन बहुत अधिक है. यहाँ देखा गया है कि पर्यावरण से सम्बंधित कानून को लोग आसानी से तोड़ देते है, जो दुःख की बात है. उत्तराखंड में ये अधिक हो रहा है, ऐसे में पढ़े-लिखे संगठित समाज ही इन गलत चीजों के लिए अपनी आवाज उठा सकते है.