सिंगल पेरैंट ऐसे बनाएं जिंदगी आसान

निशा यादव 32 साल की है. उस की फैमिली उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में रहती है. उस की पढ़ाई पूरी होने के बाद दिल्ली के एक मीडिया हाउस में जौब लग गई. यहीं उस की मुलाकात आशुतोष से हुई. कुछ सालों की कैजुअल डेटिंग के बाद वह आशुतोष के साथ रिलेशनशिप में आ गई.

कुछ सालों तक तो सबकुछ सही रहा. फिर एक दिन निशा के पीरियड्स मिस हो गए. उस ने प्रेगा न्यूज प्रैंगनैंसी किट से अपना प्रैंगनैंसी टैस्ट किया. रिजल्ट पौजिटिव आया. इस बारे में उस ने आशुतोष को बताया. उस ने कहा कि उसे बच्चा नहीं चाहिए. इसलिए वह आईपील खा ले. निशा सोच में पड़ गई. कुछ दिन सोचने के बाद उस ने यह फैसला किया कि वह बच्चे को जन्म देगी.

उस ने इस बारे में अपने घर वालों को बताया. उस के घर वालों ने उसे बच्चा गिराने की सलाह दी. अब उस की फैमिली भी उस के साथ नहीं है. अब उस के दिमाग में उथलपुथल चलने लगी कि वह कैसे इस सोसाइटी से लड़ेगी. कैसे वह इस का पालनपोषण करेगी. उस के साथ तो कोई है ही नहीं. लेकिन वह जानती थी कि उसे क्या करना है.

निशा फाइनैंशली इंडिपैंडैंट थी. उस का अच्छाखासा पैकेज था. एक फुल टाइम मेड तो उस के पास पहले से ही थी. रही बात सोसाइटी की, तो सोसाइटी से उसे कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. निशा का फैसला अडिग था. इसलिए वह अपने बच्चे को इस दुनिया में ले कर आ सकी.

पर्सनल चौइस

अब निशा की बेटी इला 4 साल की हो गई है. निशा कहती है कि जबजब मैं अपनी बेटी को देखती हूं तो सोचती हूं कि मैं ने इसे जन्म दे कर बिलकुल सही किया. लेकिन अगर मैं फाइनैंशली इंडिपैंडैंट नहीं होती तो मैं अबौर्शन करवा लेती क्योंकि तब मैं इसे अच्छी परवरिश नहीं दे पाती. हमारी इंडियन सोसाइटी में आज भी एक लड़की का सिंगल पेरैंट होना बहुत मुश्किल है. समयसमय पर उस से और उस के बच्चे से उस के पिता का नाम पूछा जाता है.

उस के कैरेक्टर पर सवाल उठाया जाता है. ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हमारी सोसाइटी में चेंज आए. अगर कोई महिला सिंगल पेरैंट बनना चाहती है तो यह उस की पर्सनल चौइस होनी चाहिए. इस के बारे में कोई सवालजवाब न किया जाए.

हमारी इस रुढि़वादी दकियानुसी इंडियन सोसाइटी में एक लड़की का दुनिया में सिंगल पेरैंट होना आसान नहीं है. इस के पीछे कारण यह है कि इंडियन सोसाइटी ने सिंगल पेरैंट को कभी अपनाया ही नहीं है. खासकर सिंगल पेरैंट वूमन को. वह भी तब जबकि वह बिन ब्याही मां बनी हो.

मगर कुछ ऐसे भी अपवाद रहे हैं जिन्होंने इस सो कोल्ड इंडियन सोसाइटी की रूढि़वादी सोच पर चोट की है. ऐसा ही एक नाम बौलीवुड की फेमस सैलिब्रिटी नीना गुप्ता है जिन्होंने 1980 के दशक में बिना शादी के अपने बच्चे को जन्म दिया. असल में यह बच्चा उन का और उन के बौयफ्रैंड विवियन रिचर्डसन का था. नीना चाहती तो अर्बोशन करवा सकती थीं. लेकिन उन्होंने अपने बच्चे को इस दुनिया में लाना चुना. वे इस रूढि़वादी सोसाइटी से बिलकुल नहीं डरीं और अपने फैसले पर अटल रहीं. ऐसा कर के उन्होंने इस सोसाइटी की हजारों लड़कियों को प्रेरित किया.

सोच में बदलाव

नीना गुप्ता के ही नक्शे कदम पर चल कर हाल ही में बौलीवुड की सफल ऐक्ट्रैस इलियाना डिकू्रज ने भी 1 अगस्त को बच्चे को जन्म दिया है. समय बदल रहा है. अब इंडियन सोसाइटी की दकियानूसी सोच को टक्कर देने के लिए बहुत सी महिलाएं सामने आ रही हैं. समय के साथसाथ हमारी सोसाइटी को भी अपनी सोच में बदलाव लाना चाहिए.

हालांकि यह भी सच है कि अनमैरिड सिंगल पेरैंट होना आसान नहीं है. इस के लिए अपनेआप को मैंटली और फिजिकली तैयार करना होगा. इस के अलावा आप का फाइनैंशली इंडिपैंडैंट होना भी बहुत जरूरी है. अगर आप ने यह फैसला कर लिया है कि आप को अपने बच्चे को जन्म देना है तो आप को इन सभी मानदंडों पर खरा उतरना होगा.

अनमैरिड वूमन को अपने बच्चे को जन्म देना चाहिए या अबौर्शन करवा लेना चाहिए इस विषय पर अलगअलग लोगों की अलगअलग राय रही.

नई दिल्ली के साकेत इलाके में 30 साल की सीमा लकवाल अपने हसबैंड के साथ रहती हैं. वे एक हाउस मेकर हैं. इस के साथ ही वह अपने पति के इलैक्ट्रौनिक्स बिजनैस में उन का हाथ भी बंटाती हैं.

उन से हुई बातचीत में वह अपनी राय देते हुए कहती हैं, ‘‘मैं खुद 6 महीने की प्रैंगनैट महिला हूं. ऐसे में मैं सम?ाती हूं कि एक महिला के लिए मां बनना एक सुखद एहसास है. अगर कोई महिला अनमैरिड है और वह अपना बच्चा रखना चाहती है तो मैं ऐसी महिला की सपोर्ट में हूं. बस मैं उस से यही कहना चाहूंगी कि उसे इस दुनिया में अपने बच्चे को लाने से पहले मैंटली, फिजिकली और फाइनैंशियल स्ट्रौंग होना होगा. अगर उस में ये तीनों क्षमताएं हैं तो ही बच्चे को जन्म दे. इस में उस की उम्र भी मैटर करती है. अगर वह 20-22 साल की है. तब अबौर्शन को ही चुनें. क्योंकि यह उम्र कैरियर बनाने की है न कि बच्चे की जिम्मेदारी उठाने की.’’

वहीं बीएड की पढ़ाई करने वाली कामनी शर्मा कहती है, ‘‘अगर किसी महिला की उम्र अगर 30 से ऊपर है और वह वैल सैटल और इंडिपैंडैंट है, सोसाइटी का प्रैशर ?ोल सकती है, मैंटली व फिजीकली स्ट्रौंग भी है तब वह बच्चे को जन्म दे सकती है. वहीं अगर वह कम उम्र की है, इंडिपैंडैंट नहीं है, उस के पास इनकम का कोई सोर्स नहीं है, सपोर्ट इमोशनली वीक है. उस की फैमिली और फ्रैंडस उस की सपोर्ट में नहीं है तो उसे अर्बाशन करवा लेना चाहिए. यह उस के कैरियर और फ्यूचर दोनों के लिए सही होगा.’’

एक बिन ब्याही लड़की को सिंगल पेरैंट बनने में बहुत सी परेशानियां आती हैं. ये परेशानियां क्या हैं, आइए जानते हैं:

मनी है जरूरी

एक वूमन को सिंगल पेरैंट बनने में कई प्रौब्लम्स आती हैं. इस में सब से बड़ी प्रौब्लम पैसों की है. प्रैगनैंसी पीरियड में दवाइयां, डाक्टर विजिड और मैडिकल टैस्ट में हजारों के खर्चे होते हैं. वहीं अगर डिलिवरी की बात करें तो प्राइवेट हौस्पिटल में नौर्मल डिलिवरी में क्व30 से क्व50 हजार लग जाते हैं वहीं सिजेरियन में क्व90 हजार से क्व1 लाख तक का खर्चा आता है. इस के आलावा बच्चे की परवरिश का खर्चा. औसतन एक बच्चे पर सालाना क्व2 लाख से क्व3 लाख तक का खर्चा आता है.

इस के अलावा वूमन के पास इतना पैसा होना चाहिए कि वह अपने लिए मेड और बेबी सिटर रख सके ताकि अपनी जौब पर जा सके.

बनें मैंटली स्ट्रौंग

जो लड़कियां बिना शादी के मां बनती हैं  सोसाइटी उन से मुंह मोड़ लेती है. ऐसी लड़कियों का मैंटली स्ट्रौंग होना बहुत जरूरी है. ऐसे बहुत से मौके आएंगे जब सोसाइटी के लोग अनमैरिड सिंगल वूमन से उस के पति का नाम पूछेंगे. इतना ही नहीं उस बच्चे से उस के पिता का नाम जानना चाहेंगे. ऐसे में उसे सोसाइटी के इन लोगों से डील करना आना चाहिए.

फिजिकली स्ट्रौंग भी हो

वे लड़कियां जो बिना शादी के अपने बच्चे को जन्म देना चाहती हैं, लेकिन उन की सपोर्ट में कोई नहीं है तो उन के लिए जितना जरूरी मैंटली स्ट्रौंग होना है उतना ही जरूरी फिजिकली स्ट्रौंग होना भी. प्रैंगनैंसी के समय चक्कर आएंगे, उलटियां आएंगी, जी मचलाएगा, मूड स्विंग्स होंगे. ऐसे में उसे अपनी हैल्थ पर ध्यान देना होगा. उसे अपने खानपान का खास खयाल रखना होगा. इस के लिए हरी सब्जियां और प्रौटीन से युक्त खाना खाए. डाक्टर की सलाह से मल्टीविटामिन भी ले.

बच्चे को किसी के पास छोड़ने का खतरा

ऐसी लड़कियां जिन के घर में बच्चे का खयाल रखने वाला कोई नहीं है उन्हें खुद को और अपने बच्चे दोनों को संभालना होगा. इतना याद रखें कि सिंगल पेरैंट बनने के बाद जिम्मेदारी काफी बढ़ जाएगी. अपना बेबी और नौकरी दोनों संभालने होंगे. अगर अच्छा कमाती हैं तो बेबी सिटर रख सकती है. इस से उसे हैल्प मिलेगी.

मगर अपना बच्चा किसी तीसरे के हाथ सौंप रही है तो इस वजह से वह हमेशा अपने बच्चे को ले कर चिंता में रहेगी. इस चिंता से उसे थोड़ी मुक्ति सीसीटीवी कैमरे दिलवा सकते हैं. इस के लिए मार्केट में बहुत सी कंपनियां अवेलेबल हैं. वह घर में सीसीटीवी लगवा कर उसे अपने फोन से कनैक्ट कराए ताकि औफिस में बैठ कर भी अपने बच्चे की हर ऐक्टिविटी को देख सके. इस बात का भी खास ध्यान रखे कि बेबी सिटर और मेड की फुल वैरिफिकेशन जरूर करे.

यह सोसाइटी बिना शादी के मां बनी महिला के चरित्र पर सवाल उठाती है. आम बोलचाल की भाषा में ऐसी महिलाओं को कैरेक्टरलैस कहा जाता है जोकि गलत है.

Winter Special: गर्भावस्था में करने होंगे ये व्यायाम

शिशु को जन्म देना पृथ्वी का सब से बड़ा चमत्कार है. और इस चमत्कार को अंजाम देने के लिए महिलाओं की मदद करता है व्यायाम. जी हां, समय बदल चुका है और साथ ही महिलाओं का गर्भावस्था के दौरान और बाद में व्यवसाय के प्रति दृष्टिकोण भी. गर्भावस्था के दौरान व्यायाम करने से होने वाले फायदे बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. यह सिर्फ आप और आप के गर्भस्थ शिशु को ही लाभ नहीं पहुंचाता बल्कि आप के प्रसव को आसान बनाता है. और प्रसव के बाद आप के शरीर को शेप में भी लाता है.

व्यायाम के फायदे गर्भधारण करने के शुरूआत में और गर्भावस्था के बाद में करने पर अलगअलग हैं, जैसे गर्भधारण के शुरूआत में व्यायाम करना शिशु के विकास में सहायक होता है वहीं गर्भधारण करने के बाद के समय में व्यायाम आप को फिट रखने में, आप के वजन को नियंत्रित रखने में और प्रसव पीड़ा को कम करने में सहायक होता है.

कुल मिला कर जीवन के इस महत्त्वपूर्ण चरण के दौरान नियमित रूप से व्यायाम महिलाओं को सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने, गर्भधारण और प्रसव पीड़ा को आसान बनाने में उन की सहायता करता है. आप ने नयानया अभ्यास शुरू किया हो या आप पहले से ही व्यायाम करने की अनुभवी हों. गर्भाधारण एक ऐसा समय होता है जब आप को नियमित आधार पर व्यायाम करना चाहिए न कि शिशु के जन्म का इंतजार करना चाहिए.

व्यायाम गर्भावस्था में होने वाली मां और गर्भ में पल रहे शिशु दोनों के लिए फायदेमंद है.

गर्भावस्था के दौरान व्यायाम से होने वाले अन्य लाभ ये हैं:

– यह मूड को फै्रश रखता है.

– अच्छी नींद आती है.

– पीठ के निचले हिस्से में होने वाले दर्द को कम करता है.

-शारीरिक परेशानियों को कम करता है.

– औक्सीजन और रक्तसंचारण को सुधारता है.

– शारीरिक रूप से फिट होने के कारण कम समय और कम दर्द में प्रसव होने की संभावनाएं बढ़ाता है.

बहुत सी महिलाएं जानना चाहती हैं कि इस दौरान कौनकौन से व्यायाम करने चाहिए और उन की आवृत्ति और अवधि क्या होनी चाहिए?

जवाब यह है कि व्यायाम शरीर को मजबूती प्रदान करने वाले होने चाहिए. इस के लिए आप तैराकी करें, टहलें और अपने शरीर को स्ट्रैच करें. ये व्यायाम हफ्ते में 3 बार किए जा सकते हैं. होने वाली माएं ध्यान रखें कि उतनी ही देर तक व्यायाम करें जितनी देर तक वे इस में कम्फ र्ट महसूस करें. यह बात बेहद महत्त्वपूर्ण है कि आप अपने शरीर और सुविधा के अनुसार ही व्यायाम करें क्योंकि व्यायाम के दौरान हार्ट रेट सामान्य ही होनी चाहिए. आप इसे इस तरह ले सकती हैं कि व्यायाम के समय आप आराम से किसी से बातचीत कर सकें.

गर्भावस्था के दौरान किए जाने वाले खास व्यायाम निम्नलिखित हैं:

  • स्क्वाट्स

यह पैरों के लिए बहुत अच्छा व्यायाम है.

पैरों को कंधे के बराबर में खोलें. अपनी रीढ़ की दिशा में नाभी को अंदर खीचें और एबडौमिनल्स को टाइट करें. धीरेधीरे अपने शरीर को नीचे की ओर झुकाएं जैसे कि आप कुरसी पर बैठी हों. यदि आप इतनी नीचे जा सकें कि आप के पैर आप के घुटनों की सीध में आ जाएं तो अच्छा होगा. लेकिन ऐसा न हो तो आप जितनी कोशिश कर सकती हैं उतना ही नीचे जाएं. यह सुनिश्चित कर लें कि आप के घुटने आप के पैरों की उंगलियों के पीछे हैं.4 तक गिनती गिनें और फिर धीरेधीरे अपने शरीर को पहले वाली स्थिति में वापस ले आएं.इस प्रक्रिया को 5 बार दोहराएं.

  • केगेल व्यायाम

केगेल व्यायाम मूत्राशय, गर्भाशय और आंत का समर्थन करने वाली मांसपेशियों को मजबूत बनाने में मदद करता है. गर्भावस्था के दौरान इन मजबूत मांसपेशियों के सहारे आप आराम से प्रसव पीड़ा को झेल सकती हैं और शिशु को जन्म दे सकती हैं. केगेल करने के लिए आप को ऐसा सोचना पड़ेगा जैसे आप मूत्र के प्रवाह को रोकने का  प्रयास कर रही हों. ऐसा करते वक्त आप पैल्विक फ्लोर की मांसपेशियों को नियंत्रित करेंगी. ऐसा करते वक्त 5 बार गिनती गिनें. इस प्रक्रिया को 10 बार दोहराएं. यह व्यायाम दिन में 3 बार करना चाहिए.

  •  ऐबडौमिनल व्यायाम

इस अभ्यास से पेट की मांसपेशियां मजबूत बनती हैं. जमीन पर पैरों को मोड़ कर बैठें और पीठ एकदम सीधी रखें. अब अपने पेट को अंदर की तरफ लें और उन्हें टाइट रख कर 10 सैकंड तक रखें. लेकिन यह सुनिश्चित कर लें कि ऐसा करते वक्त आप को सांस नहीं रोकनी है. इस के बाद आराम से अपनी प्रारंभिक अवस्था में लौट आएं. इस प्रक्रिया को 10 बार दोहराएं.

  • कैट ऐंड कैमल व्यायाम

यह अभ्यास आप की पीठ और पेट को मजबूत बनाता है.इस अभ्यास को करने के लिए चटाई पर हाथों और घुटनों के बल बैठ जाएं. घुटने आप के कूल्हे की सीध में होने चाहिए और कलाई कंधों की सीध में. साथ ही यह सुनिश्चित कर लें कि पेट लटक न रहा हो.अब अपना सिर झुकाएं और अपने पेट को अंदर की तरफ ले जाएं. अपनी रीढ़ की हड्डी को ऊपर की तरफ निकालें. इस अवस्था में 10 सैकंड तक रहें. लेकिन सांस लेना बंद न करें.

व्यायाम के लिए चेतावनी संकेत

-सीने में दर्द, पेट में दर्द, पैल्विक पेन या लगातार संकुचन.

– भ्रूण की स्थिति में ठहराव आना.

– योनि से तेजी से तरल पदार्थ का स्राव होना.

– अनियमित या तेज दिल की धड़कन.

– हाथपैरों में अचानक सूजन आ जाना.

– चलने या सांस लेने में दिक्कत.

– मांसपेशियों में कमजोरी.

-व्यायाम तब भी हानिकारक है जब आप को गर्भावस्था से संबंधित कोई परेशानी हो.

-प्लेसैंटा का गर्भाशय ग्रीवा के पास होना या गर्भाशय ग्रीवा को पूरी तरह से कवर करना.

– पिछले प्रसव के दौरान आई समस्याएं जैसे प्रीमैच्योर बेबी का जन्म या समय से पहले लेबर पेन उठी हो.

-कमजोर गर्भाशय.

Mother’s Day Special: अकेलेपन और असामाजिकता के शिकार सिंगल चाइल्ड

7 साल का आर्यन घर का इकलौता बच्चा है. वह न नहीं सुन सकता. उस की हर जरूरत, हर जिद पूरी करने के लिए मातापिता दोनों में होड़ सी लगी रहती है. उसे आदत ही हो गई है कि हर बात उस की मरजी के मुताबिक हो. हालात ये हैं कि घर का इकलौता दुलारा इस उम्र में भी मातापिता की मरजी के मुताबिक नहीं, बल्कि मातापिता उस की इच्छा के अनुसार काम करने लगे हैं. कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि हद से ज्यादा लाड़प्यार और अटैंशन के साथ पले इकलौते बच्चों में कई तरह की समस्याएं जन्म लेने लगती हैं. ‘एक ही बच्चा है’ यह सोच कर पेरैंट्स उस की हर मांग पूरी करते हैं. लेकिन यह आदत आगे चल कर न केवल अभिभावकों के लिए असहनीय हो जाती है बल्कि बच्चे के पूरे व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है.

इसे मंहगाई की मार कहें या बढ़ती जनसंख्या के प्रति आई जागरूकता या वर्किंग मदर्स के अति महत्त्वाकांक्षी होने का नतीजा या अकेले बच्चे को पालने के बोझ से बचने का रास्ता? कारण चाहे जो भी हो, अगर हम अपने सामाजिक परिवेश और बदलते पारिवारिक रिश्तों पर नजर डालें तो एक ही बच्चा करने का फैसला समझौता सा ही लगता है. आज की आपाधापी भरी जिंदगी में ज्यादातर वर्किंग कपल्स एक ही बच्चा चाहते हैं. ये चाहत कई मानों में हमारी सामाजिकता को चुनौती देती सी लगती है. न संयुक्त परिवार और न ही सहोदर का साथ, एक बच्चे के अकेलेपन का यह भावनात्मक पहलू उस के पूरे जीवन को प्रभावित करता है.

खत्म होते रिश्तेनाते

एक बच्चे का चलन हमारी पूरी पारिवारिक संस्था पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है. अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा या बेटी है तो उस की आने वाली पीढि़यां चाचा, ताऊ और बूआ, मौसी, मामा के रिश्ते से हमेशा के लिए अनजान रहेंगी.  समाजशास्त्री भी मानते हैं कि सिंगल चाइल्ड रखने की यह सोच आगे चल कर पूरे सामाजिक तानेबाने के लिए खतरनाक साबित होगी. पारिवारिक माहौल के बिना वे जीवन के उतारचढ़ाव को नहीं समझ पाते और बड़े होने पर अपने ही अस्तित्व से लड़ाई लड़ते हैं. बच्चों को सभ्य नागरिक बनाने में परिवार का बहुत बड़ा योगदान होता है. संयुक्त परिवारों में 3 पीढि़यों के सदस्यों के बीच बच्चों का जीवन के सामाजिक और नैतिक पक्ष से अच्छी तरह परिचय हो जाता है.

कितने ही पर्वत्योहार हैं जब अकेले बच्चे व्यस्तता से जूझते पेरैंट्स को सवालिया नजरों से देखते हैं. घर में खुशियां बांटने और मन की कहने के लिए हमउम्र भाईबहन का न होना बच्चों को भी अखरता है. इतना ही नहीं, सिंगल चाइल्ड की सोच हमारे समाज में महिलापुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी बढ़ावा दे रही है क्योंकि आमतौर पर यह देखने में आता है कि जिन कपल्स का पहला बच्चा बेटा होता है वे दूसरा बच्चा करने की नहीं सोचते. समग्ररूप से यह सोच पूरे समाज में लैंगिक असमानता को जन्म देती  है.

शेयरिंग की आदत न रहना

आजकल महानगरों के एकल परिवारों में एक बच्चे का चलन चल पड़ा है. आमतौर पर ऐसे परिवारों में दोनों अभिभावक कामकाजी होते हैं. नतीजतन बच्चा अपना अधिकतर समय अकेले ही बिताता है. ऐसे माहौल में पलेबढ़े बच्चों में एडजस्टमैंट और शेयरिंग की सोच को पनपने का मौका ही नहीं मिलता. छोटीछोटी बातों में वे उन्मादी हो जाते हैं. अपनी हर चीज को ले कर वे इतने पजेसिव रहते हैं कि न तो किसी के साथ रह सकते हैं और न ही किसी दूसरे की मौजूदगी को सहन कर सकते हैं. वे हर हाल में जीतना चाहते हैं. यहां तक कि खिलौने और खानेपीने का सामान भी किसी के साथ बांट नहीं सकते. ऐसे बच्चे अकसर जिद्दी और शरारती बन जाते हैं.

अकेला बच्चा होने के चलते मातापिता का उन्हें पूरा अटैंशन मिलता है. वर्किंग पेरैंट्स होने के चलते अभिभावक बच्चे को समय नहीं दे पाते. उस की हर जरूरी और गैरजरूरी मांग को पूरा कर के अपने अपराधबोध को कम करने की राह ढूंढ़ते हैं. बच्चे अपने साथ होने वाले ऐसे व्यवहार को अच्छी तरह से समझते हैं जिस के चलते छोटी उम्र में ही वे अपने पेरैंट्स को इमोशनली ब्लैकमेल भी करने लगते हैं. अगर उन की जिद पूरी नहीं होती तो वे कई तरह के हथकंडे अपनाने लगते हैं.

गैजेट्स की लत

इसे समय की मांग कहें या दूसरों से पीछे छूट जाने का डर, अभिभावक अपने इकलौते बच्चों को आधुनिक तकनीक से अपडेट रखने की हर मुमकिन कोशिश करते नजर आते हैं. कामकाजी अभिभावकों को ये गैजेट्स बच्चों को व्यस्त रखने का आसान जरिया लगते हैं. यही वजह है कि अकेले बच्चों की जिंदगी में हमउम्र साथियों और किस्सेकहानी सुनाने वाले बुजुर्गों की जगह टीवी, मोबाइल और लैपटौप जैसे गैजेट्स ने ले ली है. आज के दौर में इन इकलौते बच्चों के पास समय भी है और एकांत भी. बडे़ शहरों में आ बसे कितने ही परिवार हैं जिन में कुल 3 सदस्य हैं. साथ रहने और खेलने को न किसी बड़े का मार्गदर्शन और न ही छोटे का साथ. नतीजतन, वे इन गैजेट्स का इस्तेमाल बेरोकटोक मनमुताबिक ढंग से करते रहते हैं. उन का काफी समय इन टैक्निकल गैजेट्स को एक्सैस करने में ही बीतता है. अकेले बच्चे घंटों इंटरनैट और टीवी से चिपके रहते हैं. धीरेधीरे ये गैजेट्स उन की लत बन जाते हैं और ऐसे बच्चे लोगों से घुलनेमिलने से कतराने लगते हैं.

‘एन इंटरनैशनल चाइल्ड ऐडवोकेसी और्गनाइजेशन’ की एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि इंटरनैट पर बहुत ज्यादा समय बिताने वाले बच्चों में सामाजिकता खत्म हो जाती है. नतीजतन, उन के शारीरिक और मानसिक संवेदनात्मक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इतना ही नहीं, मनोचिकित्सकों ने तो इंटरनैट की लत को मनोदैहिक बीमारी का नाम दिया है. अकेले बच्चों को मिलने वाली मनमानी छूट कई माने में उन्हें जानेअनजाने ऐसी राह पर ले जाती है जो आखिरकार उन्हें कुंठाग्रस्त बना देती है.

समस्याएं और भी हैं

इकलौते बच्चे का व्यवहार और कार्यशैली उन बच्चों से बिलकुल अलग होती है जो अपने हमउम्र साथियों या भाईबहनों के साथ बड़े होते हैं. वर्किंग पेरैंट्स के व्यस्त रहने के कारण ऐसे बच्चे उपेक्षित और कुंठित महसूस करते हैं. कम उम्र में सारी सुखसुविधाएं मिल जाने के कारण ये जीवन की वास्तविकता और जिम्मेदारियों को ठीक से नहीं समझ पाते. ऐसे बच्चे आमतौर पर आत्मकेंद्रित हो जाते हैं. अकेला रहने वाला बच्चा अपनी बातें किसी से नहीं बांट पाता. उसे अपनी भावनाएं शेयर करने की आदत ही नहीं रहती जिस के चलते ऐसे बच्चे बड़े हो कर अंतर्मुखी, चिड़चिड़े और जिद्दी बन जाते हैं और उन का स्वभाव उग्र व आक्रामक हो जाता है.

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अकेले पलेबढ़े बच्चे सामाजिक नहीं होते और उन्हें हर समय अटैंशन व डिपैंडैंस की तलाश रहती है. संपन्न और सुविधाजनक परवरिश मिलने के कारण इकलौते बच्चे जिंदगी की हकीकत से दूर ही रहते हैं. लाड़प्यार और सुखसुविधाओं में पलने के कारण वे आलसी और गैरजिम्मेदार बन जाते हैं. छोटेछोटे काम के लिए उन्हें दूसरों पर निर्भर रहने की आदत हो जाती है. आत्मनिर्भरता की कमी के चलते उन के व्यक्तित्व में आत्मविश्वास की भी कमी आ जाती है. एक सर्वे में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि अकेले रहने वाले बच्चों की खानपान की आदतें भी बिगड़ जाती हैं. यही वजह है कि अकेले बच्चों में मोटापे जैसी शारीरिक व्याधियां भी घर कर जाती हैं.

सिंगल मदर: क्या वाकई आसान हुई राह

जब मां की बात चलती है तो फिल्म ‘दीवार’ का डायलौग ‘मेरे पास मां है…’ कानों में गूंजने लगता है. मगर यह मात्र डायलौग ही है. असल जिंदगी में इस की कोई अहमियत नहीं, क्योकि हमारे देश में ज्यादातर पितृसत्ता वाले समाज का ही बोलबाला है. आज भले ही हमारा समाज कितनी तरक्की क्यों न कर गया हो, सिंगल पेरैंट होना आसान नहीं है. यों तो भारत में ज्यादातर जगहों पर पितृसत्ता ही वजूद में है, पर उत्तरपूर्व, हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों और केरल में मातृसत्ता प्रभुत्व में रही है. अब सुप्रीम कोर्ट ने सिंगल मदर्स के हक में एक अहम फैसला दिया है.

1.कोर्ट का फैसला कितना सही

जुलाई, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में बिन ब्याही मां के अपने बच्चे के स्वाभाविक अभिभावक होने पर मुहर लगाई. कोर्ट ने कहा कि कोई भी सिंगल पेरैंट या अनब्याही मां बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए आवेदन करे तो उसे वह जारी किया जाए. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन अविवाहित मांओं के लिए एक बेहतर फैसला साबित हुआ है, जो विवाह से पहले गर्भवती हो गई थीं, क्योंकि ऐसी युवतियों को अपनी संतान के पिता का नाम बताना अब जरूरी नहीं होगा. फैसले में कोई भी महिला बिना शादी के भी अपने बच्चे का पालन कर कानूनन अभिभावक बन सकती है, जिस के लिए उसे पुरुष के नाम व साथ की जरूरत नहीं होगी. अब किसी भी महिला को अपने बच्चे या समाज को उस के पिता के नाम को बताना जरूरी नहीं होगा. कोर्ट ने कहा है कि यदि महिला अपनी कोख से पैदा हुए बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए अर्जी देती है तो संबंधित अधिकारी हलफनामा ले कर प्रमाणपत्र जारी कर दें.

कोर्ट का यह फैसला भले ही अनब्याही मांओं के लिए खुशियां ले कर आया हो पर क्या समाज उसे नाजायज कहना बंद कर देगा? क्या अविवाहित मां होने पर उसे समाज के तानों से मुक्ति मिल जाएगी? क्या इस फैसले से उस के अंदर आत्मविश्वास की भावना जाग्रत होगी? अगर यह सब मुमकिन होगा, तो कोर्ट का फैसला सचमुच कुंआरी मांओं के हित में है.

2जानता है मेरा बाप कौन है…

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को भले ही महिलाओं के हक में देखा जा रहा हो, पर समाज की तसवीर इस से अलग है. समाज में पिता का क्या स्थान है, यह बचपन से ही देखने को मिल जाता है. बच्चों को पहचानने के लिए लोग उन के पिता का ही नाम पूछते हैं, बेटे तुम्हारे पापा का क्या नाम है, वे क्या करते हैं आदि. इस में मां का जिक्र नहीं के बराबर ही होता है. बच्चे भी एकदूसरे पर रोब झाड़ने के लिए अकसर कहते सुने जा सकते हैं कि जानता है, मेरा बाप कौन है? भले ही उस की मां भी कामकाजी महिला हो, लेकिन वह अपनी पहचान अपने पिता से ही बताना चाहता है. ऐसे में साफ है कि हमारे समाज को अभी मां को उस की सही जगह देने की जरूरत है. सिर्फ नियमकानून से सिंगल मदर को उस का हक नहीं दिलाया जा सकता है.

स्टार प्लस पर प्राइम टाइम में ‘दीया और बाती हम’ धारावाहिक में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला. इस में सूरज और संध्या का बेटा अपने दोस्तों में रोब झाड़ता है. जब उस के दोस्त उस से पूछते हैं कि तुम्हारे पिता क्या काम करते हैं, तो वह बताता है कि उस के पिता का होटल है, जबकि असल में उस के पिता यानी सूरज हलवाई हैं. संध्या भले ही आईपीएस औफिसर हो पर उस के बेटे को पिता का नाम ही आगे करना था और सवाल भी आखिर यही था कि तुम्हारे पिता क्या करते हैं? यह मात्र एक धारावाहिक में ही नहीं, बल्कि असल जिंदगी में भी पिता का नाम ही पहले लिया जाता है.

3.दामादजी आए हैं

परिवार में ‘हैड औफ द फैमिली’ हमेशा पिता ही होता है. पिता की पसंदनापसंद का खयाल हर जगह सब से पहले रखा जाता है. लड़की के घर में भी शादी के बाद उस की पूछ कम हो जाती है. उस के परिवार वालों को भी बस दामादजी की पसंद की ही चिंता रहती है. खाने, फिल्म देखने, घूमने जाना आदि सब दामाद की पसंद से ही तय होता है. महिलाओं की जगह जब परिवार में ही कमतर होती जाएगी तो समाज और कानून में भी उन्हें उसी हिसाब से जगह मिलेगी. इसलिए इन चीजों में बदलाव की जरूरत घर के अंदर से होनी चाहिए.

4.इनसान हो या जानवर मां ही अहम

इनसानों और जानवरों के बीच सामाजिक परिवेश का फर्क होता है. इनसान जहां अपनी आने वाली पीढ़ी को परिवार और समाज में रहने के लिए तैयार करता है, वहीं जानवर उसे खुद के पैरों पर खड़ा होना सिखा कर उसे उस के हाल पर छोड़ देता है. कई बार जानवरों की तरह इनसानों में भी उदाहरण देखने को मिलते हैं, जब समाज में कोई पुरुष अपने बच्चे को अपना नाम या पहचान देने को तैयार नहीं होता है. ऐसे में अगर उस की मां उसे अपनाने की स्थिति में न हो तो वह असमय मौत का शिकार बनता है या अनाथालयों में पलता है. हालांकि ऐसे मामलों में जानवरों और इनसानों में यह समानता देखने को मिलती है कि दोनों जगहों पर मां ही अपने बच्चे को उस की आगे की जिंदगी के लिए तैयार करती है. जानवरों में भी खाने का जिम्मा मादा को ही उठाना पड़ता है. शिकार करना या अपना खाना ढूंढ़ना भी मां ही बच्चे को सिखाती है.

5.शादी के बिना मां बाप रे बाप

भारत की सामाजिक स्थिति ऐसी है कि यहां किसी लड़की का बिना शादी के मां बनना अपराध माना जाता है जबकि विदेशों में ऐसे कई मामले देखने को मिलते हैं. हमारे समाज में शादी में परिवार की मरजी सब से अहम होती है, इसलिए कई मामलों में प्रेमियों के बच्चे हो जाने पर भी वे शादी की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं. ऐसे में शादी से पहले मां बन कर रहना बड़ी चुनौती है. इसीलिए आए दिन भ्रूण के कूड़े के ढेर में पाए जाने के मामले सामने आते रहते हैं. समाज की सोच बदलने पर ही सिंगल मदर का कौन्सैप्ट सही मानों में कारगर होगा.

6.बच्चा तो अपना ही अच्छा

भारत में परित्यक्त, बेसहारा और अनाथ बच्चों की बड़ी संख्या होने के बावजूद उन्हें गोद लेने के लिए काफी कम संख्या में लोग आगे आते हैं. भारत में रजवाड़ों को खत्म हुए भले ही कई दशक बीत गए हों, पर आज भी वंश चलाने के नाम पर अपने ही खून को प्राथमिकता दी जाती है. कई परिवारों में बच्चे न होने के बावजूद अनाथ बच्चों को गोद नहीं लिया जाता. परिवार के बुजुर्गों को बेटेबहुओं से जल्दी औलाद पैदा करने की अपेक्षा रहती है. कई परिवारों में बेटे की चाहत में कई बेटियां पैदा हो जाती हैं, पर कोई लड़का गोद नहीं लिया जाता है. इस के अलावा संस्थाएं भी किसी कुंआरे लड़के या लड़की को बच्चा गोद देने में हिचकिचाती हैं.

7.तलाक के बाद की राह मुश्किल

दुनिया भर के मुकाबले हमारे देश में आज भी तलाक लेने का चलन काफी कम है. इस की वजह समाज में तलाकशुदा महिलाओं की स्थिति है. उन्हें आज भी हेय दृष्टि से देखा जाता है और विधवा पुनर्विवाह का चलन तो अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है. दूल्हा विधुर हो तो उसे एक बार नई दुलहन मिल जाएगी, पर विधवाओं की शादी का चलन अब भी देखने को नहीं मिलता है. विदेशों के मुकाबले तलाक की दर कम होने और पति के घर सिर्फ अर्थी ही निकलने की परंपरा के चलते हमारे देश में सिंगल मदर की मजबूत बनाने की योजनाएं भी धरी की धरी रह जाती हैं. इसी वजह से भारतीय महिलाएं ससुराल में उत्पीडन के बावजूद अपने बच्चे को अकेले पालने की हिम्मत नहीं दिखा पाती हैं.

8.लोगों के पास हैं चुभते सवाल

भारत में सिंगल मदर होना इतना आसान नहीं है. पूरी हिम्मत दिखा कर सिंगल मदर बनने पर भी महिलाओं को अकसर चुभते सवालों का सामना करना पड़ता है. मसलन, बच्चे के पापा अब कहां हैं, आप लोग साथ क्यों नहीं हैं? या फिर हतोत्साहित करने वाली प्रतिक्रियाएं जैसे अकेले बच्चा पालना बहुत मुश्किल है, सिर पर बाप का साया होना जरूरी है आदि. इस के अलावा स्कूल में बच्चे के दाखिले के समय या कोई सरकारीगैरसरकारी फौर्म भरते समय भी अभिभावक के बजाय पिता का नाम पूछा जाता है.

9.कुछ फैक्ट्स ऐंड फिगर्स

जनवरी से मार्च, 2015 के बीच भारत में गोद लिए जाने वाले बच्चों की संख्या में पिछले 3 सालों में पहली बार बढ़ोतरी दर्ज की गई. 2006 के आंकड़ों के अनुसार 82 फीसदी से ज्यादा भारतीय बच्चे अपने मातापिता के साथ रहते हैं. जो किसी एक पेरैंट के साथ रहते हैं, उन का आंकड़ा 8.5 फीसदी है. यहां एक पेरैंट का मतलब सिंगल मदर है.सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का महिला अधिकार समर्थकों ने स्वागत किया. वकील करुणा नंदी ने ट्विटर पर लिखा, ‘‘संरक्षता कानूनों में समानता लाए जाने की शुरुआत करने की जरूरत थी.’’

दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास विभाग के आंकड़ों के अनुसार 2007 से 2011 तक में लड़कों के मुकाबले लड़कियों को ज्यादा गोद लिया गया. 2011 में सरकार द्वारा पंजीकृत गैरसरकारी संस्थाओं से जहां 98 लड़के गोद लिए गए वहीं लड़कियों की संख्या 150 थी. द्य अब तक ‘द गार्जियन ऐंड वर्ड्स ऐक्ट’ और ‘हिंदू माइनौरिटी ऐंड गार्जियनशिप ऐक्ट’ के तहत बच्चे के लीगल गार्जियन का फैसला उस के पिता की सहमति के बगैर नहीं हो पाता था, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि इस के लिए पिता की इजाजत की कोई जरूरत नहीं है.

वर्किंग मदर, बदलता नजरिया

टीवी सीरियल ‘कौन बनेगा करोड़पति’ सीजन 5 के अंतिम खिलाड़ी के रूप में पुष्पा उदेनिया खेलने के लिए आई थीं. पुष्पा उदेनिया मध्य प्रदेश के दमोह जिले की रहने वाली हैं. उन के पिता चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं. वे बड़ी मुश्किल से पुष्पा की शादी कमलेश उदेनिया से करा पाए. कमलेश की भी कोई नौकरी नहीं थी. पुष्पा एक प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं. उन को शादी के 2 साल बाद बेटा हो गया. अब परेशानी यह थी कि बेटे की देखभाल कौन करे? पुष्पा और उन के पति की हालत ऐसी नहीं थी कि वे बेटे की देखभाल के लिए किसी नातेरिश्तेदार को बुला सकें या बेटे को क्रैच में रख सकें. ऐसे में पतिपत्नी ने मिल कर फैसला किया कि जिस का वेतन कम है, वह घर पर रह कर बेटे की देखभाल करेगा. कमलेश का वेतन कम था, इसलिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और घर पर रह कर बच्चे की देखभाल करने लगे. पुष्पा ज्यादा वेतन पाती थीं, इसलिए वे अपनी स्कूल टीचर की नौकरी करती रहीं. लेकिन पुष्पा को वेतन के रूप में सिर्फ क्व 3,000 ही मिलते थे अत: घर का खर्च चलाने के लिए वे अपने घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगीं.

पुष्पा ने बताया, ‘‘घर पर काम करने को ले कर शुरूशुरू में मेरे पति की बहुत आलोचना होती थी, लेकिन धीरेधीरे लोगों का विरोध कम हो गया.’’ पुष्पा के पति कमलेश का मानना है कि 2 साल की बात और है. जब बच्चा बड़ा हो जाएगा, वह स्कूल जाने लगेगा तब वे भी नौकरी करने लगेंगे. वे अपनी पत्नी को प्रोफैसर बनाने का सपना देख रहे हैं.

डे बोर्डिंग स्कूल बन रहे सहारा

यह बात केवल पुष्पा की ही नहीं है. समाज में पुष्पा जैसी बहुत सी महिलाएं हैं. सीमा और राकेश की कहानी भी ऐसी ही है. सीमा और राकेश दोनों ही नौकरीपेशा हैं. जब उन का पहला बच्चा हुआ तब उन के सामने भी परेशानी आई. राकेश ऐसी नौकरी करते थे, जिस में शिफ्टवार ड्यूटी थी. उस वक्त राकेश की ड्यूटी दिन की थी. ऐसे में परेशानी यह आने लगी कि बच्चे की देखभाल कौन करे? कुछ दिन बच्चा क्रैच में रखा गया, इस में भी परेशानी आ रही थी. तब राकेश और सीमा ने तय किया कि उन में से ही कोई एक अपने बच्चे की देखभाल करेगा. राकेश ने अपनी ड्यूटी बदलवा ली. 4 बजे के बाद सीमा जब बच्चे की देखभाल करने के लिए आ जाती, तब राकेश नौकरी करने जाते. इस बीच सीमा को दूसरा बच्चा भी हो गया. तब बड़े बच्चे को डे बोर्डिंग स्कूल में दाखिला दिला कर राकेश ने छोटे बेटे की देखभाल करनी शुरू कर दी. वे कहते हैं, ‘‘कुछ दिनों की बात है. इस के बाद छोटा बेटा भी डे बोर्डिंग स्कूल में जाने लगेगा, तब सब ठीक हो जाएगा.’’

क्रैच को छोड़ डे बोर्डिंग स्कूल में बच्चे का दाखिला दिलाने के सवाल पर राकेश ने बताया, ‘‘कै्रच में बच्चे की केवल देखभाल हो पाती है. वहां रहने वाली आया बच्चे को पढ़नालिखना या दूसरी चीजें नहीं सिखा पाती. डे बोर्डिंग स्कूल में 2 साल की उम्र के बाद दाखिला मिल जाता है. यहां पर बच्चे कई तरह के रचनात्मक कामों और खेल से तो जुड़ते ही हैं, उन की पढ़ाई की शुरुआत भी हो जाती है, जिस से किसी अच्छे स्कूल में बच्चे को दाखिल कराने में काफी मदद मिल जाती है. डे बोर्डिंग स्कूल में बच्चा दिन भर स्कूल में रहता है. वहां खाने और खेलने की सुविधाएं देने के साथ ही बच्चे को मैनर्स सिखाए जाते हैं. क्रैच के मुकाबले यह थोड़ा महंगा जरूर होता है पर बच्चा यहां ठीक से रहता है.’’

क्रैच का नहीं जवाब

निशा सरकारी नौकरी में हैं. उन के पति बाहर नौकरी करते हैं. उन्हें जब बच्चा हुआ तो पहले 3 माह की छुट्टी औफिस से मिल गई. इस के बाद उन्हें औफिस जाना था. निशा ने अपनी परेशानी औफिस में अपने सहयोगियों को बताई. उन से निशा को पता चला कि उन के औफिस में ही एक क्रैच खुला है, जिस में महिला कर्मचारी अपने बच्चों को रखती हैं. वे जब घर जाती हैं तो अपनेअपने बच्चे को साथ वापस ले जाती हैं. ऐसे में बच्चा उन से दूर भी नहीं रहता और उन्हें औफिस के काम में कोई परेशानी भी नहीं रहती. बच्चे की देखभाल के एवज में निशा को केवल क्व 3 सौ प्रतिमाह देने होते थे. आमतौर पर बड़े सरकारी औफिसों के अंदर ही क्रैच खुले होते हैं. सरकारी औफिसों में खुले क्रैच में बाहरी लोग भी अपने बच्चे को रख सकते हैं. इस के लिए बस उन को फीस कुछ ज्यादा देनी पड़ती है. प्राइवेट नौकरी करने वाली रजनी कहती हैं कि क्रैच और डे बोर्डिंग स्कूल में अंतर होता है. क्रैच में आप छोटे से छोटे बच्चे को भी रख सकती हैं जबकि डे बोर्डिंग स्कूल में 2 साल से ज्यादा उम्र के बच्चे ही रखे जा सकते हैं. रजनी को अपने औफिस से केवल 2 माह की छुट्टी मिली थी, उन को 2 माह की उम्र में ही बच्चे को क्रैच में भेजना शुरू करना पड़ा. समाज में वर्किंग मदर की बढ़ती संख्या को देखते हुए क्रैच खोलना अब एक कैरियर भी बन गया है. लगभग हर बड़े शहर की बड़ी कालोनी या रिहायशी इमारतों के आसपास क्रैच खुल रहे हैं.

अपने हों साथ तो क्या बात

रीना एनजीओ सैक्टर में काम करती हैं. वे कहती हैं, ‘‘हमें कभीकभी काम के सिलसिले में घर पहुंचतेपहुंचते काफी रात हो जाती थी. ऐसे में हमारे सामने कई मुश्किलें थीं. इन मुश्किलों से बचने के लिए हम ने अपनी मां को अपने पास बुला लिया. वे आ कर बच्चे की देखभाल करने लगीं. मैं कभीकभी रात में घर नहीं भी आती थी तो भी वे बच्चे की देखभाल कर लेती थीं. मुझे लगता है कि अगर संभव हो तो हम कोई ऐसी व्यवस्था कर दें जिस से घर का कोई बड़ाबुजुर्ग बच्चे की देखभाल करने को तैयार हो जाए. इस से बच्चे की तनिक भी चिंता नहीं रहती. रात में भी यह नहीं सोचना होता कि अब बच्चे को कहां रखें? ‘‘हम कितना भी महंगा क्रैच क्यों न खोज लें, उस में वह बात नहीं होती जो घर के बड़ेबुजुर्ग में होती है. आज की पीढ़ी अपने घर के बड़ेबुजुर्गों की देखभाल से बचने के लिए उन्हें अपने साथ नहीं रखती. अगर बच्चा घर के लोगों के साथ रहेगा, तो वह ज्यादा सुरक्षित रहेगा, उसे अच्छे संस्कार भी मिलेंगे.’’ मजदूर तबके की और स्वतंत्र रूप से काम करने वाली कुछ महिलाएं काम के दौरान भी बच्चे को साथ रखने का काम करती हैं. लेकिन जो नौकरी करती हैं उन के लिए बच्चे को साथ रखना मुनासिब नहीं होता. उन की कार्यक्षमता और तरक्की पर भी असर पड़ता है. ऐसे में क्रैच, घर के लोग और डे बोर्डिंग स्कूल उन का सहारा बन सकते हैं. पर इन जगहों पर बच्चे को रखने के लिए पहले मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लें. बच्चे को भी पूरा सहारा दें ताकि उसे इस बात का एहसास न हो सके कि वह बिना मांबाप के अकेला रहता है. कई बार ऐसे हालात बच्चे के लिए नुकसानदायक साबित होती है.

Winter Special: शिशु के लिए स्तनपान

अगर आप पहली बार मां बनी हैं तो आप के मन में अपने बच्चे को ले कर काफी उत्साह होगा, जोकि स्वाभाविक भी है, लेकिन बच्चे को पालना, उस की देखभाल ठीक तरह से हो, इस को ले कर चिंताएं भी कम नहीं होती हैं. अगर परिवार में कोई बुजुर्ग है तो फिर कोई बात नहीं, लेकिन आजकल परिवार छोटे होते हैं, न्यूक्लियर फैमिली. ऐसे में बच्चे की छोटीमोटी बातों की जानकारी आमतौर पर नई मां को नहीं होतीं. ऐसी मांओं को नवजात बच्चों को दूध पिलाने को ले कर बहुत सारी उलझनें होती हैं.

कैसे दूध पिलाया जाए

कोलकाता की जानीमानी डाक्टर संयुक्ता दे इस बारे में कहती हैं कि आमतौर पर नई मांएं समझती हैं कि दूध पिलाने में क्या रखा है. यह मामला स्वाभाविक है, इसीलिए बड़ा आसान भी है. लेकिन इस के लिए केवल शारीरिक नहीं, मानसिक तैयारी की भी जरूरत पड़ती है. ये दोनों तैयारियां अगर न हों तो पहली बार स्तनपान कराने में कुछ समस्याएं आ सकती हैं.

पहली बार कब

स्वाभाविक प्रसव के मामले में शिशु को बहुत जल्दी ब्रैस्ट फीड कराना संभव हो जाता है. स्पाइनल कौर्ड में इंजेक्शन लगा कर सीजर करने के मामले में भी मां उसी दिन ब्रैस्ड फीड करा सकती है. लेकिन पूरी तरह से बेहोश कर के सीजर करने पर कम से कम 2 दिनों के बाद ब्रैस्ट फीड कराया जा सकता है.

निप्पल के आकार की समस्या

कुछ महिलाओं के स्तन के निप्पल का आकार सही नहीं होता. ऐसे स्तन से दूध पीने में बच्चों को तकलीफ होती है. इसीलिए मां बनने की तैयारी के साथ स्तन की देखभाल जरूरी है. अगर स्वाभाविक निप्पल नहीं है, तो रोज सुबहशाम औलिव औयल उंगलियों के पोरों में लगा कर दबे निप्पल को बाहर लाने की कोशिश करना जरूरी है. कुछ दिनों में यह स्वाभाविक हो जाएगा. ऐसी समस्या के लिए प्रसूति विशेषज्ञ व गाइनाकौलोजिस्ट से भी सलाह ली जा सकती है.

क्रैक निप्पल की समस्या

कई बार निप्पल क्रैक होने की समस्या पेश आती है. कभीकभी दर्द होता है और कुछ के निप्पल से खून तक आने लगता है. ऐसे मामले में डाक्टरी सलाह ली जा सकती है, लेकिन दूसरे स्तन से दूध निकाल कर क्रैक में लगाया जाए तो यह दवा का भी काम करता है. बहरहाल, क्रैक निप्पल से ब्रैस्ट फीडिंग नहीं कराई जानी चाहिए. क्रैक निप्पल वाले स्तन से मिल्क ऐक्सप्रैस से दूध निकाल कर चम्मच से पिलाया जाना चाहिए. ऐक्सप्रैस कर के निकाला हुआ दूध 24 घंटे तक फ्रिज में रख कर भी पिलाया जा सकता है, बशर्ते इस दौरान फ्रिज एक बार भी बंद न किया जाए.

दूध पिलाने का सही तरीका

अब रही बात दूध पिलाने के सही और आरामदायक तरीके की, तो सब से पहले पैरों के नीचे तकिए का सपोर्ट ले कर बच्चे को गोद में सुलाएं. बेहतर होगा कि बच्चे के दोनों तरफ छोटा साइड तकिया भी रख लें. इस से बच्चे को आराम महसूस होगा. दूध पिलाते समय बच्चे के सिर पर हाथ फेरने से बच्चे को मां के प्यार भरे स्पर्श से सुखद अनुभूति होती है और मां के मन में भी संतोष होता है.

कई बार बच्चा दूध नहीं पीता. इस की कई वजहें हो सकती हैं. शिशु का कान, नाक दब जाने या दूध पीते हुए आराम नहीं मिल पाने के कारण वह ऐसा कर सकता है. ऐसे में पोजीशन को बदल कर देखना चाहिए. दूध पिलाने के लिए एकांत बेहतर होता है.

कितनी बार स्तनपान कराएं

डा. संयुक्ता दे का कहना है कि नवजात बच्चे को स्तनपान कराने के लिए किसी रूटीन को फौलो करने की जरूरत नहीं होती है. जबजब बच्चे को भूख लगे तबतब दूध पिलाया जा सकता है. लेकिन एक ही बार में बहुत सारा दूध पिलाने के बजाय कुछकुछ समय के अंतराल में थोड़ाथोड़ा दूध पिलाते रहना बेहतर होता है. इस की वजह यह है कि आमतौर पर नए बच्चे की पाचनशक्ति कमजोर होती है. ऐसे में कम से कम 8 बार तो दूध जरूर पिलाया जाना चाहिए. नवजात शिशु रात में 2-3 बार दूध के लिए नींद से जाग सकता है, लेकिन 6 सप्ताह के बाद वह एकसाथ 5 घंटे से ज्यादा नहीं सोता. 3 महीने के बाद कुछ बच्चों को बोतल का दूध भी देना पड़ता है. तब उन की भूख जरा कम हो जाती है. इस की वजह यह है कि बोतल का दूध फौर्मूला दूध होता है. मां के दूध की तुलना में इसे हजम करने में ज्यादा वक्त लगता है. इस दौरान 4 घंटे के अंतर में दूध पिलाया जा सकता है. यानी, दिन में 5 बार और रात में 2 बार पर्याप्त होता है.

लेकिन अगर प्री मैच्योर शिशु है तो कुछकुछ देर में डाक्टरी सलाह के अनुसार दूध दिया जाना चाहिए. ऐसे बच्चे आमतौर पर ज्यादा सोते हैं, इसलिए नींद के बीच में दूध पिलाने की कोशिश की जानी चाहिए. अगर वह नहीं लेता है तो जबरन नींद में खलल डाल कर दूध पिलाने से बचना चाहिए. एक जरूरी बात यह है कि दूध पीने के दौरान थोड़ी हवा भी बच्चे के पेट में चली जाती है. दूध पिला लेने के बाद शिशु को कंधे पर सुला कर उस की पीठ को थपकने या जरा सहला देने से पेट की हवा डकार के रूप में बाहर निकल जाती है. हवा रह जाने पर हो सकता है शिशु उलटी कर दे.

कैसे समझें शिशु स्वस्थ है

डाक्टर पल्लव चट्टोपाध्याय कहते हैं कि शिशु अगर ब्रैस्ट फीड के बाद सो जाता है तो समझें, उस का पेट भर गया है. इस बात पर ध्यान रखें कि वह कितनी बार पेशाब करता है, अगर दिन भर में 6-7 बार पेशाब करता है. तो समझें शिशु ठीकठाक है. शिशु जब ब्रैस्ट पर हो, तब तक पानी पिलाने की जरूरत नहीं. यहां तक कि मिसरी का पानी भी नहीं देना चाहिए. इस से पेट में गैस पैदा होती है. शुरू में हो सकता है कि शिशु दिन में सोए और रात में जगा रहे. इस में भी चिंता की कोई बात नहीं. कुछ ही दिन में वह अपनी आदत बदल लेगा.

दूध पिलाने के लिए जरूरी सामान

सोने के लिए साजोसामान और पहनने के लिए पोशाक के अलावा दूध पिलाने के लिए बोतल, चम्मच जैसी जरूरी चीजों के अलावा कुछ और छिटपुट चीजों की जरूरत पड़ती है. शिशु जब पहली बार बोतल में दूध पीना शुरू करता है, तो इन चीजों की जरूरत पड़ती है. मसलन, कटोरा, गिलास, टिट्स या रबर के निप्पल, बोतल के साथ डिस्पोजेबल लाइनर, मेजरिंग जग, दूध निकालने के लिए प्लास्टिक के चम्मच और दूध का पैकेट खोलने के लिए छोटी कैंची, एक प्लास्टिक का चाकू, बोतल में दूध डालने के लिए एक फनेल आदि.

दूध की बोतल 2 साइज की 200 मि.ली. और 250 मि.ली. की रखनी चाहिए. इस के अलावा बोतल साफ करने के लिए ब्रश, बड़ा सा बरतन, जिस में साबुन के पानी में कुछ चीजें थोड़ी देर डुबो कर रखी जा सकें. साथ में स्टेरलाइजर, फ्लास्क, कभी कहीं बाहर जाना हो तो इस के लिए एक इंसुलेटेड पिकनिक बौक्स, मेजरिंग स्पून.

दूध की बोतल कभी माइक्रोवेव में गरम नहीं करनी चाहिए. इस की वजह यह है कि ऊपर से बोतल इतनी गरम नहीं होती, लेकिन बोतल के अंदर दूध अधिक गरम हो जाता है. बहरहाल, बोतल शिशु के मुंह में देने से पहले अपनी हथेली के ऊपरी हिस्से पर दूध की कुछ बूंदें गिरा कर देख लेनी चाहिए.

स्टेरलाइज करने का तरीका

स्टीम स्टेरलाइजर या माइक्रोवेव स्टेरलाइजर का उपयोग किया जा सकता है. स्टेरलाइजर है तो काम आसान हो जाता है. बाजार में स्टेरलाइजर कैमिकल या स्टेरलाइजिंग टिकिया पाई जाती है. टिकिया के गल जाने के बाद शिशु के फीडिंग उपकरण को डालें और कम से कम 5 मिनट उबलने दें. डिशवाशर का भी उपयोग किया जा सकता है, लेकिन टिट्स को तभी डिशवाशर में डालें, जब टिट्स डिशवाशर प्रूफ हो. हौट ड्राइंग साइकिल जरूर रखें. उच्च तापमान में ही बैक्टीरिया मरते हैं.

एक्सपर्ट से जाने मेल फर्टिलिटी 101 और पुरुषों के बांझपन से जुड़ी समस्याएं

बांझपन प्रजनन तंत्र की एक समस्या है जो आपको महिला को गर्भवती करने से रोकती है। आज 7 में से एक कपल को बांझपन की समस्या है, इसका अर्थ है कि पिछले 6 महीने या सालभर में गर्भधारण करने के प्रयास में वे सफल नहीं रहे। इनमें आधे से भी ज्यादा मामलों में पुरुष बांझपन की एक अहम भूमिका होती है. डॉ रत्‍ना सक्‍सेना, फर्टिलिटी एक्‍सपर्ट, नोवा साउथेंड आईवीएफ एंड फर्टिलिटी, बिजवासन की बता रही हैं इसके लक्षण और उपाय.

पुरुष बांझपन के क्या लक्षण होते हैं?

बांझपन अपने आपमें ही लक्षण है। हालांकि, गर्भधारण का प्रयास कर रहे दंपति के मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक नकारात्मक प्रभावों के बारे में बता पाना काफी मुश्किल है। कई बार, बच्चा पैदा करना उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है। बच्चे की चाहत रखने वाले पुरुषों और महिलाओं दोनों में ही अवसाद, क्षति, दुख, अक्षमता और असफलता की भावना आम होती है।

दोनों में से कोई एक या दंपति, जो ऐसी किसी भी भावना से गुजर रहे हैं उन्हें चिकित्सकों जैसे थैरेपिस्ट या साइकेट्रिस्ट से प्रोफेशनल मदद लेनी चाहिए, ताकि वे जीवन के इस मुश्किल दौर से उबर पाएं।

हालांकि, कुछ मामलों में, पहले से मौजूद समस्या, जैसे कोई आनुवंशिक डिस्‍ऑर्डर, हॉर्मोनल अंसतुलन, अंडकोष के आस-पास की फैली हुई नसें या शुक्राणु की गति को रोकने वाली कोई समस्या हो तो उसके संकेत तथा लक्षण इस प्रकार हो सकते हैं:

1.यौन इच्छा का कम हो जाना या इरेक्शन बनाए रखने में समस्या होना (इरेक्टाइल डिसफंक्शन)
2.अंडकोष में दर्द, सूजन या गांठ होना
3. लगातार श्वसन संक्रमण होना
4.खुशबू ना आना
5.शरीर के बालों या चेहरे के बालों का कम हो जाना, साथ ही क्रोमोसोमल या हॉर्मोनल असामान्यताएं
6.स्पर्म काउंट का सामान्य से कम होना

पुरुष बांझपन के क्या कारण हैं
कई सारे शारीरिक और पर्यावरण से जुड़े कारक हैं जोकि आपके प्रजनन पर प्रभाव डाल सकते हैं। उन कारकों में शामिल हो सकते हैं:

एजुस्पर्मिया: शुक्राणु कोशिकाओं का उत्पादन करने में असमर्थता के कारण बांझपन।
ओलिगोस्पर्मिया: कम गुणवत्ता वाले शुक्राणु का उत्पादन।
आनुवंशिक रोग: क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम, मायोटोनिक डिस्ट्रोफी, माइक्रोडिलीशन, हेमोक्रोमैटोसिस।
विकृत शुक्राणु: ऐसे शुक्राणु जो अंडे को निषेचित करने के लिये पर्याप्त समय तक जीवित नहीं रह सकते।
बीमारियां: डायबिटीज, ऑटोइम्यून रोग और सिस्टिक फाइब्रोसिस
वैरिकोसेले: एक ऐसी समस्या हैं, जहां आपके अंडकोष की नसें सामान्य से बड़ी होती हैं। इसकी वजह से उसकी गर्मी बढ़ जाती है, जो आपके द्वारा उत्पादित शुक्राणुओं के प्रकार या मात्रा को बदल सकता है।
कैंसर का इलाज: कीमोथैरेपी, रेडिएशन
लाइफस्टाइल से जुड़े विकल्प: शराब, धूम्रपान और नशीली दवाओं के उपयोग सहित मादक द्रव्यों का सेवन।
हॉर्मोनल परेशानियां: हाइपोथैलेमस या पिट्यूटरी ग्रंथियों को प्रभावित करने वाली समस्याएं
प्रोस्टेटेक्टोमी – प्रोस्टेट ग्रंथि को सर्जिकल रूप से हटाना, जो बांझपन, नपुंसकता और असंयम का कारण बनता है।
एंटीबॉडीज – एंटीबॉडीज जो शुक्राणु की गतिविधि को रोकते हैं, उससे अपने साथी के अंडे को निषेचित करने की शुक्राणु की क्षमता कम हो जाती है।

उपलब्ध परीक्षण
आपके चिकित्सक, आपकी मेडिकल हिस्ट्री का मूल्यांकन करते हैं और एक जांच करते हैं। पुरुष बांझपन से जुड़ी अन्य जांचों में शामिल हो सकता है:
सीमन का विश्लेषण- दो अलग-अलग दिनों में स्पर्म के दो नमूने लिए जाते हैं। चिकित्सक, किसी प्रकार की असामान्यता की जांच करने के लिये उस सीमन और स्पर्म तथा एंटीबॉडीज की उपस्थिति की जांच करेंगे। आपके स्पर्म की मात्रा, उसकी गतिशीलता और आकार की भी इस आधार पर जांच होगी।
ब्लड टेस्ट: हॉर्मोन के स्तर को जांचने और अन्य समस्याओं का पता लगाने के लिये ब्लड टेस्ट किए जाते हैं।
टेस्टीक्युलर बायोप्सी: अंडकोष (टेस्टिकल्‍स) के भीतर नलियों के नेटवर्क की जांच करने के लिये एक महीन सुई और एक माइक्रोस्कोप का उपयोग किया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि उनमें कोई शुक्राणु है या नहीं।
अल्ट्रासाउंड स्कैन- प्रजनन अंगों की इमेजिंग देखने के लिये अल्ट्रासाउंड स्कैन किए जाते हैं, जैसे कि प्रोस्टेट ग्रंथि, रक्त वाहिकाएं और स्‍क्रॉटम के अंदर की संरचनाएं।

कौन-कौन से उपचार होते हैं
वेसेक्टॉमी रिवर्सल: इस प्रक्रिया में, सर्जन आपके वास डिफरेंस को फिर से जोड़ देता है, जो स्‍क्रोटल ट्यूब होती है जिसके माध्यम से आपका शुक्राणु आगे बढ़ता है. उच्च क्षमता वाले सर्जिकल माइक्रोस्कोप के माध्यम से देखते हुए, सर्जन सावधानी से वास डिफरेंस के सिरों को वापस एक साथ सिल देता है।

वासोपिडीडिमोस्टोमी: ब्लॉकेज को हटाने की इस प्रक्रिया के लिये, आपके वास डिफरेंस को सर्जरी की मदद से दो हिस्सों में कर दिया जाता है और ट्यूब के आखिरी हिस्से को एक बार फिर जोड़ दिया जाता है. काफी सालों पहले जब सामान्य पुरुष नसबंदी की जाती थी तो इंफेक्शन या इंजुरी की वजह से एपिडीडिमिस या उपकोष में एक अतिरिक्त ब्लॉकेज हो जाता था। उसकी वजह चाहे कोई भी हो, आपके सर्जन एपिडीडिमिस ब्लॉकेज की बायपासिंग करके इस समस्या को सुलझा देंगे.

इंट्रासाइटोप्लास्मिक स्पर्म इंजेक्शन (आईसीएसआई): कृत्रिम प्रजनन तकनीकें उस बिंदु तक आगे बढ़ गई हैं जहां एक एकल शुक्राणु को एक अंडे में शारीरिक रूप से इंजेक्ट किया जा सकता है। इंट्रासाइटोप्लाज्मिक शुक्राणु इंजेक्शन (आईसीएसआई) में, शुक्राणु को एक विशेष कल्चर माध्यम में एक अंडे में इंजेक्ट किया जाता है। पुरुष के शुक्राणु को गर्भाशय ग्रीवा के माध्यम से उसके साथी के गर्भाशय में डालने से पहले एकत्रित किया जाता है, धोया और केंद्रित किया जाता है। इस प्रक्रिया ने पुरुष बांझपन के गंभीर कारकों के उपचार के विकल्पों को भी बदल दिया है। इस तकनीक की वजह से 90% बांझ पुरुषों के पास अब अपनी आनुवंशिक औलाद पाने का मौका है।

इन-विट्रो-फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) – पुरुष बांझपन से जूझ रहे कुछ दंपतियों के लिये इन-विट्रो-फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) एक पसंदीदा उपचार है। आईवीएफ प्रक्रिया के दौरान, गर्भाशय को इंजेक्शन योग्य प्रजनन दवाओं से स्टिम्युलेट किया जाता है, जिसकी वजह से कई सारे अंडे परिपक्‍व होते हैं। जब एग्स पर्याप्त रूप से परिपक्‍व हो जाते हैं तो फिर उन्हें एक सरल प्रक्रिया के द्वारा निकाल लिया जाता है। एक कल्चर डिश में या फिर सीधे हर परिपक्‍व एग में एक सिंगल स्पर्म को इंजेक्ट करके फर्टिलाइजेशन को अंजाम दिया जाता है। इस प्रक्रिया को इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजेक्शन (ऊपर देखें) के नाम से जाना जाता है। फर्टिलाइजेशन के बाद, गर्भाशय ग्रीवा के माध्यम से डाले गए एक छोटे कैथेटर के माध्यम से दो से तीन भ्रूणों को गर्भाशय में रखने से पहले तीन से पांच दिनों तक भ्रूण के विकास की निगरानी की जाती है।

पीईएसए: यदि आपकी सर्जरी असफल हो जाती है तो एक और सर्जिकल प्रक्रिया, पर्क्यूटेनियस एपिडीडिमल स्पर्म एस्पिरेशन (पीईएसए) की जाती है। इसमें लोकल एनेस्थेसिया देकर एक पतली सुई को एपिडीडिमिस में डाला जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान, स्पर्म को निकाला जाता है और तुरंत ही आईसीएसआई के लिये इस्तेमाल किया जाता है या आगे इस्तेमाल के लिये फ्रीज कर दिया जाता है।

हॉर्मोनल दवाएं- मस्तिष्क में पिट्यूटरी ग्रंथि गोनैडोट्रोपिन हॉर्मोन स्रावित करती है, जो अंडकोष को शुक्राणु पैदा करने के लिए उत्तेजित करती है। कुछ मामलों में इन गोनैडोट्रोपिन के अपर्याप्त स्तर के कारण पुरुष बांझपन होता है। इन हॉर्मोन्स को दवा के रूप में लेने से शुक्राणु उत्पादन बढ़ाने में मदद मिल सकती है।

‘सिंगल मदर समाज के लिए सौफ्ट टारगेट होती है- अनीता शर्मा

समाज की रूढि़यों को

जिस किसी को भी दिल्ली के आईटीओ इलाके का थोड़ा सा भी इतिहास पता हो, तो उसे यह भी जरूर याद होगा कि वहां की इमारतों के एक समूह में हिंदी, इंग्लिश, पंजाबी, उर्दू के कई नामचीन अखबार छपते थे. इस वजह से वहां पत्रकारों, संपादकों, फोटोग्राफरों सहित तमाम बुद्धिजीवियों का जमावड़ा लगा रहता था.

फिर समय का ऐसा फेर आया कि अखबार वाले वहां से दूसरी जगह शिफ्ट हो गए, पर उन्हीं इमारतों में से एक इमारत में उडुपी नाम का दक्षिण भारतीय व्यंजनों का एक कैफे आज भी मौजूद है.

हाल ही में उसी कैफे में अनीता वेदांत नाम की एक महिला से मुलाकात हुई जो दिखने में दूब जैसी नाजुक थीं, पर जब उन्होंने अपने ‘सिंगल मदर’ होने और 8 साल के बेटे वेदांत को अकेले पालने की दास्तान सुनाई तो उन में मुझे शमशीर की ऐसी धार दिखाई दी, जो समाज की रूढि़यों पर वार करने में जरा भी नहीं झिझकती है.

अनीता वेदांत का यह सफरनामा जानने से पहले इस ‘सिंगल मदर’ शब्द को जरा खंगाल लेते हैं, जो पिछले कुछ सालों में भारतीय शहरों में तेजी से गूंजने लगा है. ‘सिंगल मदर’ को आसान हिंदी में ‘एकल मां’ कहते हैं. इस का मतलब ऐसी मां से है जो अकेली अपने बच्चों का लालनपालन करती है, पर पति के जिंदा रहते हुए. वह तलाकशुदा हो सकती है या नहीं भी. कभीकभी तो शादीशुदा भी नहीं.

एक मिसाल हैं

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नीना गुप्ता ‘सिंगल मदर’ होने की शानदार मिसाल हैं. अपनी जवानी में वे वैस्टइंडीज के दिग्गज क्रिकेट खिलाड़ी विवियन रिचर्ड्स के प्यार में थीं, बिना शादी किए बेटी को पैदा किया और पालापोसा भी अकेले ही. आज उन की बेटी मसाबा गुप्ता देश की जानीमानी फैशन डिजाइनर हैं.

नीना गुप्ता देश की एक नामचीन कलाकार हैं, लेकिन हर ‘सिंगल मदर’ पैसे और रुतबे के लिहाज से मजबूत हो, ऐसा जरूरी नहीं है. संयुक्त राष्ट्र महिला संस्था की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 4.5 फीसदी घरों को ‘सिंगल मदर’ चला रही हैं, जिन की संख्या करीब 1.3 करोड़ है. रिपोर्ट के मुताबिक अनुमानित ऐसी ही 3.2 करोड़ महिलाएं संयुक्त परिवारों में भी रह रही हैं.

अब अनीता वेदांत पर फोकस करते हैं, जो नीना गुप्ता जितनी मशहूर तो नहीं हैं, पर हिम्मत में उन्हें पूरी टक्कर देंगी. चूंकि उडुपी कैफे में उस दिन अनीता वेदांत का 8 साल का बेटा वेदांत भी हमारे साथ था, तो उसे बिजी रखने के लिए उन्होंने फोन पर बच्चों के गाने लगा कर हैंड्स फ्री वेदांत के कान में लगा दिए थे. इस की एक वजह यह भी थी कि वे नहीं चाहती थीं कि वेदांत हमारी बातचीत को सुने, फिर कई तरह के सवाल करे.

शिक्षा बेहद जरूरी

अनीता वेदांत का नाम अनीता शर्मा है और वे दिल्ली में पैदा हुई थीं. अपनी शुरुआती पढ़ाईलिखाई उत्तर प्रदेश से करने के बाद वे दिल्ली आ गईं और आगे की पढ़ाई के लिए वहां दाखिला ले लिया. अपनी पोस्ट ग्रैजुएशन तक की पढ़ाईलिखाई उन्होंने दिल्ली से ही पूरी की थी. वे खेलों में भी काफी अच्छी थीं. उन्हें दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकीं दिवंगत शीला दीक्षित के हाथों अवार्ड भी मिल चुका है.

शिक्षा को ले कर अनीता शर्मा का मानना है, ‘‘शिक्षा को अपने जीवन में उतारना बहुत ही जरूरी है. मैं ने भी यही किया. मेरे पिता ट्रक मैकैनिक हैं और मां गृहिणी, जिन्होंने हम 6 भाईबहनों का लालनपालन किया. चूंकि मैं शिक्षा से गहरे से जुड़ी थी तो मुझे लगता था कि किताबें हमें कभी झठ बोलना नहीं सिखाती हैं, कभी गलत चीजों को सहना नहीं सिखाती हैं, तो उन्हीं किताबों की बातों को मैं ने जीवन में भी उतारा.

‘‘फिर मेरे जीवन में एक ऐसा मोड़ आया जो हर चीज में अव्वल रहने वाली अनीता के लिए टर्निंग पौइंट बन गया. 2010 में मैं ने 10वीं कक्षा पास की थी. उन्हीं दिनों हमारे एक करीबी रिश्तेदार के बेटे ने मेरे साथ 3 बार जबरदस्ती करने की कोशिश की. जब मैं ने अपने घर वालों को बताया तो वे उस रिश्तेदार की तरफ खड़े दिखाई दिए खासकर मेरी मां. समाज के नाम पर मुझे चुप रहने के लिए कहा गया. मैं ने काफी कोशिश की, पर मुझ से यह सब बरदाश्त नहीं हो पाया. तब मुझे बहुत ज्यादा अकेलापन महसूस हुआ और मैं ने अपना घर छोड़ दिया.

काम की तवज्जो

अनीता बताती हैं, ‘‘इस के बाद हालांकि मेरा कोई इरादा तो नहीं था, पर समाज के चुभते सवालों से छुटकारा पाने के लिए मैं ने लव मैरिज कर ली. उस समय मैं साढ़े 19 साल की थी और अपने एक दोस्त के घर जा कर उन्हें सब बताया तो उन्होंने मेरा संबल बनते हुए मुझ से शादी कर ली, पर शादी के दूसरे ही दिन मुझे उन के स्वभाव के बारे में पता चल गया.

‘‘दरअसल, हम दोनों घर का समान लेने के लिए बाजार गए थे और किसी आदमी के कमैंट पर मैं हंस दी, जो मुझ जैसी पढ़ीलिखी महिला के लिए एक सामान्य सी बात थी, पर मेरे पति को यह सब अच्छा नहीं लगा और फिर तो हमारे अगले 3 साल बड़े बुरे गुजरे. वे मेरी हर बात पर शक करते थे. शायद उन के दिमाग में यह बात थी कि जब इस के घर वालों ने इस का साथ नहीं दिया तो गलती इसी की रही होगी.

‘‘इस के बाद भी मैं ने रिश्ता निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. घर की आर्थिक स्थिति को ठीक करने के लिए मैं ने एक स्कूल में टीचर की नौकरी कर ली. चूंकि मैं इंग्लिश में अच्छी थी, तो स्कूल वालों को मेरा पढ़ाने का तरीका पसंद आया. पहले साल में ही मुझे शिक्षक सम्मान मिला. धीरेधीरे मैं अपने काम में तो आगे निकल गई, पर पारिवारिक रिश्ते कहीं पीछे छूट गए.’’

तलाक ही एक रास्ता था

अनीता बताती हैं, ‘‘जब मैं दिल्ली के लक्ष्मी नगर के एक स्कूल में पढ़ाती थी, तो वहां की प्रिंसिपल से अपने टूटते रिश्ते के बारे में बताया. उन्होंने सलाह दी कि बेबी कर लो, उस के बाद रिश्ता पटरी पर आ जाएगा. मैं ने यह भी कर के देखा और 2013 में बेटा हो गया, पर उस के बाद दिक्कतें और ज्यादा बढ़ गईं. इसी तरह 2 साल और निकले, फिर मैं ने थकहार कर पति से तलाक मांग लिया.

‘‘मेरे पति ने मुझे तलाक देने से मना कर दिया. पर मुझे यह चिंता सता रही थी कि इस माहौल में हो सकता है कि अपने पिता को देख कर मेरा बेटा भी कल को मेरी इज्जत न करे.

क्या पता वह किसी भी महिला की इज्जत न

करे. लिहाजा, मार्च, 2017 में मैं ने अपने पति का घर भी छोड़ दिया और कानपुर गर्ल्स होस्टल चली गई.

‘‘कानपुर जाने की एक वजह यह भी थी कि मैं वहां से तलाक लेने की कार्यवाही कर सकती थी क्योंकि मेरे जेठ वहीं रहते हैं. लेकिन मेरे पति ने तलाक नहीं दिया और अब पिछले 5 सालों से मैं अकेली अपने बेटे को पाल रही हूं.’’

हम सब जानते हैं कि भारतीय समाज दकियानूसी रीतिरिवाजों से भरा है और अगर कोई महिला अकेली अपने बच्चे का लालनपालन कर रही होती है तो उसे ट्रोल करने वालों की तो जैसे लौटरी लग जाती है. गाहेबगाहे उस से जरूर पूछा जाता है कि बच्चे के पिता कहां हैं, वे क्या करते हैं, उन का नाम क्या है आदि.

अनीता शर्मा का बेटा अब 8 साल का हो गया है और स्कूल जाता है. जरा सोचिए, जब वह अपने आसपास के माहौल में तैरते सवालों को अपनी जबान देता होगा कि मम्मी हम पापा के साथ क्यों नहीं रहते हैं या दादादादी के घर क्यों नहीं जाते हैं, तो एक मां कैसे उन से जूझती होगी.

यह जो हमारे समाज की महिलाओं को जज करने की आदत है न, वह किसी को भी मन से तोड़ने में देर नहीं लगाती है. एकल मांएं तो ऐसे समाज के लिए सौफ्ट टारगेट होती हैं, जिन्हें ताने सुनाना लोग अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं. वे खुद तो जैसेतैसे इस तरह के सवालों को झेल जाती हैं, पर जब उन के बच्चों को पोक किया जाता है, तो वह असहनीय हो जाता है.

गलत का साथ कभी नहीं

अनीता शर्मा के साथ भी यही हुआ. उन्होंने बताया, ‘‘जब से वेदांत थोड़ा समझदार हुआ है, वह अपने पापा का नाम मुझ से पूछता है. एक टीचर होने के नाते मैं बच्चों को किताबों की लिखी बातें समझती हूं कि हमारे लिए परिवार जरूरी होता है, पर अपने बेटे को इस बारे में जवाब नहीं दे पाती हूं तो बहुत परेशान हो जाती हूं. कभीकभी उसे डांट भी देती हूं, लेकिन साथ ही मुझे सुकून भी है कि मैं ने कभी गलत का साथ नहीं दिया. मेरे परिवार में किसी लड़की के साथ ऐसा होता है, उस के सामने मैं उदाहरण हूं. लेकिन मैं यह भी नहीं चाहूंगी कि कोई बेवजह अपना घर तोड़े.

‘‘सिंगल मदर पासपड़ोस के तानों से बचने के लिए घर के दरवाजे तो बंद कर सकती है, पर काम की जगह पर रह कर काम से तो मुंह नहीं मोड़ सकती है. ऐसा मेरे साथ भी हुआ है. स्कूल में जब मेरे काम की वजह से तरक्की हुई तो उसे भी शक की निगाह से देखा जाने लगा. अजीब तरह की राजनीति होने लगी, पर मैं ने अपने काम पर ही फोकस रखा.

‘‘आज मैं अपने स्कूल में टीचर होने के साथसाथ कोऔर्डिनेटर भी हूं. मैं बच्चों की कैरियर और इमोशनल काउंसलिंग करती हूं. अगर उन्हें कोई पर्सनल प्रौब्लम होती है तो वे कभी भी मुझ से साझ कर सकते हैं.’’

सिंगल मदर के लिए पेरैंटिंग टिप्स

आप ने ताउम्र अविवाहित रहने का निर्णय लिया. पति से विचारों का न मिलना या किसी और कारण से आप ने अकेले रहने का फैसला किया तो इस में कोई बुराई भी नहीं है आखिर अपने जीवन को अपनी तरह जीने का हक सभी को है. चूंकि बच्चा आप के साथ है, तो आप यह मान कर चलिए कि आप को अपने बच्चे के कुछ ज्वलंत प्रश्नों का सामना करना ही पड़ेगा. जाहिर है बच्चा अपने मन की बात आप से ही शेयर करेगा और यह उचित भी है क्योंकि किसी बाहर वाले से उसे पता नहीं क्या जवाब मिले जो उस के तनाव और आप के प्रति सोच को गलत बना दे.

इसलिए बच्चे के साथ आप का रिश्ता खुला और ईमानदारी का होना चाहिए और आपसी अच्छे संवाद का भी माहौल होना चाहिए जिस में बच्चा बे?िझक अपने दिल की बात आप से कह सके.

पहले से ही रखें प्रश्नों के उचित जवाब की तैयारी:

आप सिंगल मदर हैं तो कुछ सामान्य से प्रश्न आप का बच्चा आप से कभी भी पूछ सकता है जिस के लिए आप को पहले से ही तैयार रहना होगा जैसे मेरे पापा क्यों नहीं हैं? सब के पापा तो उन के साथ रहते हैं? मेरे दोस्त पूछते हैं पीटीएम में तेरी मां अकेली क्यों आती हैं?

ऐसे ही बहुत सारे सवालों की बौछार आप का बच्चा आप पर कर सकता है, जिन के जवाब कभी न कभी आप को देने ही होंगे. इन के लिए पहले से ही मानसिक रूप से तैयार रहें.

झंझलाएं नहीं प्यार से समझएं:

बच्चों का मन बहुत ही कोमल होता है. उन के बचपना भरे सवालों पर झंझलाने के बजाय उन्हें प्यार और मधुर आवाज में समझएं. कभी बच्चे के मन में उठने वाले सवालों पर डांट कर उसे चुप रहने के लिए दबाव न डालें. घर में थोड़ा हंसीमजाक या सैंस औफ ह्यूमर का भी माहौल रखने की कोशिश करें, ताकि बच्चा कुछ भी पूछने में हिचके नहीं. उस की कोई भी फ्रस्टे्रशन हो तो वे सवालों के माध्यम से आप के सामने आनी ही चाहिए.

आज के बच्चे बहुत ही समझदार और स्मार्ट हैं. वे कुछ समय में ही अपनेआप को माहौल के हिसाब से एडजैस्ट कर लेते हैं. बस आप को उन के लिए थोड़ा समय निकालना होगा.

बच्चे के सवालों के ठोस जवाब दें:

आप के जवाब से बच्चे का संतुष्ट होना जरूरी है नहीं तो समयअसमय वह अपने प्रश्न को कहीं भी आप से पूछने लगेगा. तब आप के लिए एक अजीब सी स्थिति भी आ सकती है जब बच्चा सब के बीच में आप से कुछ अटपटे सवाल पूछने लगे. बच्चे से भावनात्मक रूप से नजदीकी रखें और समझएं कि कौन सी परिस्थितियां थीं जिन में आप ने सिंगल रहने का निर्णय लिया. बच्चा धीरेधीरे अपने को हालात के हिसाब से एडजैस्ट अवश्य ही कर लेगा.

बच्चे को हमेशा सच बताएं:

बच्चे से कभी सचाई छिपाएं नहीं. कभी न कभी सच सामने आएगा ही तब आप के रिश्ते बहुत खराब हो सकते हैं. मेरी एक सहेली अपने पति के व्यवहार से शुरू से ही परेशान थी. आखिर वह अपने बच्चे को ले कर अलग रहने लगी. पैसे की कोई प्रौबलम नहीं थी सभी तरह की सुविधाओं के बावजूद अकसर बच्चे के सवालों को ले कर वह तनाव में रहती, खासतौर पर बच्चे के अपने पिता को ले कर प्रश्नों पर वह काफी असहज महसूस करती.

वह बच्चे को टालती रहती कि जब तुम बड़े हो जाओगे तब बताऊंगी, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो, दोस्तों के साथ मस्ती करो. तुम्हें कोई कमी हो तो बताओ? इस तरह बच्चे को टालना ठीक  नहीं है वह कुंठित हो सकता है या अपने मन में उठते सवालों को किसी और पूछ सकता है जहां उसे गलत और गुमराह करने वाले जवाब भी मिल सकते हैं, जो आप और आप के बच्चे दोनों के जीवन में अशांति फैला सकते हैं, इसलिए बच्चे को खुद सही स्थिति से अवगत कराएं.

बड़ों की चुगली न करें

आप यदि सिंगल मदर हैं तो यकीनन आप पर कई जिम्मेदारियां होंगी. बच्चा आप के साथ है तो उसे अच्छे संस्कार और अच्छी परवरिश की जिम्मेदारी भी आप पर आ जाती है. आप उसे गलतियों के लिए डांटेगी भी और अच्छी परवरिश के लिए रोकटोक भी करेंगी. ये बातें अकसर बच्चों को बुरी लगती हैं पर उन्हें बाद में इस के फायदे समझ आते हैं. आप के प्रशंसकों के साथसाथ आप से जलने वाले भी आप के आसपास होंगे.

कई बार बच्चा बाहर से कुछ सुन कर आता है कि उस के पिता तो बहुत अच्छे थे या मां को ले कर कुछ नैगेटिव सोच बच्चे को प्रश्न पूछने पर विवश करती है. इस समय आप को किसी की बुराई नहीं करनी है धीरज से काम लेना है. कभी भी समाज, परिजनों या पति से मतभेदों का रोना बच्चे के सामने ले कर न बैठें. वो नकारात्कता से भर सकता है. सर्वप्रथम बच्चे को विश्वास में ले कर ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह देनी होगी. उसे सचाई से रूबरू कराएं ताकि वह तनाव में न रहे.

एक  बार और भी ध्यान में रखनी होगी कि बच्चे के किसी भी सवाल को अंतिम सवाल न समझें. वह अपने मैटल लैबल के हिसाब से सवाल पूछता रहेगा और आप को उस की जिज्ञासा को शांत करना ही होगा ताकि वह हमेशा तनावमुक्त रहे और आप की अच्छी परवरिश की छांव तले एक बेहतर इंसान बन सके.

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जब कोरोना ने छीन लिया पति

लेखक व लेखिका -शैलेंद्र सिंह, भारत भूषण श्रीवास्तव, सोमा घोष, नसीम अंसारी कोचर, पारुल भटनागर 

कोरोना महामारी की पहली लहर इतनी भयावह नहीं थी, मगर दूसरी लहर ने देशभर में लाखों परिवारों को पूरी तरह उजाड़ दिया. कई परिवार ऐसे हैं, जहां जवान औरतों ने अपने पति खो दिए हैं. कई महिलाएं 30-40 साल की उम्र की हैं, जिन के छोटे छोटे मासूम बच्चे हैं. कई ऐसी हैं जो आर्थिक रूप से पूरी तरह पति पर निर्भर थीं.

पति की मौत के बाद उन के सामने अपने बच्चों के लालनपालन की समस्या खड़ी हो गई है. आर्थिक जरूरतें और अनिश्चित भविष्य उन्हें डरा रहा है. बच्चों के कारण दूसरी शादी का फैसला भी आसान नहीं है.

गृहशोभा के रिपोर्टर्स की टीम ने ऐसी अनेक महिलाओं के दुखों और परेशानियों को जानने की कोशिश की:

पति के नाम को जिंदा रखना चाहती हैं ऐश्वर्या लखीमपुर खीरी जिले के गोला की रहने वाली ऐश्वर्या पांडेय की शादी 2009 में हुई थी. उन के पति पीयूष बैंक में कार्यरत थे. ऐश्वर्या एमबीए के बाद जौब करने लगी थी, मगर शादी के बाद ससुराल की जिम्मेदारियों और बेटे पार्थ के जन्म के कारण जौब छोड़नी पड़ी.

ऐश्वर्या और पीयूष बेटे पार्थ के भविष्य को ले कर सुनहरे सपने देख रहे थे. मगर काल के क्रूर चक्र को कुछ और ही मंजूर था.

11 मई, 2021 को पीयूष कोरोना की चपेट में आ गए. बैंक स्टाफ और अस्पताल के लोगों ने ऐश्वर्या का साथ दिया. अस्पताल में पीयूष का औक्सीजन लैवल घटने पर उन्हें आईसीयू में शिफ्ट किया गया. 8 जून को उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

मगर उन का कोविड टैस्ट लगातार पौजिटिव ही आ रहा था. 9 जून को उन का पल्स रेट फिर बिगड़ने लगा तो उन्हें फिर से आईसीयू में ले जाया गया, मगर 10 जून की सुबह ऐश्वर्या के जीवन में अंधेरा बन कर आई यानी पीयूष इस दुनिया से हमेशा के लिए दूर चले गए. ऐश्वर्या डिप्रैशन में चली गई.

ऐश्वर्या कहती है, ‘‘मेरे लिए सब से अधिक महत्त्वपूर्ण बेटे को संभालना था. मैं ने यह सोच कर हिम्मत बांधी कि अगर मुझे कुछ हो गया होता तो पीयूष कैसे बेटे को संभाल रहे होते? इस सोच ने मुझे हिम्मत दी. बेटे को ले कर मैं लखनऊ लौटी. उस का स्कूल में एडमिशन कराया. घर वालों ने सहयोग किया. अभी भी मैं पूरी तरह से उस दुख से उबर नहीं पाई हूं.

पहले घर किराए का था अब जिंदगी

दिल्ली में रहने वाली कंचन माथुर अपने पति शिशिर माथुर के साथ बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच चुकी थीं. उम्र के 55 साल पूरे हो गए थे. पति भी 58 के थे. 2 बेटियां थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं. घर में अब ये 2 ही बचे थे. शुरू से ही कंचन और उन के पति शिशिर किराए के मकान में रहे. अपना घर नहीं खरीदा. वजह थी 2 बेटियां. शिशिर सोचते थे कि बेटियां शादी कर के अपनेअपने घर चली जाएंगी तो अपना घर ले कर क्या करना.

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कोरोना की दूसरी लहर ने शिशिर को जकड़ लिया. 2 हफ्ते होम क्वारंटाइन रहे. बड़ी बेटी, जो दिल्ली में ही ब्याही थी, उस ने देखभाल के लिए अपने बड़े लड़के को भेज दिया. मगर शिशिर का बुखार नहीं उतर रहा था. उन्हें डायबिटीज भी थी. एक शाम जब शिशिर का औक्सीजन लैवल 86 हो गया तो बेटीदामाद घबरा कर औक्सीजन सिलैंडर लेने के लिए गए, मगर कहीं नहीं मिला और न ही किसी अस्पताल में बैड खाली मिला.

दूसरे दिन नोएडा के एक अस्पताल में जगह मिली. मगर 4 दिन के इलाज के बाद ही शिशिर चल बसे. उन के दोनों फेफड़े संक्रमण के कारण नष्ट हो चुके थे. अस्पताल से ही उन का शव अस्पताल के कर्मचारियों के द्वारा श्मशान ले जाया गया और उन्होंने ही उन का क्रियाकर्म किया. घर के किसी सदस्य ने अंतिम समय में उन्हें नहीं देखा.

गहरा धक्का

इस बात का सब से ज्यादा धक्का उन की पत्नी कंचन को लगा है. पति के अचानक चले जाने से वे बिलकुल बेसहारा हो गई हैं. बड़ी बेटी किसी तरह अपने ससुराल वालों को राजी कर के उन्हें अपने साथ ले तो गई है, मगर अजनबी लोगों के बीच कंचन की वैसी देखभाल नहीं हो पा रही है जैसी उन के पति के रहते अपने घर में होती थी.

उन के दामाद ने उन का किराए का घर खाली कर दिया है. सारा सामान बेच दिया. बैंक में जो पैसा था वह अपने अकाउंट में ट्रांसफर करवा लिया.

घर का सामान बिकते देख कंचन के दिल पर जो गुजरी उस दर्द को कोई और नहीं समझ सकता है. पति की जोड़ी गई 1-1 चीज उन की आंखों के सामने कबाड़ में बेच दी गई. पहले घर किराए का था, मगर घर में रहने वाला अपना था, पर अब उन की पूरी जिंदगी किराए की हो गई है.

फिट इंसान के साथ ऐसा होगा सोचा न था

37 वर्षीय रेशमा राजेश पाटिल और उन के 12 वर्षीय बेटे रितेश राजेश पाटिल की जिंदगी कोरोना ने वीरान कर दी. कोविड की दूसरी लहर में मां ने अपना पति और बेटे ने अपने पिता को खो दिया है.

मुंबई के नजदीक अलीबाग के रहने वाले 42 वर्षीय तंदुरुस्त राजेश पाटिल सरकारी दफ्तर में काम करते थे. कोरोना की दूसरी लहर ने राजेश के बुजुर्ग पिता को कोरोना हो गया. राजेश पिता को रोजाना खाना पहुंचाने अस्पताल जाने लगा. एक दिन उसे भी बुखार हो गया. टैस्ट करवाने पर वह भी कोरोना पौजिटिव पाया गया. राजेश तुरंत होम क्वारंटाइन में चला गया. उस की पत्नी रेशमा ने अपने बेटे को मामा के पास मायके भेज दिया.

रेशमा अपने आंसू पोछती हुई कहती हैं, ‘‘होम क्वारंटाइन में राजेश डाक्टर से पूछ कर दवा ले रहे थे. लेकिन एक दिन उन्हें सांस लेने में ज्यादा दिक्कत होने लगी तो मैं तुरंत उन्हें सिविल अस्पताल ले गई. डाक्टर ने जांच की और बताया कि उन का औक्सीजन लैवल 97 है, इसलिए उन्हें यहां भरती नहीं कर सकते. तब मैं उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई. वहां जांच करने पर पता चला कि उन्हें निमोनिया हो गया है. डाक्टर ने एक इंजैक्शन शुरू करने की बात कही, जो 40 हजार रुपए का था. मैं ने पैसा अरेंज किया और इंजैक्शन ला कर दिए. मगर इंजैक्शन का उन पर कोई असर नहीं हुआ और 20 दिन अस्पताल में रहने के बाद उन का देहांत हो गया.

‘‘अभी रेशमा किराए के मकान में रहती हैं. उन्हें पति की पैंशन नहीं मिल सकती है क्योंकि उन्होंने 2009 में सरकारी नौकरी जौइन की थी. कुछ पैसे उन्हें राज्य सरकार और संस्था की तरफ से जरूर मिले हैं. बाल संगोपन संस्था के अंतर्गत उन्हें राज्य सरकार की तरफ से 50 हजार रुपए की रकम फौर्म भरने के 4 दिन बाद मिल गई. इस के अलावा बाल संगोपन संस्था के द्वारा बेटे की पढ़ाई के लिए प्रति माह 11 सौ रुपए और मुफ्त में थोड़ा राशन मिल जाता है, जिस से गुजारा हो रहा है. लेकिन आगे उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

रेशमा कहती हैं, ‘‘मैं ने पति के औफिस में नौकरी के लिए अर्जी दी है, लेकिन मेरे लायक कोई पद खाली होने पर ही मुझे नौकरी मिलेगी. गांव में पढ़ाई अच्छी न होने की वजह से मुझे बेटे की शिक्षा के लिए अलीबाग में ही रहना है. मेरे ससुराल में मेरे सासससुर भी हैं.’’

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जैसे जिंदगी से रोशनी चली गई

भोपाल के गांधी मैडिकल कालेज में टैक्नीशियन पद पर कार्यरत रवींद्र श्रीवास्तव की पत्नी रश्मि शहर के सरकारी स्कूल बाल विद्या मंदिर में प्राध्यापिका थीं. 18 साल पहले दोनों

की शादी हुई थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि गत 9 मई को कोरोना रश्मि को अपने साथ ले गया.

‘‘मुझे अभी तक यकीन नहीं होता कि रश्मि अब नहीं रही,’’ रवींद्र कहते हैं, ‘‘औफिस से घर लौटता हूं तो लगता है वह मेरा चाय पर इंतजार कर रही है. सच को स्वीकारने की बहुत कोशिश करता हूं, लेकिन उस की याद किसी न किसी बहाने आ ही जाती है.

रश्मि के जाने के बाद रवींद्र का सूनापन अब शायद ही कभी भर पाए. 17 साल का बेटा ऋषि भी अकसर उदास रहता है. रवींद्र पूरी तरह टूट गए हैं, मगर बेटे के लिए जैसेतैसे खुद को संभाले हुए हैं.

परिवार के लिए कमाना है

‘‘27 अप्रैल, 2021 को मेरे पति विकास ने कोविड की दूसरी लहर में अपनी जान गवां दी. मैं और मेरे दोनों बच्चे इस दुनिया में अकेले रह गए…’’ कहती हुई 40 वर्षीय नयना विकास की आवाज भारी हो गई.

नैना के पति विकास छत्तीसगढ़ के जिले के रायगढ़ के अंतर्गत सासवाने गांव में नयना और 2 बच्चों के साथ रहते थे. उन का बिल्डिंग मैटीरियल सप्लाई करने का व्यवसाय था, जिसे अब नयना संभाल रही हैं. मददगार प्रवृत्ति के विकास कोविड-19 के दूसरी लहर के दौरान लोगों की मदद कर रहे थे. उन्हें कुछ हो जाएगा, इस बारे में उन्होंने सोचा नहीं था.

नयना कहती हैं, ‘‘एक दिन उन्हें बुखार आया पर उन्होंने बताया नहीं. बुखार के साथ ही काम करते रहे. वे 100 से 150 लोगों को खाना खिलाते थे, जिसे मैं खुद बनाती थी. जो भी पैसा उन्हें अपने व्यवसाय से मिलता था, उन्हें जरूरतमंदों के लिए खर्च कर देते थे. 14 अप्रैल से उन्हें बुखार था. 19 अप्रैल को राशन बांटने के उद्देश्य से उन्होंने गांव के सरपंच के साथ मीटिंग रखी थी. मीटिंग खत्म होते ही वे घर आ गए. बुखार तेज था. मैं उन्हें सिविल अस्पताल ले गई, जहां टैस्ट करवाने पर रिपोर्ट पौजिटिव आई. मगर वहां अस्पताल में कोई बैड नहीं मिला. फिर मैं ने उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई जहां उन की मौत हो गई.

नयना के 2 बच्चे हैं. बेटी 8वीं कक्षा में और बेटा 5वीं कक्षा में पढ़ रहा है. दुख से उबरने के बाद नयना ने पति का व्यवसाय संभाल लिया है. काम में थोड़ी मुश्किलें भी हैं क्योंकि वे पहले इस काम से जुड़ी नहीं थीं. पति का बैंक खाता बिलकुल खाली है और किसी प्रकार का हैल्थ इंश्योरैंस भी नहीं है. नयना पर काफी कर्ज हो गया है.

पति की मृत्यु के बाद बाल संगोपन संस्था की तरफ से नयना को 50 हजार रुपए तथा राज्य सरकार की तरफ से बच्चों को पढ़ाई का खर्च मिल रहा है. लेकिन आगे नयना को ही परिवार की गाड़ी खींचनी है बिलकुल अकेले.

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बच्चों की परवरिश में कोई कमी नहीं आने दूंगी -विना दुब

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में कुहराम मचा रखा है. लाखों परिवारों ने इस में अपने लोगों को खो दिया है. किसी ने बेटा, किसी ने पति, किसी ने पिता तो किसी ने पत्नी, बहन, बेटी या मां को खो दिया है. कुछ बच्चे तो ऐसे हैं जिन्होंने इस महामारी में अपने मातापिता दोनों को ही खो दिया है.

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की विना दुबे ने कोरोना की दूसरी लहर में अपने पति को खो दिया. उन के दर्द को शब्दों में बयां करना मुश्किल है, लेकिन विना ने हिम्मत नहीं हारी. दर्द से उबर कर जीवन को फिर वापस पटरी पर ले आई हैं और बच्चों का पालनपोषण कर रही हैं.

विना नहीं चाहतीं कि उन के बच्चों को कोई कमी हो या उन की पढ़ाई और कैरियर में किसी प्रकार की रुकावट पैदा हो. विना ने गृहशोभा से अपनी आपबीती साझ की:

जब आप को पता चला कि कोरोना से आप के पति की मृत्यु हो गई है तो उस समय आप को क्या लग रहा था?

मेरे पति अखिल कुमार दुबे मेरे लिए मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक, मेरे सबकुछ थे. लेकिन जब मुझे पता चला कि 6 दिन हौस्पिटल में इलाज करवाने के बाद भी वे नहीं रहे, तो मुझे एक पल को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वे हमें छोड़ कर चले गए हैं. लेकिन हकीकत यही थी कि वे अब नहीं रहे. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि आगे अब जिंदगी कैसे गुजारूंगी, क्या करूंगी, बच्चों का, खुद का जीवनयापन कैसे करूंगी? मेरे कदमों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई हो. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सामने ढेरों परेशानियां थीं. लेकिन बच्चों की खातिर मैं ने पति के जाने के दुख को अपने अंदर छिपा कर उन के लिए आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?

एक तो पति के जाने का गम और दूसरा आर्थिक तंगी. उस समय खुद को कैसे स्ट्रौंग बनाऊं, यही मेरे लिए सब से बड़ा संघर्ष था. 2 बच्चों की परवरिश, ऐजुकेशन की जिम्मेदारी अकेले मेरे कंधों पर आ गई है. भले ही मैं पहले से वर्किंग हूं, लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए सिंगल हैंड से काम नहीं चलता बल्कि मातापिता दोनों का कमाना बहुत जरूरी है. मगर मैं अकेली रह गई हूं. ऐसे में मैं इस संघर्ष के सामने हिम्मत तो नहीं हारूंगी क्योंकि मेरे बच्चों के भविष्य का सवाल जो है.

आप कैसे अपने परिवार का जीवनयापन कर रही हैं?

मैं बीए पास वर्किंग वूमन हूं. मुझे अपने बच्चों की हर जरूरत को पूरा करना है, इसलिए कोई भी काम करना पड़े, मैं पीछे नहीं हटूंगी. जौब के कारण बच्चे उपेक्षित न हों, इस बात का भी मैं पूरा ध्यान रखती हूं. उन के साथ वक्त गुजारती हूं, उन की प्रोब्लम सुनती हूं, पढ़ाई में उन्हें पूरा सहयोग देती हूं क्योंकि अब मैं ही उन की मां और पिता दोनों हूं.

पति के न रहने पर समाज व रिश्तेदारों का क्या योगदान रहा?

समाज का तो कुछ नहीं कह सकती क्योंकि वो दौर ही ऐसा था जब सभी एकदूसरे से दूरी बनाए हुए थे. सब अपनों को बचाने के लिए, अपनेअपने बारे में सोच रहे थे. लेकिन ऐसे वक्त में मेरे जेठ अमित दुबे और जेठानी रीना दुबे ने तनमनधन हर तरह से सहयोग दिया. समाजसेविका नीतूजी की मैं दिल से आभारी हूं. उन्होंने जो बन पड़ा वह हमारे लिए किया. मेरे भाई मेरी हिम्मत बन कर खड़े हुए हैं, जिस के कारण मुझे आगे बढ़ने का हौसला मिला है.

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हादसे के बाद जीवन के लिए सीख?

मैं सभी से यही कहना चाहूंगी कि जीवन में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता. कब हंसतीखेलती जिंदगी में सन्नाटा छा जाए, किसी को नहीं मालूम. इसलिए परिवार में जब तक संभव हो सके पति पत्नी मिल कर काम करें. चाहे आप ज्यादा शिक्षित न भी हों तो भी जो भी आप में करने की योग्यता है, जैसे कुकिंग, बुनाई आदि तो उसे कर के न सिर्फ खुद सैल्फ डिपेंडैंट बनें, बल्कि उस से होने वाली आय को भविष्य के लिए जोड़ कर रखें ताकि कभी भी मुसीबत आने पर आप अपने परिवार की हिम्मत बन कर कठिन परिस्थितियों से लड़ पाने में सक्षम हों. फुजूलखर्ची छोड़ कर सेविंग करने की आदत को बढ़ाएं, साथ ही कभी भी हिम्मत न हारें.

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