‘महिलाओं, बच्चों और यूथ के विकास जरुरी’ क्या कहती हैं सोशल वर्कर डॉ. किरण मोदी

जब कोई प्रियजन आपके जीवन से अचानक चला जाता है, जिससे आपकी जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है, आपकी जिंदगी उसके यादों के इर्द-गिर्द घूमती है,तब केवल एक ही रास्ता आपके जीवन में थोड़ी तसल्ली देती है, वह है गुजरे व्यक्ति की इच्छाओं को पूरा करना. दिल्ली की संस्था ‘उदयन केयर’ की सामाजिक कार्यकर्त्ता और फाउंडर मैनेजिंग ट्रस्टी डॉ. किरण मोदी ऐसी ही एक माँ है, जिन्होंने केवल 21 वर्ष के बेटे को एक दुर्घटना में खो दिया औरअपनी संस्था का नाम उन्होंने खोये हुए बेटे उदयन के नाम पर रखा. डॉ. किरण ने इसमें ‘मेकिंग यंग लाइफ शाइन’ कैम्पेन के द्वारा अनाथ, किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की देखभाल, महिला सशक्तिकरण को बढ़ाना आदि को ध्यान में रखते हुए हर बच्चे को आत्मनिर्भर बना रही है. शांत और स्पष्टभाषी 67 वर्षीय डॉ.किरण को इस काम के लिए शुरू में बहुत कठिनाई आई, पर वे घबराई नहीं और अपने काम को अंतिम रूप दिया. उनके साथ तीन ट्रस्टी जुड़े है, जो उन्हें पूरी तरह से सहयोग देते है.

किया संस्था का निर्माण

डॉ. किरण कहती है कि आज से 28 साल पहले मेरे जीवन में एक ऐसा मोड़ आया, जिसने मुझे हिला कर रख दिया. फिर मैंने महसूस किया किमुझे कुछ ऐसा करना है, जिससे मेरा दुःख कुछ समय के लिए कम कर सकूँ. मैंने बच्चों के लिए कुछ करने की योजना बनाईऔरयही से मैंने अपनी संस्था बनाई. धीरे-धीरे मेरे साथ अच्छे लोग जुड़ते गए और मेरा काम आसान होता गया. मेरे बेटे का नाम उद्यन था, वह अमेरिका में अकेले रहकर पढ़ाई कर रहा था और वहां उसकी मृत्यु एक दुर्घटना की वजह से हो गयी. जब मैं वहां उसके कमरे में गयी, तो वहां मुझे एक कागज मिला, जिसमे मैंने पाया कि वह किसी को बिना बताएं अफ्रीका और गरीब देशों की बच्चों के लिए अनुदान देता था, ऐसे में मैंने उसके काम को आगे बढ़ने की सोची और अपनी संस्था उदयन केयर बनाई.

मुश्किल था आगे बढ़ना

इसके आगे डॉ. किरण कहती है कि शुरू में संस्था में काम करना मुश्किल था, क्योंकि कहाँ से फंड आयेगे, कैसे काम करना है, क्या कार्यक्रम करने है आदि विषयों पर जानकारी कम थी. पहले एक साल तक तो मुझे कई संस्थाओं में जाना पड़ा. वहां उनके काम को समझने की कोशिश की.नॉन और डेवलपमेंट सेक्टर के बारें में जानकारी हासिल की. तब मुझे समझ में आने लगा कि बच्चों के लिए कैसे क्या करना है. उसी दौरान मैं एक संस्था में गई, वहां एक छोटी लड़की मेरी पल्लू पकड़ कर कहने लगी कि मुझे घर ले चलो. मुझे यहाँ मत छोड़ो. मैंने देखा है कि तब बच्चों को एक अनाथ की तरह पाला जाता था और वहां से निकलने के बाद भी वे फिर अनाथ ही रह जाते है. उनकी बोन्डिंग नहीं होती थी और वे 18 साल के बाद निकल जाते थे. इसे देखकर मैंने अपनी संस्था को एक परिवार की तरह बनाई, ताकि बच्चों को अनाथ महसूस न हो. यही से उदयन संस्था की रचना की गयी, जिसमे मैंने एक घर में 10 से 12 बच्चों के रहने का इंतजाम किया था. जिसमे आसपास के समुदाय के साथ उनका जुड़ाव अच्छा हो इसकी कोशिश किया जाने लगा, ताकि बड़े होने पर उन्हें समाज के साथ जुड़ने में आसानी हो. इसके अलावा हर बच्चों के लिए एक मेंटर की व्यवस्था की गई ताकि वे उन्हें आगे बढ़ने में उन्हें सही गाइडेंस दे सके. इसमें मैंने उन लोगों को चुना , जो अच्छे पढ़े-लिखे, जॉब करने वाले, बच्चों को सही दिशा में गाइडेंस देने वाले आदि को अपने पैनल पर रखा .

डॉ. किरण ने पहले दिल्ली में काम की शुरुआत की इसके बाद लोग जुड़ते चले गए और अब 16 होम सेंटर पूरे देश में है, जिसमे 18 साल के बाद बच्चे आते है. इसमें 29 मेंटर पेरेंट्स है . सभी बच्चों को पेरेंट्स की तरह मानते है, लेकिन वे वहां रहते नहीं, बच्चों को गाइड कर घर चले जाते है. बच्चो की देखभाल के लिए कुछ सर्वेन्ट्स है. सभी तरह के लोग हमारे साथ होते है, जो बच्चों की किसी समस्या का समाधान कर सकते है.

मानसिक विकास पर अधिक ध्यान

बच्चों को संस्था तक पहुँचने के बारें में पूछने पर वह कहती है हर जिले में चाइल्ड प्रोटेक्शन कमेटी होती है. उनके पास अपने बच्चों को सही पालन-पोषण न दे पाने वाले पेरेंट्स के बच्चे आते है, फिर कमिटी निश्चित करती है कि बच्चा किस संस्था में जाएगा. बच्चा आने पर उनके पेरेंट्स को बुलाकर उन्हें बच्चे को ले जाने के लिए कहा जाता है, ताकि पेरेंट्स बच्चे को सही तरह से पाल सकें, जिन्हें पैरेंटल सपोर्ट नहीं है,उन्हें सहयोग देते है. 16 होम्स में बच्चे 18 साल के उपर वाले आते है. इन बच्चों को ‘आफ्टर केयर’ दी जाती है. ऐसी सुविधा 3 जगह पर है. वहां बच्चे 18 साल के बाद रहकर, कॉलेज की पढाई करते है और जॉब की कोशिश करते है, जॉब मिल जाने के बाद वे निकल जाते है. बच्चे और युवा के तहत काम करने वाली 4संस्थाएं 4 राज्यों में है. इसके बाद मैंने इसे अधिक कारगर बनाने के लिए दो नए प्रोग्राम शुरू किये, जिसका काम परिवार को मजबूत बनाना था, ताकि बच्चे परिवार के साथ रहे . जिसमे पहला ‘उदयन शालीनी फेलोशिप’कार्यक्रम है, इसमें गरीब परिवार से आने वाली लड़कियां पढना चाहती है, लेकिन पेरेंट्स पैसे की कमी और सामजिक दबाव की वजह से उन्हें पढ़ाना नहीं चाहते, ऐसी लड़कियों को सरकारी स्कूल से लेकर स्नातक की पूरी पढाई करवाई जाती है. इसमें उस लड़की का पूरा खर्चा देने के साथ-साथ एक मेंटर भी दी जाती है, ताकि उसका मानसिक विकास अच्छी तरह से हो सकें, जिसमे लाइफस्टाइल, कैरियर काउंसलिंग, महिलाओं के अधिकार आदि होते है, जो किसी व्यक्ति की पूरी ग्रोथ को निर्धारित करती है और बाद में उन्हें जॉब दिलवाया जाता है. ये प्रोग्राम 26 शहरों में होती है. इस संस्था के साथ अधिकतर वोलेंटीयर्स काम करते है. इस प्रोग्राम में अभी मेरे पास 11 हजार बच्चियां है,जिनका ख्याल रखा जाता है.

बच्चों के घर को बसाना है मकसद

इसके आगे डॉ. किरण का कहना है कि तीसरा प्रोग्राम Information Technology and vocational Training  Centres (आईटी वीटी ) का है, जिसमें 19 आईटी सेंटर्स पूरे भारत में है, इसमें 2 वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर्स है. बहुत सारे बच्चे घर से बाहर मुंबई काम करने आ जाते है, उन्हें भी चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के द्वारा ही मेरे पास भेजा जाता है. मेरी ये कोशिश होती है कि घर छोड़कर भागने वाले बच्चों के माता-पिता को खोजा जाय. घर प्रोग्राम में अनाथ तो कुछ भागकर या कुछ को पेरेंट्स गरीबी के कारण जान-बुझकर खो देते है. इन्हें पुलिस उठाकर ले जाती है और ऐसे ही संस्थाओं में छोड़ देती है, इसलिए मेरे पास भी हर तरह के बच्चे है. पहले हर जगह से बच्चे आ जाते थे, लेकिन अब इन बच्चों को उस राज्य के संस्थाओं में ही रखकर बड़ा किया जाता है. ऐसी संस्था दिल्ली में गाजियाबाद, गुडगांव, कुरुक्षेत्र आदि कई जगहों में है, जहाँ उस जिले के आसपास के बच्चे आते है.

हो जाती है गलती 

यहाँ से निकलकर 4 बच्चे विश्व की अलग-अलग युनिवर्सिटी में आगे पढने चले गए है. इसके अलावा उनकी संस्था से निकलकर कुछ बच्चे इंजिनियर तो कुछ वकील बन चुके है. इस काम में डॉ. मोदी के साथ मेंटर्स का काफी योगदान रहा. एक मेंटर कैंसर की कीमोथेरेपी के बाद काम करने आ गयी. इस तरह की डिवोशन सभी में है. हर बच्चा उनके लिए प्रिय होता है, उनका कहना है कि कोई भी बच्चा गलत नहीं हो सकता, उससे गलती हो जाती है. बच्चे ने गलती क्यों की, वजह क्या रही, इसे जानने पर उसे ठीक किया जा सकता है. एक 10 साल की लड़की को मैंने एक बार कहा था कि मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ, पर तुम मुझे नहीं करती. जाते समय उसने मुझे एक चिट्ठी दी और मुझे घर जाकर खोलने को कहा. मैने घर पहुंचकर जब उसे खोला तो उसमे लिखा था कि जब मैं खुद को प्यार नहीं करती तो आपको क्या प्यार करुँगी. इससे मुझे उनकी मानसिक दशा के बारें में जानकारी मिली, ये बच्चे बहुत दुखी होते है, क्योंकि घर से निकलने के बाद रास्ते में न जाने क्या-क्या होता होगा, घर में भी क्या हुआ होगा,फिर पुलिस के गंदे बर्ताव से होकर संस्था में आती है, ऐसे में बच्चा किसी को विश्वास नहीं कर पाता. दो साल बाद जब मैं उससे मिली, तो उसने दूसरी पत्र दी, इसे भी मैंने घर जाकर खोला, तो उस पर अब लिखा था, ‘आई लव यू’. इस तरह बच्चों से मैंने मनोवैज्ञानिक बहुत सारी बातें सीखी है. बाल सुरक्षा पर भी बहुत सारा काम बिहार और मध्यप्रदेश में यूनिसेफ, सरकार के साथ मिलकर किया जा रहा है. इस काम में फाइनेंस की व्यवस्था हो जाती है,डोनेशन मिलते है. बच्चों की उपलब्धि को देखकर वे भी खुश होते है और अच्छा डोनेशन देते है. अभी बहुत सारा काम आगे करने की इच्छा है.

कोविड पेशेंट के लिए ‘डॉक्टर ऑन व्हील्स’ करती है 20 घंटे काम, जानें कैसे

हर दिन सुबह 8 बजे कर्नाटक के बंगलुरु में रहने वाले 36 वर्षीय जनरल फिजिशियनडॉ. सुनील कुमार हेब्बीकार से किसी हॉस्पिटल या क्लिनिक की ड्यूटीपर नहीं जाते, बल्कि कोविड 19 से पीड़ित मरीजों की चिकित्सा के लिए उनके पास जाते है. ये साधारण कारनहीं,बल्कि मोबाइल क्लिनिक कार है, जिसके अंदर उन्होंने बेड,ऑक्सीजन, थर्मामीटर, ओक्सिमीटर आदि सभी कोविड 19 के मरीजों की इलाज के लिए एक अस्पताल की तरहव्यवस्था रखे हुए है. वे ‘मात्रु सिरी फाउंडेशन’ के फाउंडर ट्रस्टी है और उसके तहत इस कार को चलाते है. कई दिनों की कोशिश के बाद उनसे फ़ोन पर बात हो पायी, क्योंकि वे हर दिन 20 घंटे काम करते है. उनकी कार बंगलुरु के आसपास के सभी जगहों पर उन बुजुर्ग और अकेले रहने वाले मरीजो को देखने जाती है, जो अस्पताल नहीं जा सकते.

मिली प्रेरणा

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डॉ. सुनील कहते है कि मैं पिछले 12 साल से मोबाइल क्लिनिक चला रहा हूँ. एक दिन मैं अस्पताल की ड्यूटी पर जा रहा था. वहां एक एक्सीडेंट हुआ था. मेरे कार से फर्स्टएड बॉक्स निकाल कर मैंने उस लड़के का इलाज किया और नजदीक के अस्पताल में भर्ती किया. उस लड़के की माँ ने फ़ोन कर मुझे उसके इकलौते बेटे को बचाने के लिए धन्यवाद दिया और अगले दिन मुझसे मिलकर मेरे पाँव छू लिया और रोने लगी. मैंने उनसे कहा कि एक नागरिक और डॉक्टर होने के नाते मुझे तो ये करना ही था. मैं उनकी इमोशन से बहुत प्रभावित हुआ और अब कारमें केवल फर्स्ट एड बॉक्स ही नहीं,बल्कि कार की डिकी स्पेस, चेयर के पीछे या आगे, जहाँ जो भी चीज फिट बैठता हो, उसे फिट किया, जिसमें फोल्डिंग कुर्सी,टेबल, बेड, ओक्सिमीटर, ECG मशीनआदि जो भी चीज इलाज के लिए जरुरत है, उसे अच्छी तरह से फिट कर दिया. अभी कोरोना को ट्रीट करने के लिए दो ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर भी लेकर आयेहै. इसमें मैं दो मरीज का इलाज कर सकता हूँ.

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छोड़नीपड़ी नौकरी 

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मरीजों को जानकारी देने के लिए डॉ. सुनील फेसबुक का सहारा लेते है,जिसमें उनकी एक विडियो के साथ फ़ोन नंबर है. पहले सरकारी स्कूल, ओल्ड ऐज होम, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स आदि जगहों पर शनिवार और रविवार को इलाज करतेथे. डॉक्टर हेब्बीका कहना है किमैं कॉर्पोरेट हॉस्पिटल में काम करता थाऔर सैलरी भी अच्छी थी,लेकिन एक दिन मेरे सीनियर ने मुझे शनिवार और रविवार को छुट्टी देने से मना कर दिया, मैंने नौकरी छोड़ दी.काम छोड़ने से पैसों की तंगी होने लगी. मैंने एक क्लिनिक शुरू किया, जिसमें रात में ही पेशेंट देखता था, इससे कुछ जीविका चलती रही. लोगों की सेवा करना मेरा निर्णय था, इसलिए किसी भी समस्या का समाधान मुझे ही निकालना था. कोरोना से पहले मैंने लगभग 785 फ्री मेडिकल कैम्प्स पूरे बंगलुरु में लगाया है. अब तक एक लाख 20 हज़ार पेशेंट को 12 साल में ठीक किया है. अभी तेरहवां साल चल रहा है. मेरे साथ 17 स्कूल्स और 5 ओल्ड एज होम जुड़े है. शुरू में मेरे साथ कोई नहीं था, पर बाद में मेरे काम को देखकर कई अलग-अलग फील्ड के डॉक्टर्स भी मुझसे जुड़े, जिससे काम करना आसान हो गया. अभी 2-3 महीने में मैंने कोविड के 700 रोगी का इलाज कर चुका हूँ. करीब 17 लाख लोगों ने मेरे पोस्ट को कोविड के दौरान फेसबुक पर 15 दिन में देख चुके है.कोविड से पीड़ित मरीज को दवा और इलाज मैं फ्री में देता हूँ. मेरे साथ वोलेंटीयर काम करने वाली एक नर्स को कोविड 19 सीरियस हो गया था, उसका इलाज मैंने बहुत मुश्किल से कर उसे उसके घर भेज दिया. अभी जगदीश, आशा लक्ष्मण, सौभाग्या मेरे काम में सहयोग देते है.

वित्तीय चुनौती है अधिक

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डॉ. सुनील को वित्तीय समस्या कई बार आई, लेकिन उनके दोस्तों ने उन्हें सहायता किया, क्योंकि जॉब छोड़ने के बाद जमा किये हुए राशि से उन्होंने 12 साल निकाला है. उनके माता-पिता उनके साथ रहते है और मुश्किल समय में हमेशा उन्हें सहयोग देते है. उनका कहना है कि गरीब और बुजुर्गों को कोविड पीरियड में मुफ्त इलाज की आवश्यकता है. अभी मैं टेम्पो ट्रेवलर वैन खरीदना चाहता हूँ, क्योंकि मेरी ये कार ख़राब हो चुकी है और इससे मैं अधिक दूर तक नहीं जा सकता. टेम्पो ट्रेवलर होने पर अधिक पेशेंट देख सकूँगा और दूर तक भी जा सकता हूँ. बंगलुरु के आसपास में बहुत बड़ी स्लम है,जहाँ गरीबी बहुत अधिक है. ब्लडप्रेशर और डायबिटीज के मरीज नियमित लेने वाली दवा भी खरीदने में असमर्थ है. वहां इस तरह की मोबाइल क्लिनिक की जरुरत है, जिससे उनकी चेकअप के साथ-साथ दवा भी मुफ्त में दी जाय.

आगे की योजनायें

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आगे डॉ. सुनील एक चैरिटेबल अस्पताल अपने गाँव विजयापुरा में बनाना चाहते है, जिसमें गरीबों को मुफ्त में सही इलाज मिले. कोविड की दूसरी लहर में अमीर से लेकर गरीब बहुतों ने अपनी जान बिना इलाज और ऑक्सीजन के गवाई है, जिसका उन्हें मलाल है. डॉ. सुनील कहते है कि ऑक्सीजन और बेड की कमी बंगलुरु में बहुत थी. मैं 300 किलोमीटर रातभर गाड़ी चलाकर तमिलनाडु से ऑक्सीजन सिलिंडर ब्लैक में बंगलुरु लाया, जिससे कई लोगों की जान बची. एक छोटे बच्चे को मैं ऑक्सीजन के अभाव में नहीं बचा पाया. कोविड के इस भयंकर रूप को देखकर मैं कुछ को ऑनलाइन कंसलटेशन और कुछ को बुलाकर इलाज करता हूँ. मेरे साथ काम करने वालों को भी मैंने आने से मना कर दिया है, क्योंकि ये बीमारी बहुत खतरनाक है. मैं कई अस्पताल से जुड़ा हूँ, क्योंकि सीरियसली बीमार रोगी को अस्पताल में एडमिट करने की जरुरत पड़ती है, लेकिन कोविड में सारे अस्पताल भरे होने की वजह से मैं किसी भी बीमार को एडमिट नहीं कर सका. मेरा मेसेज लोगों से यह है कि कोरोना की कोई दवा नहीं है. केवल लक्षण के आधार पर इलाज किया जाता है. यंग लोगों की लापरवाही से ये रोग अधिक फैला है और यूथ की मृत्यु भी अधिक हुई है. कोविड की तीसरी लहर न आयें, इसके लिए जरुरत के बिना घर से बाहर न निकलना, मास्क पहनना, डिस्टेंस मेंटेन करना और हाथ धोना ये सब रोज की प्रैक्टिस में लाना चाहिए. इस बीमारी से डरने की जरुरत नहीं, क्योंकि मेरे 700 मरीज में केवल 50 मरीज ही थोड़े सीरियस थे.

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सिर्फ मिला एप्रीसिएशन

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डॉ. का कहना है कि सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सुविधा मुझे नहीं मिली. कर्नाटक के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधान मंत्री ने कोरोना वारियर और हीरो के रूप में उनके वेब साईट पर मेरा नाम डाला है और एप्रीसिएशन मिला है, इसके अलावा किसी प्रकार की वित्तीय सहायता नहीं मिली. मुझे सहयोग करने वाले ऑटो ड्राईवर, मजदूर, अनपढ़ गरीब लोग है, जो केवल व्हाट्सएप चलाना जानते है. उससे ही वे मुझसे जुड़ते है.

कोरोना महामारी के संकट की घड़ी में क्या कर रही है सोशल वर्कर वर्षा वर्मा, पढ़ें खबर

पुरुष सत्तात्मक समाज में महिलाओं को शमशान घाट जाने की कभी इजाजत नहीं होती, लेकिन अगर कोई महिला पिछले 3 साल से लावारिस लाशों और अब कोविड महामारी में जान गवां चुके हजारों लाशों को पूरे जतन से वैकुण्ठ धाम के लिए ले जाकर, उनके दाह संस्कार करने में मदद करने वाली महिला के लिए, समाज के विशिष्ट वर्ग क्या सोचते है, इसका ध्यान वह नहीं देती. यही वजह है कि आज संकट की इस घड़ी में, ऐसे कठिन काम को अंजाम देने वाली, लखनऊ की संस्था ‘एक कोशिश ऐसी भी’ की 42 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्त्ता वर्षा वर्मा, है. उन्होंने कोविड महामारी के बीच परेशान गरीब जरुरत मंदो के लिए सुबह 9 बजे से शाम 8 बजे तक लगातार काम कर रही है.

मिली प्रेरणा  

इस काम की प्रेरणा के बारें में पूछने पर वह बताती है कि मेरे दोस्त की कुछ दिनों पहले मत्यु हो गयी और मैं उसकी लाश को ले जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था नहीं कर पाई, क्योंकि मार्केट में कोई भी गाडी के लिए 10 से 20 हज़ार रुपये मांग रहे थे, जबकि राम मनोहर लोहिया अस्पताल से शमशान घाट नजदीक है, ऐसे में लगा कि जिस तरह मैं परेशान हो रही हूँ, हजारों लोग भी परेशान हो रहे होंगे, क्योंकि लखनऊ में लाश ले जाने के लिए सभी गाड़ियों की रेट बहुत अधिक हो चुकी है. फिर मैंने किराये पर लेकर वैन चलवाने की सोची और सोशल मीडिया पर मैंने अपनी इच्छा को यह कहकर स्प्रेड कर दिया कि मुझे सफ़ेद रंग की एक वैन चाहिए और जब मुझे वैन मिल गयी, तो मैंने अगले दिन पीछे की सीट हटा दी और एक ड्राईवर लगाकर काम शुरू कर दिया. इसमें कोविड पोजिटिव और नॉन पोजिटिव सभी लाशों को ले जाया जाता है. सैकड़ों लोगों की सेवा मैं कर चुकी हूँ. घरों से बुलाने पर या अस्पताल से बैकुंठधाम पहुँचाने का सारा काम ये गाड़ी करती है, साथ ही जिन लावारिश लाशों की कोई नहीं होता, उनका दाह संस्कार भी मैं करती हूँ. 

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उद्देश्य, सामाजिक कार्य करना  

ये संस्था पिछले 6 साल से लखनऊ में काम कर रही है, लेकिन वर्षा को टीनेज से ही सेवा करना अच्छा लगता था. स्कूल से आने के बाद वह पास के अस्पताल में एक घंटे के लिए चली जाया करती थी. वह कहती है कि अस्पताल जाने के बाद मरीजो के रिपोर्ट लाना, उनके खाने-पीने की चीजे लाना आदि छोटे-छोटे काम करने के अलावा उनके हाथ-पाँव दबा देना आदि करती थी. वह मेरा ट्रेनिंग पीरियड था, इसके बाद धीरे-धीरे काम बढ़ता गया और पिछले 3 साल से लावारिश शव को भी ले जाकर उसका अंतिम संस्कार करती हूँ. इसमें मेरे साथ दीपक महाजन है और हम दोनों साथ मिलकर संस्था के लिए काम करते है. 

सहयोग परिवार का

परिवार के सहयोग के बारें में वर्षा हंसती हुई कहती है कि कोरोना से पहले सबने सहयोग दिया और तारीफे की, लेकिन जबसे मैंने कोरोना की लाशों को दाह संस्कार के लिए ले जाने का काम शुरू किया है, तबसे चिंता के साथ थोड़ी नाराजगी है. मैंने वैक्सीनेशन नहीं करवाया है और अब 100 में से 90 लाश कोरोना से दम तोड़ने वालों की होती है. सावधानी के लिए मैं पूरा पीपीई किट पहनती हूँ. ग्लव्स, शील्ड, मास्क आदि सब मैं पहनती हूँ. घर से निकलने से पहले नाश्ते के बाद इम्युनिटी की टेबलेट लेती हूँ, जिसे मेरे पति देते है, क्योंकि ये उनकी चिंता है. इससे मेरी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहती है और विश्वास के साथ काम पर निकल जाती हूँ.

वर्षा के परिवार में उनके पति पीडब्लुडी में अस्सिटेंट इंजिनीयर है और उनकी एक बेटी हाई स्कूल में है. कोरोना से दम तोड़ने वालों को जबसे वर्षा बैकुंठ धाम ले जा रही है, तबसे पति को चिंता के साथ नाराजगी भी है, लेकिन अब उन्होंने वर्षा के काम को स्वीकार कर लिया है. वर्षा हर दिन सुनियोजित ढंग से घर का काम निपटाकर बाहर निकल जाती है. इससे उन्हें कोई समस्या नहीं होती. 

हटती नहीं मार्मिक दृश्य आँखों से  

वह आगे दुखी होकर कहती है कि अब मैंने दो वैन इस काम में लगा दिए है, क्योंकि लाशों को ले जाने का बहुत काम था. पिछले दो दिन में कोविड से दम तोड़ने वालों की संख्या अस्पतालों और शमशान घाटों में बहुत थी. इसकी वजह समय पर इलाज का न मिलने से आंकड़ा बहुत बढ़ गया है. ऑक्सीजन की कमी से मरीजों की हालत देखना, लगातार जलती हुई चिताओं को देखना, जिसमें दो चिता के बीच एक फुट की भी जगह का न होना, इतनी सारी डेड बॉडीज एक साथ जलना, परिवार जनों की चींख अस्पतालों और शमशान घाटों पर देखकर मेरा दिल दहल गया, ये चीजे मेरी आँखों के सामने से हटती नहीं है, लेकिन यही दृश्य मुझे अधिक काम करने के लिए प्रेरणा भी देती है. इसके अलावा मैं सोचती हूँ कि ऐसे जरुरत मंदों के लिए काम करना ही मेरे जीवन का हमेशा उद्देश्य रहा है.

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सशक्त होती है महिलाये   

वर्षा को कभी नहीं लगा कि वह महिला है और वह शमशान घाट नहीं जा सकती. उसका कहना है कि ये देश पुरुष प्रधान है, ऐसे में महिलाओं को कोमल और कमजोर दिल की माना जाता रहा है. इसलिए शायद महिलाओं को शमशान घाट जाने से मना किया जाता है, वैज्ञानिक रूप से महिलाएं और पुरुषों में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि महिला एक सृष्टि को जिम्मेदारी के साथ, धैर्यपूर्वक पृथ्वी पर ला सकती है. इसके अलावा महिलाएं किसी भी काम को एक मंजिल तक पहुँचाने में समर्थ होती है.

करती है कई काम 

इस काम के अलावा वर्षा की एनजीओ कई बड़े काम भी करती है, जिसमें गरीब बच्चों की शिक्षा का पूरा इंतजाम करना, जिन घरों में लोग कमाकर खा नहीं सकते, उन घरों में कच्चा राशन का पहुंचाना, मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति को भोजन देना आदि है. वर्षा कहती है कि दो बुजुर्ग महिलाये,जो मानसिक रूप से बीमार दो बहने है, कभी उनके पिता लखनऊ के सीएम्ओ हुआ करते थे, संपन्न परिवार की है. दोनों महिलाओं को छोड़ सबकी मृत्यु हो चुकी है, शायद सबको पता होगा कि इन दोनों ने 3 दिन तक अपने भाई की डेड बॉडी को जिन्दा समझकर घर में घर में रख दिया था. बहुत मुश्किल से उसे घर से निकाला गया था. इन महिलाओं की परवरिश मैं कर रही हूँ. उनके भतीजे दोनों बुजुर्ग महिला को हटाकर मकान को दखल करना चाहते है, जो मैं होने नहीं दूंगी.  इसके अलावा भिखारी प्रवृत्ति से लोगों को निकालकर उन्हें छोटे-छोटे रोजगार दिलाती हूँ, ताकि वे अपने परिवार का पेट पाल सकें. 

नहीं मिलती वित्तीय सुविधा  

वर्षा को सरकार की तरफ से कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन वह अपना काम लगातार कर रही है. सरकार की तरफ से बुजुर्गों को हर महीने केवल 200 रुपये मेडिकल के लिए मिलते है, जो बहुत कम है, ऐसे में वर्षा खुद फण्ड इकठ्ठा कर बुजुर्गों के हार्ट का ऑपरेशन करवाया है. 

देश को सोचने की है जरुरत 

 कोविड महामारी के लगातार बढ़ते हुए ग्राफ को देखने के बाद वर्षा कहती है कि किसी भी सरकार को देश की जनसँख्या पर लगाम लगाना उनकी पहली प्रायोरिटी होनी चाहिए, क्योंकि कोई भी स्कीम सारे लोगों तक नहीं पहुँच पाती. इसलिए उसे लागू करने से पहले जनसँख्या को सीमित करना होगा. मेरा फील्ड वर्क होने की वजह से मैंने अस्पताल, स्कूल, ऑफिस हर जगह भीड़ ही भीड़ देखी है. इतनी बड़ी जनसँख्या में ये स्कीम मुट्ठी भर है. इसके अलावा जागरूकता की कमी जनता में है. उन्हें पता नहीं होता है कि उनके लिए सरकार ने कुछ स्कीम्स निकाले है. बात चाहे कुछ भी हो मेरा काम हमेशा लोगों की सेवा करना ही रहेगा.

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कोविड के दौरान आई समस्या के बारें में बता रही है सोशल वर्कर डॉ. गीतांजलि चोपड़ा

अगर आपमें कुछ करने की इच्छा हो, तो परिस्थियाँ सही न होने पर भी आप उसे कर गुजरते है, कुछ ऐसा ही काम करती है दिल्ली की डॉ. गीतांजलि चोपड़ा, जो अकादमी सदस्य, रिसर्चर, कोलोमनिस्ट और फिलान्थ्रोपिस्ट है. उनकी संस्था ‘विशेज एंड ब्लेसिंग्स’ के द्वारा जरुरत मंदों के लिए खाना, सुलभ शिक्षा, निरोगी जीवन और बुजुर्गों का केयर आदि किया जाता है. उनके इस काम के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है. उनकी संस्था भारत सरकार की नीति आयोग दर्पण में रजिस्टर्ड है. पंजाबी परिवार  में जन्मी गीतांजलि ने बचपन से अपने माता-पिता और दादा-दादी को जरुरतमंदों की सेवा करते हुए देखा है. संस्था की 7वीं वर्षगाँठ की उपलक्ष्य पर डॉ. गीतांजलि से बात हुई, आइये जाने, उनका क्या कहना है. 

मिली प्रेरणा 

इस काम में प्रेरणा के बारें में डॉ. गीतांजलि कहती है कि जरुरत मंदो की सेवा करने की प्रेरणा परिवार से मिला है, इसके अलावा जब मैं कैरियर की ऊंचाई पर थी, होली के अवसर पर आंशिक रूप से नेत्रहीन बच्चों के साथ होली खेली थी. उसके बाद मुझे बहुत अधिक ख़ुशी और संतुष्टि मिली, जो किसी काम में मुझे अबतक नहीं मिली थी. तब मैंने समझा कि मुझे इसी क्षेत्र में काम करना है और मैंने काम शुरू कर दिया. मेरी संस्था में जिस व्यक्ति की इच्छा किसी कारण वश पूरी नहीं हो पायी हो, उसे पूरा करने में मदद करना है.

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काम संस्था की  

डॉ. गीतांजलि कहती है कि इस संस्था का काम दिल्ली और आसपास के 700 लोगों को भोजन वितरण करना है, इसके अलावा अनाथ, स्ट्रीट और एच आई वी पीड़ित बच्चों के लिए शिक्षा, उनके स्वास्थ्य की देखभाल और एडहाक बेसिस पर किसी की किडनी ट्रांसप्लांट में मदद करना, आदि है. इसके अलावा स्ट्रीट चिल्ड्रेन को पकड़ने के बाद उन्हें बातचीत करने का तरीका, साफ-सफाई, खाना खाने की आदते, लिखने-पढने का तरीका आदि सिखाकर स्कूल के लिए तैयार किया जाता है और सरकारी स्कूल में एडमिशन करा दिया जाता है. इन बच्चों के माता-पिता सब्जी बेचना, कचरा बिनना, रिक्शा चलाना आदि काम करते है. इनके पास ठीक-ठाक घर भी नहीं है, इसलिए सुबह 9 बजे से 5 बजे तक ये बच्चे मेरी देख-रेख में होते है. इस दौरान उन्हें खाना भी खिलाया जाता है. इनमे कई बच्चे खेल-कूद में होशियार होते है. उन्हें स्पोर्ट्स में भाग लेने की सलाह दी जाती है. इसके अलावा एच आई वी पॉजिटिव वाले बच्चे जो स्कूल नहीं जा पाते, उनकी देखभाल मैं करती हूँ. कोविड 19 से पहले मेरी 20 संस्था दिल्ली में काम कर रही थी, अभी 7 राज्यों में मेरी संस्था काम कर रही है.

इसके आगे डॉ. गीतांजलि कहती है कि कोविड के समय कमर्शियल सेक्स वर्कर्स और ट्रांसजेंडर्स की हालत सबसे ख़राब थी. कोविड और लॉकडाउन के बीच कोई काम उनके लिए नहीं था. इसलिए मैंने सभी से बात कर उन्हें हर महीने राशन करीब 100 परिवारों को दिया है. ट्रांसजेंडर्स को भी मदद करना पड़ा, क्योंकि उन्हें कोविड और लॉकडाउन के दौरान किसी घर में खास अवसर पर घर में घुसकर नाच गाना करने नहीं देते थे. मैंने ऐसे 150 परिवार को राशन किट दिया, लेकिन अब उनका काम शुरू हो चुका है. उन्हें अब देने की जरुरत नहीं पड़ती.

कमी विश्वास की 

फंडिंग के लिए डॉ. गीतांजलि के कई डोनर्स है, जो उन्हें समय-समय पर पैसे देते है, जिसका पूरा हिसाब पारदर्शिता के साथ डोनर्स तक पहुँचाया जाता है. वह कहती है कि वित्तीय समस्या अधिक नहीं आती, कभी आ जाने से फण्ड रेजर इवेंट्स किया जाता है. इस काम में समस्या अधिकतर डोनर्स के विश्वास का कम होना है. इसके अलावा जिन लोगों की मैं मदद करती  हूँ उन्हें विश्वास नहीं होता कि मैं ये काम उन बच्चों के लिए क्यों कर रही हूँ. आज सोशल सेक्टर में कोई आना नहीं चाहते, इसलिए वर्कफ़ोर्स की कमी होती है. संस्था दिखने में कोर्पोरेट की तरह होती है. कोर्पोरेट प्रॉफिट के लिए काम करता है, जबकि एनजीओ नॉन प्रॉफिट के लिए काम करती है. जो लोग आते भी है, वे कम पैसे होने की वजह से छोड़ देते है. मेरी टीम में 20 से 25 लोग है. इसके अलावा काफी वोलेंटियर्स है, जो फील्ड पर काम करते है, ऐसे 100 से 150 लोग होते है. इस समय झाड़खंड में ओल्ड केयर होम और असाम में काम चल रहा है. कोविड के समय जब मैंने ट्रेवल किया तो देखा कि लोगों के पास काम और खाना खाने के पैसे तक नहीं है. इसलिए मैं अब दिल्ली से बाहर जाकर भी काम करने  लगी हूँ. सरकार की सहायता नहीं मिलती और मैं लेना भी नहीं चाहती.

 सहयोग परिवार का 

डॉ.गीतांजलि का कहना है कि परिवार का सहयोग  पहले नहीं था, क्योंकि मैं एक स्टाब्लिश जॉब को छोड़ रही थी और बहुत एजुकेशन भी ले चुकी थी, लेकिन जब ससुराल वालों ने इस काम से मेरी ख़ुशी को देखा, तो खुद ही वे मुझे सहयोग देने लगे. कई बार संस्था के काम को लेकर समस्या हुई है, लेकिन परिवार हमेशा मेरे साथ खड़ा रहा. बच्चे नहीं है, लेकिन मेरे पास 600 बच्चे है, जिन्हें मेरी जरुरत है. 

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समस्या अनगिनत 

डॉ.गीतांजलि की समस्या ओल्ड ऐज होम में आने वाले नए इंसान को समझाना मुश्किल होता है, जबकि वे यहाँ सुरक्षित और अपने घर में रह रहे है, क्योंकि यहाँ आने वाले अधिकतर बुजुर्गों को मारपीट कर घर से निकाल दिया जाता है. ये मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण होता है. उन्हें मुझपर विश्वास नहीं होता. इसके अलावा एच आई वी संक्रमित बच्चों को स्कूल में भर्ती करवाना, जवान लड़कों और लड़कियों को स्कूल भेजना, ये सभी काम तनावपूर्ण और समस्या युक्त होते है. इन बच्चों के माता-पिता को भी लगता है कि पढ़ लिखकर बच्चे क्या करेंगे, इससे अच्छा है कि ये भीख मांगकर कुछ कमा सकते है. हर स्तर पर समस्या है.

जरुरत जहां, पहचूं वहां 

कोविड के समय ओल्ड एज होम में बुजुर्गों को रखना भी एक समस्या हो चुकी है, क्योंकि उन्हें बाहर निकलने नहीं दिया जाता, इस पर वे क्रोधित हो जाते है. कोविड में वित्तीय संकट भी आई है, पर मैंने इसे कुछ हद तक सुलझा लिया है. अभी मैं बंगाल में अधिक काम करने की इच्छा रखती हूँ, क्योंकि वहां गाँव-गाँव में बहुत गरीबी है. जहाँ मेरी जरुरत है, वहां मैं पहुँच सकूँ, यही मेरी इच्छा है.

पर्यावरण प्रदूषण को कम और ग्रामीण शिक्षा को प्रोत्साहित करती है रियूजेबल पैड्स- अंजू विष्ट

अंजू विष्ट (सोशल वर्कर)

मासिक चक्र के दौर से हर लड़की और महिला को गुजरना पड़ता है. इसके लिए उसे बाज़ार से महंगे पैड्स खरीदने की जरुरत होती है, लेकिन गाँवों में महिलाओं का पैड्स खरीदना और डिस्पोज करना मुश्किल होता है. इसलिए अधिकतर लड़कियां और महिलाएं डिस्पोज करने के लिए मिट्टी के नीचे दबा देती है, जिसमें प्लास्टिक होता है और उसे गलने में सालों लगते है. इसलिए स्वास्थ्य औरपर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए साल 2017 को सुंदर, प्राकृतिक और आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए केरल के माता अमृतानंदमयी मठ के संस्थापक अमृतानंदमयी ने सौख्यम रियूजेबल पैड्सको लौंच किया.

हालाँकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई संस्थाएं है, जो केले के रेशों से डिस्पोजेबल पैड्स बनाती है, लेकिन सौख्यम विश्व भर में पहली संस्था है, जो केले के रेशों से रियूजेबल पैड्स बनाती है.इसके लिए सौख्यम पैड्स को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके है. इसे राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थानकी तरफ से मोस्ट इनोवेटिव प्रोडक्ट का अवार्ड,साल 2018 में पोलैंड के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन सम्मलेन में सराहा जाना, मार्च 2020 में इसे सोशल इंटरप्राइज ऑफ़ द इयर अवार्ड दिया जाना आदि कई पुरस्कार प्राप्त है. आज 50 हजार से अधिक महिलाएं इस पैड्स का प्रयोग कर रही है, जिससे करीब 875 टन से भी अधिक नॉन-बायोडिग्रेडेबल मेंसुरल वेस्ट को कम किया गया है.

मिली प्रेरणा

इस बारें में सौख्यम के को डायरेक्टर और रिसर्चर अंजू विष्ट कहती है कि मैं 18 सालों से इस संस्था से जुडी हुई हूँ. काम के दौरान महसूस हुआ कि सालों से महिलाओं और लड़कियों को मासिक धर्म की में पैड्स की समस्या है जिसके बारें में अधिक चर्चा नहीं की जाती, क्योंकि ये सोशल स्टिग्मा है. ‘पैडमैन’ फिल्म भी तब आई नहीं थी. ऐसे में इस मुद्दे का अगर समाधान मिल जाए, तो स्वास्थ्य शिक्षा के साथ-साथग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा की समस्या भी सोल्व हो सकती है, क्योंकि अधिकतर लड़कियां मासिक धर्म के बाद गांव में सही विकल्प न होने की वजह से पढाई छोड़ देती है. आज सरकार की तरफ से एक रूपये में सुविधा पैड्स मिलते है,लेकिन उनदिनों कुछ भी नहीं था. पैड्स कैसे बनाई जाय, इस बारें में पूरी टीम सोचने लगी, क्योंकि ग्रामीण इलाकों में पैड्स का कचरा फैलाना ठीक नहीं, साथ ही पैड्स में प्रयोग किये गए कागज के लिए पेड़ काटनी पड़ती है, ऐसे में सेल्यूलोसफाइबर, जो पैड में रक्त सोखने का काम करती है,वह केले के रेशों में आसानी से मिल जाती है. ये किसी को पता नहीं था.

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हालाँकि वर्ल्ड में भी पेड़ न काटने की दिशा में केले के फाइबर से पैड बनने लगे थे. ऐसे में भारत, जहाँ केले का उत्पादन विश्व में सबसे अधिक होता है औरकेले के पेड़ को एक बार फल लगने के बाद काट दिया जाता है, क्योंकि इस पर दूबारा फल नहीं लगता.कटे हुए पेड़ों से जो फाइबर निकलता है, वह भी सेल्यूलोस फाइबर ही है, जिसका प्रयोग पैड्स में किया जा सकता है. फिर पैड्स बनाने की बारी आई, तो राय यह थी कि भले ही केले के वेस्ट से इसे बनाया जाता हो, पर एक बार प्रयोग कर उसे फेंक देना ठीक नहीं. मैंने भी करीब 20 साल से रियूजेबल पैड्स का प्रयोग किया है, जो मैंने अमेरिका से ख़रीदा था. एक पैड करीब 8 साल तक चलता है. भारत में तब केवल एक संस्था इस तरह के रियूजेबल पैड बनाती थी, लेकिन आज करीब 30 संस्थाएं रियूजेबल पैड्स बनाती है. अंतर सिर्फ इतना है कि बाकी पैड्स में रक्त को सोखने के लिए कपडा होता है, जबकि सौख्यम में रक्त सोखने के लिए केले का फाइबर होता है.

पैड्स बनाने के तरीके

मंजू का आगे कहना है कि ‘बनाना फाइबर’ एक्सट्रेक्टर एक मशीन के द्वारा फाइबर निकाली जाती है. उसे क्लीन करना एक चुनौती होती है, क्योंकि रेशों को साफ़ कर उसे सॉफ्ट बनाना पड़ता है. ब्रश से साफ़ कर उसे मशीन के द्वारा वजन कर 6 ग्राम केले का रेशा डे पैड के लिए और 9 ग्राम नाईट पैड के लिए अलग-अलग किया जाता है. इसके बाद इसकी शीट्स बनाकर पूरी रात दबाकर रखते है, फिर कपडे की परत में डालकर उसे सिलाई की जाती है. केले के पेड़ की साइज़ अलग-अलग होती है, लेकिन एक केले के पेड़ से 200 से 400 ग्राम तक केले के रेशे मिल जाते है. थोडा वेस्ट भी हो जाता है तक़रीबन 20 पैड एक केले के रेशों से बनाये जाते है. एक दिन में एक महिला 24 या 25 पैड 6 घंटे में बना लेती है. ये हल्के और मुलायम होते है. रक्त के फ्लो के हिसाब से पैड का प्रयोग महिलाये करती है. ये रियूजेबल पैड्स है और महंगे नहीं होते, इसलिए इसे महिलाएं अधिक खरीदती है. इस काम में कुछ वोलेंटियर्स अपने समय के हिसाब से आते-जाते रहते है और 9 वर्कशॉप के लिए काम करते है, जो देश कई राज्यों जैसे चेन्नई, बंगलुरु, हैदराबाद आदि जगहों पर जाते है, क्योंकि महिलाओं को इस पैड के बारें में पता नहीं है. इसमें ग्रामीण महिलाएं अधिक काम करती है.

रियूज का तरीका

रियूजेबल पैड्स कपडे के बने होते है. उनमें और कपडे के प्रयोग में बहुत अंतर है, पहले महिलाएं कपडे ही प्रयोग करती थी. लेकिन उसमें दाग-धब्बे हो जाते है, जिसे निकालना मुश्किल होता है. दाग की वजह से उसे खुले में नहीं सुखा सकते. रियूजेबल पैड्स को धोना सुखाना बहुत आसान होता है. पानी में धोकर हल्के हाथ से साबुन लगाने पर वह साफ़ हो जाता है और कही भी इसे 5 दिन लौन्जरी की तरह सुखाया जा सकता है. ठीक से देखभाल करने पर रियूजेबल एक पैड 4 से 5 साल तक चलता है, क्योंकि अच्छी क्वालिटी का कपडा इसमें प्रयोग किया जाता है और केले के रेशें टिकाऊ होते है. कपड़ाफट जाने पर नए कपडे के साथ पैड को फिर से प्रयोग में लाया जा सकता है. इस पैड के निचले भाग में छतरी के  कपड़े की तरह बहुत पतली शीट होती है,ताकि रक्त का प्रवाह लीक न हो,जिसे धोकर रियूज किया जाता है और ये ख़राब भी नहीं होती. डिस्पोज करते समय इसे अलग कर दिया जाता है और केले के रेशे बायोडिग्रेडेबल है. इसलिए पर्यावरण को किसी प्रकार का खतरा नहीं होता.

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आगे अंजू हर राज्य में इन पैड्स को पहुचाये जाने की कोशिश कर रही है. अभी जम्मू, राजस्थान, उत्तराखंड आदि जगहों और ऑनलाइन पर भी उपलब्ध है. इसके लिए वह छोटे-छोटे व्यवसाय करने वालों की नेटवर्क बनाकर पैड्स देने वाली है, ताकि ऐसे व्यवसायी अपने क्षेत्र में इसे कम दाम में उपलब्ध करवा सकें.

 किसानों को आत्महत्या से बचाना ही संस्था का मुख्य काम है – विनायक चंद्रकांत हेगाणा

विनायक चंद्रकांत हेगाणा (सोशल वर्कर,शिवार फाउंडेशन )

अलग और लीक से हटकर काम करने की इच्छा हो तो कोई आपको रोक नहीं सकता, आप उसे कैसे भी हो कर ही लेते है,ऐसा ही कर दिखाया है महाराष्ट्र के कोल्हापुर की 25 वर्षीय सोशल वर्कर विनायक चंद्रकांत हेगाणा ने, जिसने महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में सबसे अधिक सुइसाइड करने वाले किसानो की संख्या में लगातार कमी लाने में समर्थ हुए है. कोल्हापुर के रहने वाले 25 वर्षीय इस व्यक्ति ने कृषि ग्रेजुएट की पढाई पूरी करने के बाद इस क्षेत्र की और कदम बढ़ाया है. जो काबिलेतारीफ है. ऐसे काम आज के सभी पढे-लिखे यूथ के लिए प्रेरणास्रोत है. विनायक इस काम को अपनी संस्था ‘शिवार फाउंडेशन’ के तहत कर रहे है. जो मुश्किल है, पर वे पूरी जिम्मेदारी के साथ करते जा रहे है. क्या कहते है वे, आइये जानते है उन्ही से. 

संस्था परखती है किसानों की समस्या  

इस काम को शुरू करने के बारें में कैसे सोचा? पूछे जाने पर विनायक कहते है कि महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में सबसे अधिक सुइसाइड के केसेस होते है. ये पहला ऐसा क्षेत्र है जहाँ आत्महत्या किसान सबसे अधिक करते है. इसके अलावा यह मराठवाड़ा का सूखाग्रस्त सबसे प्रभावित क्षेत्र भी है. यही चुनौतियाँ किसानों को आत्महत्या करने को प्रेरित करती है. वर्ष 2018 में निति आयोग ने भी इसे तृतीय श्रेणी की सबसे अधिक गरीब और अविकसित जिला घोषित किया है. यहाँ के किसान मानसिक दबाव में होते है और आत्महत्या की संख्या लगातार बढ़ रही है, इसलिए मैंने साल 2018 के अप्रैल में इस संस्था की शुरुआत की. इसमें किसान को काउंसलिंग कर उनके तनाव को समझना और उसका निराकरण करना है . हालाँकि भारत में लाखों एनजीओ इस क्षेत्र में काम कर रहे है और किसानों के लिए कई सारी सुविधाएं भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार की तरफ से है, पर उसका लाभ इन किसानों को नहीं मिल रहा था, क्योंकि किसानों को इसकी जानकारी नहीं है.

 सरकारी लोगों को भी किसानों की जरूरते कहाँ पर वास्तविक है और कहाँ पर जालसाजी हो सकती है, ये जानना मुश्किल हो रहा था. इसमें शिवार संसद यूथ मूवमेंट एक्टिविटी करती है. इसमें पूरे महाराष्ट्र से करीब 3 हजार यूथ वर्कर्स जुड़े है, जो किसान के परिवार से ही है और कृषि के क्षेत्र में ग्रेजुएट है और किसानी को अच्छी तरह से जानते है. नेशनल सर्विस स्कीम के छात्र और जिला स्तर के सभी बड़े अधिकारी को साथ में लेकर काम शुरू किया गया है, जिससे पुरे क्षेत्र में काम करना आसान हो गया है. इसमें गांव-गांव में जाकर जागरूकता को फैलाया जाता है. उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश की जाती है, जिसके तहत काउंसलिंग कर उनकी समस्याओं को जानने में मदद मिली, इसमें शिवार हेल्पलाइन की शुरुआत करना सबसे अच्छी पहल है . इसके द्वारा कुछ समय में हमारी टीम ने 89 किसानों को आत्महत्या से बचाया है. 

क्या है काम करने का तरीका 

विनायक आगे कहते है कि इसमें किसान शिवार हेल्पलाइन में फ़ोन करते है, जिसमें उनकी जरूरतों को देखकर एक इम्प्लीमेंटेशन प्लान बनाया जाता है. जिसमें उनके स्ट्रेस लेवल को देखा जाता है. माइल्ड, मॉडरेट या सिवियर के आधार पर उनको मनोवैज्ञानिक से काउंसलिंग की जाती है. इसे साईको सोशल कांसेप्ट नाम दिया गया है. फिर उनके पास जाकर उनके सोशल पार्ट को देखते है और उसका समाधान देते है. लगभग डेढ़ लाख फार्मर हमारे साथ जुड़े है. जो उस्मानाबाद के है और बाकी 50 हज़ार किसान महाराष्ट्र के दूसरे क्षेत्र से है. कम पढ़े लिखे होने के बाद भी लोकल मीडिया और ग्राम पंचायत में पोस्टर को देखकर वे संस्था तक पहुँच जाते है. ग्राम पंचायत के सभी को इसके बारें में जानकारी है, जिससे किसी भी किसान को वे सही निर्देश देकर शिवार फाउंडेशन तक पहुंचा देते है.  

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समस्याओं का करती है समाधान 

सबसे पहले पानी की समस्या आती है, कर्ज लेने के बाद लोन के माफ़ी की समस्या, लड़की की शादी के लिए साहूकार से लोन लेकर उसे चुकाना, व्यसन से जुडी समस्याएं आदि होती है. इसके अलावा फसल का सही दाम का न मिलना, फसल बर्बाद हो जाना, सही बीज न मिलना, सरकारी सहयता का न मिलना आदि सभी समस्याओं का समाधान इस संस्था के ज़रिये किया जाता है.

कोरोना काल की समस्या,

 विनायक मानते है कि अभी कोरोना काल में किसानो की समस्या और अधिक बढ़ गयी है, क्योंकि फसल तैयार होने के बाद अब ट्रांसपोर्ट बंद हो गए है, इसलिए फसलों का दाम कम हो गया है और लोकल मार्केट वह बिक नहीं सकता. किसान अब बहुत अधिक तनाव में है. पूरे जिले में मार्च से अब तक कोरोना से केवल 15 लोगों की मृत्यु हुई है, जबकि 65 से अधिक किसानो ने इस दौरान सुइसाईड किया है, जो सोचने वाली बात है. कोरोना की ये क्राइसिस किसानों के मेंटल हेल्थ पर बहुत गहरा असर कर रहा है. इसी को ध्यान में रखते हुए हमारी फाउंडेशन काम कर रही है, अब तक 1565 किसानो ने इस विषय से सम्बंधित फ़ोन कॉल किये है. आत्महत्या को कम करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य है. कोरोना संक्रमण की वजह से इस बार समस्या अधिक है. अभी बीज बोने का मौसम है, क्योंकि बारिश शुरू हो चुकी है. सोयाबीन इस समय खेतों में बोया जाता है, किसानों ने अच्छी बारिश की ख़ुशी में साहूकार से पैसे लेकर बीज ख़रीदे, लेकिन बीज ख़राब निकला इसका असर किसानो पर पड़ा, वे तनाव में आ गए. साथ ही अब उनके पास पैसे नहीं है कि आगे कुछ और कर सकें. बीमा का लाभ भी उन्हें नहीं मिला. कर्ज माफ़ी का उन्हें कुछ रियायत नहीं मिला. फिर संस्था ने बाजरा के बीज करीब 100 किसानों को दिया, जो अधिक तनावग्रस्त है, उन्हें पहले बीज दिए गए, ताकि वे आत्महत्या से हटकर काम में व्यस्त हो जाय. 

काम में कठिनाई 

शिवार हेल्पलाइन कोविड 19 के समय किसानों के लिए काफी मददगार साबित हो रही है. ये सोशल कांसेप्ट है, इसलिए उसे बनाये रखना हमारे लिए चुनौती है, क्योंकि फंडिंग की समस्या है. अगर सरकार और लोगों का सहयोग मिलता है तो इसे बनाये रखना मेरे लिए आसान होगा. फार्मर का सहयोग मेरी संस्था के साथ है. वे हमारे काम पर भरोषा रखते है, क्योंकि हमारी टीम का काम बहुत पारदर्शी है. अभी 15 लड़के लड़कियां इसमें काम करते है. ये सभी कृषि विभाग में ग्रेजुएट है. संस्था उस्मानाबाद के अलावा तुलजापुर, परांदा, भूम, कलम्ब और वासी क्षेत्र में काम कर रही है. साथ ही जिन किसानों ने आत्महत्या की है, उनके परिवार के लिए भी काम करते है, इसमें उनके खानपान और बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था, दूसरे एनजीओ की सहायता से की जाती है. अबतक 450 छात्रों को अडॉप्ट किया जा चुका है. उसमें मराठी एक्टर भारत गणेशपुरे ने बहुत सहयोग दिया है. 

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मिली प्रेरणा 

 विनायक कोल्हापुर के है और कृषि में ग्रेजुएट है. काम के लिए उस्मानाबाद आये. वे कहते है कि कोल्हापुर एक विकसित क्षेत्र है. मैं बाबा आम्टे से बहुत प्रभावित हूं और गाँव के विकास के लिए ही काम करने की इच्छा रखता हूं. मेरा पूरा परिवार मुझे सहयोग देते है और मेरे काम से खुश है. इसके अलावा मैं अपने अनुभव से गांव के लोगों को उन्नत तकनीक की शिक्षा भी देता हूं. इससे मुझे सरकार की तरफ से कुछ पैसे मिलते है, जिससे मेरा गुजारा चलता है. मैं इस काम से बहुत संतुष्ट हूं और आगे भी अच्छा काम किसानों के लिए ही करता रहूंगा. 

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परिवर्तन की अलख जगाती रूमा देवी

(राजस्थान, बाड़मेर में 22,000 से ज्यादा गरीब, ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़ा)

राजस्थान के बाड़मेर के अति पिछड़े गांव की रूमा देवी भले ही सिर्फ आठवीं पास हों, लेकिन उनके जुझारूपन ने इस क्षेत्र की बाइस हजार से ज्यादा गरीब, ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़कर उनको आर्थिक सशक्ता देकर उनके जीवन में खुशहाली बिखेर दी है. बचपन से ही अत्यधिक आर्थिक तंगी से जूझने वाली रूमा देवी ने अपनी दादी से सीखी राजस्थानी हस्तशिल्प कसीदाकारी को अपनी जीविका का आधार बनाया. उन्होंने एक स्वयं सेवक समूह बना कर न सिर्फ अपने परिवार को गरीबी के चंगुल से मुक्ति दिलायी, बल्कि आसपास के पचहत्तर गांवों की बाइस हजार से ज्यादा महिलाओं को इस कला का प्रशिक्षण दिया और राजस्थानी हस्तशिल्प को गांव से निकाल कर अन्तरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचा दिया. उनके उत्कृष्ठ कार्यों के लिए वर्ष 2019 में उन्हें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों देश का सबसे सम्मानित ‘नारीशक्ति अवॉर्ड’ प्राप्त हुआ.

रूमा देवी राजस्थान में बाड़मेर क्षेत्र के उस दूरदराज के गांव से आती हैं जहां औरत के लिए चेहरे से घूंघट हटाना और घर की दहलीज लांघना नामुमकिन सी बात थी, लेकिन रूमा देवी ने इन बंधनों को तोड़ा और अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने समाज की अन्य महिलाओं के लिए भी सबल और सक्षम होने की राह प्रशस्त की. गरीबी और पुरुष प्रधान समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से संघर्ष की उनकी कहानी को उन्होंने ‘गृहशोभा’ के साथ साझा किया. प्रस्तुत है उनसे बातचीत के संपादित अंश –

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–  वह क्या वजहें थीं जिन्होंने आपको घर की दहलीज लांघ कर काम करने के लिए मजबूर किया?

मैं पांच साल की थी जब मेरी मां गुजर गयी. पिता ने दूसरी शादी कर ली और मुझे मेरे मामा के पास भेज दिया. मेरे मामा ने ही मुझे पाला-पोसा. उनकी आर्थिक स्थिति भी दयनीय थी. वहां मैंने आठवीं तक पढ़ाई की, लेकिन गरीबी के कारण मुझे स्कूल छोड़ कर घर के कामकाज में लगना पड़ा. रसोई बनाना, पशुओं की देखभाल के अलावा पूरे घर के लिए पीने के पानी का इंतजाम करना सब मैंने छोटी सी उम्र से किया. हमारे गांव में पानी की बहुत किल्लत थी. मैं परिवार की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए आठ से दस किलोमीटर दूर से बैलगाड़ी पर पानी भरकर लाती थी. यह मेरा रोज का काम था. 17 साल की हुई तो मेरी शादी हो गयी. मेरी जिन्दगी शादी के बाद भी आसान नहीं थी. मेरे ससुरालवाले भी बहुत गरीब थे. घर की दहलीज लांघ कर बाहर काम करने के लिए मैं तब मजबूर हुई जब मेरे डेढ़ महीने के बीमार बेटे को पैसे की तंगी के कारण इलाज नहीं मिल पाया और उसने तड़प-तड़प कर मेरे सामने दम तोड़ दिया. उस घटना ने मुझे हिला दिया और मैंने तय कर लिया कि कुछ ऐसा करना है जिससे घर में पैसा आयें और हमारी मजबूरी खत्म हो. बचपन में मां के मरने के बाद मैंने कढ़ाई का कौशल अपनी दादी से सीखा था. मुझे वह हुनर आता था तो मैंने वह काम करने की इच्छा अपने ससुरालवालों के आगे रखी. मैंने उनसे कहा कि घर की हालत सुधारने के लिए मैं काम करना चाहती हूं. वे समाज के रीति-रिवाज से डरे. लोग क्या कहेंगे, बदनामी होगी, ऐसी बातें सोचीं. हमारे गांव में औरतें आज भी लम्बे घूंघट में रहती हैं. उन्होंने मुझसे कहा कि तू बिना घूंघट के काम करेगी? मैंने कहा – नहीं, सिर पर पल्लू नहीं हटेगा. तब परिवारवाले मान गये. मैंने घूंघट में रहते हुए घर से बाहर कदम निकाला और यह काम शुरू किया.

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–  यात्रा कैसे शुरू हुई? क्या दिक्कतें आयीं और क्या उपलब्धियों हासिल हुर्इं?

2006 में मैंने कढ़ाई का काम शुरू किया. शुरुआत में मैंने लेडीज बैग और कुशन कवर आदि बनाने की सोची, मगर उस वक्त कपड़े-धागे तक के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे. फिर मैंने अपने आसपास के परिवार की औरतों से बात की. मेरे गांव की दस औरतें मेरे साथ काम करने को तैयार हो गयीं. फिर मैंने एक स्वयं सहायता समूह बनाया और सबसे सौ-सौ रुपये इकट्ठा करके कढ़ाई के लिए जरूरी सारी चीजें जैसे कपड़े, रंगीन धागे, सुईयां, कैंचियां, सामान पैक करने के लिए प्लास्टिक के थैले इत्यादि खरीदे. मैंने उन औरतों को वह कढ़ाई सिखायी जो मैंने अपनी दादी से सीखी थी. हम सबने साथ मिल कर सुन्दर-सुन्दर बैग और कुशन कवर बनाये. भाग्य से हमें खरीदार भी अपने ही गांव में मिल गये, जो हमारा सामान शहरों में ले जाकर बेचने लगे. इस तरह हमें कुछ पैसे मिलने लगे. उसके बाद तो हमारे इस ग्रुप से लगातार महिलाएं जुड़ने लगीं.

–  दस औरतों का छोटा सा समूह बाईस हजार से ज्यादा औरतों का समूह कैसे बना?

मैंने कभी यह बात स्वीकार नहीं की कि हमारे सामने सीमित संसाधन हैं या सीमित अवसर हैं. काम करने की इच्छा और हुनर होना चाहिए, रास्ते अपने आप खुल जाते हैं. जिन्दगी कभी भी आसान नहीं होती, लेकिन जूझते हैं तो जीतते हैं. मैं सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि अपने जैसी बहुत सारी गरीब औरतों के लिए काम करना चाहती थी. उन्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहती थी ताकि जो मेरी ममता के साथ हुआ, वह किसी और औरत के साथ न हो. मैंने अपने गांव की औरतों को ही यह कला नहीं सिखायी, बल्कि आसपास के गांव की औरतों को भी सिखाने लगी. क्षेत्र के काफी गांव हमारे काम से जुड़ गये. हमारे उत्पाद जब मार्केट में आये तो बाड़मेर के ‘ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान’ ने उन्हें काफी सराहा और मुझे अपना सदस्य बनने का प्रस्ताव दिया. 2008 में मैं इस संस्था की सदस्य बन गयी. फिर दो साल में ही मैं संस्था की अध्यक्ष भी चुन ली गयी. यह संस्था महिलाओं को ट्रेनिंग के साथ-साथ मार्केटिंग के गुण भी सिखाती है. इस संस्था से जुड़ने के बाद मुझे बहुत हिम्मत मिली, रास्ते खुले. मैंने कई शहरों में जाकर अपने उत्पाद मंचों पर प्रदर्शित किये और हम अन्तरराष्ट्रीय मंच तक भी पहुंचे. आज हमारे गु्रप की हर सदस्य अपने कौशल से तीन से दस हजार रुपये महीना कमा लेती है. हमारे साथ बाड़मेर की ही नहीं, बीकानेर और जैसलमेर तक की महिलाएं जुड़ी हैं. यह संख्या बढ़ती ही जा रही है.

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– आप आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश का नाम रौशन कर रही हैं. फैशन वर्ल्ड में आपके नाम और काम का डंका बज रहा है. यह उपलब्धि कैसे हासिल की?

भारत के नीति आयोग द्वारा हमारा बाड़मेर जिला सबसे पिछड़ा क्षेत्र घोषित है. यह एक पुरुष प्रधान समाज है जहां पर्दा प्रथा का पालन करने और अपने घर की दहलीज के भीतर रहने के लिए स्त्रियां मजबूर हैं. लेकिन इतनी ज्यादा गरीबी देखने के बाद और पैसे की तंगी के कारण अपने बच्चे को खोने के बाद काम करने का मेरा संकल्प इतना मजबूत था कि मैं घर-समाज के बंधन तोड़ कर बाहर आयी ताकि अपने परिवार के कल को अच्छा बना सकूं. ‘ग्रामीण विकास चेतना संस्थान’ से जुड़ने के बाद मुझे मार्केटिंग की बातें समझ में आयीं. यहां मैंने ‘फेयर ट्रेड फोरम’ के लिए उत्पाद तैयार किये. धीरे-धीरे हमें हस्तशिल्प समूह के रूप में पहचान मिलने लगी. यहीं मुझे डिजाइनर कपड़ों और फैशन वर्ल्ड के बारे में भी जानकारी मिली, लेकिन मेरे पास डिजाइनिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं थी. मैं जिस क्षेत्र में रहती हूं, वहां कोई फैशन इंस्टीट्यूट या कॉलेज भी नहीं है. बड़े शहर हमारे गांव से दूर हैं. लेकिन आगे बढ़ने का मेरा निश्चय दृढ़ था. मैंने साहस करके खुद ही कुछ प्रसिद्ध डिजाइनरों से सम्पर्क किया और उनको अपने उत्पाद दिखाये. उनमें से कुछ डिजाइनर हमारी संस्था के साथ काम करने के लिए तैयार हो गये. वर्ष 2016 में यानी अपना काम शुरू करने के दस साल बाद मैंने पहली बार ‘राजस्थान हेरिटेज वीक कार्यक्रम’ में रैम्प पर मॉडल्स के साथ अपने संग्रह को पेश किया और उनके साथ रैम्प पर भी चली. उस वक्त मैं सचमुच अपने सपने को जी रही थी. उस कार्यक्रम में मेरे द्वारा बनाये कपड़ों को बहुत सराहना मिली. धीरे-धीरे कुछ प्रसिद्ध डिजाइनरों और संस्थाओं ने हस्तनिर्मित कपड़ों और राजस्थानी कढ़ाई के लिए हमसे सम्पर्क करना शुरू कर दिया. हमने जल्दी ही विभिन्न श्रेणियों के अपने उत्पादों की बड़ी श्रृंखला बाजार में उतारी और बहुत बड़े पैमाने पर काम किया. हमारे काम ने इंटरनेशनल फैशन डिजाइनर्स को हमारे गांव तक ला दिया. आज हमें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सराहा जा रहा है. हमारे राजस्थानी हस्तशिल्प को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है. लंदन, जर्मनी, सिंगापुर और कोलंबो के फैशन वीक्स में मैं शामिल हो चुकी हूं जहां हमारे उत्पादों का बहुत सुन्दर प्रदर्शन हुआ.

–  इस क्षेत्र में अवार्ड्स की लम्बी सूची आपके नाम है. कुछ विशेष का जिक्र करें.

हां, इस काम के लिए मुझे बहुत सारे अवार्ड्स और सम्मान मिले हैं. सबसे विशेष मार्च 2019 को राष्ट्रपति कोविंद के हाथों नारीशक्ति के लिए सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘नारीशक्ति अवार्ड’ था. दूसरा मैं 6 सितम्बर 2019 का दिन नहीं भूल सकती जब मुझे टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के कर्मवीर एपिसोड में अमिताभ बच्चन जी के सामने हॉट सीट पर बैठने का अवसर मिला था. इस कार्यक्रम को पूरे देश ने देखा और मेरी कहानी जानी. इंडिया टुडे पत्रिका ने 2018 में अपने एनिवर्सरी एडिशन में मुझे कवर पर स्थान दिया. फिर मुझे ट्राइब इंडिया का ‘गुड विल एम्बेसडर एंड चीफ डिजाइनर’ का अवॉर्ड मिला. 15  फरवरी 2020 को मुझे अमेरिका में कैम्ब्रिज की हावर्ड यूनिवर्सिटी की ओर से 17वें एनुअल इंडिया कॉन्फ्रेंस के लिए पैनल मेम्बर के तौर पर आमंत्रित किया गया है. अभी 7 जनवरी को मुझे ‘जानकी देवी बजाज अवॉर्ड’ दिया गया है, जो महिला उद्यमियों को महिला सशक्तिकरण की दिशा में अच्छा काम करने के लिए दिया जाता है. इनके अलावा भी दस-बारह अवॉर्ड हैं जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर मुझे प्राप्त हुए हैं.

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–  आगे की क्या योजनाएं हैं?

गरीबी ने मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया, पुरुष प्रधान समाज से सवाल करने की हिम्मत दी कि हम औरतें क्यों नही अपने घर-परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए बाहर निकल कर काम कर सकती हैं? आज मैं औरतों को ही नहीं, पुरुषों को भी हस्तशिल्प का प्रशिक्षण दे रही हूं. हम अलग-अलग कौशल उन्नयन कार्यशालाओं का आयोजन करते हैं. आत्महत्या और कन्या भ्रूण को मां के पेट में ही मारने जैसे समाज के बुरे कार्यों के खिलाफ हम सेमिनार आयोजित करते हैं ताकि अपने क्षेत्र की महिलाओं को जागृत कर सकें, उनमें उत्साह पैदा कर सकें और उन्हें आत्मनिर्भर बना सकें. छोटे पैमाने पर अपने उद्यम कैसे स्थापित करने हैं, स्व सहायता समूहों के माध्यम से पैसा कैसे पैदा करना है, सरकार की किन योजनाओं के तहत उन्हें वित्तीय सहायता मिल सकती है, यह सारी जानकारियां हम इन कार्यक्रमों के जरिए राजस्थान के दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाते हैं और महिलाओं को रोजगार से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं. मैं ग्रामीण महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं के लिए भी कुछ करना चाहती हूं. उनके बच्चों के बेहतर कल का सपना जो उनकी आंखों में है, उसे मैं पूरा करना चाहती हूं.

 Women’s Day 2020: कामयाबी मिलते ही आप के पीछे पूरा कारवां होगा- नीतू श्रीवास्तव

नीतू श्रीवास्तव, समाजसेविका

नीतू ने समाज के निर्धनों, बेसहारों, वृद्धों, दिव्यांगों और बच्चों को भिक्षावृत्ति व महिलाओं को वेश्यावृत्ति के चंगुल से मुक्त कराया. समाजसेवा के क्षेत्र में और बेहतर कार्य करने के लिए 2 मार्च, 2019 को ‘श्रुति फाउंडेशन’ की नींव रख कर वे उपेक्षित वर्ग के उत्थान के मार्ग पर निकल पड़ीं.

बेसहारों को सहारा देने के लिए जानी जाने वाली नीतू श्रीवास्तव का जन्म छत्तीसगढ़ के भिलाई शहर में एक सामान्य परिवार में हुआ था. उन में सामाजिक हितों के लिए कार्य करने की भावना स्कूल टाइम से ही थी.

समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रैजुएट होने के साथ ही नीतू ने आईटीआई से इलैक्ट्रौनिक्स व पीजी कंप्यूटर कोर्स भी किया है. ब्यूटीशियन के तौर पर अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली नीतू श्रीवास्तव में समाजसेवा का जनून इस कदर सवार था कि उन्होंने इस की खातिर अपने पार्लर को बंद कर समाजसेवा की ओर उन्मुख होना ज्यादा बेहतर समझा. आइए, जानते हैं उन से उन के इस सफर के बारे में:

समाजसेवा के क्षेत्र में आने की पे्ररणा कहां से मिली?

समाजसेवा में आने की प्रेरणा मुझे स्कूल टाइम से मिली जब मैं स्काउट गाइड में थी. हमें मिशनरी के साथ कुष्ठ उन्मूलन शिविर में ले जाया जाता था और रोगियों की सेवा कैसे की जाती है यह सिखाया और बताया जाता था. इस तरह मेरा झुकाव दीनदुखियों की तरफ होने लगा. समय के साथ सेवा की भावना बढ़ती गई. दूसरों के दुख अपने लगने लगे तो निर्णय लिया कि चाहे कितनी भी व्यस्त दिनचर्या क्यों न हो अपना समय समाजसेवा में जरूर दूंगी और फिर इस फील्ड में आ गई.

सामाजिक संगठनों से कैसे जुड़ीं?

इस दिशा में अकेले कुछ भी करना मुमकिन नहीं था. अत: मैं समाजहित में जो भी कार्य करती, उसे फेसबुक पर शेयर कर देती, जिस से समाज के लोगों व कई सामाजिक संगठनों की नजर मुझ पर पड़ी. वहीं से मुझे कई सामाजिक संगठनों से जुड़ने के औफर मिलने लगे. इन के साथ जुड़ कर मैं ने कुछ समय ही काम किया. फिर अपने विचारों के साथ आगे बढ़ी.

भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति आज देश की 2 बड़ी समस्याएं हैं. इन के लिए अपनी जंग के बारे में बताएं?

भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति का कारण पैसों की कमी, मजबूरी व शिक्षा की कमी है, साथ ही लोगों में जागरूकता का अभाव भी एक कारण है. हम अपनी जंग के अंतर्गत इन कार्यों से जुड़े लोगों को इन के बुरे अंजाम से अवगत करा कर उन्हें इन से दूर करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें इन कार्यों से दूर कर उन के पुनरुत्थान की कोशिश कर रहे हैं.

‘बड़े सामाजिक संगठन नाम बड़े दर्शन छोटे’ इस बारे में आप का क्या कहना है और कैसे आप खुद को इस फील्ड में अलग साबित कर पा रही हैं?

बड़ेबड़े संगठन सिर्फ बाहर से बड़े लगते हैं, पर अंदर से खोखले होते हैं. अपने समाज के लोग ही जब अपने समाज की मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं तो बड़ा दुख होता है. मेरा संघर्ष यहीं से शुरू हुआ. अब मैं जमीनी स्तर पर कार्य कर के खुद को इस फील्ड में अलग साबित कर पा रही हूं. यह जरूरी नहीं कि बड़ेबड़े डोनेशन हों तभी कोई कार्य मुमकिन हो सकता है. हम शासनप्रशासन के सहयोग से भी कई कार्यों को अंजाम दे सकते हैं. मददगार और शासन के बीच की कड़ी बन कर अर्थात् बहुत से कार्य माध्यम बन कर भी किए जा सकते हैं, जो हम कर रहे हैं.

किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

कई तरह की चुनौतियां सामने आती हैं खासकर मैडिकल फील्ड में. लोगों को पैसा और मदद तो चाहिए पर करना वही चाहते हैं जो उन का मन करता है. ऐसे में हमें उन्हें बहुत समझाना पड़ता है कि हम आप के लिए जो कर रहे हैं वह सही है. कई बार जब किसी वादविवाद के कार्य में आगे आओ तो लोग बयान देने में पीछे हटने लगते हैं, जिस की वजह से कोई भी केस हलका होने लगता है.

महिलाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी?

अगर आप के अंदर जनून है और कुछ करने की चाह, तो अपने आत्मविश्वास को बनाए रखें. परेशानियों और संघर्ष के दौर से घबराएं नहीं. संघर्ष के दौर में भले ही आप के साथ कोई न हो पर कामयाबी मिलते ही आप के पीछे पूरा कारवां होगा. जब तक आप खुद अपनी काबिलीयत को नहीं पहचानेंगी कोई आप को न जानेगा और न समझेगा.

Women’s Day 2020: जानें क्या कहते हैं बौलीवुड सितारे

महिला दिवस हर साल किसी न किसी रूप में विश्व में मनाया जाता है. महिलाएं आज आजाद है, पर आज भी कई महिलाएं बंद कमरे में अपना दम तोड़ देती है और बाहर आकर वे अपनी व्यथा कहने में असमर्थ होती है. अगर कह भी लिया तो उसे सुनने वाले कम ही होते है. इस पर कई फिल्में और कहानियां कही जाती रही है पर इसका असर बहुत कम ही देखने को मिलता है. आखिर क्या करना पड़ेगा इन महिलाओं को, ताकि पुरुष प्रधान समाज में सभी सुनने पर मजबूर हो? कुछ ऐसी ही सोच रखते है हमारे सिने कलाकार आइये जाने उन सभी से,

तापसी पन्नू

महिलाओं को पुरुषों के साथ सामान अधिकार मिले. ये केवल कहने से नहीं असल में होने की जरुरत है. इसके लिए समय लगेगा, पर होनी चाहिए. महिलाओं को भी अपनी प्रतिभा को निखारने और लोगों तक पहुंचाने की जरुरत है. आज महिला प्रधान फिल्में बनती है, क्योंकि महिलाओं ने अपनी काबिलियत दिखाई है. आज दो से तीन फिल्में हर महीने महिला प्रधान रिलीज होती है और लेखक ऐसी कहानियां लिख रहे है और निर्माता निर्देशक इसे बना भी रहे है.

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आलिया भट्ट

मैं हमेशा ये कहती रही हूं कि आपके सपने को आप कैसे भी पूरा करें. आप खुद अपने आप को औरत समझकर कभी पीछे न हटें. पुरुष प्रधान समाज में हमेशा लोग कहते रहते है कि आप औरत है और आपसे ये काम नहीं होगा. मेरे हिसाब से ऐसा कुछ भी नहीं है, जो औरतें कर नहीं सकती. आपमें बस हिम्मत की जरुरत है और यही मुझे दिख भी रहा है.

अंकिता लोखंडे

 

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My Dear #saree u were, u are, and u will be my first love forever ?#saree #indianbeauty ???????

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महिला दिवस महिलाओं के लिए एक अच्छा दिन है, लेकिन हर महिला को हमारे देश में सम्मान मिलने की जरुरत है. किसी औरत पर कुछ समस्या आने पर मैं सबसे पहले उसके लिए खड़ी होती हूं. मैं थोड़ी फेमिनिस्ट हूं. इसके अलावा आज की सभी लड़कियां भी बहुत होशियार है और इसे मैं अच्छा मानती हूं, वे जानती है कि उन्हें क्या करना है. मेरी छोटी बहन भी अपने हर काम में हमेशा फोकसड रहती है और वैसे आज के यूथ भी है. ये ग्रोथ है और इसे आगे बढ़ाने में सबका सहयोग होना चाहिए. महिला सशक्तिकरण ऐसे ही होगा,लेकिन कहना बहुत मुश्किल है कि महिलाओं का विकास कितना हुआ है, क्योंकि जहाँ भी पुरुषों को मौका मिलता है, वे उसे दबाने की कोशिश करते है, ऐसे में महिलाओं को बहुत मजबूत होने की जरुरत है. यही वह पॉवर है जब आप ऐसे किसी बात के लिए ना कह सकें. ‘ना’ कहने के लिए शिक्षा जरुरी है.

काजोल

 

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Sometimes a smile just isn’t enough…… #blue #leaveitlikethat #kapilsharmashow

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महिला दिवस मनाने से महिलाओं को ख़ुशी नहीं मिल सकती. उन्हें अलग नहीं बल्कि पुरुषों के समान अधिकार मिलने की जरुरत है. इसके लिए सभी महिलाओं को साथ मिलकर काम करनी चाहिए, क्योंकि अधिकतर एक महिला दूसरे को नीचा दिखाती है, जो ठीक नहीं. इसके अलावा एक माँ को अपने बेटे को मजबूती से परवरिश करने की जरुरत है , ताकि बड़े होकर वह किसी भी महिला को सम्मान दे सके.

नीना कुलकर्णी

महिलाओं पर अत्याचार सालों से होता आया है, पहले वे बंद कमरे में रहकर इसे सहती थी, क्योंकि कोई जानने या सुनने पर शर्म उस महिला के लिए ही होती थी, पर आज महिलाओं ने अपनी आवाज बुलंद की है और आगे आकर अपराधी को दंड देने से नहीं कतराती. इसमें भागीदारी सभी महिलाओं की जरुरी है, ताकि ऐसे दौर से गुजरने वाली किसी भी महिला को न्याय मिले, भूलकर भी कभी उनकी आलोचना न करें.

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प्रणाली भालेराव

महिला प्यार और केयर की प्रतिमूर्ति है. जितना एक महिला इसे कर सकती है, उतना कोई नहीं कर सकता. इसलिए इसके माँ, बहन, बेटी आदि कई रूप में देखने को मिलती है. महिला दिवस केवल एक दिन ही नहीं. बल्कि हमें हर दिन उतना ही प्यार, केयर और सम्मान उन्हें देनी चाहिए, जो हर रूप में हर दिन हमारे आसपास रहती है. तभी कोई आगे बढ़ सकता है. महिलाओं को भी अपनी देखभाल बिना डरे अपने लिए करनी चाहिए. मैंने वैसा ही किया और आज मुझे सबका सहयोग मिला है. गृहशोभा की सभी महिलाओं को महिला दिवस की शुभ कामनाएं देती हूं, ताकि वे हमेशा अपने जीवन में खुश रहे.

राजीव खंडेलवाल

 

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महिला दिवस मेरे लिए बहुत ख़ास है और मैं इस दिन को अपने पूरे परिवार के साथ मनाना पसंद करता हूं, क्योंकि मेरे आसपास महिलाएं ही किसी न किसी रूप में मेरे साथ है और उनकी वजह से मैं यहाँ तक पहुंच पाया हूं. ये केवल एक दिन नहीं हर दिन उनको ही समर्पित है. मैं उन्हें हमेशा सम्मान देता हूं, क्योंकि उनके बिना किसी की जिंदगी संभव नहीं.

मैं बैलेंस्ड मौम बनना पसंद करती हूं न कि परफैक्ट मौम- अनुजा कपूर

अनुजा कपूर

सामाजिक कार्यकर्ता

अनुजा कपूर क्रिमिनल साइकोलौजिस्ट हैं. कई समाचार चैनल व पत्रपत्रिकाएं उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए आमंत्रित करते रहते हैं. अनुजा एलएलबी की डिग्री हासिल कर बतौर अधिवक्ता काम कर रही हैं. वे ‘निर्भया एक शक्ति’ नामक एनजीओ की संस्थापक भी हैं, जिस का उद्देश्य पीडि़तों के लिए काम करना है. अनुजा कपूर को सिटी राइजिंग स्टार अवार्ड समारोह में ‘आउटस्टैंडिंग अचीवर अवार्ड’ से सम्मानित किया गया. ‘सर्वश्रेष्ठ क्रिमिनल साइकोलौजिस्ट अवार्ड’ और ‘सर्वश्रेष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता’ के पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है. आइए, आप को अनुजा कपूर से हुई मुलाकात से रूबरू कराते हैं: 

सवाल- आप को जिंदगी में कितना संघर्ष करना पड़ा?

मेरा संघर्ष कभी खत्म नहीं हुआ और सच कहूं तो हर स्त्री के लिए संघर्ष घर से तब से शुरू हो जाता है जब वह कहती है कि घर से बाहर काम करेगी. मेरा पहला संघर्ष था अपनेआप से, फिर इनलाज से, फिर पति और अपने मांबाप से. शादी के 13 साल बाद मैं ने अपनी अधूरी पढ़ाई फिर से शुरू की. अपनी ग्रैजुएशन कंप्लीट की.2007 में मु झे ब्रेन ट्यूमर हो गया. तब एहसास हुआ कि पलंग पर मरने से अच्छा है वह कर लूं जो करना चाहती हूं. सब को खुश नहीं कर सकती पर कम से कम खुद को तो खुश करूं. मैं ने क्रिमिनोलौजी की पढ़ाई की. फिर विक्टिमोलौजी और फोरेंसिक साइंस की पढ़ाई की. इस के बाद लौ पढ़ा ताकि अपने पास आए केसेज को न्याय दिला सकूं. इस दौरान मानसिक और भावनात्मक शोषण भी काफी हुआ. मैं मौडल टाउन थाना की औनरेरी स्पैशल पुलिस औफिसर हूं. अत: वहां पुलिस वालों के साथ उठनाबैठना पड़ता है. उन की कई गलत बातें भी सुननी पड़ती हैं. मैं लौयर भी हूं तो अपने सीनियर्स की बातें भी सुननी पड़ती हैं. उन की घूरती नजरों का सामना भी करना पड़ता है. आदमी की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि उस की नजरें आप के दिमाग या खूबियों से ज्यादा आप की खूबसूरती पर रहती हैं.

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सवाल- आप काम के साथ बच्चों की केयर कैसे करती हैं?

मेरा हमेशा यही प्रयास रहा है कि मेरा काम भी प्रभावित न हो और बच्चों की बेहतर केयर भी कर सकूं. मैं वीडियोकौल या फोन पर हमेशा उन के टच में रहती हूं. जब वे छोटे थे तो कई बार काम से जल्दी घर आ जाती थी. हैल्पर्स भी रखे हुए हैं और फोन पर अपना काम भी हैंडल करती रहती हूं. मैं हमेशा कोशिश करती हूं कि कम समय में ज्यादा से ज्यादा काम निबटा सकूं. अपना ज्यादा समय बच्चों को दे सकूं.

सवाल- आप अपने बच्चों के लिए कैसी मौम हैं स्ट्रिक्ट या लिबरल?

बच्चे यदि गलत काम करते हैं तो डांटती हूं और अच्छा काम करते हैं तो उन्हें रिवार्ड भी देती हूं. दरअसल, मैं बैलेंस्ड मौम बनना पसंद करती हूं न कि परफैक्ट मौम.

सवाल-एक मां के रूप में आप को सब से ज्यादा खुशी कब होती है?

सब से पहले जब बच्चों को जन्म दिया था तब खुशी हुई और फिर जब उन्हें इस लायक बना सकी कि वे औरतों की इज्जत करें, अपने मांबाप और देश का नाम रोशन करें. मु झे खुशी होती है कि मेरे दिए संस्कारों की वे इज्जत करते हैं.

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सवाल- जिंदगी में सब से ज्यादा डर किस चीज से लगता है?

मु झे इस बात का डर रहता है कि कहीं अनजाने में भी मैं किसी का दिल न दुखाऊं. किसी के भी साथ अन्याय न करूं.

सवाल- अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहेंगी?

अपनी टीम को, बच्चों को और अपने पति को.

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