सुबह का भूला: भाग-4

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लेकिन दारजी हार मानने वाले इंसान नहीं थे. उन्हें झटका अवश्य लगा था, वे कुछ समय के लिए निढाल जरूर हो गए थे किंतु वे इस व्यथा के आगे घुटने नहीं टेकेंगे. उन्होंने आगे बात संभालने के बारे में विचारना आरंभ कर दिया.

सुबह केट को बदहवासी की हालत में देख बीजी ने पूछा, ‘‘क्या हो गया,

पुत्तरजी?’’ केट ने उन्हें जो बताया तो उन के पांव तले की जमीन हिल गई. अनीटा गर्भवती थी. और उस का बौयफ्रैंड, वह काला लड़का कालेज में दाखिला ले, दूसरे शहर जा चुका था. अब घबरा कर अनीटा ने यह बात अपनी मां को बतलाई थी. बीजी के जी में तो आया कि अनीटा के गाल लाल कर दें किंतु दूसरे ही पल अपनी पोती के प्रति प्रेम और ममता उमड़ पड़ी. केट के साथ वे भी गईं डिस्पैंसरी जहां से उन्हें अस्पताल भेजा गया गर्भपात करवाने. सारे समय बीजी, अनीटा का हाथ थामे रहीं.

अब यदि बीजी उसे ‘अनीटा’ की जगह आदतानुसार ‘अनीता’ पुकारतीं तो वह नाकभौं न सिकोड़ती थी. केट ने भी उस में यह बदलाव अनुभव किया था जिस से वह काफी खुश भी थी. बीजी उसे अपने देश अपने गांव की कहानियां सुनातीं. इसी बहाने वे उसे भारत की संस्कृति से अवगत करातीं. दादीनानी की कहानियां यों ही केवल मनोरंजक मूल्य  के कारण लोकप्रिय नहीं हैं, उन में बच्चों में अच्छी बातें, अच्छी आदतें, अच्छे संस्कार रोपने की शक्ति भी है. अनीटा भी, खुद ही सही, राह चुनने में सक्षम बनती जा रही थी. उस में बड़ों के प्रति आदरभाव जाग रहा था.

अनीटा की ओर से बीजी व दारजी अब निश्ंिचत थे. परंतु दारजी के गले की फांस तो जस की तस बरकरार थी. जितना समय बीत जाता, उतना ही नुकसान होने की आशंका में वृद्धि होना जायज था. उन्हें जल्द से जल्द इस का हल खोजना था. अनुभवी दिमाग चहुं दिशा दौड़ कर कोई समाधान ढूंढ़ने लगा.

शाम को दफ्तर से लौट कर केट ने सब को सूप दिया. बीजी और अनीटा बालकनी में बैठे सूप स्टिक्स का आनंद उठा रहे थे. सतविंदर अभी लौटा नहीं था. सुनीयल ने कक्ष में प्रवेश किया कि दारजी बोलने लगे, ‘‘बेटा सुनीयल, फ्रांस के नीस शहर में हुए हमले की खबर सुनी? इन आतंकवादियों को कोई खुशी नसीब नहीं होगी, ऊंह, बात करते हैं अमनशांति की. बेगुनाहों को अपने गरज के लिए मरवाने वाले इन खुदगरजों को इंसानियत कभी भी नहीं बख्शेगी.’’

दारजी का तीर निशाने पर लगा. सुनीयल फौरन आतंकवादियों का पक्ष लेने लगा, ‘‘आप को क्या पता कौन होते हैं ये, क्या इन का उद्देश्य है और क्या इन की विचारधारा? बस, जिसे देखो, अपना मत रखने पर उतारू है. सब आतंकवादी कहते हैं तो आप ने भी कह डाला, ये आतंकवादी नहीं, जिहादी हैं. जिहाद का नाम सुना भी है

आप ने?’’

‘‘शायद तू भूल गया कि मैं भारत में रहता हूं जहां आतंकवाद कितने सालों से पैर फैला रहा है. और तू जिस जिहाद की बात कर रहा है न, मैं भी उसी सोच पर प्रहार कर रहा हूं. यदि जिहाद से जन्नत का रास्ता खुलता है तो क्यों इन सरगनाओं के बच्चे दूर विदेशों में उच्चशिक्षा प्राप्त कर सलीकेदार जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं, क्यों नहीं वे बंदूक उठा कर आगे बढ़ते? और ये सरगना खुद क्यों नहीं आगे आते? स्वयं फोन व सोशल मीडिया के पीछे छिप कर दूसरों को निर्देश देते हैं और मरने के लिए, दूसरों के घरों के बेटों को मूर्ख बनाते हैं.

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‘‘तुम्हारी पीढ़ी तो इंटरनैट में पारंगत है. साइट्स पर कभी पता करो कि जिन घरों के जवान बेटे आतंकवादी बन मारे जाते हैं उन का क्या होता है. जो बेचारे गरीब हैं, उन्हें ये आतंकवादी पैसों का लालच देते हैं, और जो संपन्न घरों के बच्चे हैं उन का ये ब्रेनवौश करते हैं. जब ये जवान लड़के मारे जाते हैं तो इन की आने वाली पीढ़ी को भी आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने की प्राथमिकता दी जाती है. अर्थात खुद का जीवन तो क्या, पूरी पीढ़ी ही बरबाद. लानत है इन सरगनाओं पर जो अपने घर के चिरागों को बचा कर रखते हैं और दूसरे घरों के दीपक को बुझाने की पुरजोर कोशिश में लगे रहते हैं.’’

दारजी ने कुछ भी सीधे नहीं कहा, जो

कहा आज के आम माहौल पर कहा. फिर भी वे अपनी बातों से सुनीयल के भटकते विचारों में व्याघात पहुंचाने में सफल रहे. कुछ सोचता सुनीयल लंदन के सर्द मौसम में भी माथे पर आई पसीने की बूंदें पोंछने लगा. बुरी तरह मोहभंग होने के कारण सुनीयल शक्ल से ही व्यथित दिखाई देने लगा. मानो दारजी के शब्दों की तीखी ऊष्मा की चिलकियां उस की नंगी पीठ पर चुभने लगी थीं.

अगले 3 दिनों तक सुनीयल अपने कमरे से बाहर नहीं आया. उस के कमरे की

रोशनी आती रही, फोन पर बातों के स्वर सुनाई देते रहे. परिवार वाले नेपथ्य से अनजान थे. सो, चिंतामुक्त थे. दारजी के कदम सुनीयल के कक्ष के बाहर टहलते रहते किंतु खटखटाना उन्हें ठीक नहीं लगा. उन्हें अपने खून और अपनी दिखाई राह पर विश्वास था. आखिर तीसरे दिन जब दरवाजा खुला तब सुनीयल ने दारजी को अपने समक्ष खड़ा पाया. उन की विस्फारित आंखों में प्रश्न ही प्रश्न उमड़ रहे थे. सुनीयल ने बस एक हलकी सी मुसकान के साथ उन के कंधे पर हाथ रखते हुए केट से कहा, ‘‘मौम, मैं पाकिस्तान नहीं जा रहा हूं. इतना खास कोर्स नहीं है वह, मैं ने पता कर लिया है.’’ दारजी ने झट सुनीयल को सीने से चिपका लिया.

सप्ताहांत पर सतविंदर जब बीजी व दारजी के भारत लौटने की टिकट बुक करने इंटरनैट पर बैठा तो यात्रा की तारीख पूछने की बात अनीटा ने सुन ली.

‘‘बीजी, क्या मैं आप के साथ भारत चल सकती हूं?’’ रोती हुई अनीटा को बीजी ने गले से लगा लिया.

‘‘तेरा अपना घर है पुत्तर, चल और जब तक दिल करे, रहना हमारे पास.’’

‘‘मुझे यहीं छोड़ जाओगे क्या दारजी,’’ सुनीयल भी सुबक रहा था.

हवाईजहाज की खिड़की से जब बीजी और दारजी आकाश में तैर रहे बादल के टुकड़ों को ताक रहे थे, तब केट और सतविंदर के साथ कभी सुनीयल तो कभी अनीटा फैमिली सैल्फी लेने में मग्न थे.

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