अमित बैजनाथ गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार
राजस्थान के जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर और सीमावर्ती क्षेत्रों में राजे-रजवाड़ों और उनके बाद राजपूत जमींदारों के घरों में पुरुष सदस्य की मौत पर रोने का काम करने वाली रुदालियों की जब भी बात आती है, तो लेखिका महाश्वेता देवी के कथानक पर साल 1993 में कल्पना लाजमी निर्देशित फिल्म ‘रुदाली’ का चित्र अनायास सभी की आंखों के आगे ठहर जाता होगा!
उसकी पात्र शनिचरी के जरिए महाश्वेता देवी ने अपनी किताब में रुदालियों का जो वर्णन किया है, उसके अनुसार रुदाली काले कपड़ों में औरतों के बीच बैठकर जोर-जोर से छाती पीटकर मातम मनाती हैं. यह मातम मौत के 12 दिन बाद तक चलता है. कहते हैं कि इसमें जितनी ज्यादा नाटकीयता होती है, उतनी ही इसकी चर्चा होती है. अब साक्षरता बढ़ रही है और तेजी से पलायन भी हो रहा है. लोग अब शांतिपूर्वक तरीके से अंतिम प्रक्रिया को प्राथमिकता दे रहे हैं. इससे रुदालियों की अहमियत कम हो रही है. कुछ लोगों का कहना है कि रुदालियां अब नहीं रहीं. फिल्म में रुदालियों की चर्चा कल्पनात्मक ज्यादा है, असलियत कम.
1. …पर आज भी हैं रुदालियां
रुदालियों की कहानी का मौजूदा पहलू यह है कि जोधपुर के शेरगढ़ व पाटोदी, बाड़मेर के छीतर का पार, कोटड़ा, चुली व फतेहगढ़ और जैसलमेर के रामदेवरा व पोकरण जैसे गांवों में आज भी रुदालियां हैं. हालांकि रुदालियों का दायरा अब काफी हद तक सिमट रहा है. अब राजपूत जमींदारों का वह प्रभाव ही नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था. ये रुदालियां न केवल गंजू और दुसाद जातियों से हैं, बल्कि उनसे भी ज्यादा भील और निम्न जातियों से आती हैं. सभी रुदालियां विधवा होती हैं. इन्हें अशुभ ही माना जाता है. समाज इनके साथ वैसे ही पेश आया है, जैसे पति के मर जाने के बाद महिला पर नजर गड़ाकर बैठे लोग पेश आते हैं.
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2. कुछ नाता गईं, कुछ उलझी रहीं
इन विधवा रुदालियों में से अधिकतर ने समाज-पंचों के फैसले के आगे अपना सिर झुकाते हुए नाता प्रथा (परिवार में ही देवर-जेठ से ब्याह कर लेना) को अपना लिया. कुछ जिंदगी के भंवर में उलझी रहीं और विधवा होने का दंश हमेशा उनके साथ चलता रहा. इन्होंने रुदाली का पेशा अपना लिया, लेकिन रोने के काम से पेट नहीं भरता. कोई रोज-रोज मरता नहीं, तो रोज-रोज रोने का स्वांग किसके लिए करें! काम नहीं तो पैसे नहीं! इसके लिए ये रुदालियां आज मजदूरी, खेती-बाड़ी और पशुपालन का काम भी कर रही हैं. रुदालियों को प्रतिबंधित खेजड़ी और रोहिड़ा के पेड़ों को काटने के लिए भी बुलाया जाता है. पैसे लेकर रुदाली इन पेड़ों को काटती भी हैं. कुछ गांवों में तो रुदाली बनने वाली इन विधवाओं को सख्त हिदायत है कि सुबह-सुबह घर से बाहर ना निकलें. इन्हें आज भी अशुभ और मनहूस ही माना जाता है.
3. उम्र तय करती है पहनावा
रुदालियों का पहनावा इनकी उम्र तय करती है. मसलन, कम उम्र की विधवा है तो हलके हरे रंग के कपड़े. वहीं अगर उम्रदराज विधवा है, तो गाढ़े लाल रंग की चुनर. उस पर उकेरे हुए काले मोर पंख. गहरे लाल रंग की कुर्ती-कांचली और उसी रंग की छोटी मगजी (लहंगे के नीचे दूसरे कपड़े से मढ़ा हुआ कपड़ा) वाला धाबला (बिना कली का लहंगा). अक्सर कहा जाता है कि रुदालियों को गांव के बाहर ही रहना पड़ता है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है. असल में पहले राजे-रजवाड़ों के पास बहुत जमीनें हुआ करती थीं, सो वे रुदालियों को अशुभ मानकर गांव के बाहर आसरा दे देते थे. अब रुदालियां गांव के बाहर भी रहती हैं और गांव के भीतर भी. इसमें इनकी सक्षमता और अक्षमता का बहुत बड़ा योगदान है. मसलन, जो रुदालियां खेती-बाड़ी, पशुपालन और मजदूरी का काम ढंग से कर लेती हैं, उनकी आय रोने के काम पर आश्रित रुदालियों से कहीं बेहतर है. खास बात यह भी है कि रुदालियों के ये काम भी उच्च जातियों के लोगों के द्वारा ही दिए गए हैं.
4. समूह गीतों में जीवन का दर्द
जहां तक गांव से बाहर रहने की बात है तो जोधपुर, बाड़मेर और जैसलमेर के कुछ गांवों में गांव की ओरण में उन्हें बसेरा दे दिया जाता है. मसलन, जहां गांव का आखिरी घर आ जाए, वहीं से रुदालियों का पहला घर शुरू हो जाता है. इनके घर छप्पर और कच्ची मिट्टी के बने होते हैं. इन घरों की बेरंगत आने वाले को इनके जीवन के सच को आसानी से महसूस करा देती है. एक सच यह भी है कि समाज के ठेकेदारों की गंदी निगाहों से रुदालियां भी अछूती नहीं रही हैं. रोने को रिवाज में तब्दील करने वाली इन रुदालियों को भी जबर्दस्ती का सामना करना पड़ा है. इन गांवों में आज भी रुदालियों को अपने समूहों में गीत गाते हुए देखा जा सकता है. इन गीतों में वे अपने दु:ख को भली-भांति बयां कर देती हैं.
5. मरने पर कोर्ई नहीं रोता…
आज रुदालियों के पास जब मातम का काम नहीं होता है, तो वे मजूदरी व खेती-बाड़ी का काम करती हैं. नाममात्र की मजदूरी के अलावा कुछ लोग इन्हें बचा हुआ खाना और पहनने को कपड़े दे देते हैं. हालांकि अब रुदालियों के जीवन में कुछ जगह बदलाव है, तो कुछ जगहों पर धर्म के ठेकेदारों ने परिस्थितियां बदल दी हैं. कुछ रुदालियों की रो-रोकर छातियां सूख गई हैं, अब वे रोने के काम में पहले जैसी हुनरमंद नहीं रहीं. रोने का भी रिवाज भी अब घरों की बंद ड्योढ़ी में सिमटता जा रहा है. वृद्ध हो गई रुदाली के मर जाने पर तो रोने वाला भी कोई नहीं होता. नई रुदालियां कम होने से यह पेशा सिमट रहा है.
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6. सम्मान चाहती है तिरस्कृत रुदाली
समाज में अच्छी छवि नहीं होने के कारण इनकी पीढिय़ों की लड़कियों की शादी में कठिनाइयां आ रही हैं. रुदालियों में शिक्षा का अभाव है, जिससे बदलाव आना आसान नहीं है. तिरस्कृत रहीं रुदालियां सम्मान चाहती हैं. उन्हें समाज की नजरों में खुद के लिए दया नहीं, बल्कि हक चाहिए. कुछ कर गुजरने का, आजादी से काम करने का, पढ़ने-लिखने का, अपने लिए जीवन साथी चुनने का.
हां, विधवा होने पर जीवन को खुद के हिसाब से जीने का. ना कि समाज के थोपे हुए तरीके से मर-मर के जीने का.