सुपर वूमन होती हैं हाउसवाइफ

आज के दौर में यह धारणा बढ़ रही है कि पत्नी वर्किंग होनी चाहिए तभी गृहस्थी ठीक से चल पाती है. महंगाई के साथसाथ इस की एक वजह यह भी है कि हाउसवाइफ के काम को नौकरी करने वालों के बराबर नहीं माना जाता है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में सुनवाई करते हुए बड़ी टिप्पणी की है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि हाउसवाइफ का काम नौकरी कर सैलरी लाने वाले साथी से कम नहीं होता है. कोर्ट ने हाउसवाइफ के योगदान को ‘अमूल्य’ बताया है.

रुपएपैसों से नहीं तोल सकते काम

जस्टिस केवी विश्वनाथन और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि परिवार की देखभाल करने वाली महिला का विशेष महत्त्व है. परिवार में उस के योगदान का रुपएपैसों से आकलन नहीं किया जा सकता है. कोर्ट ने यह टिप्पणी मोटर दुर्घटना मामले में क्लेम को ले कर सुनवाई करते हुए की.

यह है मामला

दरअसल, 2006 में एक सड़क हादसे में उत्तराखंड की एक महिला की मौत हो गई थी. वह जिस गाड़ी में सफर कर रही थी, उस का बीमा नहीं था. परिजनों ने बीमे का दावा किया तो ट्रिब्यूनल ने महिला के पति और नाबालिग बेटे को ढाई लाख रुपए की क्षतिपूर्ति देने का फैसला किया. परिवार के अनुसार महिला को मिलने वाली बीमा राशि को ट्रिब्यूनल ने कम आंका था.

परिवार ने अधिक मुआवजे के लिए

ट्रिब्यूनल के इस फैसले को उत्तराखंड हाई कोर्ट में चुनौती दी. हालांकि हाई कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया. हाई कोर्ट ने कहा कि ट्रिब्यूनल का फैलसा सही है. महिला गृहिणी थी इसलिए मुआवजा जीवन प्रत्याशा और न्यूनतम अनुमानित आय के आधार पर तय किया गया. ट्रिब्यूनल ने अपने फैसले में संबंधित महिला की आय किसी दिहाड़ी मजदूर से भी कम मानी थी जिस के बाद परिवार इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले कर पहुंचा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह

मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उस दृष्टिकोण पर नाराजगी जताई जिस में महिला की अनुमानित आय को दूसरे वर्किंग पर्सन से कम आंका गया था. कोर्ट ने कहा कि एक हाउसवाइफ की आय को किसी वर्किंग पर्सन से कम कैसे आंका जा सकता है. हम इस एप्रोच को सही नहीं मानते. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 6 लाख रुपए का मुआवजा देने का आदेश दिया.

शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी भी हाउसवाइफ के काम, मेहनत और बलिदान के आधार पर उस की अनुमानित आय की गणना करनी चाहिए. यदि एक हाउसवाइफ के काम की गणना की जाए तो यह योगदान अमूल्य है. सुप्रीम कोर्ट ने 6 सप्ताह के अंदर परिवार को भुगतान करने का निर्देश देते हुए कहा कि किसी को हाउसवाइफ के मूल्य को कभी कम नहीं आंकना चाहिए.

करोड़ों गृहिणियों को मिला सम्मान

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला और टिप्पणी भारत की उन करोड़ों महिलाओं को सम्मान देने जैसा है जो निस्स्वार्थ भाव से दिनरात सिर्फ अपने परिवार की देखभाल में जुटी रहती हैं, ऐसी गृहिणियां जो अपनी सेहत की परवाह किए बिना पूरे परिवार की सेहत का ध्यान रखती हैं, जिन्हें साल में कोई छुट्टी नहीं मिलती. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की करीब 159.85 मिलियन महिलाओं ने घरेलू काम को अपनी प्राथमिकता बताया था. वहीं पुरुषों का आंकड़ा महज 5.79 मिलियन था.

रोज करती हैं 7 घंटे घरेलू काम

आइआइएम अहमदाबाद के अध्ययन के अनुसार भारत में महिलाओं और पुरुषों के बीच अवैतनिक काम के घंटों में बड़ा अंतर है. देश में 15 से 60 साल तक की महिलाएं रोजाना औसतन 7.2 घंटे घरेलू कामों में बिताती हैं. इस काम के बदले उन्हें कोई वेतन नहीं दिया जाता है. वहीं पुरुष ऐसे कामों में प्रतिदिन 2.8 घंटे बिताते हैं.

 

Monsoon Special: प्रेगनेंसी में रखें इन 7 बातों का ध्यान

गर्भवती होने के साथ ही एक औरत का जीवन जहां नई उम्मीदों से भर जाता है वहीं आने वाले दिनों की चिंता भी सताने लगती है. ये चिंता खुद से ज्यादा गर्भ में पल-पल सताती है. इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि गर्भावस्था वो समय है जब एक महिला को सबसे ज्यादा देखभाल और परहेज की जरूरत होती है.  गर्भवती महिलाएं गर्भावस्था के समय रखे विशेष ख्याल. प्रेगनेंसी में रखें इन 7 बातों का ध्यान.

  1.  शरीर में पानी की कमी न होने दें. अपने डाक्टर की सलाह से पानी के अलावा नारियल पानी, जूस इत्यादि का सेवन बढ़ा दें.
  2. गर्भावस्था के दौरान कब्ज की समस्या कुछ महिलाओं में बढ़ जाती है. अत: दिन में थोड़ेथोड़े अंतराल पर फाइबर फूड का सेवन करती रहें. मैटाबोलिक रेट सही रहेगा तो कब्ज की समस्या नहीं होगी.
  3. ओटीसी यानी ओवर द काउंटर दवाओं का सेवन अपने अनुसार न करें क्योंकि गर्भावस्था में शरीर बदलावों से गुजर रहा होता है. ऐसे में आप की एक गलती आप के साथसाथ आने वाले बच्चे की जान भी जोखिम में डाल सकती है.
  4. ज्यादा कैफीन के साथसाथ नशीली चीजों से भी दूरी बना लें. नशीली चीजों के सेवन से बच्चे के मानसिक विकास पर गहरा असर पड़ता है. कई बार गर्भपात की समस्या भी हो जाती है.
  5. कच्चा पपीता, आधा पका अंडा, अंकुरित अनाज और कच्चा मांस बिलकुल न खाएं. ऐसा करने से बच्चे के विकास में खतरा पैदा हो सकता है. फिश से भी दूरी बना लें.
  6. नौर्मल डिलिवरी की चाह है तो डाक्टर की सलाह से किसी ऐक्सपर्ट की निगरानी में व्यायाम करें. रोजमर्रा के कुछ काम खुद करने की कोशिश करें. टहलना अपनी दिनचर्या में जरूर शामिल करें.
  7. कीगल व्यायाम कर सकती हैं. ऐक्सपर्ट की सलाह से यह व्यायाम उन महिलाओं के लिए बेहद फायदेमंद है जिन्हें यूटीआई की समस्या है. यह व्यायाम यूरिन फ्लो कंट्रोल करने में मदद करता है.

Corona: औरत के कंधे पर बढ़ा बोझ

कोरोना ने भारत की गृहणियों की प्राथमिकताओं, आवश्यकताओं, आदतों और नीतिनियमों में बहुत बड़ा परिवर्तन किया है. मात्र डेढ़ साल में सदियों की मजबूत परंपराएं, जिन्हें निभाना भारतीय औरत की मजबूरी बन चुकी थी, चरमरा कर टूट गयी हैं. इस आपदा काल में बहुत से परिवार बिखर गए हैं. बहुतेरे आर्थिक तंगी और कर्ज की चपेट में हैं. बहुतों ने अपनों को खो दिया है.

घर का कमाऊ व्यक्ति कोरोना के कारण अकाल ही काल का ग्रास बन गया तो घर, बच्चों और वृद्धों की देखभाल का जिम्मा अकेली औरत के कंधों पर आ गया है. कोरोना ने कई दिशाओं से महिलाओं को प्रभावित किया है. कोरोना से उपजी त्रासदी से कुछ महिलाएं बहुत मजबूर और निराश हैं तो कुछ जिम्मेदार और मजबूत हो गई हैं.

देश में कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा सवा दो लाख के पार हो चुका है. हर दिन यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है. पिछले साल जहां मरने वालों में ज्यादा संख्या बुजुर्गों की थी, वहीं इस साल कोरोना का नया स्ट्रेन जवान लोगों को अपना ग्रास बना रहा है. मरने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है.

ऐसे में भरी जवानी में सुहाग उजड़ जाने से जवान औरतें जहां एक ओर पति को खो देने के गम से निढाल हैं, तो वहीं दूसरी ओर अब भविष्य का क्या होगा, बच्चों की परवरिश, उन की पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह कैसे होगा, बुजुर्गों का दवाइलाज कैसे होगा, घर चलाने के लिए पैसे कहां से आएंगे, इन चिंताओं ने उन्हें बेहाल कर रखा है.

उजड़ गया परिवार

लखनऊ की रूपाली पांडेय की उम्र अभी सिर्फ 28 साल की है. गोद में 3 साल का बच्चा है. पिछले साल मई माह में रूपाली के पति श्याम पांडेय को कोरोना हुआ. पासपड़ोस को पता न लग जाए और उन के परिवार का घर से निकलना बाधित न हो जाए, लिहाजा कोरोना टैस्ट नहीं करवाया. घर में ही बुखारखांसी की दवाएं लेता रहा. बाहर जा कर रोजमर्रा के सामान की खरीदारी करना भी जारी रहा.

जब सांस लेने में तकलीफ होने लगी और कमजोरी के कारण सुबह बिस्तर से उठना भी मुश्किल होने लगा तब सिविल अस्पताल के कोरोना वार्ड में भरती हुआ. 1 हफ्ता रूपाली बच्चे को ले कर सिविल अस्पताल के चक्कर लगाती रही, मगर कोरोना वार्ड में पति से मिलने में असफल रही. 8 दिन बाद पता चला पति की मौत हो गई.

रूपाली की ससुराल और मायका फरूखाबाद में है. उस के मातापिता नहीं हैं. मायके में बड़ा भाई और उस का परिवार है. भाई से कोई ज्यादा सपोर्ट नहीं है.

वहीं ससुराल में उस के पति के नाम पर थोड़ी जमीन है, जिस पर ननद और उस का परिवार लंबे समय से काबिज है. बूढ़ी सास है, जो ननद के ऊपर आश्रित है और उस के साथ ही रहती है और उसी की बात सुनती है. भाभी अपनी जमीन न मांग ले इस डर से भाई की मौत पर रूपाली की ननद लखनऊ भी नहीं आई. बहाना था लाकडाउन का.

पति के दाहसंस्कार का सारा काम नगर निगम के लोगों की मदद से रूपाली ने अकेले किया. कुछ समय बाद भाई मिलने आया और  5 हजार रुपए उस के हाथ पर रख गया.

ये भी पढ़ें- क्या इंसानों पर राज करेंगे Future के रोबोट?

बड़ी चिंता

रूपाली के आगे बड़ी चिंता अब अकेले अपने बेटे को पालने की है. रूपाली 12वीं पास है, मगर शादी से पहले या बाद में उसे कभी नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ी थी. परिवार की औरतों ने कभी बाहर नौकरी की भी नहीं. रूपाली का पति एक फैक्टरी में काम करता था, जहां कोई प्रौविडैंट फंड या अन्य भत्ते नहीं थे.

महीने की सूखी तनख्वाह थी जो महीना खत्म होतेहोते खत्म हो जाती थी. बैंक में भी बड़ी मुश्किल से जोड़े हुए 8-10 हजार रुपए ही हैं. लेदे कर एक कमरे का छोटा सा घर ही है, जो उस का अपना है. बीते 10 महीनों से रूपाली ने कुछ आसपास के बड़े घरों में खाना बनाने का काम शुरू किया है. वह 5 घरों में अलगअलग समय पर जा कर खाना बनाती है, कुछ में दोपहर का और कुछ में रात का, जिस से महीने के करीब क्व10 हजार मिल जाते हैं. इसी से गुजारा चल रहा है. मगर कोरोना जैसेजैसे अपना खतरनाक रूप दिखा रहा है, लोग बाहर से कामवालियों का घर आना बंद कर रहे हैं तो रूपाली को भी डर  सताने लगा है

कि वह जिन घरों में जाती है अगर उन्होंने भी उस का आना बंद कर दिया तो वह क्या करेगी.

दिल्ली के बदरपुर इलाके में रहने वाली रेखा के आगे भी कोरोना ने पैसों का बड़ा संकट खड़ा कर दिया है. रेखा विधवा है और 2 बेटियों की मां है. वह कोरोनाकाल से पहले तक डोर टु डोर ब्यूटीशियन का काम करती थी. इस में अच्छी कमाई हो जाती थी. बीते डेढ़ साल से उस का यह काम ठप्प हो गया है.

कोरोना के डर से क्लाइंट अब उसे घर नहीं बुलाते हैं. ऐसे में 2 छोटी बेटियों के साथ जीवन निर्वाह में कठिनाई पैदा हो गई है. बैंक में जो थोड़ी बचत थी वह इस दौरान खत्म हो चुकी है.

अब रेखा ने घर के ही एक हिस्से को ब्यूटीपार्लर बना दिया है. मगर उस की मुश्किल यह है कि आसपास की आबादी गंवई है, जिस की पार्लर आदि में कोई दिलचस्पी नहीं है और उस के पास पैसे भी नहीं हैं. रेखा का 1-1 दिन चिंता और परेशानी में गुजर रहा है. बीते 1 हफ्ते से उस ने पार्लर के बाहर दूध बेचना शुरु कर दिया है, मगर उस में मुनाफा बहुत कम है ऊपर से एकाध पैकेट फट जाए तो मुनाफे से ज्यादा नुकसान हो जाता है.

रेखा कहती है कि दोनों बेटियों की औनलाइन पढ़ाई बंद कर दी है. न फीस देने के पैसे हैं न उन के मोबाइल फोन बारबार रिचार्ज कराने के. आने वाले दिन पेट भर खाना मिल जाए इसी चिंता में हूं.

कन्नी काट लेते रिश्तेदार

लखनऊ की ही 38 साल की अपराजिता मेहरा के पति 7 दिन तक कोरोना से जूझने के बाद चल बसे. अपराजिता के परिवार के सभी पुरुष सदस्य कोरोना संक्रमित हैं और ऐसे में पति के शव की अंतिम क्रिया करवाने को ले कर वह, उस की सास और 9 साल का बेटा खुद को असहाय महसूस कर रहे थे.

घर में पति की लाश पड़ी थी और अंतिम क्रिया में उन की मदद के लिए कोई दोस्त, पड़ोसी या रिश्तेदार आगे नहीं आ रहा था. अपराजिता सब को फोन कर के हार गई. सब  ने कोरोना इन्फैक्शन का बहाना कर खुद को दूर कर लिया.

दरअसल, सभी को संक्रमण का डर था. तब अपराजिता को एक स्वयं सेवी संस्था ‘एक कोशीश ऐसी भी’ के बारे में फेसबुक फ्रैंड से पता चला जो कोरोना से जान गंवाने वालों का दाहसंस्कार करवाती है. अपराजिता ने फोन लगा कर मदद मांगी तो उधर से संस्था की अध्यक्षा वर्षा वर्मा ने तुरंत पहुंचने का वादा किया.

कुछ ही देर में वर्षा वर्मा अपनी टीम के साथ अपराजिता के बताए पते पर पहुंच गई और लाश को प्लास्टिक में रैप कर के श्मशान घाट ले गई. अपराजिता उन के साथ गई, जहां उस ने धार्मिक मान्यताओं को एक तरफ रख कर दाहसंस्कार की सारी रस्में खुद निभाईं.

अपराजिता अभी भी सदमे से उबर नहीं सकी है. उस की आंखों के सामने से वह दृश्य नहीं हट रहा है जब वह अकेली अपने पति की चिता के सामने खड़ी थी.

भविष्य अब अनिश्चित सा है. 9 साल का बेटा है उस की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी अब अकेले अपराजिता के ऊपर है. अपराजिता और उस के परिवार के कई दोस्त और रिश्तेदार शहर में हैं, मगर जो मुश्किल की घड़ी में पास नहीं फटके उन से और क्या उम्मीद की जा सकती है.

टूटी हैं धार्मिक रस्में

कोरोनाकाल में बहुत सी धार्मिक रस्में टूटी हैं. जिन घरों में पुरुष कोरोना की भेंट चढ़ गए और परिजनों ने जान के डर से दूरी बना ली, उन की चिताओं को श्मशान घाटों पर औरतें ही मुखाग्नि दे रही हैं. इन घटनाओं ने अंतिम क्रिया में सिर्फ पुरुषों की भागीदारी की परंपरा को खत्म कर दिया है वरना पहले स्त्री कभी श्मशान कब्रिस्तान नहीं जाती थी. उस के वहां जाने पर धर्म के ठेकेदारों ने पाबंदी लगा रखी थी.

ये भी पढ़ें- कामकाजी महिलाएं: हुनर पर भारी आर्थिक आजादी

आज कोरोना ने औरत को मजबूत और हिम्मती बना दिया है. वह अपनों के लिए घर, बाहर, अस्पताल, श्मशान आदि हर जगह लड़ रही है. वहीं पति की नौकरी न रहने पर बहुतेरी औरतें ठेला लगा कर घर चलाने लायक पैसे कमा रही है. टिफिन सिस्टम चला रही हैं. घर में सिलाई का काम करने लगी हैं.

कोरोना के कारण लाखों की तादाद में मध्यवर्गीय नौकरीपेशा महिलाओं की समस्याएं भी दोगुनी हो गई हैं. अब उन्हें घर से औफिस का काम करने के साथ ही घर का भी सारा काम संभालना पड़ रहा है. बाई के न आने से झड़ूबरतन भी करना पड़ रहा है.

कोरोना वायरस का आतंक बढ़ने के बाद महानगरों और शहरों की तमाम हाउसिंग सोसायटियों और कालोनियों में घरेलू काम करने वाली नौकरानियों के प्रवेश पर पाबंदी है. कइयों ने डर के मारे खुद ही आना बंद कर दिया है. इस की वजह से महिलाओं को अब झड़ूपोंछा से ले कर कपड़े धोने तक के तमाम काम भी करने पड़ रहे हैं.

सरकारी नौकरी करने वाली प्रीति कहती है कि बहुत मुश्किल समय है. मैं और मेरा पूरा परिवार कोरोना की चपेट में है. सभी को बुखारखांसी और कमजोरी आ रही है. मेरे पति और बच्चे अलगअलग कमरों में आइसोलेट हैं, मगर मुझे इस संक्रमण के साथ सब के लिए खाना भी बनाना है, सब को गरम पानी भी देना है. घर की साफसफाई भी करनी पड़ रही है. कपड़े भी धो रही हूं. कमजोरी के कारण हाल बुरा है, मगर सब का खयाल भी रखना है. रिश्तेदारों से ऐसे वक्त में कोई मदद नहीं ले सकती हूं. किसी को बुलाऊं तो उसे भी संक्रमण का डर रहेगा.

प्रीति जैसी हजारों महिलाएं हैं, जो खुद कोरोना संक्रमण की शिकार हैं, मगर काम से फिर भी छुटकारा नहीं है. अपनी जान दांव पर लगा कर वे अपने पति, बच्चों और घर के बुजुर्गों की ??जिंदगी बचाने में लगी हैं.

Mother’s Day Special: मां बनना औरत की मजबूरी नहीं

मातृत्व का एहसास औरत के लिए कुदरत से मिला सब से बड़ा वरदान है. औरत का सृजनकर्ता का रूप ही उसे पुरुषप्रधान समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान देता है. मां वह गरिमामय शब्द है जो औरत को पूर्णता का एहसास दिलाता है व जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती. यह एहसास ऐसा भावनात्मक व खूबसूरत है जो किसी भी स्त्री के लिए शब्दों में व्यक्त करना शायद असंभव है.

वह सृजनकर्ता है, इसीलिए अधिकतर बच्चे पिता से भी अधिक मां के करीब होते हैं. जब पहली बार उस के अपने ही शरीर का एक अंश गोद में आ कर अपने नन्हेनन्हे हाथों से उसे छूता है और जब वह उस फूल से कोमल, जादुई एहसास को अपने सीने से लगाती है, तब वह उस को पैदा करते समय हुए भयंकर दर्द की प्रक्रिया को भूल जाती है.

लेकिन भारतीय समाज में मातृत्व धारण न कर पाने के चलते महिला को बांझ, अपशकुनी आदि शब्दों से संबोधित कर उस का तिरस्कार किया जाता है, उस का शुभ कार्यों में सम्मिलित होना वर्जित माना जाता है. पितृसत्तात्मक इस समाज में यदि किसी महिला की पहचान है तो केवल उस की मातृत्व क्षमता के कारण. हालांकि कुदरत ने महिलाओं को मां बनने की नायाब क्षमता दी है, लेकिन इस का यह मतलब कतई नहीं है कि उस पर मातृत्व थोपा जाए जैसा कि अधिकांश महिलाओं के साथ होता है.

विवाह होते ही ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ के आशीर्वाद से महिला पर मां बनने के लिए समाज व परिवार का दबाव पड़ने लगता है. विवाह के सालभर होतेहोते वह ‘कब खबर सुना रही है’ जैसे प्रश्नचिह्नों के घेरे में घिरने लगती है. इस संदर्भ में उस का व्यक्तिगत निर्णय न हो कर परिवार या समाज का निर्णय ही सर्वोपरि होता है, जैसे कि वह हाड़मांस की बनी न हो कर, बच्चे पैदा करने की मशीन है.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: सास-बहू की स्मार्ट जोड़ी

समाज का दबाव

महिला के शरीर पर समाज का अधिकार जमाना नई बात नहीं है. हमेशा से ही स्त्री की कोख का फैसला उस का पति और उस के घर वाले करते रहे हैं. लड़की कब मां बन सकती है और कब नहीं, लड़का होना चाहिए या लड़की, ये सभी निर्णय समाज स्त्री पर थोपता आया है. वह क्या चाहती है, यह कोई न तो जानना चाहता है और न ही मानना चाहता है, जबकि सबकुछ उस के हाथ में नहीं होता है, फिर भी ऐसा न होने पर उस को प्रताडि़त किया जाता है.

यह दबाव उसे शारीरिक रूप से मां तो बना देता है परंतु मानसिक रूप से वह इतनी जल्दी इन जिम्मेदारियों के लिए तैयार नहीं हो पाती है. यही कारण है कि कभीकभी उस का मातृत्व उस के भीतर छिपी प्रतिभा को मार देता है और उस का मन भीतर से उसे कचोटने लगता है.

कैरियर को तिलांजलि

परिवार को उत्तराधिकारी देने की कवायद में उस के अपने कैरियर को ले कर देखे गए सारे सपने कई वर्षों के लिए ममता की धुंध में खो जाते हैं. यह अनचाहा मातृत्व उस की शोखी, चंचलता सभी को खो कर उसे एक आजाद लड़की से एक गंभीर महिला बना देता है.

लेकिन अब बदलते समय के अनुसार, महिलाएं जागरूक हो ई हैं. आज कई ऐसे सवाल हैं जो घर की चारदीवारी में कैद हर उस औरत के जेहन में उठते हैं, जिस की आजादी व स्वर्णिम क्षमता पर मातृत्व का चोला पहन कर उसे बाहर की दुनिया से महरूम कर दिया गया है.

आखिर क्यों औरत की ख्वाहिशों को ममता के खूंटे से बांध कर बाहर की दुनिया से अनभिज्ञ रखा जाता है? जैसे कि अब उस का काम नौकरी या उन्मुक्त जिंदगी जीना नहीं, बल्कि अपने बच्चे की परवरिश में अपना अस्तित्व ही दांव पर लगा देना मात्र रह गया हो.

बच्चे को अपने रिश्ते का जामा पहना कर उस पर अपना अधिकार तो सभी जमाते हैं, लेकिन जो बच्चे के पालनपोषण से संबंधित कर्तव्य होते हैं, उन का निर्वाह करने के लिए तो पूरी तरह से मां से ही अपेक्षा की जाती है. क्या परिवार में अन्य कोई बच्चे का पालनपोषण नहीं कर सकता. यदि हां, तो फिर इस की जिम्मेदारी अकेली औरत ही क्यों ढोती है?

निर्णय की स्वतंत्रता

दबाव में लिया गया कोई भी निर्णय इंसान पर जिम्मेदारियां तो लाद देता है परंतु उन का वह बेमन से वहन करता है. जब हम सभी एक शिक्षित व सभ्य समाज का हिस्सा हैं तो क्यों न हर निर्णय को समझदारी से लें तथा जिम्मेदारियों के मामले में स्त्रीपुरुष का भेद मिटा कर मिल कर सभी कार्य करें. ऐसे वक्त में यदि उस का जीवनसाथी उसे हर निर्णय की आजादी दे व उस का साथ निभाए तो शायद वह मां बनने के अपने निर्णय को स्वतंत्रतापूर्वक ले पाएगी.

एक पक्ष यह भी

कानून ने भी औरत के मां बनने पर उस की अपनी एकमात्र स्वीकृति या अस्वीकृति को मान्यता प्रदान करने पर अपनी मुहर लगा दी है.

मातृत्व नारी का अभिन्न अंश है, लेकिन यही मातृत्व अगर उस के लिए अभिशाप बन जाए तो? वर्ष 2015 में गुजरात में एक 14 साल की बलात्कार पीडि़ता ने बलात्कार से उपजे अनचाहे गर्भ को समाप्त करने के लिए उच्च न्यायालय से अनुमति मांगी थी, लेकिन उसे अनुमति नहीं दी गई. एक और मामले में गुजरात की ही एक सामूहिक बलात्कार पीडि़ता के साथ भी ऐसा हुआ. बरेली, उत्तर प्रदेश की 16 वर्षीय बलात्कार पीडि़ता को भी ऐसा ही फैसला सुनाया गया. ऐसी और भी अन्य दुर्घटनाएं सुनने में आई हैं.

बलात्कार पीडि़ता के लिए यह समाज कितना असंवेदनशील है, यह जगजाहिर है. बलात्कारी के बजाय पीडि़ता को ही शर्म और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है. ऐसे में अगर कानून भी उस की मदद न करे और बलात्कार से उपजे गर्भ को उस के ऊपर थोप दिया जाए तो उस की स्थिति की कल्पना कीजिए, वह कानून और समाज की चक्की के 2 पाटों के बीच पिस कर रह जाती है. लड़की के पास इस घृणित घटना से उबरने के सारे रास्ते खत्म हो जाते हैं और ऐसे बच्चे का भी कोई भविष्य नहीं रह जाता जिसे समाज और उस की मां स्वीकार नहीं करती.

पिछले साल तक आए इस तरह के कई फैसलों ने इस मान्यता को बढ़ावा दिया था कि किस तरह से महिला के शरीर से जुड़े फैसलों का अधिकार समाज और कानून ने अपने हाथ में ले रखा है. वह अपनी कोख का फैसला लेने को आजाद नहीं है. अनचाहा और थोपा हुआ मातृत्व ढोना उस की मजबूरी है.

लेकिन 1 अगस्त, 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार की शिकार एक नाबालिग लड़की के गर्भ में पल रहे 24 हफ्ते के असामान्य भू्रण को गिराने की इजाजत दे दी. कोर्ट ने यह आदेश इस आधार पर दिया कि अगर भू्रण गर्भ में पलता रहा तो महिला को शारीरिक व मानसिक रूप से गंभीर खतरा हो सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971 के प्रावधान के आधार पर यह आदेश दिया है. कानून के इस प्रावधान के मुताबिक, 20 हफ्ते के बाद गर्भपात की अनुमति उसी स्थिति में दी जा सकती है जब गर्भवती महिला की जान को गंभीर खतरा हो. 21 सितंबर, 2017 को आए मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले ने स्थिति को पलट दिया.

ये भी पढ़ें- फैमिली डॉक्टर है अहम

न्यायालय ने महिला के शरीर और कोख पर सिर्फ और सिर्फ महिला के अधिकार को सम्मान देते हुए यह फैसला दिया है कि यह समस्या सिर्फ अविवाहित स्त्री की नहीं है, विवाहित स्त्रियां भी कई बार जरूरी कारणों से गर्भ नहीं चाहतीं.

कोई भी महिला चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, अवांछित गर्भ को समाप्त करने के लिए स्वतंत्र है, चाहे वजह कोई भी हो. इस अधिकार को गरिमापूर्ण जीवन जीने के मूल अधिकार के साथ सम्मिलित किया गया है. महिलाओं के अधिकारों और स्थिति के प्रति बढ़ती जागरूकता व समानता इस फैसले में दिखाई देती है. अविवाहित और विवाहित महिलाओं को समानरूप से यह अधिकार सौंपते हुए उच्च न्यायालय ने लिंग समानता और महिला अधिकारों के पक्ष में एक मिसाल पेश की है.

सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला

28 अक्तूबर, 2017 को गर्भपात को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के मुताबिक, अब किसी भी महिला को अबौर्शन यानी गर्भपात कराने के लिए अपने पति की सहमति लेनी जरूरी नहीं है. एक याचिका की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने यह फैसला लिया है. कोर्ट ने कहा कि किसी भी बालिग महिला को बच्चे को जन्म देने या गर्भपात कराने का अधिकार है. गर्भपात कराने के लिए महिला को पति से सहमति लेनी जरूरी नहीं है. बता दें कि पत्नी से अलग हो चुके एक पति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. पति ने अपनी याचिका में पूर्व पत्नी के साथ उस के मातापिता, भाई और 2 डाक्टरों पर अवैध गर्भपात का आरोप लगाया था. पति ने बिना उस की सहमति के गर्भपात कराए जाने पर आपत्ति दर्ज की थी.

इस से पहले पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने भी याचिकाकर्ता की याचिका ठुकराते हुए कहा था कि गर्भपात का फैसला पूरी तरह महिला का हो सकता है. अब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस ए एम खानविलकर की बैंच ने यह फैसला सुनाया है. फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गर्भपात का फैसला लेने वाली महिला वयस्क है, वह एक मां है, ऐसे में अगर वह बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती है तो उसे गर्भपात कराने का पूरा अधिकार है. यह कानून के दायरे में आता है.

हम यह स्वीकार करते हैं कि आज कानून की सक्रियता ने महिलाओं को काफी हद तक उन की पहचान व अधिकार दिलाए हैं परंतु आज भी हमारे देश की 40 प्रतिशत महिलाएं अपने इन अधिकारों से महरूम हैं, जिस के कारण आज उन की हंसतीखेलती जिंदगी पर ग्रहण सा लग गया है.

बच्चे के जन्म का मां और बच्चे दोनों के जीवन पर बहुत गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ता है. इसलिए मातृत्व किसी भी महिला के लिए एक सुखद एहसास होना चाहिए, दुखद और थोपा हुआ नहीं.

हर सिक्के के दो पहलू

बच्चा पैदा करना पूरी तरह से महिलाओं के निर्णय पर निर्भर होने से परिवार में कई विसंगतियां पैदा होंगी.

बच्चे की जरूरत पूरे परिवार को होती है, और उसे पैदा एक औरत ही कर सकती है. ऐसे में उस के नकारात्मक रवैए से पूरा परिवार प्रभावित होगा.

मातृत्व का खूबसूरत एहसास मां बनने के बाद ही होता है. नकारात्मक निर्णय लेने से महिला इस एहसास से वंचित रह जाएगी.

सरोगेसी इस का विकल्प नहीं है, मजबूरी हो तो बात अलग है.

अपनी कोख से पैदा किए गए बच्चे से मां के जुड़ाव की तुलना, गोद लिए बच्चे या सरोगेसी द्वारा पैदा किए गए बच्चे से की ही नहीं जा सकती.

आज के दौर में महिलाएं मातृत्व से अधिक अपने कैरियर को महत्त्व देती हैं. उन की इस सोच पर कानून की मुहर लग जाने के बाद अब परिवार के विघटन का एक और मुद्दा बन जाएगा और तलाक की संख्या में बढ़ोतरी होनी अवश्यंभावी है.

ये भी पढ़ें- #coronavirus: जब एक दूसरे के सम्बल बने हम

पति या प्रेमी की दोस्त अगर महिला है तो

यह मानवीय प्रवत्ति है कि कोई भी स्त्री अपने बॉयफ्रेंड के साथ किसी दूसरी महिला को बर्दाश्त नहीं कर सकती है. लेकिन रिश्तों में खिचाव शायद इसी वजह से आने लगते हैं. जरूरी नहीं कि आपका बॉयफ्रेंड या जीवनसाथी वो सारी बातें आपसे शेयर करे जो एक्सपेक्ट करते हैं. वह अपने लाइफ में भी किसी दोस्त को बनाना चाहता है जिससे वह अपनी सारी बातें शेयर कर सके और समझ सके. लेकिन यहां ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि वह आपसे दूरी बना रहा है या आपसे ऊब गया है. बस कुछ क्षण अपने लिए बिताना चाहता है. एक रिसर्च के मुताबिक  70% रिश्तों को ऐसी सिचुएशन का सामना करना पड़ता है.  जब पुरुष के पास 30% की तुलना में महिला ही अच्छी दोस्त बनती है किसी पुरूष के बजाए.

फिलहाल, यहां सवाल है कि अगर आपका बॉयफ्रेंड किसी अन्य महिला का सबसे अच्छा दोस्त है तो उस स्थिति में आप क्या करेंगी?

अपोजिट जेंडर पर महिलाओं को संदेह

सर्वे कहता है कि किसी पुरूष का अपने अपोजिट जेंडर से संबंध हैं या वह उसके घनिष्ट है तो लगभग 60% मामलों में ऐसे रिश्ते समाप्त हो जाते हैं. इसका कारण भी है क्योंकि महिला हो या पुरूष दोनो ही अपोजिट जेंडर को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं. शोध में सामने आया है कि ऐसी स्थिति में 20% रिश्ते बर्बाद हो जाते हैं.रिश्तों में दरार इस हद तक पड़ जाती है कि इसे फिर से जोड़ा नहीं जा सकता है. 10% जोड़े ऐसे होते हैं जो ऐसा जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं और आपसी तालमेल बनाकर चलते हैं.

ये भी पढ़ें- बच्चों में डिप्रैशन से निबटना जरूरी

आपसी समझ जरूरी

शोध कहता है कि जहां आपसी समझ नहीं होती है दरार वहीं पड़ती है. ऐसे में अगर आपके बॉयफ्रेंड के पास कोई और महिला दोस्त है तो आपसी समझ इस तरह से अच्छी होनी चाहिए कि दूसरा कोई आपके रिश्तों को तोड़ने की कोशिश भी न कर सके.  अधीर बिल्कुल भी न बनें. अपने प्रेमी के साथ रोमांस करते रहें जिससे वह आपको छोड़ने की बात कभी जहन में भी न ला सके और आपका रिश्ता मजबूत बना रहे.

दोस्त को बनाएं दोस्त

जिससे आपको सबसे ज्यादा खतरा हो उसे आप अपना दोस्त बना लें क्योंकि यह सबसे अच्छा तरीका है किसी को अपनी तरफ आकर्षित करने का.  अगर आपका जीवनसाथी किसी अन्य महिला को अपना बेस्ट फ्रेंड मानता है तो आप उस महिला को ही अपना दोस्त बना लो उसे चाय पर बुलाओ और उससे अपनी बात शेयर कर उसके राज जानें.

बॉयफ्रेंड से करें दोस्त जैसा व्यवहार

अगर आपका जीवनसाथी या बॉयफ्रेंड किसी को अपना दोस्त बनाता है और अपनी बाते आपसे शेयर करने के बजाए उससे शेयर करता है तो समझ जाएं कि उसके मन में आपके लिए थोड़ा बहुत डर बैठा हुआ है. डर आपको खोने का भी हो सकता है. झगड़े का भी हो सकता है, नासमझी का भी हो सकता है. इसलिए अपने रिश्तों में थोड़ा खुलापन दीजिए और अपने बॉयफ्रेंड से फ्रेंडली बिहैव कीजिए. चाहे वह महिला हो या पुरुष दोनों को ही आपसी समझ दिखानी होगी.

ये भी पढ़ें- मां-बाप की लड़ाई में पिसते बच्चे

अपने रिश्ते को सम्मान दें

अपनी दोस्ती का सम्मान करें. रिश्तों को मजबूती लाने के लिए जरूरी है कि एक-दूसरे प्रति सम्मान की भावना होना. अगर आपका बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड किसी अन्य अपोजिट जेंडर से बात करते हैं तो जलने के बजाए तालमेल बिठाएं. साथ ही सम्मान अगर आप उन्हें देंगे तो आप अपने कलीग के और भी ज्यादा करीब पहुंचेंगे. उसके दिल में आपके लिए पहले से भी ज्यादा प्यार पनपेगा. इसलिए जरूरी है इन सारी बातों को ध्यान में रखना. रिश्तों को फिर किसी उदाहरण की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी. रिश्तों में प्यार बहुत जरूरी है होना. छलावा कभी न करें. नहीं तो इसका खामियाजा भी आप ही को भुगतना पड़ सकता है.

कामुक नजरों का शिकार बनती तलाकशुदा महिला

अंजू बहुत डरी-सहमी सी घर लौटी थी. आंखों में बार-बार आंसू भर आते थे. नन्हीं छवि को सीने से लगा कर वह बड़ी देर तक सन्नाटे में बैठी रही. अपने और अपनी बच्ची के लिए उसका नौकरी करना जरूरी था, मगर जबसे ये नया बौस रजत शर्मा औफिस में आया है, तब से अंजू का एक-एक दिन वहां मुश्किल से कट रहा है. वजह है उसकी खूबसूरती और ऊपर से उसका तलाकशुदा होना. खूबसूरत औरत अगर तलाकशुदा हो तो आदमी की ललचायी नजरें उसे नोंच खाना चाहती हैं. हर आदमी सहानुभूति और प्रेम जता कर उसे अपने बिस्तर तक ले जाना चाहता है.

आज तो कौन्फ्रेंस रूम में रजत शर्मा ने अंजू को लगभग अपनी बाहों में भींच ही लिया था. वह बड़ी मुश्किल से उसे धक्का देकर बाहर निकली थी. एक हफ्ता हो गया, रजत कई बार ऐसी हरकतें कर चुका है. एक दिन उसने लंच टाइम पर अंजू को अपने केबिन में बुला कर कौफी पिलायी और दफ्तर की कई बातों के साथ-साथ उनकी निजी जिन्दगी के बारे में भी कई बातें पूछ डालीं. बातों-बातों में उसे पता चल गया था कि अंजू का तीन साल पहले तलाक हो चुका है और इस शहर में वह अपनी छह साल की बच्ची के साथ अकेली रहती है. तलाकशुदा होने और अकेले रहने की बात पता चलते ही रजत के हौसले बुलंद हो गये. वह हर वक्त उसे घूरता रहता था.

किसी न किसी बहाने से उसकी सीट पर आ कर काफी देर तक उसके पीछे खड़ा रहता. अक्सर बात करते वक्त कभी उसके कंधे पर, कभी कमर पर हाथ रखने लगा था. एकाध बार तो अंजू ने उसकी इस हरकत को नजरअंदाज किया, मगर फिर वह उसकी आंखों से टपकती लोलुपता को समझ गयी थी. आज तो हद ही हो गई जब उसने कौंफ्रेंस रूम में उसे अकेली पाकर दबोच लिया. वह किसी तरह अपनी टेबिल पर आयी, इधर-उधर देखा कि किसी ने देखा तो नहीं.

ये भी पढ़ें- आजादी से निखरती बेटियां

उसे समझ में नहीं आ रहा था कि रजत की शिकायत वह किससे करे. उसे अच्छी तरह पता था कि हंगामा करने से उसकी अपनी बेइज्जती होगी और हो सकता है उसे इस नौकरी से भी हाथ धोना पड़े क्योंकि कम्पनी के लिए रजत शर्मा काफी महत्वपूर्ण आदमी था. उसके आने के बाद कम्पनी का काम काफी बढ़ गया था. ऐसे में अंजू को ही समझाबुझा कर खामोश कर दिया जाता या कहा जाता कि वह नौकरी छोड़ना चाहती है तो छोड़ दे.

आज अंजू को बार-बार अपने पति शरद की याद आ रही थी. उसको महसूस हो रहा था कि अपनी मां और मामी की सलाह मानकर उसने लाइफ में कितनी बड़ी गलती कर दी. छोटी सी बात पर शरद को तलाक देना उसकी कितनी बड़ी बेवकूफी साबित हो रही थी. मां और मामी अगर उसके शादीशुदा जीवन में इतनी दखलंदाजी न करतीं और वह उनकी बातों में आकर पति से आये-दिन नाजायज मांगे न करती तो शायद उसका वैवाहिक जीवन बच भी जाता और वह सुखी भी रहती. मगर उस वक्त तो उसे अपनी मां और मामी की बातें ही ज्यादा ठीक लगती थीं.

मां उकसाती कि शरद की तनख्वाह अपने हाथ में रखो, उसे अपनी मां बहन पर खर्चा मत करने दो… मामी कहती कि पति पर नकेल डाल कर रखो, वरना सारी कमाई बहन पर लुटा देगा और तुम मुंह ताकती रह जाओगी….. और वह लग गयी शरद की कमाई की पाई-पाई का हिसाब मांगने, बिना यह समझे कि घर से बाहर निकल कर एक आदमी कितनी मुश्किल से पैसा कमाता है, कैसे वह अपनी मेहनत को परिवार के हर सदस्य के बीच बांटता है ताकि सबकी जरूरतें पूरी होती रहें. मगर मां और मामी के इशारों पर नाच रही अंजू को उस वक्त इन बातों की कोई अक्ल ही नहीं थी और जब समझाने वाले ही उकसाने में लगे हों तो अंजाम बुरा ही होता है.

अंजू और शरद के बीच छोटी-छोटी नाराजगी धीरे-धीरे बड़ी बनती गयी और एक दिन दोनों तलाक लेने के लिए अदालत में जा पहुंचे. शरद की मां ने अंजू के बहुत हाथ-पैर जोड़े थे कि वह ऐसा फैसला न करे, मगर अंजू को तो तब शरद की मां-बहन दुश्मन ही दिखती थीं, वह भला उनकी बात क्यों सुनती.

शरद से तलाक लेने के तीन साल के भीतर ही अंजू को आटे-दाल का भाव समझ में आ गया. मां और मामी की बातें मान कर उसने जीवन की कितनी बड़ी गलती की यह अब पता चल रहा था. तीन साल की बच्ची को सीने से लगाये वह मायके तो लौट आयी, मगर पिता की पेंशन पर दो और प्राणियों का बोझ पड़ा तो वही मां उसे उलाहना देने से भी नहीं चूकी जो कल तक उसे उसके पति शरद के खिलाफ भड़काती थी. अंजू का भाई अपनी मां की इन्हीं हरकतों के कारण पहले ही अपनी पत्नी और बच्चों के साथ दूसरे शहर में शिफ्ट हो चुका था.

वह अपनी तनख्वाह का एक पैसा मां-बाप को नहीं भेजता था. तलाक के बाद अंजू को मुआवजे के रूप में शरद से बहुत कम पैसा मिलता था, क्योंकि शरद की तनख्वाह ज्यादा नहीं थी. ऐसे में अपना और अपनी बच्ची का खर्च चलाने के लिए अंजू को काम के लिए घर से बाहर निकलना पड़ा. वह खूबसूरत थी, लिहाजा काम तो उसे जल्दी ही मिल जाता था, मगर उसकी खूबसूरती और तलाकशुदा होना उसके लिए बड़ी मुसीबत बनती जा रही थी.

उसके बौस या मेल कुलीग्स को जैसे ही पता चलता कि वह तलाकशुदा है, वह उससे सेक्सुअल फेवर की मांग करने लगते. उससे सहानुभूति का नाटक करके उसकी नजदीकियां पाना चाहते. बीते तीन साल में अंजू पांच जगह नौकरी छोड़ चुकी थी.

अपनी बच्ची के साथ बरेली से लखनऊ शहर में आकर रहने और काम करने के पीछे भी कई वजहें थीं. बरेली में उसके मोहल्ले के कई आवारा लड़के, जो उसकी शादी से पहले उसकी खूबसूरती पर मरा करते थे, उससे छेड़छाड़ करते थे, उससे दोस्ती करने को ललायित रहते थे, तलाक के बाद उनके हौसले और बढ़ गये थे. आये-दिन वह गली से गुजरते समय उसे तंग करते, अश्लील इशारे करते, साथ चलने के औफर देते.

अगलबगल की लड़कियां और महिलाएं अब अंजू को देखते ही मुंह फेर लेती थीं, जैसे वह उस मोहल्ले के लिए कोई अपशगुनी हो. मोहल्ले के लोग उसको लेकर बातें बनाते थे. उस पर आक्षेप लगाते कि वह गलत होगी, तभी तो पति ने छोड़ दिया.

अंजू के पिता उसकी दूसरी शादी को लेकर चिन्तित थे. वह जल्दी से जल्दी इस बोझ से छुटकारा पाना चाहते थे. मंदिर के पंडित जी उनको तमाम रिश्ते सुझाते रहते थे, जिनमें अंजू की कोई दिलचस्पी नहीं थी. रिश्ते ढंग के होते तो वह एक बार सोचती भी, मगर तलाकशुदा लड़की और फिर एक बच्ची की मां के लिए तो ढंग का रिश्ता मिलना मुश्किल ही था. ज्यादातर अधिक उम्र के लोगों के रिश्ते आ रहे थे, या फिर ऐसे जो किसी न किसी तरह की अपंगता के शिकार थे. एक तो चार बच्चों के पिता थे, जो दूसरी शादी करने के इच्छुक थे, उम्र में अंजू के दोगुने थे. अंजू को ऐसे लोगों को देखकर घिन्न आती मगर अंजू के पिता के पास इतना पैसा तो था नहीं, कि भारी भरकम दहेज का लालच देकर किसी कुंवारे हैंडसम लड़के को अंजू का हाथ थामने के लिए तैयार कर लेते.ॉ

ये भी पढ़ें- घटक रिश्ते की डोर

इन सब बातों से परेशान होकर ही अंजू अपना शहर बरेली छोड़ कर लखनऊ आ गयी थी. यहां उसकी एक सहेली थी, जिसने उसे नौकरी दिलवाने का वादा किया था. उसने वादा पूरा भी किया. अंजू को एक नामी कोरियर कम्पनी में नौकरी मिल गयी, साथ ही कम किराये पर रहने के लिए ठीक-ठाक मकान भी उसने ढूंढ लिया. मगर अब यहां उसका बौस रजत शर्मा उस पर गलत निगाह रखने लगा था.

अंजू को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. वह बौस की हरकतों के खिलाफ अगर पुलिस में जाती है तो औफिस का कोई व्यक्ति उसका साथ देने को तैयार नहीं होगा. सबको अपनी नौकरी प्यारी थी. फिर कोई चश्मदीद भी नहीं था, जो इस बात की गवाही देता कि बौस ने उसके साथ कोई गलत हरकत की है.

आज अंजू को बार-बार अपने पति की याद आ रही थी. कितना प्यार करता था वह. कितनी सुरक्षित थी वह उसके साथ. उसकी तनख्वाह कम थी, मगर उसमें भी वह इस बात का पूरा ध्यान रखता था कि अंजू को किसी बात की कमी न हो. मगर अंजू ही उसे समझ न सकी.

मां और मामी के बहकावे में आकर वह अपनी सास-ननद को अपना दुश्मन मान बैठी, जबकि उसकी ननद घर के कामों में उसकी कितनी मदद करती थी. उसकी बेटी पैदा हुई तो छह महीने तक तो उसे किचेन का काम ही नहीं करने दिया था. सास भी कैसे अपनी पोती के लिए नये-नये डिजाइन के कपड़े और स्वेटर बुनने में लगी रहती थी, मगर अंजू उन लोगों का प्यार नहीं समझ पायी. उसकी आंखों पर तो मां और मामी की बातों की काली पट्टी चढ़ गयी थी. अब वह पछता रही थी. ये नौकरी भी छोड़ दी तो बच्ची के स्कूल की फीस कहां से देगी, मकान का किराया कहां से भरेगी? जब तक नयी नौकरी नहीं मिलती, घर का खर्चा कैसे चलेगा? नयी नौकरी मिलना भी तो आसान नहीं है. इस चिन्ता में वह रात भर जागती रही. सुबह आॅफिस जाने का उसका मन ही नहीं किया. बार-बार बॉस का घृणित चेहरा आंखों के आगे आ जाता और उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन सी दौड़ जाती. कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि क्या करे?

अंजू की तरह की नासमझी आज आधुनिकता की ताल पर झूमती महिलाओं में खूब देखी जा रही है. इसको हवा देने में टीवी चैनलों पर चलने वाले सास-बहू नाटक भी खूब भागीदारी निभा रहे हैं. वहीं रिश्तेदार भी पति-पत्नी के रिश्ते खराब करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. बहुत जरूरी है कि तलाक लेने का फैसला बहुत सोच समझ कर लिया जाये.

खासतौर पर निम्न और मध्यमवर्गीय परिवार की लड़कियों को, जो आधुनिकता और अपने परिजनों के प्रभाव में आकर नये रिश्ते की बारीकियों को नहीं समझ पातीं. यह बात शत-प्रतिशत सत्य है कि अगर लड़की के मायके वाले उसकी ससुराल में दखलअंदाजी करने वालें हों तो ऐसी लड़कियों का वैवाहिक जीवन को नरक बनते देर नहीं लगती है. लड़कियों को समझना चाहिए कि जिस घर में वे ब्याह कर जा रही हैं, अब वही उनका घर है. वहां के लोगों को समझना, उनका सम्मान करना, उनकी सेवा करना उसका फर्ज है. वह अपना फर्ज पूरा करेगी, तो उस घर में उसे प्यार-दुलार, सम्मान और सुरक्षा सब कुछ मिलेगी. पति के साथ औरत को सुरक्षा मिलती है, मगर उसके बिना वह ऐसा खिलौना बन जाती है, जिससे हर ऐरा-गैरा खेलना चाहता है.

इसलिए तलाक कोई समाधान नहीं है. तलाक थोड़ी देर के लिए आजादी का अहसास जरूर कराता है, मगर बाद में वही औरत के लिए एक दाग बन जाता है.

ये भी पढ़ें- कैंसर की तरह परिवार में फैलता अलगाव

पीरियड्स का नाम लेकर भोली जनता को क्यों डराते हैं स्वामी जी?

अब तक पीरियड्स को लेकर समाज में अंधविश्वास बना हुआ है. आज भी हमारे समाज में पीरियड्स के खून को गंदा माना जाता है. लड़कियां इसे छिपाने की पूरी कोशिश करती हैं. पीरियड्स के समय पर एक अजीब सी टेंशन उनके मन में बैठी रहती है. कहीं बैठने और उस जगह से उठने के बाद कई बार पीछे मुड़कर वह अपने कपड़े को चेक करती है कि अगर दाग लग जाए और किसी ने देख लिया तो क्या होगा? लोग क्या कहेंगे जैसे की उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो. जिस खून से नन्हीं सी जान का निर्माण होता है भला वो गंदा कैसे हो सकता है…

अगर किसी लड़की को पीरियड ना हो तो भी लोग उसे भला बुरा बोलते हैं, यहां तक की उसकी शादी में भी अड़चने आती हैं और अगर पीरियड्स हो तो भी उन दिनों उसे कई समस्याओं से गुजरना पड़ता है.

पीरियड्स से जुड़ी अजीबो-ग़रीब बातें…

पीरियड्स से जुड़ी कई अजीबो-ग़रीब बातें हमारे सामने आई हैं. जब मैं स्कूल में पढ़ती थी और मेरी एक सहेली को उसके घर ट्यूशन क्लास के लिए सुबह लेने गई तो देखा कि कड़ाके की ठंड में वह जमीन पर सोई थी. पूछा तो उसने बताया कि पीरियड के दिनों में उसे जमीन पर सोना पड़ता है. ऐसे ही कई और बातों से हम लड़कियों का पाला पड़ा होगा जैसे किचन में नहीं जाना है, खाना नहीं बनना है, मंदिर नहीं जाना है और हां उन दिनों तो आप पूजा भी नहीं कर सकते. यहां तक की खाने का समान भी जैसे अचार छूना भी मना होता है. क्या हम महिलाएं पीरियड्स के समय सो कॉल्ड अछूत हो जाती हैं? कई जगहों पर तो आपको अपने पति और बच्चों से भी दूर रहना पड़ता है, बस पड़े रहो घर के किसी कोने में.

ये भी पढ़ें- पांचवीं तक पढ़ी हैं उमा भारती तो 9th पास हैं तेजिस्वी यादव, जानें कितने पढ़ें-लिखे हैं ये 16 नेता

हालांकि कुछ लोग इसके प्रति जागरूक हो रहे हैं लेकिन कुछ अंधविश्वासी और पाखंडी बाब इसे धर्म से जोड़ने का काम करते हैं और लोगों के मन में डर पैदा करते हैं कि अगर पीरियड्स में आपने ऐसा नहीं किया वैसा नहीं किया तो आपके साथ कुछ गलत हो जाएगा. ढोंगी बाबाओं का काम है धर्म के नाम पर डाराना और लोगों को लूटना.

स्वामी जी की छोटी सोच…

ऐसा ही एक कुछ कहा है गुजरात के स्वामीनारायण भुज मंदिर के स्वामी कृष्णस्वरूप दास का कि, अगर पीरियड्स में महिला अपने पति के लिए खाना बनाती है तो अगले जन्म में वह ‘कुतिया’ (Bitch) बनकर पैदा होगी. ये वही मंदिर है जिसके अनुयायी की ओर से चलाए जा रहे स्कूल के हौस्टल में कुछ दिनों पहले पीरियड की जांच करने के लिए लड़कियों के अंडरवियर उतरवाने का मामला सामने आया था. लड़कियों को मजबूर किया गया था कि इस जांच के लिए वो अपने कड़ते उतारें. मामला सामने आने के बाद प्रशासन की ओर से जांच की बात भी कही गई.

दरअसल, स्वामीनारायण भुज मंदिर का अपना यूट्यूब पेज है जहां दास जी के कई वीडियो अपलोड किए गए हैं. वहीं एक वीडियो में स्वामी का कहना है कि अगर पुरुष माहवारी से गुजर रही महिला के हाथ का बना खाना खा ले तो अगले जन्म वह बैल बनेगा. ज्ञान देने वाले दास यहीं नहीं रूकते, वो आगे कहते हैं कि ये नियम शास्त्रों में लिखा है. बाकी आपको जो समझना है आप समझें. हैरानी इस बात की है कि देश के कई हिस्सों में आज भी इन बेतुके नियमों को माना जाता है.

ये भी पढ़ें- नजर: अंधविश्वास या इसके पीछे है कोई वैज्ञानिक तर्क, जानें यहां

दास जी को हम महिलाएं बताना चाहती हैं कि पीरियड में इतना दर्द होता है कि खड़े होना मुश्किल होता है खाना बनाना, घर के काम करना तो दूर की बात है. कितना अच्छा होता कि, पुरुष इस बात को समझते और इमोशनली व फिजिकली रूप से घर की महिलाओं को सपोर्ट करते ताकि हम सहेलियां एक-दूसरे को हैपी पीरियड का संदेश भेज सकतीं.

भीड़ में अकेली होती औरत

अवंतिका को शुरू से ही नौकरी करने का शौक था. ग्रैजुएशन के बाद ही उस ने एक औफिस में काम शुरू कर दिया था. वह बहुत क्रिएटिव भी थी. पेंटिंग बनाना, डांस, गाना, मिमिक्री, बागबानी करना उस के शौक थे और इन खूबियों के चलते उस का एक बड़ा फ्रैंड्स गु्रप भी था. छुट्टी वाले दिन पूरा ग्रुप कहीं घूमने निकल जाता था. फिल्म देखता, पिकनिक मनाता या किसी एक सहेली के घर इकट्ठा हो कर दुनियाजहान की बातों में मशगूल रहता था.

मगर शादी के 4 साल के अंदर ही अवंतिका बेहद अकेली, उदास और चिड़चिड़ी हो गई है. अब वह सुबह 9 बजे औफिस के लिए निकलती है, शाम को 7 बजे घर पहुंचती है और लौट कर उस के आगे ढेरों काम मुंह बाए खड़े रहते हैं.

अवंतिका के पास समय ही नहीं होता है किसी से कोई बात करने का. अगर होता भी है तो सोचती है कि किस से क्या बोले, क्या बताए? इतने सालों में भी कोई उस को पूरी तरह जान नहीं पाया है. पति भी नहीं.

अवंतिका अपने छोटे से शहर से महानगर में ब्याह कर आई थी. उस का नौकरी करना उस की ससुराल वालों को खूब भाया था, क्योंकि बड़े शहर में पतिपत्नी दोनों कमाएं तभी घरगृहस्थी ठीक से चल पाती है. इसलिए पहली बार में ही रिश्ते के लिए ‘हां’ हो गई थी. वह जिस औफिस में काम करती थी, उस की ब्रांच यहां भी थी, इसलिए उस का ट्रांसफर भी आसानी से हो गया. मगर शादी के बाद उस पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी थी. ससुराल में सिर्फ उस की कमाई ही माने रखती थी, उस के गुणों के बारे में तो कभी किसी ने जानने की कोशिश भी नहीं की. यहां आ कर उस की सहेलियां भी छूट गईं. सारे शौक जैसे किसी गहरी कब्र में दफन हो गए.

ये भी पढ़ें- बागपत के बागी

घरऔफिस के काम के बीच वह कब चकरघिन्नी बन कर रह गई, पता ही नहीं चला. शादी से पहले हर वक्त हंसतीखिलखिलाती, चहकती रहने वाली अवंतिका अब एक चलतीफिरती लाश बन कर रह गई है. घड़ी की सूईयों पर भागती जिंदगी, अकेली और उदास.

यह कहानी अकेली अवंतिका की नहीं है, यह कहानी देश की उन तमाम महिलाओं की है, जो घरऔफिस की दोहरी जिम्मेदारी उठाते हुए भीड़ के बीच अकेली पड़ गई हैं. मन की बातें किसी से साझा न कर पाने के कारण वे लगातार तनाव में रहती हैं. यही वजह है कि कामकाजी औरतों में स्ट्रैस, हार्ट अटैक, ब्लडप्रैशर, डायबिटीज, थायराइड जैसी बीमारियां उन औरतों के मुकाबले ज्यादा दिख रही हैं, जो अनब्याही हैं, घर पर रहती हैं, जिन के पास अपने शौक पूरे करने के लिए पैसा भी है, समय भी और सहेलियां भी.

दूसरों की कमाई पर नहीं जीना चाहती औरतें

ऐसा नहीं है कि औरतें आदमियों की कमाई पर जीना चाहती हैं या उन की कमाई उड़ाने का उन्हें शौक होता है. ऐसा कतई नहीं है. आज ज्यादातर पढ़ीलिखी महिलाएं अपनी शैक्षिक योग्यताओं को बरबाद नहीं होने देना चाहती हैं. वे अच्छी से अच्छी नौकरी पाना चाहती हैं ताकि जहां एक ओर वे अपने ज्ञान और क्षमताओं का उपयोग समाज के हित में कर सकें, वहीं आर्थिक रूप से सक्षम हो कर अपने पारिवारिक स्टेटस में भी बढ़ोतरी करें.

आज कोई भी नौकरीपेशा औरत अपनी नौकरी छोड़ कर घर नहीं बैठना चाहती है. लेकिन नौकरी के साथसाथ घर, बच्चों और परिवार की जिम्मेदारी जो सिर्फ उसी के कंधों पर डाली जाती है, उस ने उसे बिलकुल अकेला कर दिया है. उस से उस का वक्तछीन कर उस की जिंदगी में सूनापन भर दिया है. दोहरी जिम्मेदारी ढोतेढोते वह कब बुढ़ापे की सीढि़यां चढ़ जाती है, उसे पता ही नहीं चलता.

अवंतिका का ही उदाहरण देखें तो औफिस से घर लौटने के बाद वह रिलैक्स होने के बजाय बच्चे की जरूरतें पूरी करने में लग जाती है. पति को समय पर चाय देनी है, सासससुर को खाना देना है, बरतन मांजने हैं, सुबह के लिए कपड़े प्रैस करने हैं, ऐसे न जाने कितने काम वह रात के बारह बजे तक तेजी से निबटाती है और उस के बाद थकान से भरी जब बिस्तर पर जाती है तो पति की शारीरिक जरूरत पूरी करना भी उस की ही जिम्मेदारी है, जिस के लिए वह मना नहीं कर पाती है.

ये भी पढ़ें-  नौकरी के पीछे युवा फौज

वहीं उस का पति जो लगभग उसी के साथसाथ घर लौटता है, घर लौट कर रिलैक्स फील करता है, क्योंकि बाथरूम से हाथमुंह धो कर जब बाहर निकलता है तो मेज पर उसे गरमगरम चाय का कप मिलता है और साथ में नाश्ता भी. इस के बाद वह आराम से ड्राइंगरूम में बैठ कर अपने मातापिता के साथ गप्पें मारता है, टीवी देखता है, दोस्तों के साथ फोन पर बातें करता है या अपने बच्चे के साथ खेलता है. यह सब कर के वह अपनी थकान दूर कर रहा होता है. अगले दिन के लिए खुद को तरोताजा कर रहा होता है. उसे बनाबनाया खाना मिलता है. सुबह की बैड टी मिलती है. प्रैस किए कपड़े मिलते हैं. करीने से पैक किया लंच बौक्स मिलता है. इन में से किसी भी काम में उस की कोई भागीदारी नहीं होती.

और अवंतिका? वह घर आ कर रिलैक्स होने के बजाय घर के कामों में खप कर अपनी थकान बढ़ा रही होती है. घरऔफिस की दोहरी भूमिका निभातेनिभाते वह लगातार तनाव में रहती है. यही तनाव और थकान दोनों आगे चल कर गंभीर बीमारियों में बदल जाता है.

घरेलू औरत भी अकेली है

ऐसा नहीं है कि घरऔफिस की दोहरी भूमिका निभाने वाली महिलाएं ही अकेली हैं, घर में रहने वाली महिलाएं भी आज अकेलेपन का दंश झेल रही हैं. पहले संयुक्त परिवार होते थे. घर में सास, ननद, जेठानी, देवरानी और ढेर सारे बच्चों के बीच हंसीठिठोली करते हुए औरतें खुश रहती थीं. घर का काम भी मिलबांट कर हो जाता था. मगर अब ज्यादातर परिवार एकल हो रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा लड़के के मातापिता ही साथ रहते हैं. ऐसे में बूढ़ी होती सास से घर का काम करवाना ज्यादातर बहुओं को ठीक नहीं लगता. वे खुद ही सारा काम निबटा लेती हैं.

मध्यवर्गीय परिवार की बहुओं पर पारिवारिक और सामाजिक बंधन भी खूब होते हैं. ऐसे परिवारों में बहुओं का अकेले घर से बाहर निकलना, पड़ोसियों के साथ हिलनामिलना अथवा सहेलियों के साथ सैरसपाटा निषेध होता है. जिन घरों में सासबहू के संबंध ठीक नहीं होते, वहां तो दोनों ही महिलाएं समस्याएं झेलती हैं. आपसी तनाव के चलते दोनों के बीच बातचीत भी ज्यादातर बंद रहती है. ऐसे घरों में तो सास भी अकेली है और बहू भी अकेली.

कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लड़की शादी से पहले पूरी आजादी से घूमतीफिरती थी, अपनी सहेलियों में बैठ कर मन की बातें करती थी, वह शादी के बाद चारदीवारी में घिर कर अकेली रह जाती है. पति और सासससुर की सेवा करना ही उस का एकमात्र काम रह जाता है. शादी के बाद लड़कों के दोस्त तो वैसे ही बने रहते हैं. आएदिन घर में भी धमक पड़ते हैं, लेकिन लड़की की सहेलियां छूट जाती हैं. उस की मांबहनें सबकुछ छूट जाता है. सास के साथ तो हिंदुस्तानी बहुओं की बातचीत सिर्फ ‘हां मांजी’ और ‘नहीं मांजी’ तक ही सीमित रहती है, तो फिर कहां और किस से कहे घरेलू औरत भी अपने मन की बात?

अकेलेपन का दंश सहने को क्यों मजबूर

स्त्री शिक्षा में बढ़ोतरी होना और महिलाओं का अपने पैरों पर खड़ा होना किसी भी देश और समाज की प्रगति का सूचक है. मगर इस के साथसाथ परिवार और समाज में कुछ चीजों और नियमों में बदलाव आना भी बहुत जरूरी है, जो भारतीय समाज और परिवारों में कतई नहीं आया है. यही कारण है कि आज पढ़ीलिखी महिला जहां दोहरी भूमिका में पिस रही हैं, वहीं वे दुनिया की इस भीड़ में बिलकुल तनहा भी हो गई हैं.

पश्चिमी देशों में जहां औरतमर्द शिक्षा का स्तर एक है. दोनों ही शिक्षा प्राप्ति के बाद नौकरी करते हैं, वहीं शादी के बाद लड़का और लड़की दोनों ही अपनेअपने मातापिता का घर छोड़ कर अपना अलग घर बसाते हैं, जहां वे दोनों ही घर के समस्त कार्यों में बराबर की भूमिका अदा करते हैं. मगर भारतीय परिवारों में कामकाजी औरत की कमाई तो सब ऐंजौय करते हैं, मगर उस के साथ घर के कामों में हाथ कोई भी नहीं बंटाता. पतियों को तो घर का काम करना जैसे उन की इज्जत गंवाना हो जाता है. हाय, लोग क्या कहेंगे?

सासससुर की मानसिकता भी यही होती है कि औफिस से आ कर किचन में काम करना बहू का काम है, उन के बेटे का नहीं. ऐसे में बहू के अंदर खीज, तनाव और नफरत के भाव ही पैदा हो सकते हैं, खुशी के तो कतई नहीं.

ये भी पढ़ें- एक बार फिर दिल्ली हुई शर्मसार

आज जरूरत है लड़कों की परवरिश के तरीके बदलने की और यह काम भी औरत ही कर सकती है. अगर वह चाहती है कि उस की आने वाली पीढि़यां खुश रहें, उस की बेटियांबहुएं खुश रहें तो अपनी बेटियों को किचन का काम सिखाने से पहले अपने बेटों को घर का सारा काम सिखाएं.

आप की एक छोटी सी पहल आधी आबादी के लिए मुक्ति का द्वार खोलेगी. यही एकमात्र तरीका है जिस से औरत को अकेलेपन के दंश से मुक्ति मिल सकेगी.

खूबसूरत महिलाओं की पहली पसंद होते हैं ऐसे लड़के

महिलाओं को आखिर कैसे मर्द पसंद आते हैं. पुरुषों में हमेशा ही इस बात को जानने की उत्सुकता होती है. इस विषय पर हुए एक शोध में सामने आया है कि खूबसूरत महिलाओं की पहली पसंद वाले मर्दों में कौन-कौन सी खूबियां होती है.

महिलाओं को पसंद आते हैं ऐसे पुरुष…

यूनिवर्सिटी औफ क्रैंबिज में हुए एक शोध में थामस वर्सलुय्ज का कहना है कि इस औनलाइन सर्वे में अमेरिका की 800 महिलाओं ने ऐसे मेल फिगर्स को तरजीह दी जिनके पैर औसत से थोड़े ज्यादा लंबे थे. हालांकि बहुत ज्यादा लंबे पैर वालों को महिलाओं ने नकार दिया.

relationship

19 से 76 साल की महिलाओं के बीच हुआ सर्वे…

19 से 76 साल के बीच की अलग-अलग उम्र वाली महिलाओं को कुछ पुरुषों की कंप्यूटर जेनरेटेड तस्वीरें दिखाईं गईं और उनसे पूछा गया कि इनमें से कौन सबसे ज्यादा अट्रैक्टिव दिख रहा है. इन सभी तस्वीरों में पुरुषों के हाथ और पैर की लंबाई में मामूली अंतर था. सर्वे में शामिल महिलाओं ने औसत से थोड़े ज्यादा लंबे पैर वाले पुरुषों को अट्रैक्टिव माना.

relationship

सेक्शुअल सिलेक्शन में अहम रोल निभाती है लंबाई…

इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि पुरुषों के पैर की लंबाई उनके सेक्शुअल सिलेक्शन में एक अहम रोल निभाती है. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक ऐसा फैक्टर है जो तब से चला आ रहा है जब से मानव का विकास शुरू हुआ. इसमें स्वास्थ्य और पोषण जैसी चीजें भी शामिल हैं.

तो मतलब अगर आप भी किसी महिला का ध्यान अपनी तरफ खींचना चाहते हैं तो आपको अपने कपड़ों और बिहेवियर के साथ-साथ अपनी लंबाई पर भी ध्यान देना होगा.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें