महिलाओं में यह हिचकिचाहट क्यों?

महिलाएं आज भले अपनी काबिलीयत के बल पर हर क्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हों, मगर यदि समाज में ओवरऔल कंडीशन देखी जाए तो ज्यादातर महिलाएं खुद को कतार में पीछे खड़ा पाती हैं. वे आगे बढ़ सकती हैं, पर बढ़ती नहीं. अपनी बात रखने या अपनी इच्छा का काम करने में हिचकिचाती हैं.

हाल ही में पौंड्स द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक महिलाएं लंबे समय से खुद को रोक रही हैं. 10 में से 9 महिलाएं कहती हैं कि वे अपनी इच्छा की बात कहने या इच्छा का काम करने से खुद को रोकती हैं.

खुद को रोकने के कारण

– 59% महिलाओं को जज किए जाने का डर

होता है.

– 58% महिलाएं इस बारे में अनिश्चित रहती हैं कि दूसरे क्या प्रतिक्रिया देंगे.

– 10 में से 5 महिलाओं को यह चिंता भी होती है कि वे जो कहेंगी उस से दूसरे उन के बारे में नकारात्मक बात सोचने लगेंगे.

जाहिर है कि मन का यह डर कि समाज या परिवार क्या सोचेगा, क्या प्रतिक्रिया देगा, महिलाओं को अपने मन का काम करने से रोकता है.

खुद को रोकने वाले इस संकोच के अनेक रूप और नाम हैं. इसे भले ही महिलाएं अंदर की आवाज कहें पर वास्तव में यह एक तरह की नकारात्मक सोच है. यह सोच महिलाओं के आगे बढ़ने के मार्ग की सब से बड़ी बाधा है. यह सोच रातोंरात जन्म नहीं लेती, बल्कि सालों से समाज द्वारा किए जा रहे ब्रेनवाश और समाज के तथाकथित परंपरावाद नियमों में जकड़े जाने और यह बताए जाने का परिणाम है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं. नतीजा यह होता है कि महिलाएं अपनी इच्छा का काम करने का हौसला ही नहीं जुटा पातीं.

लगभग आधी यानी 47% महिलाएं बड़े समूह में प्रश्न पूछने में संकोच करती हैं. इसी तरह 10 में से 4 महिलाएं यानी 40% बौस को न कहने से खुद को रोकती हैं.

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व्यक्तिगत जीवन में 10 में से 4 महिलाएं यानी 40% बाहर जा कर अपने बौयफ्रैंड के साथ रहने से खुद को रोकती हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि दूसरे लोग इस पर न जाने क्या प्रतिक्रिया देंगे.

खुद को क्यों रोकती हैं महिलाएं

बहुत सी औरतों को यह विश्वास नहीं होता है कि अगर वे बड़े समूह में कोई प्रश्न पूछती हैं तो वह काम का होगा भी या नहीं. उन्हें डर रहता है कि कहीं उन का मजाक न बन जाए.

कई महिलाओं का कहना होता है कि वे सोचने में बहुत ज्यादा समय लेती हैं, जिस से काम करने का अवसर हाथ से निकल जाता है. उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी कहेंगी उन के लिए उन्हें जज किया जा सकता है, दूसरों के सामने छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

यह सर्वे स्वतंत्र शोध कंपनी, इप्सोस द्वारा एक सैल्फ एडमिनिस्टर्ड औनलाइन सर्वे द्वारा किया गया. यह सर्वे भारत में 18 से 35 साल की महिलाओं के बीच मुंबई, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता, बैंगलुरु, चंडीगढ़, लखनऊ, पुणे और मदुरई में किया गया.

सच तो यह है कि कभी कपड़ों के आधार पर, कभी उन के व्यवहार को देख कर या फिर लड़कों से बात करता देख अथवा किसी और तरह से समाज हर पल उन्हें जज करता रहता है. बिंदास लड़कियां तो ऐसे लोगों की परवाह नहीं करतीं, मगर सामान्य लड़कियों के कदमों पर हमेशा डर बेडि़यां डाले रखता है. कुछ भी करने से पहले उन के दिल में खौफ पैदा हो जाता है कि पता नहीं लोग कैसे जज करें, किस नजर से देखें.

कितने अफसोस की बात है कि 10वीं और 12वीं कक्षा के रिजल्ट के समय समाचारों की सुर्खियों में लड़कियां ही छाई रहती हैं. स्कूलकालेज में अकसर वे ही टौप करती हैं. मगर जब बात नौकरी और सैलरी की आती है, तो वे पीछे हो जाती हैं. अपना हक भी बड़ी सहजता से छोड़ देती हैं.

औनलाइन कैरियर ऐंड रिक्रूटमैंट सौल्यूशन प्रोवाइडर मौंस्टर इंडिया के हालिया सर्वे से पता चलता है कि देश में महिलाओं की औसत सैलरी पुरुषों के मुकाबले 27% कम है. पुरुषों की औसत सैलरी जहां क्व288.68 प्रति घंटा है, वहीं महिलाओं की क्व207.85 प्रति घंटा है. सरकारी नौकरियों को छोड़ कर यह भेदभाव हर क्षेत्र में है.

जाहिर है महिलाओं को बचपन से सिखाया जाता है कि पुरुषों की बराबरी न करो. जितना मिल जाए उस में संतोष कर लो. बाहर वालों के आगे ज्यादा बकबक न करो. किसी ऐसे पुरुष के आगे जबान न खोलो जो आप से बड़ा या सीनियर हो या जिस पर आप निर्भर करती हों. पुरुष स्वामी है और आप दासी. कभी अपने हक की बात न करो.

इसी का नतीजा है कि महिलाओं के दिलोदिमाग में यह बात इतनी गहराई से रचबस गई है कि वे अनजाने में भी इसी हिसाब से चलती हैं और कभी अपना मुंह नहीं खोलतीं.

अपनी मरजी का नहीं कर सकती महिलाएं

एक पुरुष को कौन सी नौकरी करनी है कभी भी इस बात पर अपने घर वालों या बीवी की सहमति की जरूरत नहीं होती. वह अपनी मरजी से नौकरी का चुनाव कर सकता है. उसे किसी की अनुमति की जरूरत नहीं. दूसरी तरफ लड़कियों और महिलाओं को पढ़ाई करने, काम करने, रोजगार योग्य नए कौशल सीखने के लिए अपने पिता, भाई, पति और कुछ मामलों में तो समाज तक से अनुमति लेनी पड़ती है.

उषा एक प्राइवेट कंपनी में काम करती है. उस की शादी नौसेना में काम करने वाले एक लड़के से होने वाली है. उस के काम पर उसे कोई एतराज नहीं है, लेकिन यदि वह सरकारी नौकरी करे तो.

उषा कहती है,  ‘‘मैं सरकारी नौकरी पाने के लिए प्रयास कर रही हूं, लेकिन यह आसान नहीं है. शादी से पहले अपनी प्राइवेट जौब से इस्तीफा दे दूंगी, क्योंकि यही मेरे वुड बी हसबैंड की मरजी है.’’

कमोबेश यही सोच और स्थिति सभी अविवाहित और विवाहित लड़कियों की रहती है. पहली प्राथमिकता घरपरिवार और पति होता है. नौकरी और कैरियर दूसरे स्थान पर होते हैं. हाल तो यह है कि कुछ लड़कियां महज समय बिताने के लिए काम कर लेती हैं. कैरियर में अच्छा करना, आगे बढ़ना या लीडर बनना जैसी बातें उन के फ्यूचर प्लान का हिस्सा होती ही नहीं.

ऐसा नहीं है कि महिलाओं में योग्यता की कमी होती है. अमेरिका के वाशिंगटन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का दावा है कि महिलाओं का मस्तिष्क उन के हमउम्र पुरुषों की तुलना में 3 साल जवां रहता है. इस वजह से उन का दिमाग लंबे अरसे तक तेज चलता है.

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इस अध्ययन में 20 से 84 वर्ष की 121 महिलाओं और 84 पुरुषों ने हिस्सा लिया. उन के मस्तिष्क  में ग्लूकोस और औक्सीजन के प्रवाह को मापने के लिए उन का पीईटी स्कैन किया गया. ऐसा नहीं है कि पुरुषों का दिमाग तेजी से वृद्ध होता है. दरअसल, वे दिमागी तौर पर महिलाओं से 3 साल बाद वयस्क होते हैं.

फाइनैंस संबंधी फैसलों पर निर्भरता

ऐसी महिलाएं जो निवेश के फैसले खुद करती हैं उन में उन के पति या मातापिता के प्रोत्साहन का अहम योगदान होता है, करीब 13% महिलाओं ने कहा कि उन्हें पति की मौत या तलाक की वजह से अपने निवेश के फैसले खुद लेने पड़े. 30% महिलाओं के मुताबिक वे निवेश इसलिए कर पाईं, क्योंकि उन्होंने खुद निवेश करने का फैसला लिया.

जहां तक निवेश की आवश्यकता या मकसद की बात है तो यह करीब एकजैसे ही रहे. मसलन, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, घर खरीदना, बच्चों की शादी, अच्छा लाइफस्टाइल आदि मुख्य मकसद के रूप में नजर आए. यह भी पाया गया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं का अपने बच्चों से जुड़े लक्ष्यों की ओर  झुकाव अधिक रहता है.

पुरुष जहां कार या घर खरीदने का फैसला अधिक लेते हैं वहीं महिलाओं ने ज्वैलरी, रोजमर्रा की जरूरतों जैसे टीवीफ्रिज खरीदने में ज्यादा रुचि दिखाई.

ज्यादा अच्छा यही है कि महिला और पुरुष मिल कर वित्तीय योजनाएं बनाएं और केवल वित्तीय योजनाएं ही नहीं, बल्कि जिंदगी के सारे अहम फैसलों पर महिलाओं को अपनी राय देने से नहीं बचना चाहिए, क्योंकि इस तरह वे अपने परिवार और पति के लिए बेहतर कर पाने में सक्षम होंगी.

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महिलाओं के लिए खुद का नाम बनाना हमेशा कठिन होता है : आशिमा शर्मा

‘आशिमा एस कुटोर’ की संस्थापिका और फैशन डिजाइनर आशिमा शर्मा 5 साल से अपना फैशन पोर्टल चला रही हैं. वे 7 साल की उम्र से ही पोर्ट्रेट बनाती और पेंटिंग करती आ रही हैं. कला में दिलचस्पी के चलते कुछ ही सालों में फैशन इंडस्ट्री में अपनी अलग जगह बना ली.

आशिमा ने कई अंतर्राष्ट्रीय ब्रैंड व अंतर्राष्ट्रीय आर्ट गैलरीज के साथ भी काम किया है. उन्हें लिखने का भी शौक है. वे ‘एशी माइंड सोल’ नाम से वैबसाइट चलाती हैं. उन्हें 2018 में ‘वूमन ऐक्सीलैंस अवार्ड’ से सम्मानित किया गया. 2015 में उन्होंने एलएसीएमए (लैक्मा) लौस एंजिल्स में विश्व में 19वां पद प्राप्त किया. उन्हें 2012 में पर्थ अंतर्राष्ट्रीय आर्ट फैस्टिवल में बैस्ट अंतर्राष्ट्रीय टेलैंट से सम्मानित किया गया.

पेश हैं, उन से हुई बातचीत के अंश:

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आप की नजर में फैशन क्या है?

मेरे लिए फैशन न केवल ट्रैंड्स को फौलो करना है, बल्कि व्यक्ति द्वारा अपनी पसंद के अनुसार आरामदायक ट्रैंड अपनाना भी माने रखता है. फैशन से व्यक्ति को अलग पहचान मिलती है.

फैशन को आत्मविश्वास से कैसे जोड़ा जा सकता है?

फैशन सिर्फ और सिर्फ आत्मविश्वास के बारे में है. आत्मविश्वास के बिना कोई भी पोशाक अच्छी नहीं दिखेगी, क्योंकि अगर पहनने वाला आत्मविश्वास के साथ सामने नहीं आ सकता तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि कपड़े कितने अच्छे हों.

भारत में महिलाओं की स्थिति पर क्या कहेंगी?

मुझे यह बात बहुत बुरी लगती है कि आज भी महिलाओं को वस्तु माना जाता है, जबकि लोगों को महिलाओं का सम्मान करना चाहिए. उन का समाज में बहुत बड़ा योगदान रहा है. आज पुरुष और महिलाएं दोनों मिल कर काम कर रहे हैं. महिलाएं अपने काम और प्रोफैशनल जीवन के साथसाथ घर भी संभालती हैं. वे परिवार बनाती हैं और पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर बाहरी दुनिया में भी नाम कमाती हैं, पुरुषों को इस बात का एहसास होना चाहिए.

बतौर स्त्री आगे बढ़ने के क्रम में क्या कभी असुरक्षा का एहसास हुआ?

एक महिला होने के नाते मैं ने हमेशा महसूस किया कि मुझे काम में हमेशा पुरुषों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करना पड़ता है, क्योंकि महिलाओं के लिए खुद का नाम बनाना हमेशा कठिन होता है. लेकिन सफलता की राह हमेशा उन महिलाओं के लिए आसान होती है, जो चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहती हैं और कड़ी मेहनत करती हैं. एक समय के बाद मेरे मन से भी असुरक्षा के भाव दूर हो गए, क्योंकि मुझे पता था कि मैं अपने प्रयासों को सही दिशा में लगा रही हूं.

क्या आज भी महिलाओं के साथ अत्याचार और भेदभाव होता है?

बिलकुल. खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में देखा गया है कि महिलाओं को अभी भी समान वेतन, सुरक्षित वातावरण, उचित स्वच्छता नहीं मिलती है. उन की अधिकांश बुनियादी जरूरतें बड़ी कठिनाई से पूरी होती हैं. यह एक सचाई है कि भारत की ग्रामीण महिलाएं अभी भी बहुत कुछ झेल रही हैं.

घर वालों की कितनी सपोर्ट मिलती है?

मेरे पिता डा. एम.सी. शर्मा, माता डा. शालिनी शर्मा और भाई मनीष शर्मा सभी मुझे हमेशा सपोर्ट देते हैं. उन्होंने हमेशा मेरी प्रतिभा और कड़ी मेहनत पर विश्वास किया है. उन के समर्थन और प्रोत्साहन के बिना मेरे लिए कैरियर में ऊंचाइयां छूना नामुमकिन था.

ग्लास सीलिंग के बारे में आप की राय?

आज महिलाएं हर वह मुकाम हासिल कर रही हैं जहां वे जाना चाहती हैं. कड़ी मेहनत हमेशा रंग लाती है. सफर मुश्किल जरूर होता है, लेकिन नामुमकिन बिलकुल नहीं खासकर उन के लिए जो मेहनत करने से बिलकुल नहीं कतराते हैं. ग्लास सीलिंग आज भी बड़ी समस्या है, पर जो हर मुश्किल को झेल आगे बढ़े उसे कामयाबी जरूर हासिल होती है.

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