आई सपोर्ट की शुरूआत करना मेरे लिए चैलेंजिंग था: बौबी रमानी

बौबी रमानी

फाउंडर, आई सपोर्ट फाउंडेशन

अपने भाई को औटिज्म (मानसिक रूप से कमजोर) से पीडि़त देख आज बौबी रमानी औटिज्म के शिकार बच्चों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए कार्य कर रही हैं. उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में जन्मीं बौबी ने अपनी बहन के साथ मिल कर औटिज्म बीमारी से जूझते बच्चों को मदद देने के लिए ‘आई सपोर्ट फाउंडेशन’ नाम की स्वयंसेवी संस्था की शुरुआत की. यह संस्था औटिज्म के शिकार बच्चों को शिक्षा प्रदान करना, उन की प्रतिभा को निखारना और उन्हें उन की उच्चतम क्षमता तक पहुंचाने में मदद करती है. बौबी बैंगलुरु में अपनी संस्था के माध्यम से अब तक 8,000 वंचित और विशेष बीमारी से ग्रस्त बच्चों के जीवन में मुसकान बिखेर चुकी हैं. आइए, जानते हैं बौबी रमानी से उन के इस सफर के बारे में:

सवाल- आप ने ‘आई सपोर्ट फाउंडेशन’ की शुरुआत की. कैसा रहा यह सफर?

‘आई सपोर्ट फाउंडेशन’ की शुरुआत करना मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण रहा, क्योंकि फाउंडेशन की शुरुआत से पहले मैं कौरपोरेट में काम करती थी. अपनी सेविंग्स से इस संस्थान की शुरुआत करना, औटिज्म से ग्रस्त बच्चों से जुड़ना, उन की काउंसलिंग करना, साथ ही उन के पेरैंट्स की भी काउंसलिंग करना, संस्थान का सैटअप करना सभी कुछ काफी चैलेंजिंग था. मैं ने अपनी बाकी की पढ़ाई भी संस्थान खोलने के बाद पूरी की. इस संस्थान को खोलने के लिए मुझे एक विशेष डिगरी की जरूरत थी. अत: मैं ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से ‘मास कम्यूनिकेशन’ की डिगरी ली.

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 सवाल- इस में परिवार का कितना सहयोग रहा?

उस समय रायबरेली में कोई स्पैशल स्कूल नहीं था. मेरे पापा नहीं हैं, इसलिए रिश्तेदार और पासपड़ोस के लोग मेरा बहुत खयाल रखते थे. जब इन्हें पता चला कि मैं कुछ ऐसा कर रही हूं तो वे मेरी मां से मेरी सराहना करने लगे. इस वजह से मेरी मां ने मुझे पूरा सपोर्ट किया. हालांकि शुरुआत में दिक्कत आई थी, क्योंकि नौकरी छोड़ कर एनजीओ की तरफ बढ़ना काफी चैलेंजिंग हो गया था. एनजीओ का नाम सुनते ही लोग सोचने लग जाते हैं कि यह एक चैरिटेबल यूनिट है. ऐसे में नौकरी छोड़ना और परिवार को समझाना थोड़ा मुश्किल था. लेकिन वक्त के साथ मेरे परिवार ने मुझे समझा और मेरा पूरा साथ दिया. संस्थान खोलने के 1 साल बाद ही मेरी बहन ने भी बैंगलुरु में इस संस्थान की शुरुआत की. मेरे परिवार में हम 3 महिलाएं हैं और 1 भाई है, जिसे औटिज्म है. मेरे परिवार में फीमेल स्ट्रैंथ ज्यादा है.

 सवाल- ऐसी बीमारियों और स्थितियों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए क्या करना चाहिए?

आज औटिज्म को ले कर जागरूकता तो बढ़ी है, लोग इस के बारे में अच्छी तरह से समझते हैं, लेकिन इस का समाधान अभी भी किसी को नहीं पता. इस में 2 लोगों का बहुत अहम रोल है. पहला डाक्टर का है. जब डाक्टर बच्चे का चैकअप करते हैं और उन्हें पता चलता है कि बच्चे को औटिज्म हो गया है यानी वह मैंटली फिट नहीं है तो साथ में उन को आगे का सुझाव भी देना चाहिए ताकि मातापिता को आगे की प्रक्रिया के बारे में पता चल सके और वे अपने बच्चे का खास ध्यान रख सकें.

दूसरा अहम रोल है टैलीविजन और रेडियो का. टीवी और रेडियो पर औटिज्म को ले कर खुल कर बात करनी चाहिए. औडियोविजुअल ज्यादा से से ज्यादा दिखाने चाहिए ताकि लोग इस के प्रति जागरूक हों.

 सवाल- उन लड़कियों और महिलाओं को जो आप की तरह कुछ विशेष करना चाहती हैं उन्हें आप क्या संदेश देना चाहेंगी?

मेरे खयाल से जब हम कुछ करने की सोचते हैं तो हमें कनफ्यूज बिलकुल नहीं रहना चाहिए. अपने लक्ष्य को हमेशा क्लियर रखना चाहिए तभी हम मंजिल तक पहुंच पाएंगे. यह बात बिलकुल सही है कि लड़कियों के बीच में से यदि कोई एक लड़की भी अपना मुकाम हासिल कर लेती है तो वह बाकी लड़कियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाती है. इसलिए जरूरी है कि किसी पर निर्भर हो कर आगे न बढ़ें. भरोसा खुद पर करें.

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 सवाल- मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए फ्रैंडली माहौल देने का आइडिया कैसे आया?

जो बच्चे औटिज्म का शिकार होते हैं वे थोड़ा हाइपर होते हैं. जब हम अपने भाई को ले कर किसी रैस्टोरैंट में जाते थे तो मेरी मां पहले ही खाने का और्डर देने चली जाती थीं. तब तक मैं भाई के साथ गाड़ी में बैठ कर म्यूजिक सुना करती थी. जब और्डर आ जाता था तब हम अंदर जाते थे, क्योंकि ऐसे बच्चे ज्यादा देर तक इंतजार नहीं कर पाते और कुछ देर बाद अजीब व्यवहार करने लगते हैं.

 सवाल- औटिज्म के अलावा और किनकिन बीमारियों से ग्रस्त बच्चों के लिए भी आप काम कर रही हैं?

औटिज्म के अलावा हमारी संस्था हर बौद्धिक अक्षमता जैसे डाउन सिंड्रोम, मानसिक अशांति आदि से परेशान बच्चों के लिए भी काम करती है.

इंडस्ट्री में मेल/फीमेल को अलग-अलग तरह से ट्रीट किया जाता है- अनुष्का अरोड़ा

अनुष्का अरोड़ा, रेडियो जौकी

2016 में अनुष्का को यशराज की फिल्म ‘फैन’ में शाहरुख खान के अपोजिट जर्नलिस्ट की भूमिका में देखा गया. उन्हें एशियन मीडिया अवार्ड्स के लिए ‘बैस्ट रेडियो पे्रजैंटर औफ द ईयर’ के तौर पर चौथे साल के लिए चुना गया और तब ‘सनराइज रेडियो’ ने ‘बैस्ट रेडियो स्टेशन औफ द ईयर’ अवार्ड हासिल किया था. अनुष्का को लंदन के ‘हाउस औफ लौर्ड्स’ में एनआरआई इंस्टिट्यूट से एनआरआई मोस्ट प्रिस्टीजियस जर्नलिस्ट के तौर पर ‘प्राइड औफ इंडिया’ अवार्ड दिया गया. इस के अलावा उन्हें इलैक्ट्रौनिक और नए मीडिया में अपने शानदार कार्य के लिए ‘बैस्ट इन मीडिया अवार्ड-2008’ भी मिला. पेश हैं, अनुष्का अरोड़ा से हुए सवालजवाब:

इस मुकाम पर किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

मेरे लिए हर दिन एक चुनौती है. मुझे अपने रेडियो शो के लिए काफी रिसर्च और तैयारी की जरूरत होती है. कभीकभी जब 4 घंटे के शो के लिए पर्याप्त कंटैंट उपलब्ध नहीं होता तो मुश्किल पैदा हो जाती है. लेकिन अपने श्रोताओं का मनोरंजन करने के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेती हूं.

ऐंटरटेनमैंट फील्ड में क्या महिलाओं को अभी भी ग्लास सीलिंग का सामना करना पड़ रहा है?

यकीनन ऐंटरटेनमैंट इंडस्ट्री में ग्लास सीलिंग अभी भी कायम है. मेल और फीमेल को अलगअलग तरह से ट्रीट किया जाता है. ‘मी टू कैंपेन’ उसी का नतीजा है. मैं निश्चित तौर पर उस प्रत्येक महिला के साथ खड़ी हूं जिस का गलत इस्तेमाल हुआ है. ‘मी टू कैंपेन’ ने महिलाओं में जागरूकता पैदा की है. तनुश्री दत्ता ने इस संदर्भ में आवाज उठाने वाली कई महिलाओं को हिम्मत दी और एक नया प्लेटफार्म मुहैया कराया. इसे काफी अच्छा रिस्पौंस भी मिला.

क्या जर्नलिस्ट आर्थिक फायदे और प्रतियोगिता में आगे रहने के चक्कर में अपने बेसिक प्रिंसिपल्स के साथ समझौता करने लगे हैं?

जी हां, ऐसा होने लगा है. लोग समझौते करते हैं, पर मैं ऐसा नहीं करती. ये सब आप की परवरिश, कल्चर और ट्रैडिशन पर निर्भर करता है.

आप को ऐक्ट्रैस, रेडियो जौकी, वीडियो जौकी, ऐंकर और जर्नलिस्ट में से क्या बन कर सब से ज्यादा संतुष्टि मिलती है और क्यों?

मुझे ऐंकर के रूप में सब से ज्यादा मजा आता है, क्योंकि हम लाइव औडियंस के सामने होते हैं. लाइव औडियंस को ऐंटरटेन करना खुद में एक बड़ा चैलेंज होता है जो मुझे बहुत पसंद है.

रेडियो जौकी बनने का खयाल कैसे आया?

ये सब यूनिवर्सिटी में शुरू हुआ. मुझे यह बताया गया था कि यदि मैं रेडियो में जाना चाहती हूं तो मुझे किसी स्थानीय हौस्पिटल में अनुभव हासिल करना होगा. अस्पताल के वार्ड में उन के इनहाउस रेडियो स्टेशन हैं और यह रेडियो कैरियर के लिए एक विशेष आधार माना गया. मैं ने ‘इलिंग हौस्पिटल’ में 2 घंटे का बौलीवुड शो करना शुरू किया. मुझे हौस्पिटल रेडियो अवार्ड्स में बैस्ट रेडियो प्रेजैंटर के लिए नामित किया गया जिस से मेरा भरोसा बढ़ा और फिर धीरेधीरे मैं ने यहां के लोकल रेडियो चैनल्स पर बौलीवुड शो करना शुरू किया.

भारत में महिलाओं की स्थिति पर क्या कहेंगी?

पिछले समय की तुलना में आधुनिक समय में महिलाओं ने काफी कुछ हासिल किया है. लेकिन वास्तविकता यह है कि उन्हें अभी भी लंबा रास्ता तय करना है. महिलाओं को उन के सामने अपनी प्रतिभा साबित करने की जरूरत है जो उन्हें बच्चे पैदा करने की मशीन समझते हैं. भारतीय महिलाओं को सभी सामाजिक पूर्वाग्रहों को ध्यान में रख कर अपने लिए रास्ता तैयार करने की जरूरत है, साथ ही पुरुषों को भी देश की प्रगति में महिलाओं की भागीदारी को अनुमति देने और स्वीकारने की जरूरत है.

हार के बाद मिली जीत का मजा ही कुछ और होता है- निहारिका यादव

लेखक -पारुल 

डा. निहारिका यादव

सुपर बाइकर

अगर मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं. इस का उदाहरण हैं डा. निहारिका यादव, जो न सिर्फ डैंटिस्ट हैं, बल्कि पुरुषों के वर्चस्व वाले खेल बाइक रेसिंग में भी पुरुषों को टक्कर देती हैं. ऐक्सीडैंट में दायां हाथ लगभग खराब होने के बावजूद उन का रेसिंग के प्रति जनून कम नहीं हुआ, क्योंकि वे मानती हैं कि जो चुनौतियों के साथ जीना सीख लेते हैं उन्हें जिंदगी मुश्किल नहीं, बल्कि खूबसूरत नजर आती है. निहारिका उन महिलाओं के लिए किसी मिसाल से कम नहीं हैं, जो छोटीछोटी चुनौतियों के सामने घुटने टेक कर हार मान लेती हैं. उन्होंने महिलाओं को यह प्रेरणा दी कि यदि कभी शरीर का कोई अंग आप का साथ न दे तो उसे अपनी नियति मान कर न बैठें, बल्कि उस स्थिति से उबर कर अपनी नई पहचान बनाने के रास्ते पर विचार करें. पेश हैं, डा. निहारिका से हुई बातचीत के कुछ खास अंश:

सवाल- मेल डौमिनेटिंग सोसाइटी होने के बावजूद आप बाइक रेसिंग में पुरुषों को ही चुनौती देती हैं. यह जज्बा आप में कहां से आया?

मैं 6 साल से रेसिंग में हूं और मेरी प्रेरणा बुद्ध इंटरनैशनल सर्किट के राइडर्स हैं. जब मैं पहली बार वहां गई और मैं ने उन्हें राइड करते देखा तो मुझे उन से प्रेरणा मिली. मेरे अंदर जो जनून है वह उन के साथ काम व प्रैक्टिस कर के आया. मैं ने कभी इस स्पोर्ट को मेल डौमिनेटिंग स्पोर्ट की तरह नहीं देखा. मैं पुरुषों को टक्कर देते हुए रेस करती हूं. भारत में 1000 सीसी बाइक को रेस करने वाली महिलाएं नहीं हैं. जब मैं पुरुषों के साथ रेस करती हूं तो मुझे काफी कौन्फिडैंस मिलता है और सक्सैस के लिए और मेहनत करती हूं. ऐक्सीडैंट में दायां हाथ 50% खराब होने के बावजूद आप बाइक स्पोर्ट्स को कैसे जारी रख पा रही हैं

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सवाल- आप के कैरियर पर इस का इफैक्ट पड़ा क्या?

2005 में मेरा कार ऐक्सीडैंट हुआ था, जिस में मेरे दाएं हाथ का 50% मूवमैंट चला गया था. उस के बाद मुझे लगा कि लाइफ में जीने का जो असल में ऐेक्साइटमैंट होता है वह किसी बड़े हादसे के बाद ही आता है. अत: इस हादसे ने मेरे हौसले को और बढ़ा कर लाइफ की और रिस्पैक्ट करना सिखाया.

हां, सुपर बाइकर बनने में मुझे कुछ चुनौतियां आईं, क्योंकि आप जानते हैं कि थ्रोटल राइट साइड पर होता है और स्पीड कंट्रोल भी राइट साइड से होता है. ऐसे में मुझे जब बाइक को लीन करना होता है, कौर्नर करना होता है तब थोड़ी दिक्कत आती है, क्योंकि मैं अपना पूरा हाथ मोड़ नहीं पाती. लेकिन मेरा मानना है कि जब आप की लाइफ में चुनौतियां आती हैं तो आप उन के समाधान भी ढूंढ़ लेते हैं. मैं ने भी तरीके ढूंढ़ लिए हैं.

 सवाल- डैंटिस्ट और बाइकर होते हुए खुद को कैसे फिट रखती हैं?

रेसर और डाक्टर होना दोनों मेरे लिए काफी महत्त्व रखते हैं. जब मैं बतौर डाक्टर मरीजों से मिलती हूं, तो उन की तकलीफों को अपना मान कर उन के दर्द दूर करती हूं. मैं खुद को उन से इमोशनली जुड़ा महसूस करती हूं, जो मुझे सुकून पहुंचाता है. वहीं एक रेसर के तौर पर मैं खुद को फिट रखने के लिए ऐक्सरसाइज व जिम करती हूं, हर महीने ट्रैक पर जा कर प्रैक्टिस करती हूं ताकि अपना स्टैमिना बढ़ा सकूं.

 सवाल- अपनी जर्नी के बारे में बताएं?

मैं डैंटल सर्जन हूं. गुड़गांव में प्राइवेट क्लीनिक चलाती हूं, साथ ही बाइक रेसर भी हूं. मैं ने हाल ही में जेके टायर द्वारा आयोजित 1000 सीसी राष्ट्रीय सुपर बाइक महिला रेसिंग में भी हिस्सा लिया था, जो मेरे लिए किसी चुनौती से कम न था. इस में मेरे लिए माइंड मेकअप करना सब से बड़ा चैलेंज था, लेकिन मेरे कौन्फिडैंस ने मेरी जर्नी को शानदार बना दिया.

 सवाल- बाइक रेस में आप की अधिकतम स्पीड क्या रहती है और किन चीजों पर फोकस रहता है?

डुकाटी पाणिगले 899 सीसी की मेरी रेसिंग बाइक है, जिसे मैं ने 265 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ाया है. रेसिंग के दौरान मेरा फोकस कम समय में ट्रैक को कवर करना होता है. इस के लिए मैं निरंतर प्रैक्टिस जारी रखती हूं ताकि अपना बैस्ट दे पाऊं.

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 सवाल- महिलाओं के लिए क्या संदेश देना चाहेंगी?

मैं महिलाओं से कहना चाहूंगी कि लाइफ  में जो भी करें डरें नहीं. आप के सामने जो भी चुनौतियां आएं उन से सीखें और दूसरों को भी प्रेरणा देती रहें. यकीन मानिए हार के बाद मिली जीत का मजा ही कुछ और होता है.

लोग कहते थे मैं बड़ा काम नहीं कर सकती- अनीता डोंगरे

अनीता डोंगरे, फैशन डिजाइनर

फैशन की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाने वाली 50 वर्षीय अनीता डोंगरे की शख्सीयत अनूठी है. नम्र स्वभाव की अनीता ऐसे माहौल में पैदा हुई थीं जहां महिला उद्यमी बनने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था. ऐसे में अपने सपने को साकार करना आसान नहीं था. सफलता के इस मुकाम पर पहुंच कर भी वे खुद को लर्नर ही समझती हैं. उन से हुई बातचीत के अंश इस प्रकार हैं:

अपने बारे में विस्तार से बताएं?

मैं पारंपरिक सिंधी परिवार से हूं. मेरे दादादादी जयपुर से थे. मैं मुंबई में पलीबढ़ी, क्योंकि मेरे पिता मेरे जन्म से कुछ ही महीने पहले मुंबई आ गए थे. मैं गरमी की छुट्टियों में जयपुर जाती थी. वहां मैं ने देखा कि मेरे परिवार के अन्य भाईबहनों के लिए बहुत सख्त माहौल था.

50 चचेरे भाईबहनों के बड़े परिवार में किसी ने भी महिला उद्यमी बनने के बारे में नहीं सोचा था. लेकिन मैं मुंबई में थी. यहां मुझे मेरे मातापिता ने पूरी आजादी दी. एसएनडीटी कालेज से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने के बाद मैं ने भारतीय परिधानों की डिजाइनिंग शुरू की. उस समय के सभी बड़े बुटीक्स में मेरा काम पसंद किया जाने लगा.

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किस क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहती थीं?

जब मैं 15 वर्ष की थी तब से मुझे डिजाइनिंग और फैशन पसंद था. मेरे बहुत से दोस्त कौमर्स की पढ़ाई कर चार्टर्ड अकाउंटैंट बन गए, लेकिन मुझे यह बोरिंग लगता था. केवल फैशन ही ऐसा क्षेत्र था जो मुझे पसंद था.

प्रेरणा कहां से मिली?

मेरी मां घर पर मेरे और मेरे भाईबहनों के लिए कपड़े सिलती थीं. यह मुझे अच्छा लगता था. लेकिन तब मुझे यह पता नहीं था कि मैं यहां तक पहुंच जाऊंगी. लेकिन काम करने की उत्सुकता हमेशा बनी रही. आज भी जब कोई नया काम शुरू करती हूं तो उसे अच्छा करने की कोशिश करती हूं. मेरी प्रेरणास्रोत मेरी मां हैं.

संघर्ष तो काफी रहा होगा?

मैं ने 300 वर्गफुट क्षेत्र में अपनी बहन के साथ कारोबार शुरू किया. कुछ वर्षों बाद मेरा छोटा भाई भी इस में शामिल हो गया. शुरूशुरू में कई मुश्किलें आईं. कई बार लगा कि व्यवसाय बंद करना पड़ेगा, पर वह थोड़े समय के लिए था. मैं सुबह उठ कर सोचती थी कि मैं क्या करूं? कई बार हमारे पास किराया देने के लिए भी रुपए नहीं होते थे. बाद में सब सही हो गया. मुझे लगता है कि एक उद्यमी के लिए हर रोज चुनौती होती है. उस से निबटने की कला सीखना भी जरूरी है.

जब मैं ने इंटर्नशिप, व्यवसाय या जौब जो भी किया परिवार वालों का सहयोग नहीं था. सब सलाह देते थे कि मैं इतना बड़ा काम कर के परिवार नहीं संभाल सकती पर धीरेधीरे वह भी आसान हो गया.

करीब 20 साल पहले मैं ने कामकाजी महिलाओं को ध्यान में रख कर वैस्टर्न कपड़ों को बदलाव के साथ पेश किया. लेकिन किसी ने मेरी डिजाइनों को पसंद नहीं किया. तब मैं ने तय किया कि अपनी कंपनी खोलूंगी. इस तरह अनीता डोंगरे की डिजाइनों का जन्म हुआ.

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आप को जीवन में आगे बढ़ने में कोई कठिनाई आई?

पारंपरिक परिवार की होने की वजह से उद्यमी बनना आसान नहीं था. वहां महिलाएं स्टीरियोटाइप काम करती थीं. लेकिन मैं ने अपनी जिंदगी अलग तरीके से जी है और इस में मेरे मातापिता ने मेरी मदद की. पिता ने व्यवसाय शुरू करने के लिए पैसे दिए, जिन का उन्होंने ब्याज भी लिया. उन्होंने हमें पैसे का महत्त्व समझाया.

युवा महिलाओं के लिए कोई संदेश?

महिलाएं आज हर क्षेत्र में प्रोफैशनल पुरुषों की तरह ही कामयाब हैं. ऐसे में तुलनात्मक बातें नहीं आनी चाहिए. पहले महिलाओं को मौके कम मिलते थे पर अब ऐसा नहीं है. आज उन के लिए भी हर तरह की सुविधाएं हैं. वे आगे आ कर उन्हें अपनाएं और अपनेआप को सिद्ध करें कि वे किसी से कम नहीं हैं.

परिवर्तन की अलख जगाती रूमा देवी

(राजस्थान, बाड़मेर में 22,000 से ज्यादा गरीब, ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़ा)

राजस्थान के बाड़मेर के अति पिछड़े गांव की रूमा देवी भले ही सिर्फ आठवीं पास हों, लेकिन उनके जुझारूपन ने इस क्षेत्र की बाइस हजार से ज्यादा गरीब, ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़कर उनको आर्थिक सशक्ता देकर उनके जीवन में खुशहाली बिखेर दी है. बचपन से ही अत्यधिक आर्थिक तंगी से जूझने वाली रूमा देवी ने अपनी दादी से सीखी राजस्थानी हस्तशिल्प कसीदाकारी को अपनी जीविका का आधार बनाया. उन्होंने एक स्वयं सेवक समूह बना कर न सिर्फ अपने परिवार को गरीबी के चंगुल से मुक्ति दिलायी, बल्कि आसपास के पचहत्तर गांवों की बाइस हजार से ज्यादा महिलाओं को इस कला का प्रशिक्षण दिया और राजस्थानी हस्तशिल्प को गांव से निकाल कर अन्तरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचा दिया. उनके उत्कृष्ठ कार्यों के लिए वर्ष 2019 में उन्हें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों देश का सबसे सम्मानित ‘नारीशक्ति अवॉर्ड’ प्राप्त हुआ.

रूमा देवी राजस्थान में बाड़मेर क्षेत्र के उस दूरदराज के गांव से आती हैं जहां औरत के लिए चेहरे से घूंघट हटाना और घर की दहलीज लांघना नामुमकिन सी बात थी, लेकिन रूमा देवी ने इन बंधनों को तोड़ा और अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने समाज की अन्य महिलाओं के लिए भी सबल और सक्षम होने की राह प्रशस्त की. गरीबी और पुरुष प्रधान समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से संघर्ष की उनकी कहानी को उन्होंने ‘गृहशोभा’ के साथ साझा किया. प्रस्तुत है उनसे बातचीत के संपादित अंश –

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–  वह क्या वजहें थीं जिन्होंने आपको घर की दहलीज लांघ कर काम करने के लिए मजबूर किया?

मैं पांच साल की थी जब मेरी मां गुजर गयी. पिता ने दूसरी शादी कर ली और मुझे मेरे मामा के पास भेज दिया. मेरे मामा ने ही मुझे पाला-पोसा. उनकी आर्थिक स्थिति भी दयनीय थी. वहां मैंने आठवीं तक पढ़ाई की, लेकिन गरीबी के कारण मुझे स्कूल छोड़ कर घर के कामकाज में लगना पड़ा. रसोई बनाना, पशुओं की देखभाल के अलावा पूरे घर के लिए पीने के पानी का इंतजाम करना सब मैंने छोटी सी उम्र से किया. हमारे गांव में पानी की बहुत किल्लत थी. मैं परिवार की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए आठ से दस किलोमीटर दूर से बैलगाड़ी पर पानी भरकर लाती थी. यह मेरा रोज का काम था. 17 साल की हुई तो मेरी शादी हो गयी. मेरी जिन्दगी शादी के बाद भी आसान नहीं थी. मेरे ससुरालवाले भी बहुत गरीब थे. घर की दहलीज लांघ कर बाहर काम करने के लिए मैं तब मजबूर हुई जब मेरे डेढ़ महीने के बीमार बेटे को पैसे की तंगी के कारण इलाज नहीं मिल पाया और उसने तड़प-तड़प कर मेरे सामने दम तोड़ दिया. उस घटना ने मुझे हिला दिया और मैंने तय कर लिया कि कुछ ऐसा करना है जिससे घर में पैसा आयें और हमारी मजबूरी खत्म हो. बचपन में मां के मरने के बाद मैंने कढ़ाई का कौशल अपनी दादी से सीखा था. मुझे वह हुनर आता था तो मैंने वह काम करने की इच्छा अपने ससुरालवालों के आगे रखी. मैंने उनसे कहा कि घर की हालत सुधारने के लिए मैं काम करना चाहती हूं. वे समाज के रीति-रिवाज से डरे. लोग क्या कहेंगे, बदनामी होगी, ऐसी बातें सोचीं. हमारे गांव में औरतें आज भी लम्बे घूंघट में रहती हैं. उन्होंने मुझसे कहा कि तू बिना घूंघट के काम करेगी? मैंने कहा – नहीं, सिर पर पल्लू नहीं हटेगा. तब परिवारवाले मान गये. मैंने घूंघट में रहते हुए घर से बाहर कदम निकाला और यह काम शुरू किया.

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–  यात्रा कैसे शुरू हुई? क्या दिक्कतें आयीं और क्या उपलब्धियों हासिल हुर्इं?

2006 में मैंने कढ़ाई का काम शुरू किया. शुरुआत में मैंने लेडीज बैग और कुशन कवर आदि बनाने की सोची, मगर उस वक्त कपड़े-धागे तक के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे. फिर मैंने अपने आसपास के परिवार की औरतों से बात की. मेरे गांव की दस औरतें मेरे साथ काम करने को तैयार हो गयीं. फिर मैंने एक स्वयं सहायता समूह बनाया और सबसे सौ-सौ रुपये इकट्ठा करके कढ़ाई के लिए जरूरी सारी चीजें जैसे कपड़े, रंगीन धागे, सुईयां, कैंचियां, सामान पैक करने के लिए प्लास्टिक के थैले इत्यादि खरीदे. मैंने उन औरतों को वह कढ़ाई सिखायी जो मैंने अपनी दादी से सीखी थी. हम सबने साथ मिल कर सुन्दर-सुन्दर बैग और कुशन कवर बनाये. भाग्य से हमें खरीदार भी अपने ही गांव में मिल गये, जो हमारा सामान शहरों में ले जाकर बेचने लगे. इस तरह हमें कुछ पैसे मिलने लगे. उसके बाद तो हमारे इस ग्रुप से लगातार महिलाएं जुड़ने लगीं.

–  दस औरतों का छोटा सा समूह बाईस हजार से ज्यादा औरतों का समूह कैसे बना?

मैंने कभी यह बात स्वीकार नहीं की कि हमारे सामने सीमित संसाधन हैं या सीमित अवसर हैं. काम करने की इच्छा और हुनर होना चाहिए, रास्ते अपने आप खुल जाते हैं. जिन्दगी कभी भी आसान नहीं होती, लेकिन जूझते हैं तो जीतते हैं. मैं सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि अपने जैसी बहुत सारी गरीब औरतों के लिए काम करना चाहती थी. उन्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहती थी ताकि जो मेरी ममता के साथ हुआ, वह किसी और औरत के साथ न हो. मैंने अपने गांव की औरतों को ही यह कला नहीं सिखायी, बल्कि आसपास के गांव की औरतों को भी सिखाने लगी. क्षेत्र के काफी गांव हमारे काम से जुड़ गये. हमारे उत्पाद जब मार्केट में आये तो बाड़मेर के ‘ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान’ ने उन्हें काफी सराहा और मुझे अपना सदस्य बनने का प्रस्ताव दिया. 2008 में मैं इस संस्था की सदस्य बन गयी. फिर दो साल में ही मैं संस्था की अध्यक्ष भी चुन ली गयी. यह संस्था महिलाओं को ट्रेनिंग के साथ-साथ मार्केटिंग के गुण भी सिखाती है. इस संस्था से जुड़ने के बाद मुझे बहुत हिम्मत मिली, रास्ते खुले. मैंने कई शहरों में जाकर अपने उत्पाद मंचों पर प्रदर्शित किये और हम अन्तरराष्ट्रीय मंच तक भी पहुंचे. आज हमारे गु्रप की हर सदस्य अपने कौशल से तीन से दस हजार रुपये महीना कमा लेती है. हमारे साथ बाड़मेर की ही नहीं, बीकानेर और जैसलमेर तक की महिलाएं जुड़ी हैं. यह संख्या बढ़ती ही जा रही है.

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– आप आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश का नाम रौशन कर रही हैं. फैशन वर्ल्ड में आपके नाम और काम का डंका बज रहा है. यह उपलब्धि कैसे हासिल की?

भारत के नीति आयोग द्वारा हमारा बाड़मेर जिला सबसे पिछड़ा क्षेत्र घोषित है. यह एक पुरुष प्रधान समाज है जहां पर्दा प्रथा का पालन करने और अपने घर की दहलीज के भीतर रहने के लिए स्त्रियां मजबूर हैं. लेकिन इतनी ज्यादा गरीबी देखने के बाद और पैसे की तंगी के कारण अपने बच्चे को खोने के बाद काम करने का मेरा संकल्प इतना मजबूत था कि मैं घर-समाज के बंधन तोड़ कर बाहर आयी ताकि अपने परिवार के कल को अच्छा बना सकूं. ‘ग्रामीण विकास चेतना संस्थान’ से जुड़ने के बाद मुझे मार्केटिंग की बातें समझ में आयीं. यहां मैंने ‘फेयर ट्रेड फोरम’ के लिए उत्पाद तैयार किये. धीरे-धीरे हमें हस्तशिल्प समूह के रूप में पहचान मिलने लगी. यहीं मुझे डिजाइनर कपड़ों और फैशन वर्ल्ड के बारे में भी जानकारी मिली, लेकिन मेरे पास डिजाइनिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं थी. मैं जिस क्षेत्र में रहती हूं, वहां कोई फैशन इंस्टीट्यूट या कॉलेज भी नहीं है. बड़े शहर हमारे गांव से दूर हैं. लेकिन आगे बढ़ने का मेरा निश्चय दृढ़ था. मैंने साहस करके खुद ही कुछ प्रसिद्ध डिजाइनरों से सम्पर्क किया और उनको अपने उत्पाद दिखाये. उनमें से कुछ डिजाइनर हमारी संस्था के साथ काम करने के लिए तैयार हो गये. वर्ष 2016 में यानी अपना काम शुरू करने के दस साल बाद मैंने पहली बार ‘राजस्थान हेरिटेज वीक कार्यक्रम’ में रैम्प पर मॉडल्स के साथ अपने संग्रह को पेश किया और उनके साथ रैम्प पर भी चली. उस वक्त मैं सचमुच अपने सपने को जी रही थी. उस कार्यक्रम में मेरे द्वारा बनाये कपड़ों को बहुत सराहना मिली. धीरे-धीरे कुछ प्रसिद्ध डिजाइनरों और संस्थाओं ने हस्तनिर्मित कपड़ों और राजस्थानी कढ़ाई के लिए हमसे सम्पर्क करना शुरू कर दिया. हमने जल्दी ही विभिन्न श्रेणियों के अपने उत्पादों की बड़ी श्रृंखला बाजार में उतारी और बहुत बड़े पैमाने पर काम किया. हमारे काम ने इंटरनेशनल फैशन डिजाइनर्स को हमारे गांव तक ला दिया. आज हमें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सराहा जा रहा है. हमारे राजस्थानी हस्तशिल्प को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है. लंदन, जर्मनी, सिंगापुर और कोलंबो के फैशन वीक्स में मैं शामिल हो चुकी हूं जहां हमारे उत्पादों का बहुत सुन्दर प्रदर्शन हुआ.

–  इस क्षेत्र में अवार्ड्स की लम्बी सूची आपके नाम है. कुछ विशेष का जिक्र करें.

हां, इस काम के लिए मुझे बहुत सारे अवार्ड्स और सम्मान मिले हैं. सबसे विशेष मार्च 2019 को राष्ट्रपति कोविंद के हाथों नारीशक्ति के लिए सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘नारीशक्ति अवार्ड’ था. दूसरा मैं 6 सितम्बर 2019 का दिन नहीं भूल सकती जब मुझे टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के कर्मवीर एपिसोड में अमिताभ बच्चन जी के सामने हॉट सीट पर बैठने का अवसर मिला था. इस कार्यक्रम को पूरे देश ने देखा और मेरी कहानी जानी. इंडिया टुडे पत्रिका ने 2018 में अपने एनिवर्सरी एडिशन में मुझे कवर पर स्थान दिया. फिर मुझे ट्राइब इंडिया का ‘गुड विल एम्बेसडर एंड चीफ डिजाइनर’ का अवॉर्ड मिला. 15  फरवरी 2020 को मुझे अमेरिका में कैम्ब्रिज की हावर्ड यूनिवर्सिटी की ओर से 17वें एनुअल इंडिया कॉन्फ्रेंस के लिए पैनल मेम्बर के तौर पर आमंत्रित किया गया है. अभी 7 जनवरी को मुझे ‘जानकी देवी बजाज अवॉर्ड’ दिया गया है, जो महिला उद्यमियों को महिला सशक्तिकरण की दिशा में अच्छा काम करने के लिए दिया जाता है. इनके अलावा भी दस-बारह अवॉर्ड हैं जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर मुझे प्राप्त हुए हैं.

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–  आगे की क्या योजनाएं हैं?

गरीबी ने मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया, पुरुष प्रधान समाज से सवाल करने की हिम्मत दी कि हम औरतें क्यों नही अपने घर-परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए बाहर निकल कर काम कर सकती हैं? आज मैं औरतों को ही नहीं, पुरुषों को भी हस्तशिल्प का प्रशिक्षण दे रही हूं. हम अलग-अलग कौशल उन्नयन कार्यशालाओं का आयोजन करते हैं. आत्महत्या और कन्या भ्रूण को मां के पेट में ही मारने जैसे समाज के बुरे कार्यों के खिलाफ हम सेमिनार आयोजित करते हैं ताकि अपने क्षेत्र की महिलाओं को जागृत कर सकें, उनमें उत्साह पैदा कर सकें और उन्हें आत्मनिर्भर बना सकें. छोटे पैमाने पर अपने उद्यम कैसे स्थापित करने हैं, स्व सहायता समूहों के माध्यम से पैसा कैसे पैदा करना है, सरकार की किन योजनाओं के तहत उन्हें वित्तीय सहायता मिल सकती है, यह सारी जानकारियां हम इन कार्यक्रमों के जरिए राजस्थान के दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाते हैं और महिलाओं को रोजगार से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं. मैं ग्रामीण महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं के लिए भी कुछ करना चाहती हूं. उनके बच्चों के बेहतर कल का सपना जो उनकी आंखों में है, उसे मैं पूरा करना चाहती हूं.

आईटी छोड़ कर ब्यूटी इंडस्ट्री में आने के लिए लोग मुझे टोकते थे- अर्पिता दास

अर्पिता दास, फाउंडर, बिजनैस बाई अर्पिता

अर्पिता दास ब्यूटी प्रोफैशनल हैं. उन्होंने भारत में अपनी ब्यूटी ऐंड वैलनैस कंसल्ंिटग कंपनी की शुरुआत की जिस का नाम ‘बिजनैस बाई अर्पिता’ रखा.

ब्यूटी ऐंड वैलनैस को बाहर और अंदर से अच्छी तरह जानने के बाद अर्पिता ने महसूस किया कि ब्यूटी प्रोफैशनल्स को बहुत कुछ सीखने और जानने की जरूरत है और इस के लिए एक सही मार्गदर्शक की जरूरत है. इसी मकसद से उन्होंने 3000 से अधिक औपरेटरों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशिक्षित किया है. उन्होंने लैक्मे, काया स्किनकेयर और वीएलसीसी जैसे ब्रैंड्स के लिए कौरपोरेट ट्रेनिंग भी दी है.

उन्होंने इंडियन सैलून ऐंड वैलनैस कांग्रेस द्वारा व्यक्तिगत श्रेणी में ‘ऐक्सीलैंस इन ऐस्थैटिक्स कस्टमर सर्विस’ पुरस्कार भी जीता है. हाल ही में ‘बिजनैस बाई अर्पिता’ को ब्यूटी, वैलनैस ऐंड पर्सनल केयर में ‘ऐसोचैम स्टार्टअप औफ द ईयर 2018’ के अवार्ड से भी सम्मानित किया गया. पेश हैं, अर्पिता से हुए कुछ सवालजवाब:

इस मुकाम तक पहुंचने के क्रम में किस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ा?

किसी भी मुकाम तक पहुंचने के लिए संघर्ष का सामना तो क रना ही पड़ता है. मुझे भी करना पड़ा. मेरे लिए जरूरी था कि मैं ब्यूटी इंडस्ट्री की सारी जानकारी लूं. मैं कई पार्लर्स में गई. वहां काम करने के आधुनिक तरीके देखे. देखा कि क्याक्या प्रोडक्ट्स यूज होते हैं. जब मैं इस इंडस्ट्री में आई तो मुझे पता चला कि ब्यूटी इंडस्ट्री हरकोई नहीं चुनता, क्योंकि सब को लगता है कि यह काम बहुत छोटा है. वैसे भी मेरी बैकग्राउंड आईटी की रही है. लोग टोकते थे कि मैं आईटी छोड़ कर ब्यूटी इंडस्ट्री में क्यों आ गई. लोगों को यह समझा पाना बहुत कठिन था कि मैं इस इंडस्ट्री को बहुत पसंद करती हूं.

भारत में महिलाओं की स्थिति पर क्या कहेंगी?

इस मुद्दे पर काफी कुछ कहा जा सकता है. मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगी कि पहले और आज की महिलाओं में बहुत अंतर है. पिछले 10-15 साल में काफी बदलाव आए हैं. कई संस्थाएं हैं, जिन्होंने महिलाओं की स्थिति को बदलने के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं. आज हर फील्ड में महिलाएं पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही हैं. मैं ने महिलाओं को मैट्रो, ट्रक, के्रन चलाते और अपने घर व बच्चों का ध्यान रखते हुए भी देखा है. स्थिति पहले से काफी बेहतर है.

एक महिला के तौर पर आगे बढ़ने के क्रम में क्या कभी असुरक्षा का एहसास हुआ?

हां, महिला होने के नाते कई मौकों पर असुरक्षित महसूस होता है. हमें कहीं जाने के लिए समय देखना पड़ता है. मैं जिस इंडस्ट्री में हूं वहां भी पुरुष मौजूद हैं पर हमें असुरक्षित महसूस नहीं होता. लोगों को लगता है कि महिलाओं में इतनी क्षमता नहीं है कि वे ज्यादा काम कर पाएं और चीजों को बखूबी निभा पाएं.

घर और काम एकसाथ कैसे संभालती हैं?

दोनों चीजों का संतुलन बनाए रखना बहुत जरूरी है खासकर एक महिला के तौर पर आप को थोड़ा ज्यादा जिम्मेदार होना पड़ता है. आप को घर के साथसाथ अपने काम को भी संभालना होता है. कई जगह सिर्फ महिलाओं को ही काम करना पड़ता है. यदि आप मां हैं तो आप को अपने बच्चे की ओर ज्यादा ध्यान देना होता है और यदि आप की फैमिली, आप के दोस्त सपोर्टिव हैं तो कोई भी काम आप के लिए मुश्किल भरा नहीं रह जाता. मेरे मांबाप बहुत सपोर्टिव हैं. उन्होंने मुझे किसी भी चीज के लिए नहीं रोका.

क्या आज भी महिलाओं के साथ अत्याचार और भेदभाव होते हैं?

हां, अभी भी महिलाएं खुल कर नहीं जी पाती हैं. कई घटनाएं आए दिन हम सब के सामने आती रहती हैं. इतने कानूनों के बाद भी क्राइम रुक नहीं रहे हैं. मेरे सैंटर में भी जब कोई महिला अपनी कहानी बताती है तो जितना हो सकता है मैं उस की हैल्प करती हूं.

 Women’s Day 2020: कामयाबी मिलते ही आप के पीछे पूरा कारवां होगा- नीतू श्रीवास्तव

नीतू श्रीवास्तव, समाजसेविका

नीतू ने समाज के निर्धनों, बेसहारों, वृद्धों, दिव्यांगों और बच्चों को भिक्षावृत्ति व महिलाओं को वेश्यावृत्ति के चंगुल से मुक्त कराया. समाजसेवा के क्षेत्र में और बेहतर कार्य करने के लिए 2 मार्च, 2019 को ‘श्रुति फाउंडेशन’ की नींव रख कर वे उपेक्षित वर्ग के उत्थान के मार्ग पर निकल पड़ीं.

बेसहारों को सहारा देने के लिए जानी जाने वाली नीतू श्रीवास्तव का जन्म छत्तीसगढ़ के भिलाई शहर में एक सामान्य परिवार में हुआ था. उन में सामाजिक हितों के लिए कार्य करने की भावना स्कूल टाइम से ही थी.

समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रैजुएट होने के साथ ही नीतू ने आईटीआई से इलैक्ट्रौनिक्स व पीजी कंप्यूटर कोर्स भी किया है. ब्यूटीशियन के तौर पर अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली नीतू श्रीवास्तव में समाजसेवा का जनून इस कदर सवार था कि उन्होंने इस की खातिर अपने पार्लर को बंद कर समाजसेवा की ओर उन्मुख होना ज्यादा बेहतर समझा. आइए, जानते हैं उन से उन के इस सफर के बारे में:

समाजसेवा के क्षेत्र में आने की पे्ररणा कहां से मिली?

समाजसेवा में आने की प्रेरणा मुझे स्कूल टाइम से मिली जब मैं स्काउट गाइड में थी. हमें मिशनरी के साथ कुष्ठ उन्मूलन शिविर में ले जाया जाता था और रोगियों की सेवा कैसे की जाती है यह सिखाया और बताया जाता था. इस तरह मेरा झुकाव दीनदुखियों की तरफ होने लगा. समय के साथ सेवा की भावना बढ़ती गई. दूसरों के दुख अपने लगने लगे तो निर्णय लिया कि चाहे कितनी भी व्यस्त दिनचर्या क्यों न हो अपना समय समाजसेवा में जरूर दूंगी और फिर इस फील्ड में आ गई.

सामाजिक संगठनों से कैसे जुड़ीं?

इस दिशा में अकेले कुछ भी करना मुमकिन नहीं था. अत: मैं समाजहित में जो भी कार्य करती, उसे फेसबुक पर शेयर कर देती, जिस से समाज के लोगों व कई सामाजिक संगठनों की नजर मुझ पर पड़ी. वहीं से मुझे कई सामाजिक संगठनों से जुड़ने के औफर मिलने लगे. इन के साथ जुड़ कर मैं ने कुछ समय ही काम किया. फिर अपने विचारों के साथ आगे बढ़ी.

भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति आज देश की 2 बड़ी समस्याएं हैं. इन के लिए अपनी जंग के बारे में बताएं?

भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति का कारण पैसों की कमी, मजबूरी व शिक्षा की कमी है, साथ ही लोगों में जागरूकता का अभाव भी एक कारण है. हम अपनी जंग के अंतर्गत इन कार्यों से जुड़े लोगों को इन के बुरे अंजाम से अवगत करा कर उन्हें इन से दूर करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें इन कार्यों से दूर कर उन के पुनरुत्थान की कोशिश कर रहे हैं.

‘बड़े सामाजिक संगठन नाम बड़े दर्शन छोटे’ इस बारे में आप का क्या कहना है और कैसे आप खुद को इस फील्ड में अलग साबित कर पा रही हैं?

बड़ेबड़े संगठन सिर्फ बाहर से बड़े लगते हैं, पर अंदर से खोखले होते हैं. अपने समाज के लोग ही जब अपने समाज की मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं तो बड़ा दुख होता है. मेरा संघर्ष यहीं से शुरू हुआ. अब मैं जमीनी स्तर पर कार्य कर के खुद को इस फील्ड में अलग साबित कर पा रही हूं. यह जरूरी नहीं कि बड़ेबड़े डोनेशन हों तभी कोई कार्य मुमकिन हो सकता है. हम शासनप्रशासन के सहयोग से भी कई कार्यों को अंजाम दे सकते हैं. मददगार और शासन के बीच की कड़ी बन कर अर्थात् बहुत से कार्य माध्यम बन कर भी किए जा सकते हैं, जो हम कर रहे हैं.

किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

कई तरह की चुनौतियां सामने आती हैं खासकर मैडिकल फील्ड में. लोगों को पैसा और मदद तो चाहिए पर करना वही चाहते हैं जो उन का मन करता है. ऐसे में हमें उन्हें बहुत समझाना पड़ता है कि हम आप के लिए जो कर रहे हैं वह सही है. कई बार जब किसी वादविवाद के कार्य में आगे आओ तो लोग बयान देने में पीछे हटने लगते हैं, जिस की वजह से कोई भी केस हलका होने लगता है.

महिलाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी?

अगर आप के अंदर जनून है और कुछ करने की चाह, तो अपने आत्मविश्वास को बनाए रखें. परेशानियों और संघर्ष के दौर से घबराएं नहीं. संघर्ष के दौर में भले ही आप के साथ कोई न हो पर कामयाबी मिलते ही आप के पीछे पूरा कारवां होगा. जब तक आप खुद अपनी काबिलीयत को नहीं पहचानेंगी कोई आप को न जानेगा और न समझेगा.

Women’s Day 2020: जानें क्या कहते हैं बौलीवुड सितारे

महिला दिवस हर साल किसी न किसी रूप में विश्व में मनाया जाता है. महिलाएं आज आजाद है, पर आज भी कई महिलाएं बंद कमरे में अपना दम तोड़ देती है और बाहर आकर वे अपनी व्यथा कहने में असमर्थ होती है. अगर कह भी लिया तो उसे सुनने वाले कम ही होते है. इस पर कई फिल्में और कहानियां कही जाती रही है पर इसका असर बहुत कम ही देखने को मिलता है. आखिर क्या करना पड़ेगा इन महिलाओं को, ताकि पुरुष प्रधान समाज में सभी सुनने पर मजबूर हो? कुछ ऐसी ही सोच रखते है हमारे सिने कलाकार आइये जाने उन सभी से,

तापसी पन्नू

महिलाओं को पुरुषों के साथ सामान अधिकार मिले. ये केवल कहने से नहीं असल में होने की जरुरत है. इसके लिए समय लगेगा, पर होनी चाहिए. महिलाओं को भी अपनी प्रतिभा को निखारने और लोगों तक पहुंचाने की जरुरत है. आज महिला प्रधान फिल्में बनती है, क्योंकि महिलाओं ने अपनी काबिलियत दिखाई है. आज दो से तीन फिल्में हर महीने महिला प्रधान रिलीज होती है और लेखक ऐसी कहानियां लिख रहे है और निर्माता निर्देशक इसे बना भी रहे है.

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आलिया भट्ट

मैं हमेशा ये कहती रही हूं कि आपके सपने को आप कैसे भी पूरा करें. आप खुद अपने आप को औरत समझकर कभी पीछे न हटें. पुरुष प्रधान समाज में हमेशा लोग कहते रहते है कि आप औरत है और आपसे ये काम नहीं होगा. मेरे हिसाब से ऐसा कुछ भी नहीं है, जो औरतें कर नहीं सकती. आपमें बस हिम्मत की जरुरत है और यही मुझे दिख भी रहा है.

अंकिता लोखंडे

 

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My Dear #saree u were, u are, and u will be my first love forever ?#saree #indianbeauty ???????

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महिला दिवस महिलाओं के लिए एक अच्छा दिन है, लेकिन हर महिला को हमारे देश में सम्मान मिलने की जरुरत है. किसी औरत पर कुछ समस्या आने पर मैं सबसे पहले उसके लिए खड़ी होती हूं. मैं थोड़ी फेमिनिस्ट हूं. इसके अलावा आज की सभी लड़कियां भी बहुत होशियार है और इसे मैं अच्छा मानती हूं, वे जानती है कि उन्हें क्या करना है. मेरी छोटी बहन भी अपने हर काम में हमेशा फोकसड रहती है और वैसे आज के यूथ भी है. ये ग्रोथ है और इसे आगे बढ़ाने में सबका सहयोग होना चाहिए. महिला सशक्तिकरण ऐसे ही होगा,लेकिन कहना बहुत मुश्किल है कि महिलाओं का विकास कितना हुआ है, क्योंकि जहाँ भी पुरुषों को मौका मिलता है, वे उसे दबाने की कोशिश करते है, ऐसे में महिलाओं को बहुत मजबूत होने की जरुरत है. यही वह पॉवर है जब आप ऐसे किसी बात के लिए ना कह सकें. ‘ना’ कहने के लिए शिक्षा जरुरी है.

काजोल

 

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Sometimes a smile just isn’t enough…… #blue #leaveitlikethat #kapilsharmashow

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महिला दिवस मनाने से महिलाओं को ख़ुशी नहीं मिल सकती. उन्हें अलग नहीं बल्कि पुरुषों के समान अधिकार मिलने की जरुरत है. इसके लिए सभी महिलाओं को साथ मिलकर काम करनी चाहिए, क्योंकि अधिकतर एक महिला दूसरे को नीचा दिखाती है, जो ठीक नहीं. इसके अलावा एक माँ को अपने बेटे को मजबूती से परवरिश करने की जरुरत है , ताकि बड़े होकर वह किसी भी महिला को सम्मान दे सके.

नीना कुलकर्णी

महिलाओं पर अत्याचार सालों से होता आया है, पहले वे बंद कमरे में रहकर इसे सहती थी, क्योंकि कोई जानने या सुनने पर शर्म उस महिला के लिए ही होती थी, पर आज महिलाओं ने अपनी आवाज बुलंद की है और आगे आकर अपराधी को दंड देने से नहीं कतराती. इसमें भागीदारी सभी महिलाओं की जरुरी है, ताकि ऐसे दौर से गुजरने वाली किसी भी महिला को न्याय मिले, भूलकर भी कभी उनकी आलोचना न करें.

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प्रणाली भालेराव

महिला प्यार और केयर की प्रतिमूर्ति है. जितना एक महिला इसे कर सकती है, उतना कोई नहीं कर सकता. इसलिए इसके माँ, बहन, बेटी आदि कई रूप में देखने को मिलती है. महिला दिवस केवल एक दिन ही नहीं. बल्कि हमें हर दिन उतना ही प्यार, केयर और सम्मान उन्हें देनी चाहिए, जो हर रूप में हर दिन हमारे आसपास रहती है. तभी कोई आगे बढ़ सकता है. महिलाओं को भी अपनी देखभाल बिना डरे अपने लिए करनी चाहिए. मैंने वैसा ही किया और आज मुझे सबका सहयोग मिला है. गृहशोभा की सभी महिलाओं को महिला दिवस की शुभ कामनाएं देती हूं, ताकि वे हमेशा अपने जीवन में खुश रहे.

राजीव खंडेलवाल

 

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महिला दिवस मेरे लिए बहुत ख़ास है और मैं इस दिन को अपने पूरे परिवार के साथ मनाना पसंद करता हूं, क्योंकि मेरे आसपास महिलाएं ही किसी न किसी रूप में मेरे साथ है और उनकी वजह से मैं यहाँ तक पहुंच पाया हूं. ये केवल एक दिन नहीं हर दिन उनको ही समर्पित है. मैं उन्हें हमेशा सम्मान देता हूं, क्योंकि उनके बिना किसी की जिंदगी संभव नहीं.

जानलेवा हमले भी सुनीता कृष्णन को डिगा न सके

बचपन से ही समाजसेवा के कार्यों से जुड़ने वाली सुनीता कृष्णन ने बलात्कार पीड़ित, ट्रैफिकिंग की शिकार महिलाओं, बच्चियों और तस्करों के शिकंजे में फंसे बच्चों को बचाने में अपना जीवन झोंक दिया है. उन पर सत्रह बार जानलेवा हमले हुए, मगर यह हमले सुनीता कृष्णन को उनके मजबूत इरादों से डिगा नहीं पाये. उनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, लाठी-डंडों से हमले हुए, उन पर एसिड फेंकने की कोशिश हुई, जहर देकर मार डालने की कोशिश हुई, लेकिन इन तमाम हादसों ने सुनीता को पीड़ित नहीं, बल्कि योद्धा बना दिया. दर्द और दहशत के कठिन दौर ने उनके जज्बे को और मजबूत कर दिया. सुनीता बीते तीस सालों से समाजसेवा के क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. पंद्रह साल की छोटी सी उम्र में दलित समुदाय को साक्षर बनाने की एक मुहिम के दौरान सुनीता के साथ गांव के आठ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया था. तब उनको बुरी तरह मारा-पीटा गया था. इस हादसे ने उनको और उनके परिवार को बुरी तरह डरा दिया था, मगर डर के आगे जीत है. सुनीता इस हादसे के बाद औरतों पर जुल्म ढाने वाले अपराधियों के खिलाफ और तन कर खड़ी हो गयीं.

सुनीता कृष्णन का जन्म बेंगलुरु के पालक्कड़ में मलयाली माता पिता – राजा कृष्णन और नलिनी कृष्णन के घर हुआ था. उनके पिता सर्वेक्षण विभाग में काम करते थे, जो पूरे देश के लिए नक़्शे बनाते हैं. इस तरह उनके साथ एक जगह से दूसरी जगह यात्रा के दौरान कृष्णन भारत का अधिकांश क्षेत्र देख चुकी हैं. सुनीता कृष्णन बचपन से ही सामाजिक गतिविधियों में संलग्न हो गयी थीं. आठ साल की छोटी सी उम्र में उन्होंने मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें नृत्य सिखाना शुरू किया. बारह वर्ष की आयु में वह वंचित बच्चों के लिए झुग्गियों में स्कूल चलाने लगीं. पंद्रह वर्ष की आयु में जब वह दलित वर्ग के लोगों के लिए कम्युनिटी नव साक्षरता अभियान से जुड़ कर काम कर रही थीं, तब गांव के आठ दबंगों ने उनका सामूहिक बलात्कार किया, उनकी इतनी बुरी तरह पिटायी की गयी कि उनका एक कान खराब हो गया. इस भयानक घटना के बाद सुनीता की जिन्दगी दहशत और दर्द से भर गयी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी बल्कि एक संस्था बनायी – प्रज्जवला, जो कमजोर वर्ग के प्रति होने वाले अपराधों, महिलाओं और छोटी-छोटी बच्चियों की तस्करी और वेश्यावृत्ति के खिलाफ आवाज बुलन्द करती है.

सुनीता कहती हैं, ‘जब मेरे साथ सामूहिक बलात्कार हुआ तो समाज का जो रवैय्या मैंने अपने प्रति देखा, कि जैसे लोग मुझे देखते थे, सवाल करते थे, मुझे बहुत दुख होता था. किसी ने नहीं पूछा कि उन दबंगों ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? लोग मुझसे ही सवाल करते थे कि मैं वहां क्यों गयी? मेरे माता-पिता ने मुझे आजादी क्यों दी? मुझे एहसास हुआ कि मेरे साथ ऐसा एक बार हुआ, लेकिन कितनी महिलाएं हैं, जो बेची जाती हैं, वेश्यावृत्ति में ढकेली जाती हैं, उनके साथ तो यह हर रोज हो रहा है. वह कैसे सहती होंगी ये दर्द, उन्हें बचाना है.’

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अब तक सैकड़ों बच्चियों और स्त्रियों को सेक्स ट्रैफिकिंग से बचाने वाली सुनीता कृष्णन की कहानी सुनकर बॉलिवुड एक्ट्रेस अनुष्का शर्मा ने ट्वीट किया था – ‘सुनीता कृष्णन ने एक भयावह सच्चाई को, जो एक धर्मयुद्ध की तरह है, समाज के सामने रखा है. यह न सिर्फ चौंकाने वाला, बल्कि बेहद दर्दनाक भी है. वह महिलाओं और छोटी बच्चियों को सेक्स ट्रैफिकिंग से बचाने का अद्भुत कार्य कर रही हैं.’
वर्ष 2016 में देश का चौथा सर्वोच्च सम्मान पदमश्री और मदर टेरेसा अवॉर्ड से सम्मानित सुनीता कृष्णन के साहसिक कार्यों पर उनसे हुई बातचीत के संक्षिप्त अंश –

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आप बचपन से ही समाजसेवा में जुट गयी थीं, जिस में अनेक खतरे और हादसे आपने झेले, क्या कभी आपके परिजनों ने आपके काम पर आपत्ति नहीं की या इस काम को छोड़कर अन्य दिशा में करियर बनाने पर जोर नहीं दिया?

मैं बहुत छोटी उम्र से समाजसेवा के कार्य से जुड़ी हूं. 15 बरस की उम्र में गांव के दलित और पीड़ित लोगों की शिक्षा के एक कार्यक्रम के चलते जब विरोधियों द्वारा मेरा सामूहिक बलात्कार हुआ तो इस घटना ने मेरे जीवन में बहुत कुछ बदल दिया. उन घटना के बाद जहां मेरे अन्दर एक विरक्ति सी आ गयी, वहीं परिवार भी चुप सा हो गया. सबने मेरी तरफ से चुप्पी ओढ़ ली. वह बड़ा अजीब तरह का व्यवहार था. मुझे समझ में नहीं आता था कि वह मुझे दुत्कार रहे हैं, या मुझे आगे बढ़ने के लिए खामोशी से रास्ता दे रहे हैं. उस समय तो यही लगता था कि वह मुझे दुत्कार रहे हैं, लेकिन अब पच्चीस-तीस साल गुजरने के बाद जब मैं पीछे मुड़ कर बचपन के उन दिनों को याद करती हूं तो लगता है उनकी चुप्पी ने मेरा आगे बढ़ने का रास्ता ही प्रशस्त किया. अगर वह बोलते, रोक-टोक करते तो शायद आज मैं इतना काम नहीं कर पाती.

अपनी संस्था ‘प्रज्जवला’ की स्थापना के विषय में कुछ बताएं. कब और किन उद्देश्यों के तहत आपने इस संस्था का गठन किया?

प्रज्जवला की स्थापना सन् 1996 में वेश्यावृत्ति उन्मूलन के उद्देश्यों के तहत की थी. लेकिन जैसे-जैसे हमारा काम बढ़ता गया, मैंने पाया कि यह तो संगठित अपराध है, जिसे संगठित गिरोहों के जरिए चलाया जाता है. इसमें बच्चियों का अपहरण, उनकी सौदेबाजी, देश के एक कोने से दूसरे कोने में उनको भेजना, देह-व्यापार के लिए मजबूर करना, बड़े चकलाघरों तक पहुंचाना और कई बार यह सब पुलिस की जानकारी में होना या उनकी संलग्नता भी दिखायी दी. फिर तो यह बड़ा आन्दोलन बन गया. हम कई मोर्चों पर लड़ने लगे. वेश्यावृत्ति के चुंगल से न सिर्फ बच्चियों को बचाना हमारा काम रह गया, बल्कि उनके परिजनों को ढूंढना, उन्हें उन तक पहुंचाना, अगर वह उन्हें वापस नहीं लेते तो उनका पुनर्वास कैसे हो, इसको लेकर जूझना, उनकी कानूनी लड़ाइयां ऐसी तमाम बातों को भी देखना पड़ा. कई बार महिलाओं के साथ उनके मासूम बच्चे भी होते हैं. उन्हें भी निकालना पड़ता है. आपको यकीन नहीं होगा ऐसे ही एक अभियान के दौरान हमने तीन साल की मासूम बच्ची को एक चकलाघर से निकाला, जिसे वेश्यावृत्ति के लिए बेचा गया था.

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आप तीन दशकों से ट्रैफिकिंग की शिकार महिलाओं-बच्चियों को बचाने में जुटी हैं. क्या उन तमाम महिलाओं-बच्चियों को उनके घरवाले आसानी से स्वीकार कर लेते हैं?

नहीं, ज्यादातर मामले में ऐसा नहीं होता है. यह बहुत बड़ी विडम्बना है महिलाओं की. कई बार तो परिवार वाले उनको पहचानने से ही इन्कार कर देते हैं. बहुतेरी महिलाओं या बच्चियों को तो खुद उनके परिवार वालों ने ही दलालों के हाथों बेचा होता है, ऐसी हालत में वह उनको हमसे वापस तो ले लेते हैं, मगर कुछ दिन बाद उन्हें किसी दूसरे दलाल को बेच देते हैं. ऐसे में हमें बड़ी सतर्कता बरतनी पड़ती है. नजर रखनी पड़ती है. महिलाओं को भी लगता है कि उनका जीवन खत्म हो चुका है, उन्हें कौन अपनाएगा, तो वह भी इसी दलदल में बनी रहना चाहती हैं. हम अपनी संस्था के जरिए मानव तस्करी और वेश्यावृत्ति की रोकथाम, बचाव, पुनर्वास, पुनर्मिलन और उनके कानूनी पक्ष को लेकर काम करते हैं. इसके अलावा हमारी कोशिश होती है कि अपराधी को सजा तक पहुंचाया जाए. इस सम्बन्ध में जो भी कानूनी प्रक्रिया होती है, हम उस पर लगातार नजर रखते हैं.

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बलात्कार पीड़ित महिला के प्रति समाज के रवैय्ये में बदलाव कैसे आए? वह कैसे डर, दर्द और बदनामी से बाहर निकले?

देखिए, जब तक हम औरत की सुरक्षा के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराते रहेंगे, औरत कभी सुरक्षित नहीं हो सकती. हमें अपने बेटों को, अपने भाइयों को समझाना होगा, अपने बेटे की परवरिश इस तरह से करनी होगी कि वह समझे कि औरत की रक्षा करना उसका पहला कर्तव्य है. उसके दिल में बचपन से ही औरत के प्रति इज्जत हो, उसको सुरक्षा देने की भावना हो. जब ऐसी सीख के तहत हमारे बेटे, हमारे भाई बड़े होंगे तब समाज बदलेगा और तब औरत सुरक्षित होगी. बेटों को बताना होगा कि अगर कोई औरत किसी घटना की शिकार हुई है तो उसकी जिम्मेदार वह नहीं है, बल्कि वह पुरुष है जिसने उसके साथ ऐसा अपराध किया है. इसके लिए औरत को शर्मिन्दा होने की जरूरत नहीं है, इसके लिए पुरुष को शर्मिन्दा होने और सजा भुगतने की जरूरत है.

आपके इस काम में आपके परिवार, ससुराल और पति का क्या सहयोग और योगदान रहा है? क्या उन्होंने कभी आपके इन दुस्साहसिक कार्यों पर आपत्ति दर्ज की या इसे छोड़ने के लिए कहा?

sunita

मैंने जिस रास्ते पर कदम बढ़ाया, उस रास्ते को कभी छोड़ा नहीं. मेरे काम के बारे में कौन क्या सोचता है, कौन क्या बोलता है, इस तरफ मैंने कभी ध्यान नहीं दिया. बहुत सारे लोग बहुत सारी बातें करते होंगे, लेकिन मैंने बहुत सालों से किसी भी ऑब्जेक्शन की ओर देखना बंद कर दिया है. मैं बहुत भाग्यवान हूं कि मेरे पति राजेश टोचरीवर ने मेरा हर कदम पर साथ दिया. उनका जो सपोर्ट है वह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. वे मेरे रीढ़ की हड्डी हैं. मैं उतनी दूर-दृष्टि वाली महिला नहीं हूं, मगर राजेश में बहुत दूर तक देख लेने की क्षमता है और वह मेरा मार्गदर्शन करते हैं, मुझे देखने-समझने की शक्ति देते हैं. मेरे हर कदम पर वह मेरे साथ हैं, मुझे इस बात से बहुत प्राउड फील होता है. आपको यकीन नहीं होगा कि मेरे ऊपर अब तक 17 बार जानलेवा हमले हो चुके हैं. मुझ पर ऑटोरिक्शा में जाते वक्त एसिड फेंका गया, जहर खिलाने की कोशिश हुई, यहां तक कि तलवार से भी हमला हुआ, मगर मैं हर बार बच निकली. मैं मरने से नहीं डरती, जब तक मेरी सांस है मैं पीड़ित लड़कियों को वेश्यालयों से निकालती रहूंगी और मेरे इस काम में मेरे पति का पूरा सहयोग मुझे है.

समाज और परिवार दोनों मोर्चों को कैसे संभालती हैं?

मेरे लिए दोनों एक ही हैं. कोई ड्यूएल लाइफ नहीं है मेरी. मेरा काम ही मेरा घर-परिवार और समाज है. आपको यकीन नहीं होगा कि बीते बीस सालों में तो मैंने अपने काम से एक दिन भी छुट्टी नहीं ली है. संडे क्या होता है मुझे नहीं मालूम. मेरे पति ने कभी मुझसे यह नहीं कहा कि इतवार की छुट्टी है तो आज घर पर रहो या खाना बनाओ. जब वह जल्दी लौट आते हैं तो वह खाना बना लेते हैं, जब मैं जल्दी लौट आती हूं तो मैं बना लेती हूं.

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अपनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों और किताबों के विषय में बताएं?

मैंने एचआईवी, वेश्यावृत्ति, मानव तस्करी समेत अन्य सामाजिक विषयों पर करीब 14 डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनायी हैं. यह फिल्में हिन्दी और तेलुगू भाषा में हैं, जिनमें से कई को अवॉर्ड भी हासिल हुए हैं. इसके अलावा मैंने ह्यूमन ट्रैफिकिंग पर कुछ किताबें भी लिखी हैं.

Women’s Day 2020: रूढ़िवादी सोच के कारण महिलाएं आधुनिक तौर-तरीके नहीं अपना पा रहीं- अनामिका राय सिंह

अनामिका राय सिंह, व्यवसायी

उत्तर प्रदेश के गोंडा और गाजीपुर जैसे छोटे जिलों में पढ़ाई करने के बाद राजधानी लखनऊ आईं अनामिका राय ने कम समय में ही बिजनैस के क्षेत्र में काम कर के न केवल खुद को साबित किया, बल्कि आज बहुत सारे लोगों को रोजगार भी दे रही हैं. वे कहती हैं कि महिलाओं को अपना पढ़ने का शौक बढ़ाना चाहिए. इसी से तरक्की का रास्ता निकलता है. पेश हैं, अनामिका से हुई गुफ्तगू के कुछ अंश:

अपने बारे में विस्तार से बताएं?

मेरे पिता गोंडा जिले की आईटीआई कंपनी में काम करते थे. स्कूल के दिन मेरे वहां बीते. केंद्रीय विद्यालय आईटीआई गोंडा से 12वीं कक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ आ गई. लखनऊ मेरे लिए बड़ा शहर था. लखनऊ विश्वविद्यालय से फूड न्यूट्रिशन में बीएससी करने के बाद ‘एचआर और मार्केटिंग’ में एमबीए किया. इस के बाद शादी हो गई. कुछ समय के बाद मुझे लैक्मे के सैलून की फ्रैंचाइजी लेने का मौका मिला. मुझे लगा कि यह काम मैं कर सकती हूं. अत: मैं ने काम शुरू किया. कामयाबी मिली तो 2 सालों में ही लखनऊ में 3 लैक्मे के सैलून खोल लिए.

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पहले लोगों को लगता था कि मैं इस काम को नहीं कर पाऊंगी, क्योंकि कालेज के बाद शादी और शादी के बाद यह बिजनैस. लोग समझते थे कि मुझे कोई अनुभव नहीं है. अपनी मेहनत से सफलता हासिल करने के बाद मुझे खुद पर भरोसा हुआ. फिर समाज के सामने खुद को साबित किया. तब लोगों की आलोचनाएं बंद हुईं. मुझे लगता है कि सफलता ही वह चीज है, जो आलोचनाएं बंद कर सकती है. मुझे ‘यंगैस्ट वूमन ऐंटरप्रन्योर 2017’ और ‘शख्सीयत ए लखनऊ’ जैसे सम्मान भी मिले.

बिजनैस से मिली सफलता के बारे में कुछ बताएं?

एक बार बिजनैस में कदम बढ़ाने के बाद मैं ने ब्यूटी के बाद फैशन के क्षेत्र में काम करना शुरू किया. ‘द इंडियन सिग्नोरा’ नाम से फैशन स्टोर खोला, जिस में हर तरह के लेडीज परिधान उपलब्ध हैं. इस के साथ ही ‘कौफी कोस्टा’ नाम से कैफे का बिजनैस भी शुरू किया. बिजनैस के अलगअलग क्षेत्रों में काम करना अच्छा रहता है ताकि कभी एक सैक्टर किसी कारण से प्रभावित हो तो दूसरे सैक्टर से मदद मिल सके. महिला होने के नाते बिजनैस को संभालना थोड़ा कठिन काम होता है. बिजनैस के लिए समयबेसमय आप को बाहर जाना पड़ता है, तरहतरह के लोगों से मिलना पड़ता है. ज्यादातर काम करने वाले पुरुष ही होते हैं. इस से काम करने में कुछ परेशानियां भी आती हैं. मगर उन का सामना कर के ही आगे बढ़ा जा सकता है.

व्यवसाय के अलावा और क्या पसंद है?

मेरी रुचि बिजनैस करने में नहीं थी. मुझे किताबें पढ़ने और लिखने का शौक था. स्कूलकालेज के दिनों से मैं लेख, गीत, कविताएं, व्यंग्य, कहानियां लिखती थी. संगीत में भी रुचि रखती थी. इस दिशा में ही अपना कैरियर आगे बढ़ाना चाहती थी. 2015 में मेरा पहला काव्य संग्रह ‘अनामिका’ प्रकाशित हुआ, जिस में दिल को छूने वाली 42 कविताएं प्रस्तुत की गईं. काव्य संग्रह के बाद रियल स्टोरी बेस्ड एक नौवेल लिखने पर काम कर रही हूं. मगर बिजनैस के चलते अब समय नहीं मिल रहा, जिस की वजह से उसे पूरा करने में समय लग रहा है.

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क्या अब महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया है?

यह सच है कि महिलाओं की हालत में अब बहुत बदलाव आया है. अब छोटेछोटे शहरों की लड़कियां भी खुद को साबित कर रही हैं. परिवार का भरोसा पहले से अधिक बढ़ रहा है. मगर इस सब के बीच कुछ नई चुनौतियां भी सामने हैं, जिन में महिलाओं की सुरक्षा सब से बड़ा मुद्दा बन गया है. इस पर समाज और कानून को ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. महिलाओं में रूढि़वादी सोच भी है जिस के चलते वे आधुनिक सोच के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल पा रहीं. यह बदलाव महिलाओं को खुद करना है. अब जब वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं, तो उन्हें अपनी हैल्थ, डाइट और फिटनैस पर भी ध्यान देने की जरूरत है.

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