बेदाग, कांतिमय और गोरीउजली त्वचा की चाहत किस की नहीं होती है. भारतीयों में गोरेपन की चाहत गहरी पैठी हुई है, जिस के चलते उजली त्वचा को सौंदर्य के मानदंड का पहला पैमाना माना जाता है. अपनी इस चाहत को पूरा करने के लिए महिलाएं ब्लीचिंग का सहारा लेती हैं. त्वचा को ब्लीच करने का चलन 19वीं सदी के 30वें दशक में शुरू हुआ, जब एक रसायन कंपनी में काम करने वाले एफ्रोअमेरिकन कर्मचारी को अपनी त्वचा पर एक हलका धब्बा नजर आया था. उस धब्बे की जांचपड़ताल करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा मोनोबेंजाइल ईथर औफ हाइड्रोक्वनिन नामक रसायन के त्वचा के संपर्क में आने से हुआ था.
लिहाजा, शुरुआत में इस रसायन को ब्लीचिंग एजेंट के रूप में प्रयोग किया जाने लगा. बदलते समय के साथ आज बाजार में ऐसी ब्लीचिंग क्रीमें भी उपलब्ध हैं, जो रसायनों के साथ जड़ीबूटियों को मिला कर बनाई जाती हैं.
फेम और डाबर जैसी कंपनियों की रिसर्च विंग से 7 सालों से जुड़ी असिस्टेंट मैनेजर प्रीति गरुड़ कहती हैं, ‘‘हमारे देश में पुराने समय से ही यह जानकारी है कि कुछ जड़ीबूटियों में त्वचा को ब्लीच करने का गुण होता है. हलदी, तमालपत्र, रक्तचंदन, कस्तूरी मंजाल, पत्तंग, केसर और जावित्री आदि जड़ीबूटियां त्वचा में निखार लाने के साथसाथ उस में उपस्थित मेलानिन पिगमेंट को भी कम करती हैं. ये जड़ीबूटियां ब्लीचिंग के साथसाथ त्वचा की टोनिंग और उसे पोषण देने का भी काम करती हैं, इसलिए हमारी यह कोशिश रहती है कि रासायनिक तत्त्वों के साथ प्राकृतिक तत्त्व भी ब्लीच क्रीम का उपयोग करने वालों को मिलें.’’