फिल्म केसरी में गुलाब सिंह की भूमिका निभाकर चर्चित हुए अभिनेता विक्रम कोचर हरियाणा के गुरुग्राम के है. बचपन से ही उन्हें अभिनय की इच्छा थी और इसमें परिवार वालों ने भी सहयोग दिया. स्नातक के बाद वे दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में दाखिला लिया और वही से अभिनय शुरू कर दी. स्वभाव से विनम्र और धैर्यवान विक्रम कोचर ने नाटक ‘पगला घोडा’ में प्रमुख भूमिका निभाई है, जिसे टाटा स्काई के थिएटर शोकेस में प्रस्तुत किया गया. विक्रम अपनी इस उपलब्धि से बहुत उत्साहित है. उनसे बात हुई पेश है कुछ खास अंश.

सवाल- इस नाटक में खास क्या है?

ये नाटक बादल सरकार की है और वे एक जाने-माने बंगाल के नाटक के लेखक है. उन्होंने हमेशा समाज की कुछ कुरीतियों को लेकर उसे समाज के सामने लाया है. पगला घोड़ा भी पुरुष सत्तात्मक समाज की सोच को उजागर करती है, जो महिलाओं को कुछ कहने का अधिकार नहीं देती.  मैंने इसमें एक पोस्ट मास्टर की भूमिका निभाई है. जो अपनी प्रेम कहानी को एक संवेदनशील स्थान पर बैठकर कुछ लोगों के आगे व्यक्त करता है.

सवाल- हमारे समाज में आज भी किसी अपराधी पुरुष को दोष न देकर महिला को दोषी बनाया जाता है, इस बारें में आपकी सोच क्या है?

ये सही बात है कि महिला को हर बात के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है. मसलन शादी के बाद लोग कहते है कि पत्नी की वजह से पुरुष बदल गया. बच्चे अच्छे निकल गए, तो उसका श्रेय भी पिता को जाता है और ख़राब निकला तो माँ को इसका दोषी ठहराया जाता है. इसे रोकने के लिए हमारी सोच को बदलनी पड़ेगी, जिससे नयी पीढ़ी को बदलने का मौका मिले. ये रातो-रात बदलने वाली चीज नहीं है. गलत चीजों को हमेशा रोके, बढ़ावा न दें.

सवाल- मुंबई कैसे आना हुआ? कब आये और पहला ब्रेक कैसे मिला?

मैं मुंबई साल 2011 में आया था. इससे पहले भी मैं दिल्ली में नाटकों में काम किया करता था. शुरुआत में तो नाटकों में काम मिलता था, लेकिन उसमें पैसे कम थे और जीवन निर्वाह करना मुश्किल था. मुंबई में पहला काम मिलने में 6 से 7 महीने लगे थे. काम का संघर्ष 2 से 3 साल तक चलता रहा. रोज थैले में 3 शर्ट ,एक जींस, एक पेंट और एक कुर्ता लेकर हर प्रोडक्शन हाउस में जाता था और ऑडिशन देने की कोशिश करता था. शुरुआत में ‘नॉट फिट’ कहकर भगा दिए जाते थे. धीरे-धीरे किसी ने ऑडिशन का मौका दिया, पर चुना नहीं गया. ये बाहर से आने वाले हर कलाकार के साथ होता है. मेरे हिसाब से से एक कलाकार जितना रिजेक्शन एक महीने में फेस करता है, उतना शायद एक आम व्यक्ति पूरे जीवन काल में भी फेस नहीं करता. ये अब मेरी आदत हो गयी है. अब अधिक फ़र्क नहीं पड़ता, पर अभी कम रिजेक्शन का सामना करना पड़ता है.

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एक्टिंग में पहला ब्रेक फिल्म ‘मटरू के बिजली का मंडोला’ में मिला था. उसे ब्रेक नहीं कह सकते ,क्योंकि मैं उसमें कहीं दिखा ही नहीं. मुझे रियल ब्रेक फेस्टिवल के लिए बनी फिल्म ‘पाईड पाईपर’ में मिला, जो पोलिटिकल कॉमेडी ड्रामा थी. इसके बाद मुझे धारावाहिक ‘सुमित सम्हाल लेगा’ में रजनीश वालिया की भूमिका मिली. इससे लोगों के बीच मेरी पहचान बनी.

सवाल- फिल्मकेसरीकी भूमिका से आपको कितना फायदा हुआ?

इसका फायदा मुझे मिला, निर्माता,निर्देशक प्रकाश झा ने मुझे ‘आश्रम’ वेब सीरीज के लिए मुझे एक प्राइम रोल दिया. उन्होंने फिल्म केसरी में मेरी भूमिका की तारीफ की और ऑडिशन भी नहीं लिया.

सवाल- कोरोना की वजह से अभी थिएटर हॉल काफी प्रतिबंधित तरीके से खुले है, इसका प्रभाव इंडस्ट्री पर पड़ा है, आपकी सोच इस बारें में क्या है?

ये सही है कि हम सभी इससे निकलने का रास्ता खोज रहे है, लेकिन अच्छी बात है कि लोग सुरक्षा का ध्यान रखते हुए काम कर रहे है. अभी बड़ी बजट वाली फिल्में नहीं बन पाएगी, क्योंकि रिटर्न उतना नहीं मिलेगा, लेकिन इस काल में छोटे कलाकारों को फायदा हुआ है. छोटी बजट की छोटी फिल्में अब बन रही है, ऐसे में बड़े एक्टर उनमें काम नही करना चाहेंगे. इसके अलावा साल 2020 में जिन्दा है, तो काफी है.

सवाल- परिवार का सहयोग कितना रहा?

वित्तीय रूप से मैंने घर वालों से कभी कुछ अधिक नहीं लिया. नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में स्कॉलरशिप होता है और उससे सब खर्चा पूरा हो जाता है. मुंबई आने पर मेरे पेरेंट ने मुझे कुछ राशि देने की बात कही, पर मुंबई जैसे महंगे शहर में उन पैसों से कुछ नहीं हो सकता था. इसलिए मैंने एक नाटक ‘ज़न्गूरा एट किंगडम ऑफ़ ड्रीम्स’ में काम गुरुग्राम में किया, उससे मेरे पास कुछ अधिक पैसे जमा हो गए थे, जिसे लेकर मैं मुंबई आया था. माता-पिता शुरुआत में तो अधिक राजी नहीं थे, लेकिन मेरी एक नाटक ने मेरे पिता का मन जीत लिया था और उन्होंने कभी मना नहीं किया.

सवाल- किस फिल्म ने आपकी जिंदगी बदली?

‘केसरी’ फिल्म ने मेरी जिंदगी बदली. इसके अलावा ‘पगला घोडा’ नाटक मेरे दिल के बहुत करीब है.

आगे एक फिल्म और वेब शो भी है.

सवाल- आपने टीवी नाटक फिल्म वेब सबमें काम किये है, किस माध्यम में आपको सबसे अच्छा लगा?

एक कलाकार के रूप में नाटकों में काम करने पर सबसे अधिक संतुष्टि मिलती है. नाटक में सब कुछ लाइव होता है और उसमें आप उस चरित्र को जीते है. इसके अलावा नाटक में एक बहाव होता है. जबकि फिल्मों में तकनीक का बहाव होता है. टीवी में काम का प्रेशर बहुत होता है. इससे काम को आप अधिक एन्जॉय नहीं कर सकते.

सवाल- वेब सीरीज में गाली-गलौज, मार-धाड़, सेक्स इन सबको अधिक दिखाया जाता है, जिसे पूरा परिवार साथ बैठकर नहीं देख पाता, क्या निर्माता, निर्देशक को इस बात का धयान देना उचित नहीं?

इन सब चीजो की शुरुआत इस बात से हुई थी कि आप सच्चाई को करीब से दिखा रहे है. बाद में उन्हें लगा कि इसमें खूब मसाला डाली जाय ,ताकि लोगों को मज़ा आयें. इसकी जिम्मेदारी निर्माता,निर्देशक, लेखक और चैनल की है. उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कब ये मज़े के लिए दिखा रहे है और कब ये जरुरत के हिसाब से प्रसारित कर रहे है. तभी वेब सीरीज की गुणवत्ता बनी रहेगी. रियल लाइफ में कोई इतनी गलियां नहीं देता, जितना वे दिखाते है. इससे उस वेब का इम्पैक्ट दर्शकों पर कम पड़ता है. जरुरत के आधार पर अगर अन्तरंग दृश्य, गाली- गलौज और मार-धाड़ दिखाये जाते है, तो उसका प्रभाव अच्छा रहता है और सही मैसेज भी दर्शकों तक पहुंचता है.

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सवाल- खुश रहने का मन्त्र क्या है

प्रतियोगिता पर विश्वास न करें. सफलता के लिए रैट रेस में भागे नहीं, क्योंकि सफलता का मूल मन्त्र खुश रहना है.

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