रेटिंग: डेढ़ स्टार
निर्माता: रॉनी लाहिरी व शील कुमार
निर्देशकः शुजीत सरकार
कलाकारः अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना, विजय राज, ब्रजेंद्र काला, सृष्टि श्रीवास्तव व अन्य.
अवधिः दो घंटे चार मिनट
एक बहुत पुरानी कहावत है ‘‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा. ’’ अब यह कहावत फिल्म‘‘गुलाबो सिताबो’’ के निर्माताओं और निर्देशक शुजीत सरकार पर एकदम सटीक बैठती है. इनके लिए लॉकडाउन वरदान बनकर आया. लॉकडाउन के चलते निर्माताओं ने ‘गुलाबो सिताबो’को ‘अमैजॉन प्राइम’ को बेचकर गंगा नहा लिया. अन्यथा सिनेमाघरों में इस फिल्म को दर्शक मिलने की कोई संभावनाएं नजर नहीं आती है. इतना ही नहीं ‘गुलाबो सिताबो’’ देखनें के बाद मल्टीप्लैक्स के मालिकों का इस फिल्म के निर्माताओं और निर्देशक के प्रति गुस्सा खत्म हो गया होगा.
‘‘गुलाबो सिताबो’’ देखकर कहीं से इस बात का अहसास नही होता कि इस फिल्म के निर्देशक वही शुजीत सरकार हैं, जो कि कभी ‘विक्की डोनर’,‘पीकू’ और ‘मद्रास कैफे’ जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके हैं. सिनेमा में कला और मनोरंजन यह दो मूल तत्व होने चाहिए, अफसोस ‘गुलाबो सिताबो’में इन दोनों का घोर अभाव है. एक जर्जर हवेली के इर्द गिर्द कहानी को बुनकर कहानी व निर्देशक ने बेवजह पुरातत्व विभाग और कुछ वर्ष पहले एक महात्मा के कहने पर उत्तर प्रदेश के उन्नाव में हजारों टन सोने की तलाश में कई दिनों तक पुरातत्व विभाग ने जमीन की जो खुदाई की थी और परिणाम शून्य रहा था, उसे भी टाट के पैबंद की तरह कहानी का हिस्सा बना दिया है.
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कहानीः
फिल्म ‘‘गुलाबो सिताबो’’ की कहानी के केंद्र में लखनउ शहर में एक जर्जर हवेली ‘‘फातिमा महल’’ है. इस मंजिल के मालिक चुनमुन मिर्जा(अमिताभ बच्चन) हैं. जहां कई किराएदार हैं,जो कि हर माह तीस से सत्तर रूप किराया देते हैं. इनमें से एक किराएदार बांके (आयुष्मान खुराना) है,जो कि आटा पीसने की चक्की चलाते हैं. वह अपनी तीन बहनों व मां के साथ रहते हैं. बांके की बहन गुड्डू (सृष्टि श्रीवास्तव) चलता पुर्जा है,हवेली की छत पर टंकी के पीछे आए दिन किसी न किसी नए मर्द के साथ पायी जाती हैं. मिर्जा और बांके के बीच हर दिन नोकझोक होती रहती है. बांके को हर माह तीस रूपए देना भी अखरता है. जबकि मिर्जा साहब इस हवेली को अपने हाथ से जाने नही देना चाहते. इस हवेली की असली मालकिन तो मिर्जा की बेगम (फारुख जफर) हैं,मिर्जा ने इस हवेली के ही लालच में अपनी उम्र से सत्रह वर्ष बड़ी होने के बावजूद बेगम को भगाकर शादी की थी. अब मिर्जा साहब को अपनी बेगम की मौत का इंतजार है,जिससे फातिमा महल उनके नाम हो जाए. इसी बीच कई लोगों की नजर इस हवेली पर लग जाती है. जिसके चलते पुरातत्व विभाग के शुक्ला (विजय राज) और वकील (ब्रजेंद्र काला) का प्रवेश होता है. अंत में बेगम,मिर्जा को छोड़कर अपने उसी पुराने आषिक अब्दुल के पास पहुंच जाती हैं, जिनके पास से बेगम को कई वर्ष पहले भगाकर मिर्जा इस हवेली में ले आए थे. अब मिर्जा के साथ साथ सभी किराएदारों को इस हवेली से बाहर होना पड़ता है.
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