बढ़ते एनआरआई दर्शकों को निगाह में रखते हुए अब भारतीय मूल के फिल्म प्रोड्यूसर व ऐक्टर्स अंगरेजी में विदेशी माहौल पर भारतीय कैरेक्टरों को ले कर फिल्में बनाने लगे हैं.
करीना कपूर खान की फिल्म ‘बकिंगघम मर्डर्स’ ऐसी ही फिल्म है जो अंगरेजी में बनी है पर भारतीय मूल के लोगों के लिए है और वहां बसे भारतीय मूल के लोगों के इर्दगिर्द है. हंसल मेहता द्वारा डाइरैक्ट इस फिल्म में करीना एक पुलिस डिक्टेटिव है जो अपने बेटे की अनटाइमली मौत से परेशान है और वहीं बसे एक सिख परिवार के किशोर युवा की हत्या के पेंच खोलने में लगी है.
धर्म के नाम पर झगड़े
बैकग्राउंड में भारतीय मूल के लोगों की समस्याएं चलती हैं, जिन में पत्नियों को नौकरानी की तरह रखना, उन्हें मारना, सासों का विदेशी धरती पर बहुओं से ऐसा ही व्यवहार करना है जैसे वे पंजाब के गांव में करते हैं. सिखमुसलिम विवाद उसी तरह का सा दिखाया जैसा हम यहां 2 सदियों से देख रहे हैं और पिछले 40 सालों में और ज्यादा देखा है.
इंगलैंड में होने पर भी धर्म के नाम पर झगड़े, दंगे, आगजनी ही नहीं होती, आपसी पार्टनरशिप्स भी टूटती है और बरसों की दोस्तियां भी टूटती हैं. यह एक सिख परिवार के एक किशोर की हत्या के केस को सुलझाने के लिए दिखाया गया है.
अंगरेजी की इस फिल्म की कोई खासीयत अगर है तो यह कि करीना कपूर को बिना ग्लैमर के एक बुढि़याती सी पुलिस डिक्टेटिव के रूप में पेश किया गया है किसी सुपरमैंन की तरह.
लड़के के लापता होने और फिर लाश मिलने की ही नहीं, पारिवारिक मित्र से दुश्मन बने मुसलिम परिवार के उस के हमउम्र किशोर की हत्या का आरोप सिर पर ले लेना क्योंकि वह घर वालों को यह नहीं बताना चाहता था कि उस का एक मसजिद के इमाम के बेटे के साथ होमोसैक्सुअल रिलेशनशिप है.
करीना कपूर खान डिक्टेटिव मुद्रा के रोल में असली कातिल को पकड़ती ही नहीं, घरेलू हिंसा, बिजनैस लौस के तनाव, धार्मिक विवाद को भी दिखाती चलती है और बिना खास नारेबाजी और साइड लिए. दोनों सिख और मुसलिम परिवार ही नहीं, उन की कौमें भी भारत में अपना विवाद सूटकेस भर के ले गए हैं और जो पोटली उन्होंने भारत में छोड़ी थी वह एक माहौल में और ज्यादा कटुता ला रही है इस का खासा पिक्चराइजेशन है.
हावी है कट्टरता
भारतीय मूल के लोग जहां भी हैं वहां अगर अपनी मेहनत का लाभ दूसरे मूल लोगों को दे रहे हैं जो जाति व धर्म के विवाद ही नहीं खड़े कर रहे, वे अपने साथ घर की कट्टरता भी ले जा रहे हैं. औरतें उन आजाद देशों में भी आजाद नहीं हैं.
फिल्म में न तो इंगलैंड की सीनरी दिखाने की कोशिश है और न ही वहां की प्रगति की ?ालक दिखाई गई है. असल जिंदगी बकिंगघम आयर जैसे कसबों में बेहद सीधीसादी है.
जरूरत यह है कि जो भारतीय यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया के सवर्गों में जानेकी कोशिश कर रहे है, वे भूल रहे हैं कि जिंदगी वहां भी आसान नहीं है. वहां शान है, इज्जत है, थोड़ीबहुत बराबरी है पर अगर यहीं से भेदभाव, सड़ागला कल्चर और पौराणिक घरेलू सोच साथ ले जानी है तो जो सुख वहां मिलेगा, वह कोई खास नहीं. करीना कपूर खान और हंसल मेहता ने यह बिना किसी ढोल पीटे आराम से चुप्पी से दिखा दिया कि हम चाहे जहां रहें, हम वही रहेंगे जो यहां के बिहार या गांव में है.
अच्छी फिल्में बनें
भारत में गांव की प्रैक्टिसें शहर में तो आम हैं और जो टेढे़मेढ़े रास्तों से डैवलैप्ड देशों में चले गए वे भी वही सबकुछ कर रहे हैं जो यहां गांवोंकसबों में करते हैं. गनीमत है कि फिल्म में नरेंद्र मोदी, हिंदू देवीदेवताओं को पूजते, नमाज पढ़ते लोग नहीं दिखाए गए. फिल्म ऐक्टर्स जैसी जिंदगी है, वैसी परदे पर दिखाने की कोशिश में सफल है.
कम हिंदी में बनने वाली फिल्में भारतीय दर्शकों को समझने वाली फिल्में बनें, जिन में हर बात को धार्मिक कट्टरता के चश्मे से न देखा जाए. इस देश का इतिहास, पुराणों से ले कर अब तक आपसी लोगों की लड़ाइयों से ज्यादा भरा है, विदेशियों से सुरक्षा पर कम. उन्होंने सम?ाने के लिए अपने से लगने वाले कैरेक्टर चाहिए.