देश, समाज या कार्य के हर क्षेत्र में युवा व वृद्ध एकदूसरे से प्रतिस्पर्धा करते दिख जाते हैं. फिल्मी परदे पर परस्पर अनुभवी, सक्रिय व ज्यादा उपयोगी दिखाने की होड़ में राजनीतिक, सामाजिक व आदर्श की फिल्मी जमीन पर युवा बनाम वृद्ध के किरदार बेहद दिलचस्प तरीके से चूहेबिल्ली का खेल खेलते हैं.
60 साल से भी ज्यादा उम्र के अभिनेता रजनीकांत जब अपने से आधी उम्र की नायिका सोनाक्षी सिन्हा से रोमांस करते हैं तो युवा बनाम वृद्ध की दूरियां कम होती दिखती हैं.
मणिरत्नम की फिल्म ‘युवा’ में जब युवा दल का नेता अपने साथियों के साथ चुनावी जीत हासिल करने के बाद संसद प्रांगण में दाखिल होता है तो वहां पहले से मौजूद वरिष्ठ व वृद्ध नेताओं और मंत्रियों के हावभाव देख कर युवा बनाम वृद्ध के बीच के अहं, संघर्ष, वैचारिक असमानता और तल्खियों भरे रिश्ते बखूबी जाहिर होते हैं. भारतीय सिनेमा में उम्र के इस फासले के टकराव को वैचारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आपराधारिक मोर्चे पर मिर्चमसाले के तड़के के साथ पेश करना बेहद कामयाब फार्मूला रहा है.
कभी नायक नायिका के अमीरी के नशे में चूर वृद्ध पिता से टकराता है तो कभी युवा नायक पुलिस या सैनिक की वरदी में उम्रदराज विलेन से दोदो हाथ करता नजर आता है. कई दफा रोमांस की पिच पर एक हसीना के प्यार में पागल युवा और वृद्ध नायक मजेदार चूहेबिल्ली का खेल खेलते दिखते हैं. कभीकभी तकरार चुनावी पगडंडियों से गुजरती हुई पार्लियामैंट तक पहुंच जाती है. और इस सारे क्रम में जैनरेशन गैप के चलते दोनों के बीच की भिड़ंत का इमोशन प्रभावी तरीके से उभरता है. यही वजह है कि बदलते दौर के सिनेमा में सबकुछ बदला लेकिन यंग गन को ओल्ड बैरल के सामने हमेशा दोदो हाथ कर दिखाया गया.
ऐसा नहीं है कि दोनों हमेशा टकराते ही रहते हैं. फिल्म ‘पिंक’ में एक नए तरीके से युवावृद्ध को संवेदनशील तार में पिरोते देखा गया. युवा अपराधी 3 लड़कियों से न सिर्फ छेड़छाड़ करते हैं बल्कि उन में से एक लड़की के साथ बलात्कार भी करते हैं. जब लड़कियां राजनीतिक रसूख के सामने घुटने तोड़ रही होती हैं तभी एक बुजुर्ग वकील उन के लिए अदालत की चौखट पर इंसाफ की बहस करता है और उन्हें न्याय दिलाता है.
युवा बनाम वृद्ध के फार्मूले की बदौलत सिनेमाघरों में जो संख्या युवाओं की होती है, लगभग उसी तादाद में बुजुर्ग भी दिख जाते हैं. आगे हम कुछ ऐसी ही फिल्मों व किरदारों की चर्चा करते हैं जहां उम्र के सिनेमाई फासले अपनीअपनी उम्र के फायदे और नुकसानों के साथ एकदूसरे के सामने डट कर खड़े हैं.
उपेक्षित बुजुर्ग, स्वच्छंद युवा
रजत कपूर की फिल्म ‘दत्तक’ पितापुत्र के रिश्ते को नए तरीके से परिभाषित करती है. उस में युवा और बुजुर्ग के बीच संघर्ष की कोई आर्थिक, आपराधिक या सियासी वजह नहीं है. मामला उपेक्षा का है. जब देश के महल्ले वृद्धाश्रम बनते जा रहे हैं और युवा कैरियर की स्वच्छंदता के नाम पर अपनी दुनिया में मसरूफ हों तो बुजुर्ग कहां जाएं, इस मुद्दे को फोकस में ले कर फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है.
विदेश से कई सालों बाद लौटा पुत्र अपने बुजुर्ग पिता की तलाश में भारत लौटा है और इस क्रम में उसे अपने पिता के साथ वृद्ध आश्रम में अंतिम दिनों के साथी रहे बुजुर्ग से उन के आखिरी दिनों का पता चलता है. जब उसे पता चलता है कि उस के पिता की मृत्यु उस का इंतजार करतेकरते हो गई तो वह अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है लेकिन एक क्रांतिकारी फैसला भी लेता है. पुत्र पिता की जगह उस बुजुर्ग को अपने साथ ले जाता है, इस तर्क के साथ कि जब पुत्र को दत्तक लिया जा सकता है तो पिता को क्यों नहीं?
बेहद अहम मसलों को रेखांकित करती इस फिल्म के प्लौट को कई और फिल्मों में देखा गया. मसलन, ‘अवतार’, ‘बागबान’, ‘उम्र’, और ‘आ अब लौट चलें’ आदि में युवाओं द्वारा उपेक्षित बुजुर्गों का दर्द बयां हुआ. ‘पूरब और पश्चिम’ और ‘नमस्ते लंदन’ में दिखाया गया कि किस तरह युवा अपनी स्वच्छंद जिंदगी के लिए बुजुर्ग मातापिता को अकेलेपन की अंधेरी गुफा में धकेल रहा है.
रोमांस में जब चीनी हो कम
रुपहले परदे पर रोमांस सब से बड़ा बिकाऊ और हिट फार्मूला रहा है. रोमांस में मजेदार परिस्थितियां अकसर उम्र के फासलों को ले कर पैदा होती हैं. हीरो और हीरोइन के बीच जातपांत और अमीरीगरीबी का मामला किसी तरह सुलझ भी जाए लेकिन अगर दोनों के बीच उम्र का अंतर है तो मामला रोचक होना तय है.
फिल्म ‘चीनी कम में’ जब 60 पार कर चुके खड़ूस शेफ का दिल 30 पार लड़की पर आ जाता है तो उम्र की उस दीवार को तोड़ने में नायक के पसीने छूट जाते हैं. पहले कम उम्र की लड़की को कंवेन्स करो, फिर उम्र में खुद से छोटे अपने ससुर का आमरण अनशन तुड़वाओ और न जाने क्याक्या, बस इस तिकड़म में अमिताभ बच्चन, तब्बू और परेश रावल की जुगलबंदी दर्शकों को मजेदार और मनोरंजक लगती है.
इसी थीम को दोहराया गया राम गोपाल वर्मा की विवादित फिल्म ‘निशब्द’ में. फर्क इतना था कि यहां नायक तो 60 साल का बूढ़ा है लेकिन दिल जिस पर आया है उस की उम्र स्वीट 16 की है. साल 2003 में सुभाष घई की फिल्म ‘जौगर्स पार्क’ में एक रिटायर्ड जज खुद से आधी उम्र की लड़की के इश्क में पड़ जाता है. लिहाजा, उसे अपनी बीवी और बच्चों के सामने फजीहत का शिकार होना पड़ता है. उम्र का फासला लोगों को उन के प्यार की गहराई नहीं समझने देता. इस के उलट, ‘श्रीमान आशिक’ और ‘इक्के पे इक्का’ जैसी हास्य फिल्मों में बुजुर्ग हीरो दिल में रोमांस की चाह लिए युवा का रूप धर नायिका का दिल जीतने की मजेदार तिकड़में भिड़ाता है.
ऐसा नहीं है कि हर बार नायक ही बुजुर्ग होता है. कई बार नायिका बुजुर्ग या उम्रदराज होती है और कम उम्र के नायक का दिल उस पर आ जाता है. याद आती है यश चोपड़ा की बहुचर्चित फिल्म ‘लमहे’. फिल्म के फर्स्ट हाफ में अपने से बड़ी उम्र की औरत के प्यार में खोया नायक जब अपने प्यार को नहीं हासिल कर पाता है तो ताउम्र अविवाहित रहने का फैसला करता है.
कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब नायक के प्रेम को अस्वीकृत करने वाली औरत की कमसिन बेटी उम्रदराज हो चुके उसी नायक की तरफ आकर्षित होने लगती है जो उस की मां से प्रेम करता था. उम्र के अनूठे मोड़ में उलझी इस प्रेमकहानी को रिलीज के समय भले ही दर्शकों का वाजिब प्यार न मिला हो पर आज इस फिल्म को क्लासिक का दरजा हासिल है.
इन मसलों को हास्य के हलकेफुलके अंदाज में ‘हसीना मान जाएगी’ में देखा गया जब एक उम्रदराज बूआ का दिल युवा पर आ जाता है. ‘सात खून माफ’ में यह मामला जरा डार्क थीम में लिपटा था. इस तरह जबतब रोमांस की रोड पर उम्र का ब्रेकर लगा है, हालात जरा इश्किया हो ही जाते हैं.
उफ…ये तुम्हारे आदर्श…
रोमांस से आगे बढ़ते हैं तो फिल्मी परदे पर युवा और वृद्ध के बीच सियासी, सामाजिक व आदर्शवाद का संघर्ष होने लगता है. विचारधारा का टकराव कभी भ्रष्टाचार और उसूलों को ले कर होता है तो कभी जिंदगी जीने के तरीके व नियमकानून को मानने या न मानने को ले कर. कई दफा युवा सोच सही साबित होती है तो कई बार वृद्ध के अनुभव युवाओं पर भारी पड़ते हैं.
फिल्म ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ में बुजुर्ग प्रोफैसर और युवा मैनेजमैंट के स्टूडैंट का वैचारिक टकराव काबिलेगौर है. एक पूंजीवाद का समर्थन है तो दूसरा वाम विचारधारा का है. इसी तरह का द्वन्द सुधीर मिश्रा ने फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ में दर्शाया था. जहां नक्सल और पूंजीवाद की जमीन पर युवाओं का उम्रदराज व भ्रष्ट व्यवस्था से विरोध था.
फिल्म ‘पीकू’ में पितापुत्री की जोड़ी अपनेअपने नजरिए को ले कर तकरार भी करती है और प्यार भी. यश चोपड़ा की ही एक और फिल्म ‘मोहब्बतें’ में जहां युवा संगीतकार शिक्षक कालेज में प्यार के सभी दरवाजे छात्रों के लिए खोलना चाहता है, वहीं ‘प्रिंसिपल’ कठोर अनुशासन का समर्थक है. हालांकि फिल्म के आखिर में युवा दिल और सोच के आगे कठोर दिल पिघल जाता है.
अमिताभ और अक्षय कुमार की 3 फिल्में ‘एक रिश्ता,’ ‘खाकी’ और ‘वक्त’ में युवा बनाम वृद्ध के संघर्ष के 3 अलगअलग आयाम दिखे. फिल्म ‘एक रिश्ता’ में बुजुर्ग पिता अपने युवा पुत्र पर भरोसा नहीं दिखाता और किसी के बहकावे में आ कर उसे घर से बाहर निकाल देता है. यहां दोनों के बीच संघर्ष कारोबार के संचालन को ले कर है. जबकि फिल्म ‘खाकी’ में दोनों के बीच संघर्ष ईमानदारी और बेईमानी को ले कर है. यहां युवा करप्ट है और वृद्ध पुलिस अफसर ईमानदार. जबकि ‘वक्त’ में युवा पुत्र कामचोर है और बुजुर्ग पिता अपनी जिंदगी के बचे चंद दिनों में अपने पुत्र को काबिल और जिम्मेदार बनाने के लिए अनूठा प्रयोग कर रहा है.
भ्रष्टाचार के धरातल में कमल हासन की फिल्म ‘हिंदुस्तानी’ अनोखी पहल थी. यहां बुजुर्ग स्वतंत्रतासेनानी समाज में फैले करप्शन को खत्म करने के लिए हिंसक तरीके अपना रहा है और इस राह में आने वाले अपने इकलौते व भ्रष्ट पुत्र को भी मृत्युदंड देने से पीछे नहीं हटता. इस फिल्म में पितापुत्र दोनों किरदार कमल हासन ने बखूबी निभाए.
आदर्श और उसूलों की युवा बनाम वृद्ध का संघर्ष ‘शक्ति’, ‘सारांश’, ‘मैं ने गांधी को नहीं मारा’, ‘गांधी-माई फादर’, ‘ऐलान’ जैसी कई फिल्मों में रोचक अंदाज में प्रदर्शित हुआ. फिल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ और दिलीप कुमार की जोड़ी पितापुत्र के रूप में दिखी. जहां दोनों में संघर्ष इस बात को ले कर है कि फर्ज की खातिर पुलिस पिता ने बेटे के जीवन की परवा नहीं की. परिणामस्वरूप बेटा खफा हो कर अपराध के रास्ते पर निकल कर पिता के सामने कानून का दुश्मन बन कर खड़ा हो जाता है.
यंगिस्तान की राजनीति
अकसर हमारे नेताओं की इस बात को ले कर तीखी आलोचना होती है कि वे राजनीति में युवाओं को आगे नहीं लाना चाहते और खुद ही कुर्सियों पर जमे रहना चाहते हैं. इस बाबत कई युवा नेताओं और बुजुर्ग नेताओं के बीच अमर्यादित बयानबाजी भी देखी गई है.
फिल्म ‘यंगिस्तान’ में एक मंत्री की अचानक हुई मौत के चलते जब उस के नौसिखिए बेटे को मंत्री बनाया जाता है तो पार्टी में पहले से मौजूद बुजुर्ग नेताओं की प्रतिक्रिया नकारात्मक रहती है. फिल्म में युवा नेता के नए सियासी तरीकों और बुजुर्गों के अडि़यल स्वभाव पर तीखा कटाक्ष किया गया है.
इस मामले में सब से रोचक फिल्म जो याद आती है वह है अनिल कपूर अभिनीत ‘नायक’. निर्देशक शंकर की इस फिल्म में युवा और ईमानदार राजनीति बनाम करप्ट और बुजुर्ग खलनेता के बीच जबरदस्त टक्कर दिखाई गई है. युवा नायक न्यूज चैनल के दफ्तर में रिपोर्टर कम कैमरामैन है और उस के सामने है वृद्ध राजनेता खलनायक बतौर सीएम. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि एक लाइव इंटरव्यू के दौरान सीएम नायक को एक दिन का सीएम बनने की चुनौती देता है. फिर इसी अजीबोगरीब उठापटक में शुरू होती है युवा बनाम वृद्ध की सियासी जंग.
मणिरत्नम की फिल्म ‘युवा’ में अजय देवगन, अभिषेक बच्चन और विवेक ओबेराय युवा शक्ति को अपनेअपने तरीके से प्रतिबिंबित करते हैं और उन के रास्ते में बाधक बनते हैं बुजुर्ग राजनेता.
उम्र से आंखमिचौली
दिलचस्प बात यह है कि तमाम सिनेमाई प्रयोगों में ज्यादातर वृद्ध व सशक्त किरदार अपेक्षाकृत युवा अभिनेताओं ने अदा किए. अपनी उम्र से कई गुना बड़े किरदारों को युवा ऐक्टर्स ने संजीदगी से जिया. ‘सारांश’ फिल्म में
60 पार की भूमिका के लिए नैशनल अवार्ड पाने वाले अनुपम खेर उन दिनों 28 साल के भी नहीं थे. इसी तरह कमल हासन ‘हिंदुस्तानी’ में 80 साल के फ्रीडम फाइटर का रोल 40 साल की उम्र में विश्वसनीयता से निभाते हैं.
भारत-पाक क्रौसबौर्डर लव ड्रामा ‘वीर जारा’ में शाहरुख खान और प्रिटी जिंटा को बुजुर्ग किरदारों में देखा गया. सुपरस्टार राजेश खन्ना ने भी जवानी के दिनों में ‘अवतार’ और ‘आप की कसम’ जैसी फिल्मों में बुजुर्ग किरदार सफलतापूर्वक अदा किए. फिल्म ‘गांधी- माइफादर’ में गांधी का किरदार निभाने वाले दर्शन जरीवाला, रिचर्ड एटंबर्ग की औस्कर विजेता फिल्म ‘गांधी’ में बेन किंग्सल ने भी यही काम किया.
इस तरह की फिल्मों में सब से ज्यादा प्रयोग अगर किसी अभिनेता ने किए हैं तो वे संजीव कुमार हैं. संजीव कई फिल्मों में अपनी उम्र से बड़े किरदारों में दिखे. अलगअलग फिल्मों में अभिनेत्री जया बच्चन के पति, पिता, ससुर और प्रेमी की भूमिका निभाने वाले संजीव अकेले ऐक्टर थे.
फिल्म ‘पा’ में अमिताभ बच्चन ने बेहद अनूठा प्रयोग किया. इस फिल्म में वे 10 साल के प्रोजोरिया से पीडि़त लड़के की भूमिका 60 साल में करते दिखे. और तो और, अपने रियल लाइफ पुत्र अभिषेक बच्चन के बेटे बने नजर आए.
उम्र का जो फासला रुपहले परदे पर मेकअप की परतों के तले होता है, असल जिंदगी में कुछ और हो जाता है. असल जिंदगी में जहां अभिनेता अक्षय खन्ना जैसे युवा सितारे उम्रदराज लगते हैं तो वहीं सलमान खान, अनिल कपूर और जैकी श्रौफ जैसे उम्रदराज सितारे युवा अभिनेताओं को टक्कर देते हुए अभी तो हम जवान हैं के फलसफे को चरितार्थ कर रहे हैं.
अब श्रीदेवी को ही ले लीजिए. अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना के साथ काम करने वाली अभिनेत्री ने जब फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ से जोरदार वापसी की तो अपने यंगलुक्स और सैक्सी फिगर से कमसिन अभिनेत्रियों को टक्कर दे गईं. अमिताभ बच्चन जब ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ में दिखते हैं तो लगता नहीं है कि उन की उम्र 60 पार है. ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी भी कई युवा अभिनेत्रियों को कौंपलैक्स देने के लिए काफी हैं.
माधुरी दीक्षित, रेखा, सिमी ग्रेवाल और जूही चावला ने भी खुद को काफी हद तक जवान बना रखा है. इस लिस्ट में ऐश्वर्या, रवीना टंडन, शिल्पा शेट्टी, आसिफ शेख और सोनाली बेंद्रे के नाम भी लिए जा सकते हैं.
संतुलन की सीढ़ी
कुल मिला कर भारतीय सिनेमा में जब भी युवा और वृद्ध किरदार आमनेसामने आए हैं, दर्शकों का खूब मनोरंजन हुआ है. उम्र का यह फिल्मी फासला और संघर्ष कभी हंसाता है, कभी रुलाता है तो कभी सामाजिक सरोकार से जुडे़ कई अहम और गंभीर सवाल खड़े कर देता है. समझने वाली बात तो यह है कि ये फिल्मी किरदार हमारी असल जिंदगी से प्रेरित या आधारित होते हैं.
समाज के किसी न किसी कोने में उम्र का फासला लिए 2 जैनरेशन एकदूसरे से संघर्ष करती दिख जाती हैं. कभी दफ्तरों में बौस-कर्मचारी की तरह, कभी खेल के मैदान में कोच-खिलाड़ी की तरह तो कभी राजनीतिक मोरचे पर.
कार्य के हर क्षेत्र में वृद्ध और युवा एकदूसरे को ज्यादा उपयोगी और सक्रिय दिखाने की होड़ में भिड़ते हैं, प्रतिस्पर्धा करते हैं. कभी युवा का उत्साह और ऊर्जा जीतती है तो कभी बुजुर्गियत का अनुभव बाजी मार जाता है. लेकिन, उम्र का यह फासला हमारे देश, समाज और पारिवारिक संरचना के संतुलन की सीढ़ी का काम भी करता है.
वृद्धों की जेब से मालामाल बौक्स औफिस
एकल सिनेमा यानी सिंगल स्क्रीन सिनेमा का दौर अब लगभग खत्म हो चुका है. पुराने सिंगल स्क्रीन या तो तोड़ कर मौल, मल्टीप्लैक्स की शक्ल ले चुके हैं या फिर स्टोरहाउस बनने पर मजबूर हैं. इस बदलाव ने फिल्मों की कमी और बौक्स औफिस के गणित को भी बदल कर रख दिया है.
90 के दशक तक फिल्म का टिकट औसतन 5 रुपए से 30 रुपए तक था. मल्टीप्लैक्स सिनेमाघरों के आने के बाद अब वही टिकट 500 रुपए तक पहुंच गया है. जाहिर है इतना पैसा युवा दर्शक आसानी से नहीं जुटा पाते, जिन में स्कूल छात्र, कोचिंग स्टूडैंट, साधारण नौकरीपेशा शामिल हैं.
अब फिल्म दर्शकों में पैसे वाले युवा कम हैं और वृद्घ प्रौढ़ दर्शक ज्यादा हैं जो मल्टीप्लैक्स में पैसा खर्च कर सकते हैं. इसलिए उन के मतलब की सस्ती फिल्में भी जोरदार कमाई कर जाती हैं और युवा व बच्चों को ध्यान में रख कर बनाई गई फिल्में पिट जाती हैं.
‘सीक्रेट सुपरस्टार’, ‘रिदम’, ‘स्निफ’, ‘आवाज’, ‘सिक्सटीन’, ‘कच्चा लिम्बू’, ‘स्टैनली का डिब्बा’ जैसी कई फिल्में आईं जो छात्र जीवन और संघर्ष पर आधारित थी, दर्शकों को मल्टीप्लैक्स नहीं खींच पाईं, क्योंकि इन फिल्मों के दर्शक युवा थे. वहीं पिछले 1-2 सालों में प्रदर्शित हुई फिल्मों बाहुबली-2, ‘टौयलेट एक प्रेमकथा’, ‘काबिल’, ‘रईस’, ‘जौली एलएलबी-2’, ‘पीकू’, ‘प्रेम रतन धन पायो’, ‘सरबजीत’, ‘साला खड़ूस,’ ‘अजहर’, ‘मदारी’, ‘तलवार’, ‘सुलतान’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘बाहुबली’, ‘पिंक’, ‘तीन’, ‘बाजीराव मस्तानी’, ‘दिल धड़कने दो’, ‘गब्बर इज बैक’, ‘एयरलिफ्ट’, ‘बेबी’, ‘मांझी-द माउंटेन मैन’, ‘रूस्तम’, ‘कबाली’, ‘घायल वंस अगेन’, ‘जय गंगाजल’, ‘गंगाजल,’ ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’, ‘वेलकम बैक’, ‘बदलापुर’, ‘दृश्यम’ ने जोरदार कमाई की. ऐसा इसलिए क्योंकि ये सभी फिल्में या तो पारिवारिक थीं या फिर अपने मैच्योर या सस्ते कंटैंट की वजह से दर्शकों की जेबें ढीली कर लेती हैं.
एक फिल्म के लिए 250 से 500 रुपए तक के टिकट के अलावा करीब 500 रुपए तक के स्नैक्स. आनेजाने का खर्चा मिला कर लगभग 1,000 रुपए खर्च करना, जाहिर है युवाओं की पौकेट पर भारी पड़ता है. वे या तो नई फिल्मों के स्मार्टफोन पर पायरेटेड वर्जन देख कर मन बहला लेते हैं या फिर टीवी प्रीमियर के भरोसे बैठे रहते हैं. लेकिन वृद्ध दर्शक जो किसी मल्टीनैशनल कंपनी के एमडी, मैनेजर, सीनियर पोस्ट पर काम करते हैं, आसानी से इतने पैसे मल्टीप्लैक्स में जा कर खर्च करने की कूवत रखते हैं.
इस के अलावा सामाजिक ढांचे में भी बदलाव आया है. एक दौर था जब बड़ेबूढ़े सिनेमाघरों से अपने बच्चों को दूर रखते थे. तर्क था कि फिल्में देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं. इस के चलते सिनेमाघरों में जाना उन दिनों आपराधिक कृत्य सरीखा था. अब वृद्घों की मानसिकता बदली है. लिहाजा, वे अब फिल्मों को देखना वीकैंड होलीडे समझते हैं और अपनी जेब से पैसे खर्च कर पूरे परिवार को मल्टीप्लैक्स की सैर कराते हैं.
फिल्म एक्सपर्ट मानते हैं कि हिंदी में ज्यादातर सुपरहिट फिल्में फैमिली ओरिएंटेड रही हैं. इस के पीछे की वजह यही है कि उन के दर्शक वयोवृद्ध थे. सिर्फ युवाओं ने किसी फिल्म को सुपरहिट कराया हो, ऐसी कोई फिल्म नहीं है. ‘प्रेम रतन धन पायो’ इस बात की तसदीक करती है.
फिल्म उन्हीं घिसेपिटे फैमिली ड्रामा, मूल्य, भाईबहन का प्यार, जायदाद का बंटवारा, पारिवारिक साजिश और राजश्री के प्रचलित फार्मूलों पर चलती है. यह बेसिरपैर का मसला बूढ़े दर्शकों को आज भी भाता है. वे उसे अपने परिवार से जोड़ कर देखते हैं और अपने बच्चों को ऐसी फिल्में दिखाने पर जोर देते हैं. फिल्में तभी बड़ी हिट होती हैं जब उन्हें फैमिली दर्शक मिलते हैं. सूरज बड़जात्या की फिल्में रूढि़वादी और पारंपरिक होती हैं और इसी कारण पारंपरिक व रूढि़बद्ध बूढ़े दर्शकों को पसंद आती हैं.
इस बदलाव को भांपते हुए फिल्मकार इसी उम्र के दर्शकों को ध्यान में रख कर सस्ती और गैरसामाजिक सरोकार की सस्ती फिल्में बनाते हैं और बूढ़े दर्शक सिनेमाघरों में आ कर अपनी जेबें ढीली कर जाते हैं.
बूढों के सहारे फिल्म उद्योग
राजनीति में राहुल गांधी (47 साल) और अखिलेश यादव (44 साल) जैसे 40 पार नेताओं को युवा नेता बता कर खूब पोस्टरबाजी की जाती है, युवा कार्यकर्ताओं व वोटर्स को रिझाया भी जाता है. दरअसल, राजनीति में कद्दावर व भीड़ खींचने वाले 30-35 साल के कन्हैया कुमार या हार्दिक पटेल जैसे युवा नेता न के बराबर हैं. सो, पार्टियों को इन अधेड़ कथित युवा राजनेताओं का सहारा लेना पड़ता है.
राजनीति की ही तरह, हिंदी फिल्म को भी अब बूढ़े स्टार्स का ही सहारा है. फिल्मों को भी बूढ़ों का सहारा लेना पड़ रहा है क्योंकि यहां भी युवा स्टार्स की बेहद कमी है. वृद्घ स्टार हैं कि रिटायर नहीं हो रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा फिल्में करने को तैयार हैं. इसलिए बूढ़े सितारे ही दर्शकों को सिनेमाघर पर खींच रहे हैं. यहां तो राजनीति से भी बुरा हाल है. क्योंकि यहां का युवा सितारा कथित तौर पर 50 साल का है. 25-30 साल के युवा अभिनेता या तो टीवी सीरियल्स और मौडलिंग वर्ल्ड में खपाए जा रहे हैं या फिर इंटरनैट की वैब सीरीज में काम करने को मजबूर हैं. फिल्मों में तो 50-60 साल के अभिनेता ही सुपरस्टार बने हुए हैं. वृद्ध स्टार आज साल में 3-4 फिल्में करने से गुरेज नहीं करते. मौजूदा ज्यादातर स्थापित स्टार 80-90 के दशक से फिल्मों में घिसे जा रहे हैं.
सलमान खान की उम्र 52 साल की है और वे ‘सुलतान’ फिल्म में 30 साल के लड़के का रोल कर रहे हैं. ऐसे ही अक्षय कुमार 50 के हो चुके हैं लेकिन फिल्म ‘खट्टा मीठा’ में छात्र की भूमिका मजे से निभाते हैं, ‘स्पैशल 26’ में भी वे यही काम करते हैं. आमिर खान, जिन की उम्र 52 साल है, फिल्म ‘3 इडियट्स’ में मैनेजमैंट के अपनी उम्र से आधे के छात्र के किरदार में दिखते हैं. इसी तरह अधेड़ हो चुके शाहरुख खान 52 साल के हो चुके हैं लेकिन दीपिका पादुकोण और आलिया भट्ट के साथ मजे से काम कर रहे हैं. इसी तरह संजय दत्त 58 साल के हो चुके हैं. सैफ अली खान 46 साल के हैं और आसानी से 25-30 साल की अभिनेत्रियों के साथ रोमांस कर रहे हैं.
अक्षय कुमार, सलमान, अजय देवगन, सुनील शेट्टी, शाहरुख खान, सैफ अली आदि स्टार्स 50 के आसपास हैं और 1990 से फिल्मों में सक्रिय हैं. फिर भी युवा स्टार्स उन के सामने कहीं से भी टिक नहीं पाते. या कह सकते हैं कि इन के होते उन्हें मौका ही नहीं मिल रहा. नतीजतन, ये सभी उम्रदराज स्टार बौलीवुड को अपनी मुट्ठी में कैद किए हैं.
इस मामले में अमिताभ बच्चन का भी जवाब नहीं. जनाब 75 साल के हो चुके हैं. इस उम्र के ज्यादातर बुजुर्ग अपने नातीपोतों के साथ घर में खाली वक्त बिताते हैं लेकिन अमिताभ बच्चन साल में ‘पिंक,’ ‘तीन’ और ‘पीकू’ जैसी फिल्में कर युवा कलाकारों से ज्यादा मेहनताना जेब में अंटी कर लेते हैं. 75 साल के होते हुए वे खुद को बूढ़ा मानने के लिए तैयार नहीं हैं. ‘बूड्ढा होगा तेरा बाप’ जैसी फिल्मों में खुद को युवाओं का स्टार साबित करने की कोशिश करते दिख जाते हैं. बिग बी की तरह नाना पाटेकर, अनिल कपूर, आदित्य पंचोली, आसिफ शेख, जैकी श्रौफ, अरबाज खान के भी नाम लिए जा सकते हैं.
इन सब स्टार्स से अपेक्षाकृत स्टार की बात करें तो शाहिद कपूर, विवेक ओबेराय, आफताब शिवदासानी, अर्जुन कपूर, ऋतिक रोशन, रणवीर सिंह, रणबीर कपूर, वरुण धवन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, जिमी शेरगिल के नाम आते हैं. हालांकि ये भी 30 से 40 साल के हैं और युवा होने के मूल मापदंड से काफी दूर हैं, फिर भी रुपहले परदे पर 20-25 साल के युवा किरदारों को कर लेते हैं. हालांकि ये हमेशा दूसरी श्रेणी के ही स्टार रहे हैं. पहली कतार में 50 साला स्टार ही आते हैं. उन की फिल्में भी करोड़ों का कारोबार करती हैं. उन के अपने प्रोडक्शन हाउस भी हैं.
यही हाल अभिनेत्रियों के मामले में भी है. दीपिका पादुकोण, करीना कपूर, कैटरीना कैफ, ऐश्वर्या राय, तब्बू, प्रियंका चोपड़ा, विद्या बालन, रानी मुखर्जी, अमीषा पटेल, काजोल जैसी बड़ी अभिनेत्रियां 35-40 साल की हैं और युवा अभिनेत्रियां इन की सहेली, साइडकिक के रोल करने को मजबूर हैं. आलिया भट्ट व श्रद्धा कपूर जरूर युवा हैं लेकिन इन के नाम अपवाद सरीखे हैं.
दरअसल, बूढ़े हो चुके ये स्टार जब अपनी फिल्मों में युवा किरदारों में स्वीकृत हो जाते हैं तो अन्य फिल्मकार उन भूमिकाओं के लिए युवा कलाकारों को नहीं लेते. वजह, युवा स्टार के बजाय उम्रदराज स्टार की फिल्म सिनेमाहौल तक ज्यादा भीड़ लाती है.
साऊथ इंडियन फिल्म इंडस्ट्री का भी बुरा हाल है. वहां तो रजनीकांत (66), बालकृष्ण (57), चिरंजीवी (62), वेंकटेश (56), ममूटी (66), मोहन लाल (57) साल के हैं लेकिन अपनी हर फिल्म में 25-30 साल की हीरोइन के साथ रोमांस करते हैं और दर्शकों को भी सिनेमाघर के आगे ढोलनगाड़े बजाने पर मजबूर कर देते हैं. कमोबेश हर भाषा की फिल्मनगरी में बूढ़े स्टार्स राज कर रहे हैं और युवा स्टार्स की कमी बनी हुई है.