एक पुरानी कहावत है कि किसी किताब के मृख्य पृष्ठ को देखकर उसकी अच्छी या बुरी होने का निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए. यही बात विज्ञापन फिल्म बनाते बनाते फिल्म निर्देशक बने कुशल श्रीवास्तव की मनोवैज्ञानिक रोमांचक फिल्म ‘‘वोदका डायरीज’’ को लेकर कहा जाना चाहिए. इस फिल्म में शराब वाली न वोदका है और न ही कोई रहस्य व रोमांच.

फिल्म की कहानी एसीपी अश्विनी दीक्षित (के के मेनन) से शुरू होती है, जो कि अपनी पत्नी व कवि शिखा दीक्षित (मंदिरा बेदी) के साथ कुछ दिन की छुट्टियां मनाकर वापस मनाली लौट रहे हैं. उन्हे लेने गया उनका सहायक अंकित (शरीब हाशमी) भी उनके साथ ही है. रास्ते में अंकित बताता है कि एसीपी अश्विनी का सच साबित हुआ और अपनी नई किताब के विमोचन के वक्त मारे गए लेखक का मसला सुलझ गया है. के के दीक्षित अपनी ड्यूटी करते हुए भी अपनी पत्नी शिखा की अनदेखी नहीं करते हैं. घर पहुंचते ही अंकित का फोन आता है कि एक लेखिका की हत्या हो गयी है. अश्विनी दीक्षित तुरंत घटनास्थल पर पहुंचते हैं, वहां पर उन्हे सुराग के तौर पर मनाली के एक क्लब वोदका डायरीज का एक वीआईपी पास मिलता है.

अश्विनी दीक्षित वहां पहुंचते हैं, तो वहां  एक के बाद एक कई हत्याएं होती जाती हैं. हत्यारा अश्विनी की पकड़ से कोसों दूर होता है. अंकित बीच बीच में जोक्स सुनाकर माहौल को संजीदा नहीं होने देता. इधर रोशनी (राइमा सेन), अश्विनी दीक्षित के आस पास घूमती रहती है, वहीं उनकी पत्नी शिखा भी गायब हो चुकी हैं. अब वोदका डायरीज में हुई हत्याओं के हत्यारे की तलाश करने की बजाय अश्विनी दीक्षित अपनी पत्नी शिखा की तलाश में लग जाते हैं. कहानी में कई नए किरदार भी आ जाते हैं. पर कातिल का पता ही नहीं चलता. फिल्म का क्लायमेक्स भी बहुतकनफ्यूज करता है.

जब एक ही फिल्म में कई कहानी और कई किरदार हों, तो उन्हें किसी सटीक अंजाम तक पहुंचाना हर फिल्मकार के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है. ऐसे में पहली बार फिल्म निर्देशक बने कुशल श्रीवास्तव के लिए तो सफल होना असंभव ही रहा. फिल्म देखते समय दर्शक भी दुविधाग्रस्त होता रहता है. उसकी समझ में ही नहीं आता कि वास्तव में कहानी क्या है और हो क्या रहा है. फिल्म कभी वर्तमान में तो कभी अतीत में ऐसे हिचकोले लेकर चलती है कि हर कोई कहने लगता है-‘‘हे भगवान कहां फंसा दिया.’’

फिल्म ‘‘वोदका डायरीज’’ की एक वाक्य की कहानी यह है कि एसीपी अश्विनी दीक्षित अपनी पत्नी की मौत का गम भुला नहीं पाए हैं और उन्हे लगता है कि वह कहीं गायब हो गई हैं. तो उनके साथी एक कहानी रचते हैं, जिससे अश्विनी को सच का अहसास कराया जाए, इसलिए अश्विनीको जो हत्याएं हुई लगती हैं, वह हकीकत में हुई ही नहीं हैं. मगर इस सीधी सादी कहानी को कहानीकार व पटकथा लेखक वैभव बाजपेयी तथा निर्देशक कुशल श्रीवास्तव ने इतना घुमा दिया है कि खुद भी इसका सही क्लायमेक्स पेश नहीं कर पाए और फिल्म पूरी तरह से उबाउ व नीरस हो गयी है. फिल्म में ऐसा कुछ नही है जो कि दर्शकों को बांधकर रख सके. यदि अच्छा लेखक इस कहानी को लिखता तो बहुत बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. फिल्म का गीत संगीत भी प्रभावित नहीं करता.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो के के मेनन ने एक जटिल किरदार को बड़ी सहजता से निभाया है. इस तरह के किरदार  निभाना हर कलाकार के बस की बात नहीं होती. शरीब हाशमी व राइमा सेन ने भी अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है. मंदिरा बेदी महज खूबूसरत गुड़िया ही नजर आती हैं.

फिल्म को अति खूबसूरत लेाकेशनों पर फिल्माया गया है. कैमरामैन मनीष चंद्र भट्ट ने कमाल की कला दिखायी है. फिल्म अपनी लागत वसूल कर पाएगी, इसमें भी संदेह है.

एक घंटे 57 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘वोदका डायरीज’’ का निर्माण विशाल कुकेरजा, कुशल श्रीवास्तव व अतुल पुनेजा सहित छह लोगों ने मिलकर किया है. फिल्म के लेखक वैभव बाजपेयी, निर्देशक कुशल श्रीवास्तव, कैमरामैन मनीष चंद्र भट्ट तथा कलाकार हैं – के के मेनन, मंदिरा बेदी, राइमा सेन, शरीब हाशमी व अन्य.

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