बौलीवुड में शाहरुख खान के साथ अभिनय करियर की शुरुआत करने वाली दीपिका पादुकोण सहित हर अभिनेत्री ने अपना एक उच्चतम मुकाम बनाया है. मगर 2001 में शाहरुख खान के साथ फिल्म ‘‘अशोका’’ से अभिनय करियर की शुरुआत करने वाली अदाकारा ऋषिता भट्ट ने 17 वर्ष के दैारान काफी फिल्में कर ली हैं. मगर उन्हें वैसी सफलता नहीं मिल पायी,जैसी सफलता दीपिका पादुकोण या अन्य अभिनेत्रियों को नसीब हुई. इतना ही नहीं पिछले दो वर्ष से वह फिल्मों में नजर नहीं आ रही थीं. इसी बीच 2017 में डिप्लोमेट के साथ शादी करने के बाद घर गृहस्थी में लिप्त हो गयी थीं. मगर अब वह एक रोमांचक मनोवैज्ञानिक फिल्म ‘‘इश्क तेरा’’ में नजर आने वाली हैं. बीस अप्रैल को प्रदर्शित हो रही इस फिल्म के निर्देशक जो जो डिसूजा और मोहित मदान उनके सह कलाकार हैं.
बीच में आप गायब रहीं?
मैं कहीं गायब नहीं थी. पर मैं हर फिल्म नहीं करती हूं. मैं शुरू से ही चुनिंदा फिल्में करती आयी हूं. आज भी मनपसंद काम ही कर रही हूं. जैसे ही मुझे जो जो निर्देशित फिल्म ‘‘इश्क तेरा’’ में बेहतरीन चुनौतीपूर्ण किरदार निभाने का अवसर मिला, वैसे ही मैंने यह फिल्म की. अब यह फिल्म 20 अप्रैल को सिनेमाघरों में होगी.
फिल्म ‘‘इश्क तेरा’’ को लेकर क्या कहेंगी?
यह रहस्य रोमांच से भरपूर मनोवैज्ञानिक फिल्म है. यह फिल्म आम जिंदगी में पड़ने वाले डिसआर्डर को बयां करती है. जिसमें मेरे हीरो मोहित मदान हैं.
फिल्म के अपने किरदार को किस तरह से परिभाषित करेंगी.
मेरे किरदार का नाम कल्पना है. कल्पना की ही स्पिलिट पर्सनालिटी/विभाजित व्यक्तित्व का नाम लैना है. कहानी और इन दोनों किरदारों को समझ कर परदे पर इन्हें अलग ढंग से पेश गया किया है. शारीरिक तौर पर तो आप दो नहीं होते हैं, पर इस फिल्म में आप अंदर ही अंदर दो इंसान हैं. एक कल्पना और एक लैला. तो एक ही सीन में स्विच औन व स्विच औफ करना आसान नहीं था. इस किरदार को निभाना बहुत चुनौतीपूर्ण व कठिन रहा. क्योंकि दोनों किरदारों के बातचीत करने का लहजा भी अलग है. कल्पना एक साधारण सी लड़की है. जबकि लैला फ्लैम ब्वाय है. यहां तक कि लैला की भाषा, उसका अंदाज बदल जाता है. इस तरह के किरदार को निभाना आसान नहीं था. कल्पना जब लैला बनती है, तो वह क्यों होता है, इस बात को समझना, उसकी वजह जानना, एक बहुत कठिन प्रक्रिया रही. मुझे उम्मीद हैं कि दर्शकों को यह किरदार पसंद आएंगे.
मैं कुछ ऐसे लोगों से मिली हूं, जो इस तरह की बीमारी से जूझ रहे हैं. आप अक्सर देखते होंगे कि किसी इंसान का व्यवहार या बात करने का लहजा अचानक बदल जाता है. वह उसके अंदर दबी किसी भावना के उभरने का प्रभाव होता है. वह अचानक कुछ अलग ढंग से व्यवहार करने लगता है.
आप कभी स्पिलिट पर्सनालिटी वाले लोगों से मिली हैं?
हां! मैं मिली हूं. इस फिल्म की शूटिंग के बाद की बात है. मैं अमरीका गयी हुई थी, तो वहां मुझे अभिनेत्री के तौर पर कोई पहचानता नहीं था. एक दुकान पर हम कुछ समान देख रही थी. एक अन्य महिला भी थी. उस महिला ने कोई चीज उठायी और रखने की कोशिश की, मैंने वह चीज उसके हाथ से ले ली. पर फिर मुझे लगा कि वह मेरी तरफ देख रही है, तो मैंने सौरी बोलकर कुछ और सामान देखने लगी. तो उसने मुझसे कहा, ‘डू आइ नो यू?’ मैंने कहा. ‘नो’ फिर अचानक वह मेरे सामने आ गयी और बहुत गुस्से में थी. मेरी समझ में नही आया कि आखिर इन्हें क्या हो गया? मैंने सोचा कि यह उन लोगों में से हैं, जो किसी का गुस्सा किसी और पर निकालते हैं. फिर वह अपने आप से बात करने लगी. फिर कुछ इस तरह के इशारे करने लगी जैसे कि किसी से बात कर रही हो. पहले मुझे लगा कि कहीं व कोई हिंसक रूप ना ले ले, पर मैंने उसकी किसी भी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. तो वह भी चुपचाप वहां से चली गयी. तो ऐसे लोग आम जिंदगी में होते हैं, जिन्हें अंदर से कुछ न कुछ समस्या रहती है, जो किसी खास मौके पर उभरती है. आप ऐसे लोगों को पागल नहीं कह सकते. हां! डिप्रेशन हो सकता है. कई बार ऐसे लोगों को देखकर लगता है कि भूत चढ़ गया हो. इंसानी जिंदगी इतनी कठिन है कि किसी बात का शौक लगने पर भी ऐसा होता है. कई बार इस तरह के लोग बीमार हो जाते हैं, कोमा में भी चले जाते हैं. मुझे लगता है कि आपने अपनी भावनाओं को दबा कर रखा हुआ है, आप खुद इस बात को नही समझ रहे हैं, आपसे जुड़े लोग भी इस बात को नहीं समझ रहे है. तो अचानक आपका व्यवहार बदल जाता है. आपने किसी से शादी की है, तो सामने वाले की समझ में आता है कि आपके अंदर यह समस्या है. पर आपके चेहरे से आप खुद नहीं समझ पाते हैं. अकेलेपन की वजह से भी इस तरह की चीजें होती हैं.
फिल्म की शूटिंग से पहले भी किसी ऐसे इंसान से मुलाकात हुई?
हां! हुई थी. मैं सायकोलौजी की स्टूडेंट रही हूं, इसलिए मैं इन चीजों को समझती भी हूं. अब तक इस तरह के किरदार पर कोई फिल्म नहीं बनी है. अब कुछ पुरुष पात्रों पर फिल्में बनी हैं.
आपको लगता है कि समाज में कुछ ऐसी समस्याएं हैं,जिनकी वजह से लोगों का व्यक्तित्व बिखर रहा है?
जी हां! इन दिनों लोगों की जिंदगी में तनाव इतना ज्यादा हो गया है कि लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं. कुछ लोग निगेटिव सोचते रहते हैं, इसलिए डिप्रेशन में चले जाते हैं. सिर्फ बड़े शहर ही नहीं छोटे शहरों में भी कुछ वजहों से लोग दब जाते हैं. फिल्म ‘इश्क तेरा’ में एक संवाद है कि, ‘लड़की होना पाप हैं.’ यदि यह बात कोई लड़की बचपन से सुनती आयी हो या उसके दिमाग में यह बात भर गयी हो, तो कभी न कभी, उम्र के किसी पड़ाव पर वह बाहर निकलेगा. यदि लड़की सही ढंग से जिंदगी जी रही है, पर अचानक वही चीज उसकी जिंदगी में फिर से आ जाए, तो वह एक बार फिर विरोधी हो सकती है. लोग वुमन इम्पावरमेंट की बात कर रहे हैं. मैं कहती हूं कि लड़के व लड़की में समानता की बात होनी चाहिए. ‘लड़की होना पाप है’ की बात कभी नही होनी चाहिए. पर अब धीरे धीरे लोगों में जागरूकता पैदा हो रही है. 9 से 5 की नौकरी करने वालों के साथ तनाव कम होता है. पर दूसरी समस्या उनके साथ होती हैं. पर बौलीवुड में या हमारे अभिनय के क्षेत्र में दिन रात काम होता है.
तो आप मानती हैं कि बौलीवुड में ज्यादा तनाव व काम का बोझ होता है, जिसे अब कई लोग स्वीकार कर रहे हैं?
जी हां! दीपिका पादुकोण ने खुलेआम स्वीकार किया है कि वह डिप्रेशन में रही हैं. इसकी वजह यह है कि हम अपने काम, अपनी शोहरत और असफलता के बीच सामंजस्य बनाकर नहीं रखते. मैं बार बार कहती हूं कि एक कलाकार के तौर पर मैं जरूरत से ज्यादा काम ना करूं. मैं मशीन नहीं बनना चाहती. मैं खत्म नही होना चाहती. इसलिए मैं समय समय पर ब्रेक लेती रहती हूं. कोई भी रचनात्मक इंसान एक मशीन की तरह काम नहीं कर सकता. निर्देशक भी मशीन की तरह फिल्म नहीं बना सकता, उसे भी ब्रेक चाहिए. फिल्मों में अभिनय करना बहुत ही ज्यादा रचनात्मक काम है. यदि आप इसे नजरंदाज करके ज्यादा काम करेंगे, तो डिप्रेशन का शिकार हो सकते हैं. या आप बीमार हो सकते हैं. या आपको किसी चीज की आदत पड़ सकती है. बौलीवुड में तो सफलता असफलता दोनों एक्स्टीम पर जाती है. जब आप अपने आस पास के माहौल पर ध्यान देते हैं, तो उसी पर बहते रहते है.
जब आप अभिनय नहीं कर रहीं होती, तो क्या करती हैं?
डांस…डांस मेरा सबसे बड़ा शौक है. मैंने क्लासिकल डांस सीखा भी है. इसके अलावा किताबें पढ़ना, संगीत सुनना, पेंटिंग्स बनाना मुझे पसंद है. रचनात्मक क्षेत्र में मैंने पहले से ही बहुत काम किया है. जब हम बहुत काम कर लेते हैं, तो ब्रेक लेकर कुछ दूसरा काम करते हैं और करना भी चाहिए. बनावटी पन ना आए इसका ध्यान रखना चाहिए.
आपने ताजा तरीन कौन सी पेंटिंग बनायी है?
मैंने चंद दिनों पहले ही बहुत अच्छी पेंटिंग बनायी है,पर मैं उसे पब्लिसिटी का हिस्सा नहीं बनाना चाहती. मैं हर किसी को सलाह देती हूं कि आप अभिनय करते हुए बीच बीच में अपनी किसी दूसरे शौक पर भी काम कर लिया करें. यह आपके लिए, आपकी निजी जिंदगी के लिए बहुत जरूरी है. संगीत, लेखन और पढ़ना तो थिरैपी का काम करता है.
शादी के बाद आपकी जिंदगी कितनी बदली?
-इंज्वाय कर रही हूं. खूबसूरत जिंदगी चल रही है. कुछ लोग कहते हैं कि, ‘शादी के लड्डू खाएं तो पछताएं, ना खाएं तो पछताएं.’ मैं कहती हूं कि यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसे किस तरह से लेते हैं. अब हमारी जो पीढ़ी है, वह काफी मैच्योर है. हम हर समस्या से बड़ी खूबसूरती से निपटना जानते हैं.
पर आपने बहुत चुपचाप शादी की?
मेरी शुरू से आदत रही है कि मैं अपनी निजी जिंदगी को लेकर कभी बात नही करती. मेरी राय में दो इंसान एक दूसरे के लिए शादी करते हैं. मैंने कभी यह नहीं कहा कि मैंने शादी नहीं की, पर मैंने इसका ढिंढोरा भी नहीं पीटा. मैं आज भी अपनी निजी जिंदगी को लेकर बातें नहीं करना चाहती. मेरी शादी ‘अरेंजड कम लव’ वाली शादी है.
शादी को सफल बनाना भी एक कला है. इस कला के बारे में आप क्या कहेंगी?
यह बहुत बड़ा प्रोफेशन हैं. मैं हर गृहिणी को सलाम करती हूं. मैं सभी गृहणियों को महान मानती हूं. अभी तो मेरी शादीशुदा जिंदगी की शुरुआत हुई है. अभी हमें आप सभी की शुभकामनाएं चाहिए.
क्या पढ़ना पसंद करती हैं?
अलग अलग तरह की कहानियां पढ़ती हूं. कविताएं पढ़ती हूं. मनोविज्ञान से संबंधित किताबें पढ़ती हूं. पर ज्यादा तर अंग्रेजी में पढ़ती हूं.
आपने शाहरूख खान के साथ फिल्म ‘अशोक’ से करियर शुरू किया था. उसके बाद जहां करियर पहुंचना चाहिए था, नहीं पहुंचा?
फिल्म इंडस्ट्री की कार्यशैली अलग हैं. यहां लोग सोचते हैं कि इस ढंग से ही होना चाहिए. जबकि मैं सोचती हूं कि कलाकार का विकास होना चाहिए, दोहराव नहीं. मुझे ब्रेक बहुत अच्छा मिला था, इसलिए मैं आज भी इस इंडस्ट्री का हिस्सा हूं. मैंने अब तक हर फिल्म में अलग किरदार निभाए हैं.
देखिए, मैं 18 वर्ष की उम्र में बौलीवुड से जुड़ी थी. उस वक्त मैं सोचती थी कि मुझे ज्यादा से ज्यादा बेहतरीन किरदार निभाने का अवसर मिले. उस वक्त मैंने भी ऐसे निर्देशको के साथ ऐसी फिल्में चुनी, जो कि वैसा सिनेमा बनाने को तत्पर थे, जिस तरह के सिनेमा का मैं हिस्सा बनना चाहती थी. मैं वर्तमान समय के सिनेमा में जिस तरह का कंटेंट परोसा जा रहा है, उससे खुश हूं. हम कलाकारों को अच्छा काम करने के काफी अवसर मिल रहे हैं. अच्छी फिल्मों का हिस्सा बनना जरुरी है, क्योंकि जब आपकी फिल्म देखी जाएगी, तभी लोग आपके किरदार को याद रखेंगे.
अब तो सिनेमा काफी बदल चुका है. अब छोटे शहरों की कहानियों वाली फिल्में बनने लगी हैं. यदि ‘अशोक’ के समय छोटे शहरों की कहानी वाली फिल्में बनी होती, तो मुझे ज्यादा फायदा होता. पर उस वक्त लोग कहते कि ‘मैं आर्ट फिल्म कर रही हूं.’ फिल्म ‘दिल विल प्यार व्यार’ में पंचम दा के गाने थे. मेरा किरदार अलग था. ‘शरारत’ व ‘हासिल’ भी अलग तरह की फिल्म थी. तब लोगों को लगा कि मैं कमर्शियल फिल्मों से दूर रहना चाहती हूं. जबकि मेरी कोशिश रहती है कि मैं अलग तरह का किरदार निभाउं. उसके बाद निर्देशक पर निर्भर करता है कि वह मुझे किस तरह की फिल्म का हिस्सा बनाकर मुझसे किस तरह का काम करवाते हैं.
सिनेमा में आया बदलाव?
काफी बदलाव आ गया. अब कंटेंट प्रधान सिनेमा को तरजीह दी जा रही है. अब वक्त बदला है. मीडिया बढ़ गया है. कौरपोरेट आ गए हैं. कास्टिंग डायरेक्टर आ गए. सिस्टम बदला है.
कौरपोरेट, कास्टिंग डायरेक्टर वगैरह के चलते खुद को कहां पाती हैं?
मैंने पहले ही कहा कि कलाकार शुरू से ही निर्देशक के हाथ की कठपुतली होता है.हम तो उनके ढांचें में ढलने वाले हैं. हम क्या कर सकते हैं? यह अलग है. पर सवाल यह है कि किस तरह की फिल्म बन रही है और उसमें किस तरह का किरदार है.
वीडियो : एमरेल्ड ग्रीन नेल आर्ट
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