कहते हैं, संतों ने समाज में जागरूकता फैलाने के लिए उनके सामने अपने विचार रखे. उस विचार को समाज की स्वीकृति पाने के लिए भगवान को आधार बनाया. परन्तु समय गुजरने के साथ वो विचार पीछे रह गए और यदि कुछ बच गया तो वह है केवल भगवान. भगवान की रचना मनुष्यों ने ही की है. उस दौरान ज्ञान, मनोरंजन और अपने भाव व्यक्त करने का दूसरा कोई साधन नहीं था, जिस वजह से मनुष्य भगवान के अधीन होता चला गया. इससे उसकी प्रकृति इतनी बदल गई कि वह स्वार्थी बनता चला गया और देव-धर्म का डर दिखाकर भोले भाले लोगों को फंसाने लगा. उन्हीं से सीख लेकर सयानी बनी नयी पीढ़ी आज उनसे सवाल पूछ रही है, जिनका जवाब ढूंढने का एक प्रयास है फिल्म ‘मंत्र’.

श्रीधर पंत (मनोज जोशी) गांव के मंदिर के पुजारी है. पूजापाठ उनके पूरे परिवार के जीवन निर्वाह का एकमात्र साधन है. पंत का छोटा बेटा निरंजन (सौरभ गोगटे) पूजापाठ में बहुत ज्यादा रूचि नहीं लेता है, लेकिन वो इन सबका कभी विरोध भी नहीं करता है. पैसे की आशा में कभी कभार पूजा भी करने जाता है. जर्मनी में एक मंदिर के पुजारी के रूप में जाने का प्रस्ताव पंत के बड़े बेटे काशीनाथ (पुष्कराज चिरपुटकर) को मिलता है, लेकिन उसका कहना है कि “हम मर भी गए, फिर भी विदेश की युवा पीढ़ी आस्तिक नहीं बनेगी, तो फिर हम अपना खून पसीना क्यों बहाए.” इसलिए वह जर्मनी जाने के लिए मना कर देता है. लेकिन अपने परिवार के पास चलकर आ रहे इस मौके को कोई और ना हड़प ले, ऐसा निरंजन सोचता है. निरंजन अपने दोस्त सनी (शुभंकर एकबोटे) के साथ डेविड (सुजय जाधव) के पास जाता है. उसे लगता है कि डेविड ही उसका एक समझदार दोस्त है, कुछ ना कुछ आईडिया तो जरूर बताएगा.

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