-आरती कदव, लेखक व निर्देशक फिल्म‘‘कार्गो’’
बचपन से ही रचनात्मकता में रूचि होने के बावजूद आरती कदव ने आईआईटी, कानपुर से इंजीनियरिंगं की डिग्री हासिल करते हुए अमरीका की माइक्रोसाफ्ट कंपनी में काम करना शुरू किया. पर कुछ दिन बाद ही वह लघु फिल्में बनाने लगी. फिर नौकरी छोड़कर वह मुंबई पहुंच गयी. आठ वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद वह अपनी पहली साइंस फिक्शन फिल्म‘‘कार्गो’’का लेखन, निर्माण व निर्देशन कर सकी, इसी बीच उन्होने कुछ बेहतरीन लघु फिल्में बनाकर शोहरत बटोरी.
फिल्म ‘‘कार्गो’’ कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराही जा चुकी है. आरती कदव अपनी इस फिल्म को सीधे सिनेमाघर में ही प्रदर्शित करने की इच्छा रखती थी. लेकिन कोरोना महामारी व लौक डाउन के चलते अब उन्होने अपनी फिल्म‘‘कार्गो’’ ओटीटी’प्लेटफार्म ‘‘नेटफ्लिक्स’को दे दी है, जो कि 9 सितंबर को ‘नेटफिलक्स’ पर प्रदर्शित होगी.
प्रस्तुत है आरती कदव से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. .
सवाल- आपकी पृष्ठभूमि के बारे में बताएं?
-मेरा बचपन नागपुर में रहने वाले मध्यम वर्गीय परिवार में बीता. मेरे पिता इंजीनियर और मॉं शिक्षक है. हमारे परिवार में शिक्षा को लेकर काफी दबाव था. एक तो मां शिक्षक,उपर से नागपुर में हर बच्चा पढ़लिखकर इंजीनियर या डाक्टर बनने की ही सोचता है. वैसे मेरी रूचि कला की तरफ थी. मंै चारकोल स्केचिंग बहुत किया करती थी. एक स्केच बनाने में मुझे पंद्रह दिन लगते थे. फिर मैं उनकी एक्जबीशन प्रदर्शनी भी लगाती थी. स्कूल के दिनो में मैं कहानी लेखन में पुरस्कार भी जीतती थी. उन दिनों में राक्षस की ही कहानियां लिखती थी. मगर मां का दबाव था और मैं पढ़ने में तेज थी,तो मैंने कानपुर आई आई टी से इंजीनिरिंग की डिग्री ली,फिर पोस्ट ग्रेज्यूएशन भी किया. उन्ही दिनों अमरीका की माईक्रो साफ्ट कंपनी पहली बार भारत आयी थी और यहां के होनहार बच्चों की तलाश कर रही थी. तो मुझे भी चुना गया. भारत से दो लोग चुने गए थे. जिसमें से एक मैं थी. तो पढ़ाई पूरी होते ही मैं अमरीका चली गयी. यह मेरे लिए सभ्यता व संस्कृति के स्तर पर बहुत बड़ा बदलाव था. क्योंकि अब तक भारतीय सभ्यता व संस्कृति में मेरी परवरिश बहुत प्रोटेक्टिब रूप में हुई थी. वहां पर मुझे काफी एक्सपोजर मिला. पूरी स्वतंत्रता थी. मैं अमरीका जैसे शहर में अकेले नौकरी कर रही थी. तो काफी स्वतंत्रता थी. एक दिन मैंने एक कैमरा खरीदा. वहां से मैने धीरे धीरे कुछ फिल्माना शुरू किया. उस वक्त कैमरा महंगा था और मैं उस वक्त पैसे वसूल करने के लिए ज्यादा से ज्यादा शूट करने लगी. फिर कुछ भारतीयो से मिलकर कुछ लघु शॉर्ट फिल्में बनायीं. बहुत प्यारी प्यारी लघु फिल्में थीं.
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल
गृहशोभा सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- गृहशोभा मैगजीन का सारा कंटेंट
- 2000+ फूड रेसिपीज
- 6000+ कहानियां
- 2000+ ब्यूटी, फैशन टिप्स
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन
गृहशोभा सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- गृहशोभा मैगजीन का सारा कंटेंट
- 2000+ फूड रेसिपीज
- 6000+ कहानियां
- 2000+ ब्यूटी, फैशन टिप्स
- 24 प्रिंट मैगजीन