2013 में चित्रांगदा सिंह और अर्जुन रामपाल के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘इंकार’’ प्रदर्शित हुई थी, जिसमें एड वर्ल्ड (विज्ञापन जगत) में औरतों के यौन शोषण का मसला उठाया गया था. इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद यौन शोषण पर बौलीवुड और टीवी इंडस्ट्री में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी. उस वक्त ऐसा लगा था जैसे कि बौलीवुड में सब कुछ ठीक ठाक है. लेकिन इन दिनों बौलीवुड में ‘‘मी टू’’ कैंपेन के तहत तमाम अभिनेत्रियां अपने सह कलाकारों या निर्माता निर्देशक पर यौन शोषण के आरोप लगा रही हैं.
हाल ही में निखिल आडवाणी निर्मित और गौरव के चावला निर्देशित फिल्म ‘‘बाजार’’ को लेकर चित्रांगदा सिंह ने ‘‘गृहशोभा’’ पत्रिका से एक्सक्लूसिव बातचीत की. फिल्म ‘‘बाजार’’ में वह सैफ अली खान के साथ नजर आएंगी.
इस वर्ष प्रदर्शित होने वाली ‘बाजार’’ आपकी दूसरी फिल्म है. इससे पहले प्रदर्शित फिल्म ‘साहेब बीबी और गैंगस्टर-भाग तीन’’ को सफलता नहीं मिली?
फिल्म ‘‘साहेब बीबी और गैंगस्टर’ के न चलने की वजह तिंग्मांशु धुलिया ही बता सकते हैं. इस फिल्म में जिस तरह से मेरा किरदार बना था, उससे मैं भी खुश नहीं थी. लेकिन हमारे लिए हर फिल्म महत्वपूर्ण होती है. हर फिल्म हमारे करियर को आगे बढ़ाने या उसे पीछे ढकलने का काम करती है. ‘‘साहेब बीबी और गैंगस्टर 3’’ के सफलता न मिलने के बाद मेरे लिए व मेरे करियर के लिए फिल्म ‘‘बाजार’’ अति महत्वपूर्ण हो गयी है.
कहा जा रहा है कि फिल्म ‘‘बाजार’’ में आपका किरदार काफी छोटा है. कहानी के केंद्र में तो सैफ अली खान व रोहन मेहरा के किरदार हैं?
फिल्म देखने के बाद आप बताइएगा. पर अब सिनेमा की स्थिति बदल चुकी है. अब हर फिल्म में महिला किरदार अहमियत रखते हैं. फिल्म ‘‘बाजार’’ में मेरा मंदिरा कोठारी का किरदार अहम है. इस किरदार के बगैर फिल्म जो कहना चाहती हैं, वह संभव नहीं है. इससे ज्यादा अभी कहना ठीक नहीं होगा.
आपकी अपनी निजी महत्वाकांक्षा क्या है?
एक रचनात्मक कलाकार होने की वजह से मेरी महत्वाकांक्षा बेहतरीन निर्देशक के साथ काम करने की है. अलग अलग तरह के किरदार निभाने की है. अब जब मैंने लिखना शुरू किया है, तो मेरी महत्वाकांक्षा है कि मैं उन लिखी हुई चीजों को दर्शकों तक पहुंचा सकूं. लंबे समय की महत्वाकांक्षा यह है कि हमेशा सिनेमा से जुड़कर काम करती रहूं.
यदि हम फिल्म ‘‘बाजार’’ के संदर्भ में देखें, तो महत्वाकांक्षा में रिश्ते टूटते हैं?
देखिए, निजी जिंदगी हो या फिल्म ‘बाजार’ की कहानी हो, दोनों जगह यही सवाल है कि क्या आप उस लाइन को क्रौस करेंगें? यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है. तो हम सभी कहीं न कहीं इससे रिलेट करते हैं व करेंगे. मैं ही क्यों, हम सभी कभी न कभी उस लाइन पर पहुंचे हैं या उस लाइन को क्रौस किया है. इस वजह से रिश्ते जरूर टूटते होंगे. मैं इस बात से श्योर हूं. अगर आप मेरे निजी जीवन के बारे में बात कर रहे हैं, तो यह बहुत निजी मसला हो जाएगा. पर अमूमन होता यही है कि महत्वाकांक्षा के चलते रिश्ते टूटते हैं. पर कुछ लोग अपने रिश्ते बचाने के लिए लाइन क्रौस नहीं करते हैं. पर कुछ लोगों को लगता है कि लाइन क्रौस करने से क्या होता है? देखिए, इंसान को जिंदगी में सबसे बड़ी सीख तभी मिलती है, जब वह लाइन क्रौस करते हैं. सिर्फ एक बार नहीं, हर बार, जब भी आप लाइन क्रोस करेंगे, तो आप सीखेंगे.
सिंगल मदर की क्या समस्या होती है? आप दूसरी सिंगल मदर को क्या सलाह देना चाहेंगी?
कुछ देर तक सोचने के बाद.. मेरी समझ में नहीं आ रहा हैं कि मैं क्या कहूं? क्योंकि यह बहुत ही निजी मसला हो गया है. पर मैं जिस क्षेत्र में कार्यरत हूं, वहां मैं अपनी पसंद का काम चुन सकती हूं. काम करने के लिए अपनी पसंद का समय चुन सकती हूं. जो कि अन्य क्षेत्रों में काम करने वाली महिला के लिए संभव नहीं है. इसलिए मैं अपने आपको भाग्यशाली समझती हूं. जो मुझे सुविधा मिल गयी है, उसके चलते हुए मुझे कम समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. मैं हर सिंगल मदर से सिर्फ एक बात कहना चाहूंगी कि वह गिल्टी फील ना करें. गिल्ट के साथ जीना ठीक नही है. क्योंकि यह बात आपके व आपके बच्चे दोनों के लिए अच्छी नहीं होगी.
2013 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘इंकार’’ में आपने सेक्सुअल हरेसमेंट का मुद्दा उठाया था?
(सवाल के बीच में ही चित्रांगदा सिंह कहती हैं) देखिए, यह मुद्दा मैंने नहीं, फिल्म के लेखक निर्देशक सुधीर मिश्रा ने उठाया था. उन्होंने इसे बहुत ही संजीदगी के साथ पेश किया था. उन्होंने औरतों की जो स्टैडिंग होती है, समाज में उनका जो महत्वपूर्ण स्थान है, उसे उन्होंने फिल्म में पिरोया. ऐसा वह पहली फिल्म ‘‘मैं जिंदा हूं’’ से करते आए हैं.
लेकिन मेरा सवाल यह है कि फिल्म ‘इंकार’ में जिस मुद्दे को उठाया गया था, वह मुद्दा इन दिनों बौलीवुड में ‘मी टू’ के चलते ज्यादा चर्चा में आ गया है. ‘इंकार’ के समय सभी ने चुप्पी क्यों साध रखी थी?
(हंसते हुए कहती हैं) इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मेरी हर फिल्म अपने समय से पहले आ जाती है. इसी तरह मेरी फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी भी’ समय से पहले आ गयी थी. ‘इंकार’ भी पहले आ गयी. खैर.. यह हंसने वाला मसला नही है. पर जिस तरह से अभिनेत्रियां व दूसरी औरतें सामने आकर अपनी पीड़ा बयां कर रही हैं, उससे मैं ही नही हर क्षेत्र में कार्यरत नारी खुश है. वास्तव में सभी ने कभी न कभी शोषण का अनुभव किया है. इसी कारण आज भारत देश की हर औरत खुश है कि अब इस मुद्दे को लेकर बात हो रही है.
‘इंकार’ के वक्त आपने कहा था कि सेक्सुअल हैरेसमेंट को दिखाने के लिए एड वर्ल्ड की पृष्ठभूमि ज्यादा उचित है. पर अब जो हालात बने हैं, उसमें क्या कहेंगी कि बौलीवुड के बैकग्राउंड में यह कहानी दिखानी चाहिए?
हंसते हुए..मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैंने यह बात उस वक्त किस संदर्भ में कही थी. लेकिन सेक्सुअल हैरेसमेंट तो उस वक्त एड वर्ल्ड में ज्यादा सुटेबल रहा था. क्योंकि हम कौरपोरेट जगत की बात कर रहे थे. कौरपोरेट जगत में जो हो रहा था, उसकी बात कर रहे थे. शायद सुधीर मिश्रा को एड वर्ल्ड की समझ ज्यादा थी. क्योंकि उनके कई दोस्त एड जगत में हैं. उनकी अपनी भी पहले एड बनाने की एजंसी थी. इसलिए वह वहां के माहौल को समझते थे. एड फिल्म इंडस्ट्री काफी ओपन है. वहां इतनी ज्यादा हैरारकी/ सामंतशाही/ पितृसत्तात्मक माहौल नहीं होता. जबकि दूसरे कौरपोरेट जगत में बहुत स्ट्रांग होता है. पर सुधीर मिश्रा का इस फिल्म के माध्यम से कहना यह था कि खुले माहौल में भी सेक्सुअल हैरेसमेंट हो सकता है.
बौलीवुड में हैरारकी/सामंतशाही है या नहीं?
(काफी सोचने के बाद वह कहती हैं) अब समय काफी बदला है. अब हैरारकी तो नही है. यहां काफी समानता है. जबकि कई कारपोरेट हाउसों में बहुत ज्यादा है. हमारी फिल्म इंडस्ट्री में उनके मुकाबले काफी समानता है. फिर भी बौलीवुड में तमाम प्रोडक्शन हाउस के मुखिया पुरुष हैं. सभी मुख्य निर्णय लेने वाले पुरुष ही हैं. इसलिए आप कह सकते हैं कि बोलीवुड को पुरुष चला रहे हैं. पर वहीं एकता कपूर भी हैं. उन्होने अपनी जगह बना ली है. अनुष्का शर्मा फैंटास्टिक काम कर रही हैं. अच्छी फिल्में बना रही है. पर बौलीवुड मे औरतों को अपनी प्रतिभा साबित करने मे समय लगेगा. तो धीरे धीरे काफी बदलाव आ रहा है, पर अभी इसमें समय लगेगा.
तनुश्री दत्ता के अवाज बुलंद करते ही…?
(सवाल पूरा होने स पहले ही चित्रांगदा सिंह ने कहा) जिस तरह से तनुश्री दत्ता ने आवाज बुलंद की है, तो वह गैर फिल्मी माहौल से हैं. पर बौलीवुड से जुड़े जो पुरुष नहीं समझते कि छोटे शहरों से आने वाली लड़कियों के लिए यह नई जगह है, तो उनके साथ गलत ढंग से पेश न आया जाए. पर आप जिस इंडस्ट्री में भी जाएंगे, आपको यह सब मिलेगा. तो यह सीखने वाला अनुभव ही होगा. मैं बताना चाहूंगी कि मेरे समक्ष ही ऐसा अवसर आया था, उस वक्त मैंने उस फिल्म को छोड़ कर अपना नुकसान कर लिया था. अब हर कोई ऐसा नहीं कर सकता.
यह सही नही है कि किसी को भी च्वाइस करनी पड़े. मैं यह कह सकती हूं कि बौलीवुड में भी आदर्शवादी माहौल नहीं है. औरत हो या पुरुष, किसी को भी सफर नहीं करना चाहिए. तो वहां पर हैरेसमेंट शब्द सही है. भले ही वह मोलेस्टेशन या रेप न हो. यह इंडस्ट्री के लिए उचित नहीं है. क्योंकि इस वजह से आप किसी अच्छे इंसान या अच्छी प्रतिभा को खोते हैं. पहले वह चुप क्यों रही? इस तरह के सवाल रिड्यूक्लुस हैं. सेक्सुअल हैरेसमेंट पुरुष व नारी दोनों के साथ हो रहा है. मेरा मानना है कि कम से कम बौलीवुड के लिए नारी शोषण अनुचित है और लोगों को इसके खिलाफ खड़ा होना चाहिए.
विकास बहल के खिलाफ तीन साल पहले एक सहकर्मी ने यौन शोषण का आरोप लगाया था. उस वक्त अनुराग कश्यप सहित सभी लोग चुप बैठे रहें. पर ‘फैंटम’ के बंद करते ही सारे लोग विकास बहल के खिलाफ हो गए हैं. यह अवसरवादिता है?
अनुराग कश्यप ने जो कुछ पोस्ट किया, वह सब मैंने पढ़ा है. पर असली मुद्दे के बारे में मुझे बहुत कम जानकारी है, इसलिए मैं कोई कमेंट नहीं करना चाहती. लेकिन आज मैं इस बात से खुश हूं कि तीन साल बाद ही सही, वह सच का साथ देने को तैयार तो हुए. तीन साल बाद ही सही, पर वह इस हालात या मुकाम तक पहुंचे कि अब वह बोल रहे हैं. किसी भी वजह से वह इस नौबत पर पहुंचे हैं कि सच का साथ दे रहे हैं. तो यह अच्छी बात है. हम सभी इंसान हैं, भगवान नहीं. मैं अनुराग जी से यह उम्मीद भी नही करती कि जिस दिन उन्होंने सुना, उसी दिन वह विकास बहल को कंपनी से बाहर कर देते. क्योंकि कुछ चीजें संभव नहीं हो पाती हैं. लेकिन मुझे खुशी है कि आखिर अनुराग में इतना गट्स है कि उन्होंने खुलकर पीड़िता का साथ देने का निर्णय लिया. अब तक अपनी चुप्पी को लेकर भी सच बयां किया है. मुझे गर्व है कि उनके अंदर इतना साहस आया. पहले चाहे जिस वजह से चुप रहे हों, पर अब जब वह सच कह रहे हैं, तो उनका सम्मान किया जाना चाहिए.
तो यह माना जाए कि हर इंसान किसी भी मुद्दे पर किसी का भी साथ देने से पहले अपना फायदा देखता है?
ऐसा बहुत स्वाभाविक है. हम किसी आदर्शवादी समाज में नहीं रह रहे हैं. अगर हम आदर्शवादी समाज में रह रहे होते, तो शायद ऐसा नहीं होता. पर हमें खुश होना चाहिए कि हर इंसान में थोड़ा बहुत आदर्श बचा है, जो कि देर सवेर उनमें जग रहा है. तो मुझे उससे भी खुषी है.मैं सिर्फ लोगों की आलोचना करने में यकीन नहीं करती हूं. बल्कि जिस मुकाम पर भी वह आखिर सच का साथ दें, उसकी मैं प्रशंसा करती हूं.