बचपन से अभिनय की इच्छा रखने वाली अभिनेत्री उषा जाधव महाराष्ट्र के कोल्हापुर की हैं. उन्होंने अभिनय की शुरुआत मराठी थिएटर से की थी. थिएटर में काम करने के दौरान उन्हें कई टीवी विज्ञापनों में भी काम मिला. हिंदी फिल्म में उन्हें पहला ब्रेक मधुर भंडारकर की फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ से मिला.
दलित और लोअर मिडिल क्लास की होने की वजह से उषा को अभिनय के क्षेत्र में आने में काफी मुश्किलें आईं. संघर्ष के बारे में पूछे जाने पर वे बताती हैं, ‘‘कोल्हापुर एक छोटा शहर है, वहां मैं ने 12वीं तक की पढ़ाई की. मेरे घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी. इसलिए पुणे आ कर एक ट्रैवल एजेंसी में काम किया. उस समय 3,000 रुपए की सैलरी मेरे लिए काफी थी. काम करतेकरते 3 साल निकल गए. जब घर की जिम्मेदारी थोड़ी कम हुई, तो मुंबई आ कर फिल्मों के लिए औडिशन दिया और मुझे कास्टिंग डायरैक्टर की मदद से मधुर भंडारकर की फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ मिली, क्योंकि इस फिल्म में उन्हें ‘डस्की स्किन’ की लड़की चाहिए थी. पहले उस में मेरा केवल एक सीन ही था. जब मैं ने उस सीन को अच्छी तरह से किया तो मधुर ने खुश हो कर 3 सीन और करने के लिए दिए.
‘‘इस के बाद दीप्ति नवल की फिल्म ‘दो पैसे की धूप चार आने की बारिश’, ‘भूतनाथ रिटर्न्स’ आदि में भी छोटे रोल किए. फिल्मों में मुझे 2 या 3 सीन्स मिल रहे थे, कोई बड़ा प्रोजैक्ट नहीं मिल रहा था. मैं ने ऐसा काम करना बंद कर दिया. ऐसे में मुंबई में रहना मुश्किल हो रहा था. मैं अपनी जौब भी छोड़ चुकी थी. मैं ने एड फिल्मों की ओर रुख किया. जहां भी कुछ औफर मिलता, मैं तुरंत औडिशन देने लगती. करीब 20 से 25 एड फिल्मों में मैं ने काम किया और मैं थोड़ी सैटल हो गई.’’
उषा जाधव स्वभाव से मिलनसार और स्पष्टभाषी हैं. उन्हें जो बात अच्छी नहीं लगती, उसे तुरंत कह देती हैं. मराठी फिल्म में मुख्य भूमिका का मिलना उन के लिए खुशी की बात थी.
वे कहती हैं, मैं महाराष्ट्रियन हूं और मराठी मेरी मातृभाषा है. मुझे फिल्म ‘धग’ के निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल, जिन्होंने मुझे एक विज्ञापन फिल्म में देखा था, ने जब कहानी सुनाई, तो मैं दंग रह गई और मैं ने तुरंत हां कह दिया. कहानी इतनी अच्छी थी कि मैं फिल्म करने के लिए उत्साहित हो गई. लेकिन यह पता नहीं था कि यह फिल्म मुझे नैशनल अवार्ड दिलवाएगी. इस फिल्म को मैं अपने कैरियर का टर्निंग प्वाइंट मानती हूं. इस फिल्म में मैं ने एक युवा बालक की मां की भूमिका अदा की थी. जो निम्न मध्यम वर्ग की होने के बावजूद चाहती है कि उस का बच्चा सब से अधिक शिक्षित हो.
बैस्ट ऐक्ट्रैस के पुरस्कार का मिलना उषा के जीवन में सब से अहम था. इस से उन्हें स्फूर्ति मिलती है और आगे भी वे ऐसी ही चुनौतीपूर्ण भूमिका करना चाहती हैं.
वे कहती हैं, ‘‘यह भूमिका मेरे लिए बहुत चैलेंजिंग था, क्योंकि एक दलित डोम जाति की महिला कैसे अपने बच्चे को आगे लाने की बात सोच सकती है और उसे किनकिन हालात से गुजरना पड़ता है, यह सब इस फिल्म में दिखाया गया है. इस तरह के हालात अभी भी हमारे देश में गांव और छोटेछोटे कसबों में पाए जाते हैं जहां दलित को कुछ भी करने का हक नहीं है.’’
क्या असल जिंदगी में आप का दलित होना, आप के कैरियर को बाधित करता है, यह पूछे जाने पर उषा बताती हैं, ‘‘दलित होने से भी अधिक मेरा रंग सब से अधिक आड़े आता है. ऐक्ट्रैस होने का अर्थ है गोरीचिट्टी और खूबसूरत होना, जबकि मैं सांवली हूं. बहुत अधिक रिजैक्शन का सामना इंडस्ट्री में करना पड़ा. अधिकतर निर्माता निर्देशक कहते थे कि वे कैसे मान लें कि मुझे ऐक्टिंग आती है? मेरी तरफ देखने का नजरिया ही बहुत अलग था. कोई सम्मान मुझे नहीं मिला, लेकिन मैं ने सोच लिया था कि मैं हार नहीं मानूंगी और एक दिन जरूर साबित करूंगी कि मैं एक अभिनेत्री हूं. मराठी फिल्म ‘धग’ की सफलता के बाद मेरी पहचान बदल गई.’’
उषा आगे हंसती हुई कहती हैं, ‘‘दलित होने का एहसास सब ने मेरे साथ बहुत जताया. मैं ने कई बार लोगों को कहते हुए सुना है कि मुझे इस से अधिक क्या मिल सकता है. मैं ने सोचा, मैं अपना काम करूंगी, क्योंकि हाथी जब रास्ते पर चलता है तो कुत्तों के भौंकने से कुछ नहीं होता. इस के अलावा मेरे पिता को दलित होने का बहुत मलाल था क्योंकि दलित होने की वजह से उन का परिवार पिछड़ा था.
‘‘मेरे पिता कृष्णा जाधव ने खुद पढ़ाई पूरी की और इस दलदल से निकले और हमें अच्छी तालीम दी. 5 बहन और एक भाई के परिवार में मेरे मातापिता बहुत समझदार थे. मेरे पिता खुद अपनी पढ़ाई के लिए रोज 4 किलोमीटर चल कर जातेआते थे. मैं इस बात से गर्वित हूं कि मेरे मातापिता ने मुझे हर तरह की आजादी दी.’’
आजकल वोटबैंक को कायम रखने के लिए आरक्षण को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है. इस बारे में उषा जाधव की राय है, ‘‘मेरे हिसाब से कई ऐसे परिवार हैं जो आर्थिक रूप से बहुत गरीब हैं और बच्चों की पढ़ाई की फीस तक नहीं दे पाते. आरक्षण उन के लिए जरूरी है. आर्थिकरूप से कमजोर परिवार को ही आरक्षण देना चाहिए, वह भी कुछ खास क्षेत्र में, सभी में नहीं.’’
उषा की हिंदी अच्छी है, इसलिए उन्हें हिंदी बोलना सीखना नहीं पड़ा. उन्हें हिंदी फिल्में देखना बचपन से अच्छा लगता है. वे धैर्यवान हैं और किसी भी परिस्थिति में अपनेआप को संभाल सकती हैं. उन की इच्छा है कि वे हमेशा अलगअलग किरदार निभाएं. मां की भूमिका अब वे नहीं करना चाहतीं.
वे कहती हैं, ‘‘मैं एक फाइटर हूं और अच्छी भूमिका के लिए अंत तक लड़ती रहूंगी. अभी मैं एक स्पैनिश फिल्म में काम कर रही हूं, जिस के लिए मैं स्पैनिश सीख रही हूं. मैं एक स्टूडैंट हूं और आगे भी सीखती रहूंगी. इस के अलावा मैं पिता की बायोपिक में अपनी मां की भूमिका निभाना चाहती हूं.’’
इंडस्ट्री में अपने अनुभवों के बारे में उषा का कहना है, ‘‘यहां भाईभतीजावाद से अधिक गु्रपिज्म हावी रहता है. स्टार के बच्चों का प्रैशर मेरे ऊपर नहीं है, क्योंकि आजकल हर तरह की फिल्में बनती हैं और सब को काम मिल सकता है.’’
उषा के परिवार का सहयोग उन के इस काम में नहीं था. वे नहीं चाहते थे कि वह फिल्मों में काम करे. उन का कहना है, ‘‘मेरे शहर में मिडिल क्लास परिवार में लड़की के काम करने को अच्छा नहीं माना जाता है. ऐसे में जब मैं ने काम करना शुरू किया, तो वे मेरे मातापिता से कहते थे कि तुम्हारी लड़की मुंबई में कोई गलत काम तो नहीं कर रही? वह कहीं दिखती तो नहीं है? ऐसी बातें उन्हें दुखी करती थीं, लेकिन जब ‘धग’ फिल्म आई और मुझे पुरस्कार मिला तो आसपड़ोस के सब के मुंह बंद हो गए और मातापिता भी काफी खुश हुए.’’
नैशनल अवार्ड मिलते ही उषा के प्रति फिल्म इंडस्ट्री का नजरिया बदल गया. कल तक अपने रंगरूप व जाति के चलते रिजैक्शन का सामना कर रही उषा अब अपने दम पर कामयाबी हासिल कर रही हैं.