बच्चों की दुनिया बड़ों की तुलना में कई मायनों में अलग और मासूम होती है. उसे दुनिया के सामने लाने का प्रयास अब तक “शाला”, “एलिझाबेथ एकादशी”, “किल्ला” जैसे कई फिल्मों में हो चुका है. सुनिकेत गांधी निर्देशित फिल्म ‘फिरकी’ भी इसी विषय पर आधारित है.
गोविंद (पार्थ भालेराव), बंड्या (पुष्कर लोणारकर) और टिचक्या (अथर्व उपासनी) बहुत अच्छे दोस्त होते हैं और तीनों एक ही क्लास में पढ़ते हैं. पतंग उड़ाना उनका पसंदीदा खेल होता है. लेकिन उन्हीं के क्लास में पढने वाला राघव (अभिषेक भरते) इस पतंग के खेल का और पुरे गांव का भाई रहता है.
लाख कोशिशों के बावजूद गोविंद और उसके दोस्त राघव की पतंग कभी नहीं काट पाते हैं. एक बार स्कूल में गोविंद के कहने पर राघव कौपी करते हुए पकड़ा जाता है, जिसका बदला लेने के लिए राघव गोविंद की साइकिल की हवा निकाल कर, उसकी और उसके दोस्तों की पतंग छिनकर उन्हें परेशान करने लगता है. इसी दौरान संक्रांति के दिन गांव में होने वाले पतंगबाजी के खेल में राघव की पतंग काटकर उसे मजा चखाने का प्लान गोविन्द, बंड्या और टिचक्या बनाते है. उसके लिए कांच के मांजा की जरूरत होती है जो बहुत महंगा होता है. उसके लिए तीनों मिलकर कचरे में पड़ी कांच की बोतल इकठ्ठा करके भंगार वाले को बेचते हैं, फिर भी उतना पैसा जमा नहीं कर पाते हैं. गोविंद की नाराजगी देखकर उसके पिता (ऋषिकेश जोशी) उसे कुछ पैसे देते हैं. जिससे गोविन्द कांच का मांजा खरीदता है.
लेकिन परीक्षा में गोविन्द के फेल होने से उसकी मां (अश्विनी गिरी) नाराज हो जाती हैं और काचमांजा चूल्हे में फेंक देती हैं. इस वजह से गोविंद और उसके दोस्त निराश हो जाते हैं. लेकिन उनका गैरेज में काम करने वाला दोस्त कांचमांजा बनाना सिखाता है. कांच मिश्रित रंग को धागे में लेप कर कांच मांजा बनाया जाता है. संक्रांति के दिन इसी मांजे से एक दूसरे की पतंग काटने का खेल शुरू हो जाता है. गोविंद ढील देकर पतंग काटने में माहिर रहता है. लेकिन इस बार वह राघव की खिंच कर पतंग काटने की कला को कौपी करता है. इसके बावजूद वह राघव की पतंग नहीं काट पाता है. तभी गोविन्द को उसके पिता की बात याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था, “जितना है तो इंसान को अपनी ताकत पहचाननी चाहिए.” इसके बाद गोविन्द अपनी ढील देकर पतंग काटने की कला का प्रयोग करता है और जीत जाता है.