हमेशा से माना जाता रहा है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता  है.यही वजह है कि जब भारतीय सिनेमा बनना शुरू हुआ, तब से भारतीय सिनेमा में भारतीय लोक संस्कृति, होली,दशहरा,दीवाली,ईद व बकरीद आदि को सिनेमा में उत्सव की तरह चित्रित किया जाता रहा है.लेकिन नब्बे के दशक के ही दौरान सिनेमा में अचानक बदलाव नजर आने लगा.और अब सिनेमा से उत्सव या लोक संस्कृति पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है.सह धर्मिता,समाज की लोकसंस्कृति व उत्सव धर्मिता से वर्तमान का सिनेमा दूर जा रहा है.‘सिनेमा’ से ‘रस’ खत्म हो गया है.इसके लिए कुछ हद तक कारपोरेट व राजनेता ही दोषी हैं!!

सिर्फ सिनेमा ही क्यों? जीवन के दूसरे आयामों से भी ‘रस’ गायब होता जा रहा है.पहले यही ‘रस’ देश की आत्मा हुआ करती थी.संगीत,नाट्य शास्त्र,कला संस्कृति, साहित्य,लोक कला से भी ‘रस’ गायब हो चुका है.आज हर रीति रिवाज का बाजारीकरण धर्म के रूप में सिनेमा में बेचा जा रहा है.

भारतीय सिनेमा कीश्षुरूआत के साथ हिंदी सिनेमा में दीपावली की अभिव्यक्ति पर्व की विविधता और परंपरा को दर्शाती थी.तब गीतों में मिट्टी के दीपकों के बीच जगमगाते चेहरों की रंगत अलग ही चमकती थी. 1961 पं.नरेंद्र शर्मा लिखित व लता मंगेशकर आवाज में लय बद्ध गीत ‘‘ज्योति कलश छलके हुए गुलाबी लाल सुनहरे रंग दल बादल के ज्योति कलश छलकेघर आंगन वन उपवन उपवन करती ज्योति अमृत के सिंचन मंगल घट ढलके, ज्योति कलश छलके..’,जब आज भी सुनाई देते हैं,तो दीपावली की रोशनी जैसे मनप्राण आलोकित कर देती है.क्योकि उस वक्त दीपावली का मतलब खरीदारी नहीं, रोशनी का त्योहार होता था.तब यह धर्म का प्रचार नहीं था. बिजली की झालरें नहीं लगाई जाती थीं, दीपकों में तेल-बाती रख रोशनी की जाती थी.किसी के बताए बगैर भी हमें पता होता था कि दीपावली भगवान श्रीराम के अयोध्या लौट आने की खुशी में मनाई जाती है.वह समय था जब गांव, समाज, परिवार, रिश्ते कहानियों भर में नहीं थे. उन्हें हम जीते थे, उनसे सीखते थे.मां-बुआ से दीपावली के अवसर पर लीपना और रंगोली बनाना सीखा जाता था, तो चाचा से कंदील बनाकर रोशन करना.बहनों के साथ कच्ची मिट्टी के घरकुंडे बनाने का अलग ही सुख था.बुजुर्गों को लक्ष्मी पूजन करते देखा जाता था और उसी तरीके से उसी परंपरा का निर्वहन आगे तक करने की कोशिश की जाती थी. गांव, समाज समय के साथ छूट जाता था, लेकिन परंपराएं साथ रहती थीं, हमारे साथ चलती थीं.

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