मनोवैज्ञानिक रोमांचक फिल्म ‘‘गली गुलियां’’ इंसान द्वारा अपने अंदर के अंधेरे से लड़ने का रूपक है. यह संघर्ष भावनात्मक आरोप प्रत्यारोप, अकेलापन, एकता, पाप, अपराध, स्वतंत्रता व उम्मीदों का है. इस फिल्म को अब तक 27 अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कृत किया जा चुका है.
फिल्म की कहानी शुरू होती है पुरानी दिल्ली की कई गलियों में से एक गली के अंदर बने मकान से. जहां तमाम कम्प्यूटर, जो कि आसपास की गलियों व कई मकानों में चोरी से लगाए गए सीसीटीवी कैमरों से जुड़े हुए हैं के सामने बैठे पेशे से इलेक्ट्रीशियन खुद्दोस से. उलझे व तितर बितर बाल, बढ़ी दाढ़ी वाले खुद्दोस (मनोज बाजपेयी) व उसकी हरकतों को देखकर कुछ लोग उसे मनोरोगी भी समझ सकते हैं. वह कई माह तक घर से नहीं निकलता. गणेशी (रणवीर शोरी) के अलावा उसका अपना कोई दोस्त नहीं.
खुद्दोस (मनोज बाजपेयी) अपनी रहस्यमयी दुनिया में अकेलेपन की जिंदगी जी रहे हैं. वह अपने द्वारा दूसरों के घरो के अंदर या गली में लगाए गए कैमरों में उनके घरों के अंदर हो रहे घटनाक्रमों को लेकर उनकी कहानियां समझ रहा है. इस तरह अजनबियों के घरों की कहानी देखते हुए वह खुद को व्यस्त रखता है. खुद्दोस का दोस्त गणेशी (रणवीर शोरी) कई बार उसे वहां से निकलने के लिए कहता रहता है. अचानक उसे एक दिन बच्चे इदरीस (ओम सिंह) के पीटे जाने व उसके रोने की आवाजें आती हैं, तो वह विचलित हो उठता है. खुद्दोस बिना किसी सुराग के उस बालक को बचाना चाहता है, मगर उसने जितने कैमरे लगा रखे हैं, उनमें से किसी भी घर के अंदर वह बालक नहीं है. अब खुद्दोस उस बालक की तलाश शुरू करता है, जिसे उसने देखा तक नहीं है. अब उस बालक की तलाश का खुद्दोस की संघर्ष पूर्ण यात्रा शुरू होती है. पर एक मोड़ पर आकर वह कहता है- ‘‘मैं कहां खो गया हूं.’’
खुद्दोस की इस यात्रा के समांनांतर इदरीस की कहानी चलती रहती है. इदरीस के क्रूर स्वभाव के पिता लियाकत (नीरज काबी) बूचड़ खाना चलाते हैं और वह चाहते हैं कि इदरीस भी बूचड़खाने पर बैठे, पर वह नहीं बैठना चाहता. खुद्दोस गणित में तेज है और उसका दोस्त इंग्लिश में तेज है, दोनों एक दूसरे की मदद करते रहते हैं. दोनों अक्सर एक साथ दूसरों के घरों में खिड़कियों से ताक झांक करते रहते हैं. इदरीस की लापवरवाही के चलते लियाकत अक्सर उसकी पिटाई करते रहते हैं. पिता की पिटाई से तंग आकर इदरीस जब अपने पिता का पीछा करता है, तो उसे पता चलता है कि उसके पिता का एक अन्य औरत से संबंध हैं, जो कि उसकी मां सायरा (शहाना गोस्वामी) नही है. एक दिन इदरीस अपनी मां से कहता है कि हमें यह जगह छोड़कर कहीं दूर चले जाना चाहिए. पर मां तैयार नही है. एक दिन इदरीस पिता की मार का विरोध करते हुए अपने पिता पर ही हाथ उठा देता है और घर से भागकर चला जाता है. अपने दोस्त से कहकर वह अपने घर में छिपाए गए पैसे मंगवाता है. इदरीस अपने दोस्त का रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर इंतजार कर रहा होता है. उसका दोस्त इदरीस के पिता लियाकत के साथ पहुंचता है. अब पिता के साथ इदरीस को घर जाना पड़ता है. फिर पिटाई होती है, पर भावनाओं में बहकर इदरीस अपनी मां से वादा करता है कि वह उन्हें व इस घर को छोड़कर कभी नहीं जाएगा. पर उसका गुस्सा कम नही हुआ है. रात में वह अपने पिता की हत्या कर देता है.
जब फिल्म का अंत होता है, तो वह दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देती है. पुरानी दिल्ली की संकरी व भूल भुलैय्या वाली गलियों में रहने को बेबस, मानसिक संकीर्णता व पूर्वाग्रह से ग्रसित एकाकी जीवन जी रहे इंसान के इर्द गिर्द सिनेमा का निर्माण करना हिम्मत व जुनून ही कहा जाएगा और इस जुनूनी व हिम्मती काम के लिए फिल्मकार दीपेश जैन तथा अभिनेता मनोज बाजपेयी बधाई के पात्र हैं.
कहानी व पटकथा के स्तर पर दीपेश जैन ने काफी प्रशंसनीय काम किया है. फिल्म में मनोवैज्ञानिक अलगाव के साथ पालकों का अपने बच्चों के साथ खंडित होते रिश्ते पर भी रोशनी डाली गयी है, जो कि वर्तमान परिस्थितियों में चिंता का विषय है. फिल्म इस बात को भी रेखांकित करती है कि किस तरह माता पिता अपने बच्चों को अपना अनुकरण करने के लिए बाध्य करते हुए अपने अंदर के रहस्य व अपराध जाने अनजाने उनमें भी भर देते हैं.
कथानक के स्तर पर रोजमर्रा की पिटाई का बाल मस्तिष्क पर जो असर दिखाया गया है, वह काफी विचलित करने के साथ ही सोचने पर मजबूर करती है. अति डार्क मनोवैज्ञानिक फिल्म ‘‘गली गुलियां’’ विचलित जरुर करती है, पर इस तरह की कहानी कही जानी चाहिए.
इस अति डार्क फिल्म में आशा की किरण तो शहाना गोस्वामी का किरदार सायरा ही है. सायरा ने हालात से समझौता कर लिया है, पर उसे अपने बच्चों को लेकर काफी उम्मीदें हैं. इस मनोवैज्ञानिक फिल्म की कहानी ऐसे इंसान की है, जिसकी आत्मा दुर्व्यवहार और त्रासदी की जड़ों से गहराई के साथ जुड़ी हुई है. अफसोस एडीटिंग कमी के कमियों के चलते कई दृश्यों व विचारों का दोहराव फिल्म को कई जगह कमजोर करते हैं.
मगर यह फिल्म उन दर्शकों के लिए नहीं है, जिन्हे सपाट कहानी व नाच गाने की दरकार होती है. मनोरंजन की आस लेकर जाने वालों के लिए भी यह फिल्म नहीं है. यह अति डार्क फिल्म है. यूं कहें कि यह फिल्म आम दर्शकों के लिए नहीं है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. यह फिल्म फिल्म समाराहों में फिल्म देखने के शौकीनों को ही पसंद आ सकती है.
जहां तक अभिनय का सवाल है, तो खुद्दोस का किरदार काफी जटिल है. यह किरदार शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर काफी फंसा हुआ जटिल व कठिन किरदार है. इस किरदार को निभाने के लिए मनोज बाजपेयी की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है. खुद्दोस को अभिनय से साकार करने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी के करियर का यह अति जटिल व कठिन किरदार रहा, जिसे निभाते हुए उन्होंने शानदार अभिनय किया है. खुद्दोस की बौडी लैंगवेज, उसकी बारीकियों को पेश कर मनोज बाजपेयी काफी प्रभावित करते हैं. कम संवादों के बावजूद अपने हाव भाव व चाल से वह दर्शकों से काफी कुछ कह जाते हैं.
इदरीस के किरदार में बाल कलाकार ओम सिंह ने जबरदस्त अभिनय किया है. एक भी दृश्य में वह इस बात का अहसास नहीं होने देता कि यह उसकी पहली फिल्म है. उसमें एक मंजे हुए अभिनेता की तरह अपने किरदार को निभाया है. रणवीर शोरी की प्रतिभा को जाया किया गया है. नीरज काबी और शहाना गोस्वामी ने भी बेहतरीन अभिनय किया है.
कैमरामैन ने अपने काम को काफी अच्छे ढंग से अंजाम दिया है. एक घंटे 54 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘गली गुलियां’’ का निर्माण दिपेश जैन व सुचि जैन ने किया है. लेखक व निर्देशक दीपेश जैन, संगीतकार दना नियू, कैमरामैन कई मैडेनड्राप और कलाकार हैं- मनोज बाजपेयी, बाल कलाकार ओम सिंह, नीरज काबी, रणवीर शोरी, शहाना गोस्वामी व अन्य.