किसी भी इंसान के जीवन पर आधारित बायोपिक फिल्म में उस इंसान के व्यक्तित्व को सही अंदाज में पेश करना एक फिल्मकार की सबसे बड़ी कसौटी होती है. इस कसौटी पर अपने समय के मशहूर, सच को अपनी लेखनी के जरिए पेश करने वाले निडर विवादास्पद उर्दू भाषी लेखक सआदत हसन मंटो पर बायोपिक फिल्म का निर्माण करने वाली फिल्मकार नंदिता दास खरी नहीं उतरती हैं.

जी हां! फिल्म ‘‘फिराक’’ के साथ निर्देशन में कदम रखने वाली अदाकारा नंदिता दास अब लेखक व निर्देशक के तौर पर मशहूर निडर उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो की बायोपिक फिल्म ‘‘मंटो’’ लेकर आयी हैं. जिसमें उन्होने अपने समय के मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो के जीवन की कहानी 1946 में बांबे (आज का मुंबई) शहर से शुरू की है. नंदिता दास का दावा  है कि उन्होंनेइस फिल्म का निर्माण, लेखन व निर्देशन करने से पहले गहन शोध किया है. पर अफसोस फिल्म देखकर कुछ कमी महसूस होती है. दर्शक मंटो से वाकिफ नहीं है, जिन्होने मंटो पढ़ा नहीं है, उनके लिए तो यह फिल्म समझ से परे है. पर जिन्होने मंटो व मंटो की कहानियों को पढ़ा है, उन्हे इस फिल्म से जबरदस्त निराशा होगी.

लघु कथाकार सआदत हसन मंटो (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) 1946 में मुंबई (1946 का बांबे) में फिल्म पटकथा लेखक के तौर पर कार्यरत थे. एक दिन उनका एक फिल्म निर्माता (ऋषि कपूर) से धन तथा कहानी में बदलाव को लेकर झगड़ा हो जाता है. पता चलता है कि निर्माताओं के साथ उनके इस तरह के झगड़े आम बात हैं. उस वक्त ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ के साथ उनकेरिश्ते काफी कमजोर थे. जबकि इस संगठन से जुड़े कृष्णचंद्र और महिला लेखक इस्मत चुगताई (राजश्री देशपांडे) सहित कई लेखक उनके दोस्त थे.

अभिनेता श्याम चड्ढा (ताहिर राज भसीन) और मशहूर अभिनेता व निर्माता अशोक कुमार उर्फ दादा मुनि से उनके काफी घनिष्ठ संबंध थे. श्याम चड्ढा महज मंटो के दोस्त और उनकी तमाम कहानियों के प्रेरणा स्रोत भी हैं. पर उनकी सर्वाधिक मददगार और रीढ़ की हड्डी उनकी पत्नी साफिया थीं. भारत में सआदत हसन मंटो को तीन मुकदमों में बरी किया जा चुका था. तो वहीं साफिया एक बेटी की मां बन चुकी हैं.

15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होते ही नए राष्ट्र पाकिस्तान के लाहौर शहर में साफिया (रसिका दुग्गल) अपनी बहन कीशादी में शामिल होने के लिए जाती हैं. इस बीच वह दूसरी बार मां भी बनने वाली हैं. हिंदू मुस्लिम के बीच तनाव के बावजूद मंटो मुंबई में ही रुकने का फैसला लेते हैं, क्योंकि उन्हें मुंबई से बेइंतहा प्यार है. पर एक दिन जब श्याम चड्ढा के परिवार को मुस्लिम हमले से बचाते हुए पाकिस्तान छोड़ना पड़ता है. तो श्याम क्रोध में मंटो से मुस्लिमों को लेकर अपशब्द कहते हैं. बात आगे बढ़ती है, तो मंटो के एक सवाल पर श्याम कह देते हैं कि पर ‘शायद मैं तुम्हारी हत्या कर सकता हूं.’ तब पहली बार मंटो को अपना धर्म याद आता है और वह पाकिस्तान जाने का निर्णय लेते हैं.

1948 लाहौर रिफ्यूजियों से भरे शहर की टूटी फूटी इमारत में मंटो रहना शुरू करते हैं. वह खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं. इसी बीच उनकी कहानी ‘ठंडा गोश्त’ को लेकर अदालत में मुकदमें शुरू हो जाते हैं. मुसीबत के वक्त उनकी पत्नी साफिया उनके साथ खड़ी रहती हैं. साहित्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर उनके विचार भी कईयों को पसंद नहीं आते हैं. वह शराब पीने लगते हैं. मगर अपनी पत्नी व दो बेटियों के सुखद भविष्य के लिए वह लेखन जारी रखते हैं. उन्हे अपनी नन्ही बेटी के इलाज के लिए पैसे का मोहताज होना पड़ता है, पर वह समाज के विकृत मानसिकता के लोगों को अपनी लेखनी के जमीर कुचलने का हक नहीं देते. उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता है. बीच बीच में मंटो की ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो’, ‘तोबा टेक सिह’ जैसी कहानियों का नाट्य रूपांतरण भी दिखाया जाता है. पर अपनी शराब की लत व  बिगड़ते स्वास्थ्य व लेखन के बंद हो जाने पर एक दिन वह स्वयं लाहौर मेंटल अस्पताल के ‘‘अल्कोहल रिहैबिलेशन सेंटर’’ में भर्ती हो जाते हैं.

बतौर निर्देशक नंदिता दास ने फिल्म में चालीस के दशक, उस वक्त के उपकरण, वेषभूषा आदि को बहुत ही बेहतर तरीके से उकेरा है. वह मंटो के एकाकीपन, बेचैनी, खालीपन के साथ उनके कुछ अफसानों को जीवंत करने में सफल रही हैं. मगर मंटो के साथ वह पूर्ण न्याय करने में बुरी तरह से विफल रही हैं. मंटो के रहन सहन, खान पान आदि का चित्रण सही है. मगर जब उनके लेखन की बात आती है, तो मंटो की आत्मा की हत्या कर दी गयी. पूरी फिल्म में मंटो का वास्तविक व्यक्तित्व पूर्णरूपेण उभर नहीं पाया.

मंटो के लेखन और उनके जीवन में भी देश के बंटवारे का जो दर्द नजर आता है, वह फिल्म में कहीं नहीं उभर पाया. मंटो लिखित कहानी ‘खोल दो’ पढ़कर हर आम इंसान न सिर्फ विचलित होता है, बल्कि उसे रोना आ जाता है और कम से कम तीन चार दिन उसका जीवन अवसाद भरा रहता है. पर नंदिता दास ने इस फिल्म में ‘खोल दो’ कहानी को इतने सतही अंदाज में पेश किया है कि दर्शक के चेहरे पर कोई भाव ही नहीं उभरता. यह लेखक व निर्देशक के तौर पर बहुत बड़ी विफलता है. यहां तक कि मंटो की जिंदगी में सबसे बड़ा भूचाल लेकर आने वाली कहानी थी-‘‘उपर नीचे और दरमियान’’. पर नंदिता दास ने तो इस कहानी का कहीं जिक्र ही नहीं किया.

कैमरामैन कार्तिक विजय ने भी काफी अच्छा काम किया है. संगीतकार स्नेहा खानविलकर व रफ्तार के कुछ गीत अच्छे बन पड़े हैं.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो मंटो के किरदार को जीवंत बनाने में नवाजुद्दीन सिद्दिकी पूरी तरह से सफल रहे हैं और वह एक बेहतरीन अभिनेता हैं, यह बात पुनः उजागर हो गयी. नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने अपने अभिनय से विवादास्पद लेखक मंटो के एक पिता, पति और दोस्त के रूप को मुखर रूप से साकार किया है. साफिया के किरदार में रसिका दुग्गल और श्याम के किरदार में ताहिर राज भसीन ने जबरदस्त अभिनय किया है. इसके अलावा छोटे छोटे किरदारों में फरयना वझेर, जावेद अख्तर, चंदन रौय सान्याल, विनोद नागपाल, ऋषि कपूर, परेश रावल, इनामुल हक, रणवीर शौरी, राजश्री देशपांडे आदि की भी परफार्मेंस ठीक है.

एक घंटे 56 मिनट की अवधि की अवधि वाली फिल्म ‘‘मंटो’’ का निर्माण नंदिता दास ने ‘वायकाम 18’ के साथ मिलकर किया है. फिल्म की लेखक व निर्देशक नंदिता दास, संगीतकार स्नेहा खानविलकर व रफ्तार, पार्श्व संगीत  कार जाकिर हुसेन, कैमरौन कार्तिक विजय तथा फिल्म के कलाकार हैं – नवाजुद्दीन सिद्दिकी, रसिका दुग्गल, ताहिर राज भसीन, फरयना वझेर, जावेद अख्तर, चंदन रौय सान्याल, विनोद नागपाल, ऋषि कपूर, इनामुल हक, रणवीर शौरी, राजश्री देशपांडे, इला अरूण, दिव्या दत्ता, परेश रावल, तिलोत्तमा सोम, शशांक अरोड़ा, गुरूदास मान, दानिश हुसेन व अन्य.

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