रेटिंग : डेढ़ स्टार

हम बार बार इस बात को दोहराते आए हैं कि सरकारें बदलने के साथ ही भारतीय सिनेमा भी बदलता रहता है. (दो दिन पहले की फिल्म ‘उरी : सर्जिकल स्ट्राइक’ की समीक्षा पढ़ लें.) और इन दिनों पूरा बौलीवुड मोदीमय नजर आ रहा है. एक दिन पहले ही एक तस्वीर सामने आयी है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, फिल्मकार करण जोहर के पूरे कैंप के साथ बैठे नजर आ रहे हैं. फिल्मकार भी इंसान हैं, मगर उसका दायित्व अपने कर्तव्य का सही ढंग से निर्वाह करना होता है. इस कसौटी पर फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ के निर्देशक विजय रत्नाकर गुटे खरे नहीं उतरते. उन्होंने इस फिल्म को एक बालक की तरह बनाया है. इस फिल्म से उनकी अयोग्यता ही उभरकर आती है. ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ एक घटिया प्रचार फिल्म के अलावा कुछ नहीं है. इस फिल्म के लेखक व निर्देशक अपने कर्तव्य के निर्वाह में पूर्णरूपेण विफल रहे हैं.

2004 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह के करीबी व कुछ वर्षों तक उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब ‘‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ पर आधारित फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ में भी तमाम कमियां हैं. फिल्म में डा. मनमोहन सिंह का किरदार निभाने वाले अभिनेता अनुपम खेर फिल्म के प्रदर्शन से पहले दावा कर रहे थे कि यह फिल्म पीएमओ के अंदर की कार्यशैली से लोगों को परिचित कराएगी. पर अफसोस ऐसा कुछ नहीं है. पूरी फिल्म देखकर इस बात का अहसास होता है कि पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अपने पहले कार्यकाल में संजय बारू और दूसरे कार्यकाल में सोनिया गांधी के के हाथ की कठपुतली बने हुए थे. पूरी फिल्म में उन्हे बिना रीढ़ की हड्डी वाला इंसान ही चित्रित किया गया है.

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