गच्ची यानी टेरेस, कहीं भी हो, बंगले, चॉल या फिर किसी बड़ी इमारत की, यह मजेदार कहानियों और बुरी घटनाओं की गवाह होती है. पापड़ बेलने से लेकर शादी ब्याह तक, संक्राति के दिन पतंग उड़ाने से लेकर जिंदगी से निराश होकर आत्महत्या करने तक हर काम में हम गच्ची का सहारा लेते है. इसी पर आधारित ‘गच्ची’ फिल्म में आशा निराशा के वाद विवाद को बहुत अच्छी तरह से फिल्माया गया है.

घर घर जाकर अचार, पापड़, मसाले बेचने वाला श्रीराम (अभय महाजन) अपने पिता द्वारा लिए गए 15 लाख का कर्ज चुकाने के लिए गली-गली घूमता है. उसी दौरान प्यार में मिले धोखे से मानसिक तनावग्रस्त गायिका कीर्ति शारदा (प्रिया बापट) को गच्ची से कूदकर आत्महत्या करने का प्रयास करते हुए देखता है. उसे बचाने के लिए श्रीराम उस गच्ची पर जाता और फिर शुरू होता है आशा निराशा का वाद-विवाद. आर्थिक जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा श्रीराम आज भी आशावादी है. लेकिन कीर्ति धोखेबाज प्रेमी के बच्चे को पेट में लेकर जीने से अच्छा आत्महत्या करने की सोच रखती है.

श्रीराम उसे समझाने की कोशिश करता है, जिसका कीर्ति पर कोई असर नहीं होता है. लेकिन फिर भी श्रीराम हार नहीं मानता है और अंत में कीर्ति की सोच बदलने में कामयाब होता है. बातों-बातों में कीर्ति समझ जाती है कि श्रीराम जिसका कर्ज चुकाने के लिए वहां आया है वो उसके ही पिता जगताप साहेब (अनंत जोग) है. इसके बाद कीर्ति घर से पैसे चुराकर श्रीराम को देती है जिससे वो अपना कर्ज चुका पाता है.

श्रीराम और कीर्ति के बीच संवाद बहुत हल्के-फुल्के हैं. इसमें श्रीराम का सीधा साधा स्वभाव दिखाई देता है. प्रिया बापट तो एक अच्छी अभिनेत्री हैं ही, लेकिन अभय ने भी आर्थिक बोझ तले दबे श्रीराम की भूमिका बहुत अच्छे से निभाई है. फिल्म दर्शकों को बोर नहीं करती, लेकिन संतुष्ट भी नहीं कर पाती है. फिल्म में दोनों के बीच गच्ची पर हुए संवाद ही फिल्म की मुख्य कथा है. यहां निर्देशक ने गच्ची से दिखने वाली दुनिया का भी कुछ उदाहरण दिया होता तो फिल्म और भी बेहतर साबित हो सकती थी और दर्शकों में एक अच्छा सन्देश जाता.

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