इम्तियाज अली निर्मित और साजिद अली निर्देशित फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ में लैला का किरदार निभा कर उत्साहित अभिनेत्री तृप्ति डिमरी की यह दूसरी फिल्म है. इससे पहले वह सनी देओल, बौबी देओल आदि के साथ फिल्म ‘‘पोस्टर ब्वायज’’ में नजर आ चुकी हैं.

किस प्रेरणा के वशीभूत होकर आपने अभिनय को करियर के रूप में अपनाया?

मैं मूलतः गढ़वाली हूं. मेरे माता पिता चमौली, उत्तराखंड के निवासी हैं. पर मेरी पैदाइश व परविस, शिक्षा दिक्षा दिल्ली में हुई है. मेरे परिवार में कला के क्षेत्र से कोई नहीं है. मेरे पिता एअर इंडिया में इमीग्रेशन विभाग में हैं, मगर उन्हें अभिनय व फिल्मों का शौक रहा है. वह बचपन से ही मुझे अभिनय के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं. उन्हे दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग से अभिनय का आफर भी मिला था, पर तब मेरे ददाजी ने उन्हें जाने नहीं दिया था. लेकिन वह हमारी कालोनी में राम लीला का आयोजन किया करते हैं. इस रामलीला में वह खुद भी अभिनय करते थे और मुझसे भी अभिनय करवाते थे. तो बचपन से मैं रामलीला में कोई न कोई किरदार निभाते आयी हूं. उसी वजह से मेरे अंदर अभिनय का चस्का लगा, जो कि धीरे धीरे बढ़ता गया.

तो आपने पढ़ाई नहीं की?

ऐसा कैसे हो सकता है. मेरे माता पिता ने हमेशा पढ़ाई को महत्व दिया. मैंने केंद्रीय विद्यालय से स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली विश्व विद्यालय से तीन वर्ष की लिटरेचर/साहित्य की पढ़ाई की. उसके बाद में मुंबई आ गयी.

आपने अभिनय का कोई प्रशिक्षण लिया?

मैंने पहली फिल्म की शूटिंग से पहले अभिनय की कोई ट्रेनिंग नहीं ली, मगर शूटिंग खत्म होने के बाद मैंने अभिनय का प्रशिक्षण लिया. सौरभ सचदेवा से अभिनय का प्रशिक्षण हासिल किया.

फिल्म की शूटिंग पूरी होने के बाद अभिनय का प्रशिक्षण लेने की जरुरत क्यों महसूस हुई?

फिल्म की शूटिंग के समय मुझे कैमरा एंगल आदि की समझ नही थी, उस वक्त मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मेरे चेहरे पर लाइट पड़ रही है या नहीं. यह सब एक प्रशिक्षित कलाकार ही समझ पाता है. थिएटर करते समय आप कई चीजें सीख जाते हैं. तो मुझे तकनीक के बारे में कुछ भी नही पता था. इसलिए मैंने अभिनय का प्रशिक्षण लेना जरुरी समझा. मुझे अहसास हुआ कि बेसिक चीजें समझने के लिए प्रशिक्षण जरुरी है. अभिनय के वर्कशाप में ‘इमोशंस/भावनाओं पर काफी काम करवाते हैं. हमें सिखाया गया कि इमोशंस तो हमारी उंगलियों पर होना चाहिए. निर्देशक कहे कि आप रोइए, तो तुरंत आपकी आंखों से आंसू निकलने चाहिए. अभिनय का वर्कशाप करके मुझे यह सब आ गया.

तो आप दिल्ली से मुंबई कब आयीं?

दिल्ली में मौडलिंग कर रही थी. टीवी के विज्ञापन भी कर रही थी. टीवी के विज्ञापन फिल्मों की शूटिंग के लिए मुंबई आना जाना पड़ता था. मैंने ‘एअरटेल’, ‘संतूर’सहित कई एड फिल्में की हैं. इसी दौरान मुझे श्रेयश तलपड़े निर्देशित फिल्म‘पोस्टर ब्वायज’मिल गयी. तो मैं मुंबई रहने लगी.

फिल्म ‘‘पोस्टर ब्वायज’’ कैसे मिली थी?

उस वक्त मैं दिल्ली में ही रहती थी, जब मुझे यह फिल्म मिली. इस फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर जोगी जी ने मुझे फोन करके औडीशन देने के लिए बुलाया था. मैंने उनसे कहा कि मैं तो दिल्ली में हूं. मैं आपको रिकार्ड करके भेज दूंगी. मैंने उन्हें रिकार्ड करके भेजा भी. पर उन्हें आवाज गड़बड़ लगी. कुछ दिन बाद में मुंबई में एअरटेल की एड की शूटिंग कर रही थी, उन्हें पता चला तो उन्होंने फोन किया कि मैं अपना औडीशन दे दूं. क्योंकि मैंने जो रिकार्डिंग भेजी थी, उसमें आवाज बराबर नहीं है. मैंने औडीशन दिया. दूसरी बार श्रेयश तलपड़े जी ने औडीशन लिया और मेरा चयन हो गया.

इस फिल्म में सनी देओल व बौबी देओल सहित कई बड़े कलाकार थे. इनके बीच गुम हो जाने का डर नही सताया?

बिलकुल नहीं. उस वक्त मैंने इस तरह से कुछ सोचा ही नहीं था. मेरे लिए फिल्म का मिलना बहुत बड़ी उपलब्धि थी. जब मैंने अपने मम्मी पापा को बताया कि सनी देओल व बौबी देओल के साथ फिल्म मिली है, तो वह भी बहुत खुष हुए थे. मेरे मम्मी पापा तो धर्मेंद्र व सनी देओल की फिल्मों के शौकीन रहे हैं. मैंने भी इस फिल्म को करने के लिए हामी भर दी थी. क्योंकि मुझे लगा कि पहली फिल्म इतने बड़े कलाकारों के साथ हर किसी को नहीं मिल सकती. पर जब सेट पर पहुंची तो इन दिग्गज कलाकारों की वजह से मैं बहुत नर्वस थी. लेकिन फिल्म‘पोस्टर ब्वायज’ ने मुझे फिल्म करने का अनुभव दिया. मुझे अभिनय के लिए तैयार किया. इस फिल्म में अभिनय करके मेरे अंदर आत्मविश्वास पैदा हुआ.

सनी देओल व धर्मंद्र आदि के साथ काम करने के अनुभव क्या रहे?

मेरी उनसे सिर्फ बातचीत हुई थी. सनी देओल और बौबी देओल दोनो ही शर्मीले स्वभाव के हैं. बहुत कम बोलते हैं. और मैं भी बहुत कम बोलती हूं. मैं भी जल्दी लोगों से घुलती मिलती नही हूं. संकोची स्वभाव की हूं. पर जब कैमरे के सामने हमारे सीन होते थे, तब हम काफी बातें करते थे. वह भी मुझे सहज करने के लिए काफी बातें करते थे.

फिल्म ‘‘लैला मजनूंएक प्रेम कहानी है?

फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ में क्लासिक प्रेम कहानी के साथ वर्तमान समय की युवा पीढ़ी को जिन समस्याओं से गुजरना पड़ता है, उसका भी चित्रण है.

दूसरी फिल्म‘‘लैला मजनूं’’कैसे मिली?

मजेदार बात यह है कि मैंने इस फिल्म के लिए 2016 में सबसे पहले औडीशन दिया था, उस वक्त मुझे रिजेक्ट कर दिया गया था. पर जनवरी 2017 में मैं यूं ही अपनी एक सहेली के साथ उसका औडीशन दिलाने चली गयी. उस वक्त मुझसे दूसरी बार औडीशन देने के लिए कहा गया. मैंने औडीशन दिया, फिर बुलाया गया और तीसरी बार फिल्म के निर्देशक साजिद अली ने खुद मेरा औडीशन लिया. औडीशन के करीबन छह राउंड हुए. उसके बाद लुक टेस्ट हुए और अंततः मुझे इस फिल्म में लैला का किरदार निभाने का अवसर मिल गया.

‘‘लैला मजनूं’’ मिलते ही आपके दिमाग में क्या आया था?

मैं एकदम गुम सी हो गयी थी. मेरी समझ में नही आया कि किस तरह से रिएक्ट करुं. सच यह है कि मेरे जन्म दिन, 23 फरवरी 2017 को मुकेश छाबड़ा ने मुझे फोन करके कहा कि, ‘वेलकम टू बौलीवुड.’ इस तरह मेरे जन्म पर मुझे यह फिल्म मिली थी. यह फिल्म ‘पोस्टर ब्वायज’के रिलीज से पहले मिल गयी थी.

आपने फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ की पटकथा पढ़ने में रूचि दिखायी थी या नहीं?

सच कहूं तो फिल्म की पटकथा कैसे पढ़ी जाती है, बात मुझे ‘लैला मजनूं’ करते समय समझ में आयी. ‘पोस्टर ब्वायज’ के समय श्रेयश तलपड़े ने सिर्फ मेरे सारे दृश्य पढ़कर मुझे सुनाए थे. इसलिए जब मुझे ‘लैला मजनूं’की पटकथा दी गयी तो मैंने घर पर अपने हिस्से के सारे दृश्य पढ़ डाले. दूसरे दिन मैंने निर्देशक साजिद अली से कहा कि हां मैंने अपने सारे दृश्य पढ़ लिए. तो वह खूब हंसे, मेरी समझ में नहीं आया कि वह क्यों हंस रहे हैं. तब उन्होंने पटकथा पढ़ने का सही तरीका समाझाया कि पहले पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक पूरी पटकथा पढ़ो. इसके बाद अविनाश और मैंने एक साथ बैठकर कई बार पटकथा पढ़ी. तो मुझे खुद ही किरदार की बैकग्राउंड व अविनाश का किरदार भी समझ में आया.

आपका ‘‘लैला’’का किरदार क्या है?

जब तक मैंने पटकथा पढ़ी नही थी, तब तक मेरे लिए लैला एक सीधी सादी शरीफ लड़की थी. पर पटकथा पढ़ने के बाद मुझे कुछ और ही समझ में आया. इस फिल्म में लैला बहुत अलग तरह की लड़की है. यह आधुनिक परिवेश की कहानी है. उसे लड़कों को अपने पीछे घुमाने का शौक है. उसे किसी का प्यार वगैरह समझ में नही आता. उसे प्यार का मतलब नहीं पता, पर उसे यह जानना है कि प्यार में रहना क्या होता है. उस तरह की लड़की है. उसे बौलीवुड फिल्में देखने का शौक है और खुद को फिल्म की हीरोईन ही समझती है. वह कश्मीर की कली है. उसे पता है कि पूरा कश्मीर उसकी सुंदरता के पीछे पागल है. उसे गुरूर से ज्यादा बहुत खुशी है. पर इसी के साथ स्ट्रांग लड़की है. इंटरवल के बाद लैला के व्यक्तित्व में काफी बदलाव आता है.

क्या आपके चेहरे की वजह से आपको फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ की लैला बनाया गया?

मेरे सह कलाकार अविनाश तिवारी और साजिद अली हमेशा कहते थे कि तुम ‘लैला’ही हो. तुम्हारा व्यक्तित्व ऐसा है कि हमने तुम्हें लैला के लिए चुना. पर मुझे ऐसा नहीं लगता. क्योंकि मुझे अपने बारे में पता है. मुझे मुझसे बेहतर कोई नही जानता. और अब मैं लैला का किरदार भी निभा चुकी हूं, तो लैला को भी जान चुकी हूं. मैं और लैला दोनों बहुत अलग हैं.

लैलाआपके कितने करीब है?

लैला व मुझमें काफी अंतर है. वह बहुत स्ट्रांग लड़की है, जो कि दूसरे की खुशी के लिए अपनी खुशियां दांव पर लगा देती है. मुझे नहीं लगता कि निजी जीवन में मैं ऐसा कभी कर पाउंगी. मैं सबसे पहले अपने बारे में सोचूंगी. दूसरी बात लैला बहुत ही बबली और चुलबुली किस्म की लड़की है. मैं बहुत संकोची, कम बात करने वाली लड़की हूं. यदि कोई सामने से आकर मुझसे बात न करे, तो मैं चुपचाप बैठी रहूंगी. पर लड़कों के बीच अटेंशन पाने का स्वभाव तो हर लड़की में होता है, लैला में भी है और मुझमें भी.

आपने इस फिल्म में जिस तरह की लैला का किरदार निभाया है. क्या आपके इर्द गिर्द ऐसी आधुनिक लड़कियां हैं?

जी बहुत हैं. मैंने खुद देखा है. जिस कौलेज में मैं पढ़ती थी, उसी कौलेज में काफी लड़कियां ऐसी ही थीं. मैंने शूटिंग के दौरान इसी तरह की कुछ लड़कियों को याद करके अपने लैला के किरदार को निभाया है. स्कूल के दिनों में भी काफी बचकानी हरकतें किया करती थी.

आपके लिए प्यार क्या है?

मेरे अनुसार प्यार हर किसी में होता है. यह ऐसा नही कि आज है और कल नहीं है. प्यार हमेशा हर इंसान के अंदर रहता है. मेरी राय में प्यार को परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए. पर कुछ लोग प्यार को कविता वगैरह लिखकर परिभाषित करने का प्रयास करते हैं. मुझे यह सब समझ में नही आता. मेरी समझ कहती है कि हवा व पानी की तरह प्यार भी हम सभी के अंदर है. पर इस जमाने में हर किसी के अंदर प्यार खो गया है. जिसे तलाशने की जरुरत है. जिस दिन हम अपने अंदर के प्यार को तलाश लेंगे, उस दिन हमें किसी इंसान या किसी चीज की जरुरत महसूस नहीं होगी.

कविता या शायरी लिखने वालों का मानना है कि वह अपने प्यार की अभिव्यक्ति करते हैं?

यह उनका तरीका हो सकता है. मगर मुझे लगता है कि प्यार इतना पवित्र व शुद्ध है कि यदि मैं उसे परिभाषित करने लगी, तो वह अपनी पवित्रता, शुद्धता खो दे. गंगाजल में आप कुछ मिला दो तो वह पवित्र गंगाजल नहीं रह जाता.

महानगरों में काफी डेसे शुरू होकर काफी डे पर खत्म होने वाला प्यार काफी प्रचलित है. इस पर आप क्या सोचती हैं?

मुझे लगता है कि प्यार खत्म नहीं होता है. सिर्फ लोगों का रिश्ता खत्म हो जाता है. प्यार व रिश्ता दोनों अलग चीजे हैं. प्यार तो हमेशा हमारे अंदर रहेगा. वह खत्म हो ही नहीं सकता. आज के जमाने में हमारे पास औप्शन काफी हो गए हैं. सोशल मीडिया व कई तरह के एप्स में लोग व्यस्त रहने लगे हैं. अब लोगों का ध्यान प्यार व रिश्तों को संभालने की बजाय दूसरी चीजों में ज्यादा अटका रहता है. लोग सोचते हैं कि एक गया, तो क्या हुआ, दूसरा आ जाएगा. अब लोग समझौता यानी कि कम्प्रोमाइज करने में यकीन नहीं करते. जबकि मेरा मानना है कि एक अच्छे रिश्तों को बरकरार रखने के लिए समझौते करने पड़ते हैं. रिश्तों को बनाए रखने के लिए हमें एक दूसरे की पसंद नापंसद के साथ समझौते करने पड़ते हैं. आज के जमाने में लोग दो माह किसी भी रिश्ते को चला नहीं पाते. जबकि हमारे दादा दादी की शादी बिना एक दूसरे को देखे हुए हुई थी, और उनका रिश्ता पिछले सत्तर वर्षों से चला आ रहा है. इसी बीच उन्होंने भी काफी समझौते किए होंगे.

आपके शौक क्या हैं?

गाने का बहुत शौक है. स्कूल व कालेज के दिनों में मैंने संगीत सीखा है. कालेज दिनों में हमारी ‘तालीम’ नामक ‘म्यूजिक सोसायटी’हुआ करती थी. तब हम हर दिन संगीत की प्रैक्टिस करते थे. अब प्रैक्टिस छूट गयी है. मेरे तालीम ग्रुप के साथियों के साथ आज भी संबंध बने हुए हैं. सभी अलग अलग क्षेत्रों में कार्यरत हैं.

आपके मन में लैला मजनूंके किसी गीत को गाने की इच्छा नहीं हुई?

नहीं. क्योंकि हमारी फिल्म के सभी गीतों को श्रेया घोषाल व सुनिधि चौहान सहित मशहूर गायकों ने गाया है. अच्छा गाना है, तो संगीत की प्रैक्टिस करते रहना चाहिए. कालेज जमाने में मैं बहुत अच्छा गाती थी. पर मौका मिले और प्रैक्टिस करने का समय मिले,तो मैं जरुर फिल्म में भी गाना चाहूंगी.

क्या पढ़ती हैं?

मैंने साहित्य में ही डिग्री हासिल की है. जब लिटरेचर पढ़ रही थी, उस वक्त अपनी ही किताबें इतनी हुआ करती थी कि बाकी पढ़़ने का वक्त नहीं मिलता था. लेकिन सही मायनों में मौडलिंग के दिनों में मैंने पढ़ना अभी शुरू किया है. इन दिनों मैं एक किताब ‘‘द फाउंटेन हेड’’जो कि मुझे अविनाश तिवारी ने ही उपहार में दी है. यह किताब एक आर्किटेक की जिंदगी पर है. इसके अलावा सिद्धांसा पढ़ी थी जो कि मोंक की कहानी थी. एक किताब‘‘ द पैलेस आफ इल्यूशन’’ पढ़ी थी. इसमें द्रौपदी के नजरिए से महाभारत की कहानी लिखी गयी है. किसी ने यह नही सोचा होगा कि द्रौपदी के पांच पति थे, तो उस पर क्या बीती होगी? क्या उन्हें पांच पति चाहिए थे? उन्हें उन पांच में से किससे ज्यादा प्यार था? उनके दिमाग व दिल में क्या चलता था, उसका चित्रण है.

आप लिखती भी होंगी?

जी हां! लिखती भी हूं. इंस्टाग्राम पर कभी कभी कुछ पोस्ट करती रहती हूं. मैंने बचपने पर एक कविता लिखी थी.

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