‘‘विक्की डोनर’’ फेम अभिनेत्री यामी गौतम इन दिनों अपनी फिल्म ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ को लेकर काफी उत्साहित हैं, जिसमें ईलेक्ट्रीसिटी के मुद्दे को उकेरा गया है. इतना ही नहीं इस फिल्म में उन्होंने पहली बार एक तेज तर्रार वकील का किरदार निभाया है. तो वहीं वह सर्जिकल स्ट्राइक पर बन रही फिल्म ‘उरी’ भी कर रही हैं.

आप अपने करियर को लेकर क्या कहना चाहेंगी?

मैं अपने करियर को लेकर बहुत खुश हूं. मेरे करियर की शुरुआत स्पर्म डोनेशन की बात करने वाली अति महत्वपूर्ण फिल्म ‘‘विक्की डोनर’’ से हुई थी. पर यह एक मनोरंजक फिल्म थी. आज भी मेरे पास वही फिल्में आ रही हैं, जिनमें कुछ न कुछ सामाजिक संदेश होता है. मेरे पास जैसे ही इस तरह की फिल्म का आफर आता है, मैं उसे तुरंत लपक लेती हूं.

पर आपने छह साल के करियर में काफी कम फिल्में की हैं?

मैं हमेशा अच्छी पटकथा व किरदार वाली फिल्मों के लिए इंतजार करती हूं. मेरे अंदर धैर्य है. मुझे कहीं भी पहुंचने की जल्दी नहीं है. बौलीवुड में काम करने का मेरा अनुभव कहता है कि कलाकार के अंदर धैर्य के साथ कठोर मेहनत करने की क्षमता होनी चाहिए. मैं हर बात को सकारात्मक दृष्टिकोण से दखती हूं. मैंने अब तक किसी भी फिल्म में वकील का किरदार नहीं निभाया था. तो जैसे ही मुझे फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ में वकील का किरदार आफर हुआ, तो स्वीकार कर लिया. फिल्म में मेरा किरदार बहुत अहम है. फिल्म भी एक बेहतरीन कोर्टरूम ड्रामा है. वह इंडीपेंडेट है.

फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ करने का आफर मिलने पर किस बात ने आपको इंस्पायर किया?

निजी और प्रोफेशनल दोनों स्तर पर इस फिल्म के सब्जेक्ट ने मुझे इंस्पायर किया. मेरा जन्म बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश में हुआ, मगर मेरी परवरिश चंडीगढ़ में हुई, तो मुझे पता है कि किस तरह की इलेक्ट्रीसिटी की समस्याएं आती हैं. किस तरह से बिजली बोर्ड लंबे लंबे बिल भेज देता है. मेरे साथ भले ही ऐसा न हुआ हो, पर हम सुना करते थे कि बेचारे इन्हें ऐसा बिल आ गया. इस वजह से मैं पर्सनली इससे कनेक्ट हुई. मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी कि ‘ट्वायलेटः एक प्रेम कथा’के बाद निर्देशक श्री नारायण सिंह जी एक बार फिर अपनी इस फिल्म में आम लोगों से जुड़े सामाजिक मुद्दे को लेकर आ रहे हैं. उनकी खूबी है कि वह सामाजिक मुद्दे को भी मनोरंजन व कमर्शियल की चाशनी के साथ पेश करते हैं. प्रोफेशनली फिल्म में मेरा किरदार काफी महत्वपूर्ण व सशक्त है.

फिल्म के अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगी?

इस फिल्म में मैंने एडवोकेट गुलनार का किरदार निभाया है. जो कि काफी सशक्त है. इंडीपेंडेंट है. सही मायनो में अपनी आवाज उठाती है. वह एक बिजली कंपनी की तरफ से कोर्ट में मुकदमा लड़ती है.

क्या इस किरदार को निभाने के लिए आपको किसी वकील से मिलने की जरुरत महसूस हुई?

मैं मुंबइ हाई कोर्ट गई थी. मैंने वहां पर पूरा एक सेशन अटेंड किया. कोर्ट के अंदर की पूरी काररवाही देखी. वकीलों के बहस करने का अंदाज देखा. काफी कुछ समझा. कारवाही शुरु होने से पहले वहां पर मौजूद वकीलों से मैंने बात की और उनसे पूछा कि हमारी फिल्मों में जैसा कोर्ट रूम ड्रामा दिखाया जाता है, वैसा ही यहां होता है. तो उन्होंने बताया कि फिल्म में बहुत ही ज्यादा नाटकीयता होती है, कोर्ट के अंदर वास्तव में ऐसा नहीं होता. मैंने कोर्ट रूम ड्रामा वाली फिल्में नही देखी. मैंने जो कुछ प्रैक्टीकली देखा था, उसे ही अपने अभिनय का हिस्सा बनाया. इसके अलावा मैंने स्क्रिप्ट भी पढ़ी और मैंने पहली बार इस फिल्म में सर्वाधिक शुद्ध हिंदी बोली है. मैंने इसमें कुमायूंनी भाषा नहीं बोली है, जबकि बाकी सभी में कुमायूंनी भाषा बोली है. मैं पढ़ी लिखी वकील हूं, इसलिए हिंदी ही बोली है. मैंने फिल्म की शूटिंग मुंबई में ही की है. कोर्ट रूम का सेट मुंबई में लगाकर शूटिंग हुई. मुझे न्यू टेहरी जाने का अवसर नहीं मिला.

आपने मुंबई हाई कोर्ट का सेशन अटेंड किया और वहां की कारवाही देखी. उसके बाद अब आपकी फिल्म में जो कोर्ट का सेशन है, वह कितना उसके करीब है?

हमने काफी रीयल रखने की कोशिश की है. पर फिल्म में कुछ तो नाटकीयता होगी ही. वास्तव में पहले फिल्मों में कोर्ट रूम ड्रामा के दौरान की संवाद अदायगी काफी लाउड हुआ करती थी, पर अब आजकल जो फिल्में बन रही हैं, उनमें इतना नहीं है. पहले का अपना एक दौर था. उसका अपना अलग मजा था. हर युग अपने साथ कुछ बदलाव लेकर आता है. अब दर्शक भी रीयल देखना पसंद करता है.

क्या अर्थ पूर्ण व सामाजिक मुद्दों को उकेरने वाली फिल्मों का समाज पर असर पड़ता है?

जी हां! काफी असर होता है. सिनेमा काफी पावरफुल मीडियम है. सिनेमा में कही गयी बात लोगों के दिलों तक पहुंचती है. मैं यह दावा नहीं करती कि कितना असर होता है. पर मेरा मानना है कि यदि लोगों को फिल्म पसंद आयी है, तो स्वाभाविक तौर पर उन्हें फिल्म व उसका संदेश भी उनकी समझ में आया है. यदि आप फिल्म ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ देखने के बाद अपने घर पर इलेक्ट्रीसिटी के उपयोग को लेकर दो बार सोचने लगे हैं, तो फिल्म का मकसद सफल रहा. ‘ट्वायलेट : एक प्रेमकथा’के बाद लोगों ने साफ सफाई पर ध्यान देने के साथ अपने अपने घरों के अंदर ट्वायलेट बनवाने के लिए प्रेरित हुए. इतना ही नहीं आप मेरे करियर की पहली फिल्म ‘‘विक्की डोनर’’ को ही लीजिए. स्पर्म डोनर पर यह पहली फिल्म थी और इस फिल्म ने युवा पीढ़ी को काफी जागरूक किया. उससे पहले स्पर्म को लेकर समाज में लोग बातें नही करते थे. पर फिल्म के रिलीज के बाद लोगों ने खुलेआम इस पर बात करनी शुरु की. लोगों को अहसास हुआ कि स्पर्म डोनेशन में कुछ भी गलत नहीं है.

आप तो आईएस एस आफिसर बनना चाहती थीं, पर अभिनेत्री बन गयीं?

मेरे पापा तो मुझसे कहते हैं कि यह बात किसी से मत कहा करो कि तुम आईएएस आफिसर बनना चाहती थी.

आपके पिता मुकेश गौतम भी पंजाबी फिल्मों के निर्देशक रहे हैं?

मेरे पिता जी को पसंद नहीं कि उनके बारे में बात की जाए. इसी लिए मैं कभी भी उनके बारे में बात नहीं करती. पर अब जब आपको उनके बारे पता है, तो बता दूं कि इस वक्त वह एक पंजाबी चैनल के वाइस प्रेसीडेंट हैं. जब पंजाब में आतंकवाद हावी था, उन दिनों उन्होंने बहुत ही ज्यादा रिस्क लेते हुए, खतरनाक खतरे उठाते हुए तमाम डाक्यूमेंट्री बनायी थीं. यह उन दिनों की बात है, जब मैं बहुत छोटी थी. पर वह अपने काम की चर्चा हमारे सामने कम करते थे. मैं बड़ी हुई और मुझे पता चल चुका था कि उन्होंने कितने खतरे उठाए, तब भी उन्होंने कभी अपने काम की चर्चा करते हुए अपनी वीरता की कहानी हमें नहीं सुनाई. हमें याद है कि जब हम छोटे थे, तो पुलिस वाले अक्सर आतंकवादियों की तलाश करते हुए हमारे घर की भी तलाशी लिया करते थे. उस वक्त पंजाब में बहुत डर का माहौल था. लोग अपने घर से निकलते हुए डरते थे. ऐसे वक्त में पापा का घर से बाहर जाकर आतंकवाद व आतंकवादियो के खिलाफ डाक्यूमेंट्री बनाना काफी खतरनाक था. पर वह अपने काम को निडरता से अंजाम देते रहे. उनकी सुरक्षा को लेकर हमारी मां बहुत चिंतित रहती थीं. मेरे पापा के पास उनकी वीरता के तमाम अनुभव हैं. पर हमारे साथ वह बहुत कम साझा करते थे. मेरी मम्मी ने साफ साफ कह रखा था कि अपने काम को घर के अंदर ले कर न आएं. घर के अंदर बहुत ही ज्यादा हंसी खुशी का माहौल रहा था. मेरी परवरिश बहुत खुशनुमा माहौल में हुई है.

आपकी बहन सुरीली ने भी बौलीवुड में कदम रख दिया है?

वह सदैव अभिनेत्री बनना चाहती थी. बचपन से ही नृत्य व अभिनय में उसकी रूचि रही है. मुझे खुशी है कि वह राज कुमार संतोषी जैसे बेहतरीन निर्देशक के साथ फिल्म ‘बैटल आफ सारागढ़ी’से अपने करियर की शुरुआत कर रही हैं. इस फिल्म में उनके साथ डैनी व रणदीप हुड्डा जैसे कलाकार हैं. इसकी शूटिंग राजस्थान के रेतीले व बीहड़ इलाके में 48 डिग्री के तापमान में हुई है. उसने बिना किसी शिकायत के अपने काम को अंजाम दिया. उसके अंदर अपार अभिनय क्षमता है. मुझे नही लगता कि उसे मेरी सलाह की जरुरत है.

सोशल मीडिया पर क्या क्या लिखना पसंद करती हैं?

मैं इंस्टाग्राम पर बहुत कम हूं. पर जब मुझे लगता है कि कुछ ट्वीट किया जाना चाहिए, तो मैं ट्वीट करती हूं. पर ट्वीट करने से पहले मैं इस पर विचार करती हूं कि मेरे इस ट्वीट का कुछ असर होगा या नहीं. मैं महज किसी मुद्दे पर दस लोगों के बीच हिस्सा बनने के लिए कुछ भी ट्वीट करना पसंद नहीं करती. खुशी की बात यह है कि सोशल मीडिया के आने के बाद अब तमाम मुद्दों पर बातचीत होने लगी है. पर मैं यह अभी नहीं बता सकूंगी कि मैंने किस मुद्दे पर ट्वीट किया, जिसका असर हुआ.

इन दिनों नारी सशक्तिकरण की बहुत बातें हो रही हैं. क्या सिनेमा में इस ढंग का कुछ काम हो रहा है?

यह कहना मुश्किल है कि नारी सशक्तिकरण को लेकर कुछ काम हो रहा है या नहीं. मेरी नजर में नारी सशक्तिकरण यह है कि आप किसी भी क्षेत्र में यदि किसी ऐसे मुकाम पर हैं, जहां आप अपने आपको ताकतवर समझती हैं, तो वह नारी सशक्तिकरण ही है. मैं खुद अपने आपको इम्पावर्ड नारी मानती हूं. मैं इंडीपेंडेट हूं. फिल्में और किरदार चुनने के लिए स्वतंत्र हूं. पर हम औरतों को पावर में आने के बाद भी अपने इथिक्स व वैल्यू को बरकरार रखते हुए निर्णय लेने चाहिए. मेरे लिए यही नारी सशक्तिकरण है. दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा व अनुष्का शर्मा सहित कई अभिनेत्रियों ने जिस तरह के किरदार निभाए हैं, वह नारी सशक्तिकरण की तरफ ही इशारा करते हैं. यदि हम सभी इंडीपेंडेंट हैं और अपने अपने काम को अंजाम दे रहे हैं, तो यह भी नारी सशक्तिकरण है. मेरा मानना है कि नारी सशक्तिकरण का मतलब यही है कि हम इस बात को लेकर सजग हो कि हम पावर में हैं. हमें अपने आपको रिमाइंड करने की जरूरत है कि वी आर इम्पावर्ड. पर मुझे लगता है कि इस विषय पर गांवों व छोटे कस्बों में जाकर बात करना चाहिए. क्या नारी सशक्तिकरण की बात वहां तक पहुंची है? इस पर गौर करना चाहिए. सिनेमा के माध्यम से या किसी एनजीओ के माध्यम से हमें इस मुद्दे को लेकर गांव व कस्बों में जाना चाहिए और वहां इस पर बात होना चाहिए. मैं तो किसी एनजीओ के साथ मिलकर इस दिशा में कुछ करने की सोच रही हूं. यह काम अकेले तो नहीं किया जा सकता. जब हम गांवों में भी इस विषय पर बात करेंगे, तभी हर लड़की और औरत के अंदर जागरूकता आएगी, शिक्षा का प्रचार होगा. यदि आम आदमी के अंदर झिझक होगी, यदि लोगों को पता ही न हो कि उनके राइट्स क्या हैं? तो कुछ नही होगा. जरूरत है सबको एक साथ इकट्ठा कर सभी के हर तरह से विकास की. यह जरूर होना चाहिए.

आप क्या पढ़ना पसंद करती हैं?

मैं काफी कुछ पढ़ती रहती हूं. कभी नेटफिलिक्स के कार्यक्रम देखती हूं. मुझे फनी किताबें पढ़ना पसंद है. मैंने खालिद हुसेनी की किताब ‘‘अ थाउजेंड स्प्लेंडिड संस’के बाद कोई किताब नहीं पढ़ी.

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