Vijayeta Kumar : राजस्थान के अजमेर में जन्मीं और पलीबड़ी हुई निर्देशक और लेखक विजयेता कुमार की डौक्युमैंट्री शौर्ट फिल्म ‘किकिंग बौल्स’ को न्यूयार्क इंडियन फिल्म फैस्टिवल में बैस्ट शौर्ट फिल्म और जयपुर इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में बैस्ट स्क्रिप्ट का अवार्ड मिला है.

इस से पहले भी विजयेता ने सामयिक विषयों को ले कर कई फिल्में बनाई हैं, जिस में उन की शौर्ट फिल्म ‘ब्लाउज’ लोकप्रिय फिल्म रही। इस के अलावा विजयेता ने कई टीवी विज्ञापनों में भी काम किया है.

जागरूकता चाइल्ड मैरिज को ले कर ‘किकिंग बौल्स’ को बनाने को ले कर विजयेता कहती हैं कि मेरा इस फिल्म को बनाने का उद्देश्य लोगों में जागरूकता फैलाना है. इस की कहानी मुझे बहुत रुचिकर लगी. ऐसी घटनाओं को दुनिया में दिखाई जानी चाहिए. अभी भी राजस्थान के अजमेर के पास के गांवों में चाइल्ड मैरिज होते हैं, जिसे लोग धूमधाम से करते हैं. किसी को उस लड़की की लाइफ के बारे में चिंता नहीं होती.

इन सब चीजों को शहरों में रहने वाले लोगों को पता नहीं होता. इस फिल्म को बनाए जाने के बाद लोगों के मन में बहुत सारे सवाल आए, जिस का जवाब मैं ने दिया. मुझे भी कई सारी नई बातों का पता इस फिल्म के दौरान लगा. यह अच्छा लगा कि काफी लोग इस फिल्म को देख कर प्रेरित हुए और फिल्म को कई पुरस्कार भी मिले.

गरीबी और अधिक लड़कियों का पैदा होना

विजयेता कहती हैं कि ऐसी शादियों का मुख्य कारण गरीबी और कम पढ़ेलिखे होना है। साथ ही हर परिवार को लड़का चाहिए, ऐसे में बहुत लोग कई बच्चे पैदा कर लेते हैं, जिस में लड़कियां कई बार अधिक पैदा हो जाती हैं. गांव में ऐसे गरीब लोगों के पास 5 से 6 बेटियां होती हैं. उन की शादियां करना गरीब परिवार के वश में नहीं होता, इसलिए घर में कोई फंक्शन होने पर एकसाथ सब निबटा देते हैं.

चाइल्ड मैरिज का यही मुख्य कारण है, जैसा वहां रहने वाले कहते हैं. यह केवल राजस्थान ही नहीं, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि कई राज्यों के गांवों में आज भी होता है. मुझे जब तमिलनाडु के गांव में चाइल्ड मैरिज के बारे में पता चला तो मुझे बहुत दुख हुआ.

इन दिनों विजयेता एक सोशल कौमेडी फीचर फिल्म पर काम कर रही हैं, जिसे वे जल्दी ही बनाने वाली हैं. उन्होंने गृहशोभा से खास बात की और बताया कि एक महिला निर्देशक का इंडस्ट्री में टिके रहना आसान नहीं होता. आइए, जानते हैं, उन की कहानी उन की जबानी :

मिली प्रेरणा

मुझे कालेज से ही थिएटर में काम करना पसंद था। परिवार ने भी सहयोग दिया। आगे जा कर मैं ने दिल्ली में पढ़ाई पूरी की. फिर मैं मुंबई आ कर कई निर्देशकों के साथ असिस्टैंट के रूप में काम कर अनुभव प्राप्त किया और अब मैं खुद निर्देशक बन चुकी हूं. महिलाओं के लिए यह क्षेत्र काफी चुनौतीपूर्ण है और मुझे भी सामना करना पड़ रहा है, लेकिन अब काफी लड़कियां यहां आने लगी हैं.

पुरुषों के साथ काम करते हुए सब से अधिक समस्या टौयलेट की होती थी। लड़कियों के लिए अलग टौयलेट नहीं होते थे, जिस में घंटों खुद को वाशरूम में जाने से रोकना पड़ता था, जो अब थोड़ा ठीक हुआ है. टौयलेट बनने लगे हैं. इस के अलावा पुरुषों के साथ वूमन की विचारधारा नहीं मिलती, उन्हें समझाना कठिन होता है.

असल में लड़कियों की सोच पुरुषों से हमेशा अलग होती है. साथ ही लड़कियों की पारिश्रमिक पुरुषों की अपेक्षा कम होती है. यह सब अभी भी इंडस्ट्री में मौजूद है. औनग्राउंड परिस्थिती थोड़ी बदली है, लेकिन पहले एक महिला निर्देशक को फिल्मों का डाइरैक्टर बनना वाकई बहुत कठिन था.

ओटीटी ने दिया अवसर

असल में ओटीटी के आने से महिला निर्देशक को काम मिलना आसान हुआ है, क्योंकि अलगअलग फिल्मों की डिमांड बढ़ी है, जिस से महिला निर्देशक को अवसर मिलने लगे हैं. आज उन की अधिकतर फिल्में दर्शक पसंद कर रहे हैं.

विजयेता कहती हैं कि ओटीटी की वजह से महिला निर्देशक अधिक काम कर पा रही हैं, क्योंकि एक स्त्री हर तरह की कहानी को खूबसूरती से परदे पर ला पाती हैं, क्योंकि वह उस कहानी से भावनात्मक तरीके से जुड़ी हुई होती है.

मिला परिवार का सहयोग

वे आगे कहती हैं कि परिवार का सहयोग हमेशा रहा है. उन्होंने कभी किसी काम से मुझे मना नहीं किया, लेकिन सलाह दिया है कि अगर इस फील्ड में मुझे काम करना है, तो मुझे इस की पढ़ाई कर लेनी चाहिए। बिना प्रशिक्षण लिए इस फील्ड में जाना ठीक नहीं. मेरे परिवार में सभी शिक्षित हैं। ऐसे में बिना डिग्री लिए काम करने के बारे में वे सोच भी नहीं सकते. मैं ने भी फिल्म मेकिंग के क्षेत्र में शिक्षा पूरी की और वहां 1-2 निर्देशकों के साथ काम कर मुंबई आ गई.

वे बताती हैं कि यहां संघर्ष करती रही, लेकिन मेरे कालेज के कुछ सिनियर्स ने मेरा साथ दिया. कौंट्रैक्ट मिलते गए और काम शुरू किया.

कहानी में दम नहीं

बौलीवुड के गिरते स्तर और साउथ की फिल्मों के हावी होने को ले कर विजयेता कहती हैं कि यह सही है कि साउथ की फिल्में अधिक चल रही हैं और वे अधिक पैसा भी कमा रहे हैं. मुझे भी मलयालम सिनेमा बहुत पसंद है, क्योंकि ये लोग कम बजट में पावरफुल फिल्में बनाते हैं. मुझे ‘पुष्पा 2’ जैसी वाइलैंट फिल्में पसंद नहीं हैं। मैं वैसी फिल्में नहीं देखती, लेकिन मलयालम फिल्मों में औरतों से संबंधित कई फिल्में बेहद अच्छी होती हैं. हिंदी सिनेमा में कोई नयापन नहीं दिख रहा है, इसलिए फिल्में चल नहीं पा रही हैं. मैं ने इस दिशा में काफी सोचविचार कर फिल्में बनाने की कोशिश कर रही हूं. यह भी सही है कि ऐसी वाइलैंट फिल्में चल रही हैं, तभी इसे बनाया भी जा रहा है. मैं थोड़ी कन्फ्यूज्ड हूं. फिल्ममेकर को भी शायद इसे पता करना मुश्किल हो रहा है, तभी ऐसी फिल्में बन रही हैं.

दर्शकों की पसंद

साउथ की फिल्मों में ऐक्ट्रैस का वल्गर रूप अधिक दिखाई पड़ता है, इस की वजह के बारे में निर्देशक विजयेता कहती हैं कि तेलुगू फिल्मों में अभी भी ऐक्ट्रैस को वैसे ही वल्गर रूप में अधिक दिखाया जाता है। फिल्में भी इसी वजह से अधिक चलती हैं. वहां के दर्शकों को ऐसी फिल्में पसंद होती हैं जबकि मलयालम फिल्मों में प्रोग्रैसिव महिला को दिखाया जाता है.

यह सभी निर्देशक का पर्सनल टेक है. मुझे रिमेक सही नहीं लगता. नई कहानियों को मौका देने की जरूरत है. कभी ऐसा समय था जब नई कहानियों को लोग कहना पसंद करते थे। वैसी ही सोच निर्माता, निर्देशक की होनी चाहिए, तभी फिल्म इंडस्ट्री चल सकेगी.

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