बौलीवुड अदाकारा नीना गुप्ता की गिनती सदैव स्ट्रौंग व करेजियस महिला के रूप में होती है. कुछ लोग उन्हे बोल्ड और करेजियस ओमन भी मानते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही कि उन्होने क्रिकेटर विवियान रिचर्ड से रिश्ते रखे और बिना शादी किए बेटी मासाबा को जन्म देने के साथ ही उसका ‘सिंगल मदर’ के रूप में पालन पोषण भी किया. आज की तारीख में मासाबा न सिर्फ एक अभिनेत्री हैं,बल्कि मशहूर फैशन डिजायनर भी हैं. लेकिन सिंगल मदर के रूप में नीना गुप्ता को पग पग पर तकलीफें सहनी पड़ी. उनका संघर्ष उनके लिए काफी तकलीफ देह रहा. पर उन्होने कभी हार नही मानी. उन्होने अपने सिद्धांतो से कभी समझौता भी नही किया. लगभग 49 वर्ष की उम्र में उन्होने विवेक मेहरा से विवाह रचाते हुए अभिनय से दूरी बनायी थी. पर वह खुद को अभिनय से ज्यादा समय तक दूर नहीं रख पायी. टैबू समझे जाने वाले विषय पर बनी फिल्म ‘‘बधाई हो’’ से उन्होने वापसी. तब से उनका कैरियर तेज गति से भाग रहा है. इन दिनों वह सूरज बड़जात्या निर्देशित फिल्म ‘‘उंचाई’’ को लेकर उत्साहित हैं. जो कि ग्यारह नवंबर को प्रदर्शित हुई है.
नीना गुप्ता से उनके संघर्ष और ‘सिंगल मदर’ बनने की सलाह आदि पर लंबी बातचीत हुई. जो कि इस प्रकार रही. . .
चालिस वर्ष के कैरियर के टर्निंग प्वाइंट्स क्या रहे?
-मुझे सबसे पहले शोहरत मिली हॉकिंस की विज्ञापन फिल्म से. उसके बाद टीवी सीरियल ‘‘खानदान’’ की लोकप्रियता के चलते मुझे भी शोहरत मिली. उसके बाद टर्निंग प्वाइंट्स आया दूरदर्शन से. मैने खुद ‘दर्द’,‘सांस’, ‘पलछिन’, ‘सिसकी’,‘सोनपरी’, ‘सांझ’, ‘क्यों होता है प्यार’ जैसे सीरियलों का निर्माण किया. इनमें से ‘संास’ का निर्माण,लेखन व निर्देशन किया. ‘दर्द’ का भी निर्देशन मैने ही किया था. ‘पलछिन’ व ‘सिसकी’ का भी निर्देशन किया था. लेकिन टीवी सीरियल ‘‘सांस’’ को सबसे अधिक सफलता मिली और इससे मुझे फायदा भी मिला. ‘सांस’का निर्माण,लेखन व निर्देशन कर मुझे संतुष्टि मिली. मैंने इससे नाम व धन दोनों कमाया. इसके बाद काम भी मिला. मैने कई सीरियल किए. उसके बाद मैने शादी कर ली और सोचा कुछ समय आराम करुंगी. क्योंकि मैं इतने वर्षों से लगातार दिन रात काम करती आ रही थी. मगर कुछ दिन में ही समझ में आ गया कि आराम करना मेरे वश की बात नही है. मुझे तो काम करने की लत लग चुकी है. मैं पुनः काम करना चाहती थी. पर कोई अच्छा काम मिल नही रहा था. एक दिन मैने फेशबुक पर अपनी पीड़ा व्यक्त की और मुझे सबसे पहले बोल्ड कंटेंट वाली फिल्म ‘‘बधाई हो’’ करने का अवसर मिला. तो ‘बधाई हो’’ मेरे कैरियर का टर्निंग प्वाइंट रहा. यदि मुझे ‘बधाई हो’’करने का अवसर न मिला होता,तो आज आप मेरा इंटरव्यू न कर रहे होते.
आपने 1982 में जब कैरियर की शुरूआत की थी,तब आप बतौर हीरोईन फिल्में कर सकती थीं,पर ऐसा नहीं हुआ?
-इसकी दो वजहें रहीं. पहली वजह यह रही कि मैने बॉलीवुड में प्रवेश करते ही गलत फिल्म व गलत किरदार चुन लिया था. मैने फिल्म ‘साथ साथ’ में एक लल्लू लड़की का किरदार निभाया,जो कि मुझे नहीं निभाना चाहिए था. कुछ समय बाद एक पार्टी में गिरीश कर्नाड जी ने मुझसे कहा था कि अब मुझे हीरोईन की भूमिका कभी नही मिलेगी. दूसरी वजह यह रही कि मुझे सलाह देने या राह दिखाने वाला कोई नहीं था. उस वक्त मुझे किसी निर्माता या निर्देशक से किरदार या फिल्म मांगने में शर्म आती थी. जबकि बॉलीवुड में तो बेशर्म होना पड़ता है. काम पाने के लिए लोगों के पीछे पड़ना पड़ता है. पर मैं सोचती थी कि बार बार फोन करुंगी,तो उन्हे बुरा लगेगा. इन्ही वजहों से मैं कभी हीरोइन नही बन सकी. जबकि मेरे अंदर हीरोईन बनने के सारे गुण थे. अभिनय प्रतिभा भी थी.
आपने भारतीय फिल्मों में अभिनय करने के साथ ही तमाम इंटरनेशनल फिल्में की,पर इसे आप भुना नही पायी?
-जी हां!मैं अपना प्रचार करने में काफी कमजोर हूं. मुझे लग रहा थाकि में विदेशी फिल्मों में छोटे किरदार निभा रही हूं,पर बाद में देखा तो लगभग सभी भारतीय कलाकार इंटरनेशनल फिल्मों में छोटे किरदार ही निभारहे हैं,पर वह इस बात का हौव्वा खड़ा कर खुद को महान बताने पर उतारू हैं. पर मुझे अपनी वाह वाही करनी नही आती. मेरा अपना कोई नही है,जो मेरा प्रचार करे. मेरे पति को तो फिल्म इंडस्ट्री की समझ ही नही है. सच कह रही हूं. मैं पीआर में बहुत निकम्मी हूं. मैं पीआर करने में असफल हूं. मैं पीआर नही कर सकती. जबकि ऐसा करना बहुत जरुरी है. अन्यथा लोग आपको भूल जाते हैं. मैं आपको उदाहरण देती हूं. एक बार लेखक अश्विनी धीर,जिनका मैं एक सीरियल कर चुकी थी. वह ल्मि बना रहे थे. उनकी फिल्म की शूटिंग शुरू हो चुकी थी. मुझे पता चला कि उन्होंने मेरी उम्र की एक अन्य अभिनेत्री को अपनी फिल्म में लिया है. मैं एकदम शॉक्ड रह गयी. तो मैने उन्हे फोन करके पूछा कि तुमने मुझे क्यों नहीं लिया? जबकि वह हमेशा कहा करते थे कि मैं बहुत अच्छी अभिनेत्री हूं. मेरे फोन करने पर उन्होने अफसोस जताते हुए कहा कि वह भूल गए. तो ऐसा भी होता है. इसलिए में कहती हूं कि मैं खुद को याद दिलाते रहने में असफल रही हूं. जबकि हमें भी पता है कि यहां हम जितना काम करते हैं,उससे कहीं अधिक ‘शोबाजी’करनी पड़ती है.
आपने अपनी आत्मकथा रूपी किताब लिखी. उसके बाजार में आने के बाद किस तरहह की प्रतिक्रियाएं मिली?
-लोगों को मेरी किताब बहुत अच्छी लगी. लोगों को पता नही था कि मेेरे निजी जीवन में भी काफी संघर्ष रहा है. इमोशनल रिस्पांस तो काफी मिले.
जब आप अपने निजी जीवन के संघर्ष को किताब का रूप देने के लिए लिख रही थी,उस वक्त आपको कितनी पीड़ा हो रही थी?
-बहुत पीड़ा हुई. खासकर जब मैने अपने परिवार के संबंध में लिखा,तब कुछ ज्यादा ही पीड़ा हुई. हकीकत में लिखने के बाद उसे बार बार ठीक करने के लिए पढ़ना पड़ा. प्रूफ रीडिंग के समय पढ़ना पड़ा. तब कुछ ज्यादा ही तकलीफ हुई. एक वक्त वह आया जब पैंग्विन वाले मेरे पास करेक्शन करने के लिए भेजते थे,तो मैं नहीं पढ़ पायी. मैने उनसे कहा कि आप देख लें और खुद ही ठीक कर लें. क्योंकि मुझे मेरा अपना संघर्ष व जीवन में जो कुछ घटा वह बहुत पीड़ा देता है.
कैरियर के शुरूआती दिनों में आपकी ईमेज स्ट्रांग ओमन की रही है?
-यह ईमेज मीडिया ने बनायी थी. स्ट्रांग का मतलब वह जो अपनी बात निडरता से कह सके. पर मैं तो अपनी बात कभी कह ही नही पायी. मैं एक भी ऐसे इंसान को नहीं जानती,जो वह कह या कर सके,जो उसका मन कहता है. तमाम लोग दावा करते है कि वह अपनी शर्तों पर जीता हैं?कौन अपनी शर्तों पर जीता है. सभी रबिश बातें करते हैं. यह सारी अच्छी अच्छी लाइने सिर्फ बोलने के लिए हैं. मगर है कुछ भी नहीं.
पर ज्यादातर अभिनेत्रियां इसी तरह की बाते करती हैं?
-यह उनकी मर्जी वह चाहे जो बातें करें. मुझे इससे कोई लेना देना नहीं. . . .
जब आपको राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘‘उंचाई’’ का आफर मिला,तो आपको किस बात ने इस फिल्म को करने के लिए इंस्पायर किया था?
-कभी हम इसी ‘राजश्री प्रोडकन’ के दफ्तर के बाहर से चक्कर काटा करते थे. पर मुझे अंदर आने को नहीं मिला था. जब दफ्तर में सूरज बड़जात्या जी ने मुझे बुलाकर ‘उंचाई’ में एक बेहतरीन किरदार निभाने के लिए कहा,तो उसके बाद कुछ कहने या सोचने को रह ही नही गया था. वह कहानी व किरदार सुना रहे थे और मैं हवा में उड़ रही थी. राजश्री प्रोडक्शन में और सूरज बड़जात्या के निर्देशन में काम करना अपने आप में बहुत बड़ी बात है. फिल्म भी अच्छी, किरदार भी अच्छा. निर्माण कंपनी व निर्देशक भी अच्छा.
फिल्म ‘‘उंचाई’’ के अपने किरदार के बारे में क्या कहना चाहेंगी?
-मैने शमीना सिद्दिकी का किरदार निभाया है,जो कि जावेद सिद्किी की पत्नी है. जावेद सिद्किी के किरदार में बोमन ईरानी हैं. वह किताबों की दुकान चलाते हैं. शमीना की जिंदगी उसके पति के इर्द गिर्द घूमती है. मुझे लगता है कि औरतें मेरे किरदार के साथ आईडेंटीफाई करेंगी. क्योंकि हमारे देश में निन्यानबे प्रतिशत औरतों की जिंदगी सिर्फ उनके पति, परिवार व बच्चों के ही इर्द गिर्द तक सीमित है. पति से कहना कि यह मत खाना. तुमको डाबिटीज है,तो पार्टी में शराब मत पीना वगैरह. वगैरह. . यही मेरा किरदार है. मगर अंत में सूरज जी ने मेरे किरदार को एक नया रोचक मोड़ दिया है.
आप अपने पुराने सीरियल ‘सांस’ का दूसरा सीजन लेकर आने वाली थी?
-क्या करुं. ‘स्टार प्लस’ ने रिजेक्ट कर दिया. जबकि स्क्रिप्ट पसंद आने के बाद ‘स्टार प्लस’ ने ही इसका पायलट एपीसोड बनाने के लिए पैसे दिए थे. मैने बडक्ष्ी मेहनत व ईमानदारी से बनाया. मगर वहां पर एक व्यक्तिऐसा था,जिसे पसंद नहीं आया. लेकिन मैने हार नही मानी है. मैं इसे बनाउंगी. वास्तव में चैनलो में एमबीए की पढ़ाई कर ऐसे लोग आकर बैठगए हैं,जिन्हे सिनेमा या टीवी की समझ ही नही है. कारपोरेेट वालों को सिनेमा की कोई समझ ही नहीं है. जब मैने पहले ‘सांस’ बनायी थी,उस वक्त रथिकांत बसु जैसे समझदार इंसान थे. एक बार विषय व पटकथा पर चर्चा हुई और सहमति बन गयी. उसके बाद कभी भी उन्होंने लेखक या निर्देशक के तौर पर मुझे विचार विमर्श करने के लिए नहीं बुलाया. अब तो वह यहां तक डिक्टेट करते हैं कि लाल नहीं नीले रंग की टी शर्ट पहनो.
कारपोरेट के चलते सिनेमा भी गड़बड़ हुआ?
-कारपोरेट तो अभी भी है. पर सिनेमा अब बेहतर हो गया है. कोविड के चलते दो वर्ष तक घर में रहने के कारण लोगों की सिनेमाघर जाने की आदत छूट गयी है. क्योकि अब उन्हे आराम से घर पर बैठकर ओटीटी पर फिल्में देखने की आदत हो गयी है. जबकि सिनेमाघरों व ओटीटी पर फिल्म देखने के अनुभव बहुत अलग होते हैं. मैं हर इंसान से कहना चाहूंगी कि वह ‘उंचाई’ को सिनेमाघरों में ही जाकर देखें अन्यथा सिनेमा देखने का असली अनुभव पाने से वह वंचित रह जाएंगे. इसके विजुअल का आनंद ओटीटी पर आ ही नही सकता.
पिछले कुछ वर्षों से ‘वूमन इम्पॉवरमेंट’ की बातें हो रही है. क्या असर हो रहा है?
-ज्यादा कुछ नहीं हो रहा है. केवल एक शुरूआत हुई है. शुरूआत यह हुई है कि अब ज्यादा औरतें कमाने लगी हैं. और वह भी बड़े महानगरों में. मेरी राय में नारी सशक्तिकरण तभी होगा जब नारी आर्थिक रूप से सबल होगी. इस हिसाब से फिलहाल नारी इम्पॉवरमेंट का रेशियो बहुत छोटा है. पर मैं आशावादी हूं कि शुरूआत तो हुई है,भले ही महानगरों से हुई हो.
सिंगल मदर के रूप में आपने मासाबा की परवरिश की. जिसके चलते आपका लंबा संघर्ष रहा. उन अनुभवों के बारे में बताएंगी और उन अनुभवों के आधार पर आप नई पीढी की लड़कियों या औरतों से क्या कहना चाहेंगी?
-मैंने उन अनुभवो को अपनी किताब में लिख दिया है. हर किसी से कहूंगी कि वह मेरी किताब पढ़ लें. अब मैं अपने संघर्ष व तकलीफों का रोना बार बार नहीं रोना चाहती. लेकिन मैं आपके दूसरे सवाल का जवाब देना चाहूंगी. मैं हर लड़की व औरत से कहना चाहूंगी कि मैने जो किया,उसमें मेरी अपनी परिस्थितियां थी. लेकिन मेरी परिस्थितियों से आपकी परिस्थितियां अलग हो सकती है. इसलिए मैं हर लड़की और हर औरत से कहना चाहूंगी कि आप वह मत करना, जो मैने किया. अगर आपकी मजबूरी है. आपकी बहुत ज्यादा इच्छा है. यदि आपको लगता है कि आप उसके परिणाम को सहन कर पाएंगी,तभी करें. वरना न करें. मेरी तो यही सलाह है. मैने जो कदम उठाया,उसमें बहुत तकलीफ होती है. यदि किसी नारी को लगता है कि हालात बदले हुए हैं. अब सुप्रीम कोर्ट ने ‘लिव इन रिलेशनशिप’ को मान्यता दे दी है. तो भी बहुत तकलीफ होनी है. हकीकत मे कुछ नही बदला है. समाज की सोच नही बदली है. सिर्फ बड़ी बड़ी बातें हो रही हैं.
आपकी बेटी मासाबा का कैरियर किस दिशा में जा रहा है?
-उसने कुछ वेब सीरीज में अभिनय किया है. बेहतरीन अदाकारा है. वह तो आगे भी अभिनय करते रहना चाहती है.