पिछले 18 वर्षों से बौलीवुड में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते आए अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘अनारकली आफ आरा’,‘न्यूटन’,‘फुकरे रिटर्न’,‘स्त्री’,‘गुंजन सक्सेना’ जैसी फिल्मों के साथ ही ओटीटी प्लेटफार्म पर ‘मिर्जापुर’ व ‘क्रिमिनल जस्टिस’ जैसी वेब सीरीज में अपने दमदार अभिनय की बदौलत बौलीवुड में अपनी एक अलग पहचान बना ली है. दर्शक उन्हें अंतरराष्ट्रीय फिल्म ‘‘मैंगो ड्रीम्स’’ के अलावा रजनीकांत के साथ तमिल फिल्म ‘‘काला’’ में भी देख चुके हैं.

प्रस्तुत है पंकज त्रिपाठी से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के खास अंश. .

आपने ‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा’ से अभिनय की ट्रेनिंग हासिल करने के बाद 16 अक्टूबर 2004 में बौलीवुड में कदम रखा था. मगर ‘‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा’ में ‘मैथड एक्टिंग’ सिखायी जाती है,जो कि बॉलीवुड में काम नही आती?

-आपने एकदम सही फरमाया. बीच के कुछ दशकों में काम नही आती थी.  मगर अब काम आने लगी है. ओम पुरी, इरफान खान,नसिरूद्दीन शाह,अनुपम खेर,मुकेश तिवारी,यशपाल राणा,आशुतोष राणा,सीमा विश्वास, रोहिणी हट्टंगड़ी,राज बब्बर व हमारे आने के बाद ‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा’ से ट्रेनिंग लेकर आने वालों की बॉलीवुड में कद्र होने लगी.  इतना ही नही ‘ओटीटी’ प्लेटफार्म के आने के बाद ‘नेशनल स्कूल आफ ड्ामा’ की ‘मैथड एक्टिंग’ ज्यादा काम आने लगी है. यह सभी कलाकार सिनेमाई अभिनय से थोड़ा अलग अभिनय करते थे. अस्सी के दशक में सिनेमा में अलग तरह का अभिनय होता था. अब पैरलल सिनेमा व मेन सिनेमा का विभाजन नही रहा. जो पैरलल है,वह भी मेन स्ट्रीम हो जाती है और जो मेन स्ट्ीम होती है,वह पैरलल हो जाती है. क्योंकि अब सब कुछ बाक्स आफिस की कमायी पर निर्भर करता है. जो ज्यादा कमाई करे,वह मेन स्ट्ीम सिनेमा गिना जाता है. एन एस डी में जिस तरह का अभिनय सिखाया जाता है,उसमें लॉजिक,तर्क,नीड्स,अर्जेंसी, करेक्टराइजेशन,एक्टर प्रिपेअर्स, करेक्टर प्रिपेअरर्स, कंटेंट, टेक्स्ट,सब टेक्स्ट सहित बहुत सारी चीजें सिखायी जाती हैं,जिसका हिंदी सिनेमा में बीच के काल खंड में या कमर्शियल सिनेमा में बहुत जरुरत नही है. न अभिनेता उतनी गहराई में जाते हैं और न ही निर्देशक चाहते हैं कि कलाकार उतनी गहराई में उतरे. लेकिन अब सिनेमा बदला है. दर्शक भी दुनिया भर का सिनेमा देख रहा है. इसलिए अब अभिनय के स्तर में भी बदलव देखा जा रहा है. अब एनएसडी का मैथड एक्टिंग का तरीका कारगर है.

बालीवुड से जुड़ना कैसे हुआ?

-मैं दिल्ली में ही रह रहा था,तभी मुझे घर बैठे ही फिल्म ‘‘रन’’ में छोटा सा किरदार निभाने का अवसर मिल गया था. फिर अक्टूबर 2004 में मंुबई आया. और स्ट्गल का दौर चला. स्ट्गल के दौरान कुछ विज्ञापन फिल्में की. इक्का दुक्का फिल्म व सीरियल करता रहा. पर फिल्म‘‘गैंग ऑफ वासेपुर’’में सुल्तान के किरदार ने मुझे बतौर अभिनेता एक पहचान दिलायी. उसके बाद‘‘फुकरे,‘सिंघम रिटर्न’,‘स्त्री’,‘लुकाछिपी’,‘गंुजनसक्सेना’ सहित कई फिल्में आयी. अब अर्थपूर्ण फिल्मों के साथ साथ व्यावसायिक फिल्में भी कर रहा हूं. मैं वेब सीरीज भी कर रहा हूं. यानी कि काफी व्यस्त हूं.

आपने संघर्ष के दिनों में ज्यादातर हिंसक या गैंगस्टर के ही किरदार निभाए?

-जी नही. . इतने अधिक हिंसक किरदार नहीं निभाए. दूसरी बात मंैने पहले ही कहा कि मेरी कोई योजना नही थी. मेरे पास जो किरदार आए,मैं करता गया. ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ में

नगेटिब किरदार था. वह काफी लोकप्रिय हुआ. लेकिन आप ध्यान से देंखेगे तो ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ के अलावा वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ में ही नगेटिब किरदार किया है. ‘मिर्जापुर’ के कालीन भईया साफ्ट स्पोकेन हैं. ‘गुड़गांव’ में नगेटिब था. पारंपरिक विलेन नही लगते. इसके अलावा दो तीन छोटी फिल्मों में किए होंगे. उसके बाद आप ‘मसान’, ‘निल बटे सन्नाटा’,‘गंुजन सक्सेना’या ‘क्रिमिनल जस्टिस’ में माधव मिश्रा यह सब पॉजीटिब किरदार ही हैं. मेरे गैंगस्टर वाले किरदार इस कदर लोकप्रिय हुए कि लोगो को अनुभूति होती है कि मंैने गैंगस्टार या नगेटिब किरदार ज्यादा निभाए.

लेकिन आपने ‘निल बटे सन्नाटा’जैसी फिल्मों में सकारात्मक किरदार निभाने के ेबाद ‘गुड़गांव’ में पुनः गैंगस्टर का किरदार निभा लिया?

-इसकी एकमात्र वजह यह थी कि इसकी कहानी बहुत अच्छी थी. किसान किस तरह बिल्डर बनता है और उसकी अपनी क्या स्थिति होती है. जब इंसान अकूट संपत्ति कमा ले,तो फिर उसके लिए सही गलत में कोई फर्क नहीं रह जाता. इसका असर किस तरह से व्यक्ति पर पड़ता है. वह अपनी ही दुनिया में रहने लगता है. एक ग्रंथि का शिकार होकर इंट्ोवर्ट हो जाता है. वह कहानी मुझे बहुत पसंद आयी थी. वह किरदार गैंगस्टर से कहीं ज्यादा एक डार्क फिल्म थी.

फिल्म के निर्देशक श्ंाकर रमण ने जिस तरह से मुझे कहानी सुनायी, उससे मैं बहुत प्रभावित हो गया. इसके अलावा इसके निर्माता भी ‘निल बटे सन्नाटा’ वाले अजय राय ही हैं. तो उनकी बात भी रख ली.

किसी भी किरदार की तैयारी कहां से शुरू होती है?

-आप शायद यकीन न करें,मगर जब हम शौचालय में जाते हैं,तब भी हमारे साथ व हमारे दिमाग में किरदार चलता रहता है. वैसे भी किरदारों की हिस्ट्ी बहुत रोचक चीज है,जो कि दिखता नही है. जैसे कि यह इमारत जिस नींव पर टिकी है,वह नींव दिखती नही है. किरदारों की हिस्ट्ी सोचना मुझे कलाकार के तौर पर मजा देता है. तो में बाथरूम में बैठकर किरदारों की हिस्ट्ी बनाते रहता हूं. उस वक्त यह तय नहीं करता कि किस तरह परफार्म करुंगा. मसलन-यह सोचता हूं कि कालीन भैया,कालीन भैया कैसे बने होंगें? उनके बचपन,स्कूल की पढ़ाई,उनके दोस्त,क्या इतिहास रहा, उस पर जाता हूं. यह रोचक काम होता है. कलाकार के तौर पर मजा आता है. इनमें से कुछ चीजें पटकथा में भी होती हैं. संवाद में भी एक आध जगह आ जाती हैं. इसके अलावा हम निर्देशक से भी बात करते हैं.  कमर्शियल सिनेमा में भी जब कलाकार पूछता है,तो लेखक सोचकर जवाब देता है. मेरा मानना है कि लेखक लिखते समय किरदार की हिस्ट्री के बारे में सोचता होगा. कोई किरदार इस तरह से व्यवहार कर रहा है,तो क्यों कर रहा है? इसकी वजहों पर लेखक भी सोचते ही हैं,लिखते समय.

हर कलाकार दावा करता है कि वह हर किरदार में अपनी निजी जिंदगी का कुछ न कुछ अवश्य पिरोता है. आप भी ऐसा कुछ करते हैं?

-जी हॉ! हम भी ऐसा करते हैं. यह सब हमारी अपनी कल्पनाशक्ति व अनुभव की शक्ति के आधार पर ही होता है. इनके चलते हमारे अभिनय में हमारे जीवन का कोई न कोई हिस्सा आ ही जाएगा. मान लीजिए शादी का दृश्य फिल्माया जा रहा है. अब हमने निजी जीवन में कई शादियां अटैंड की हैं. तो हमें माहौल पता है कि फूफा या मौसा ऐसा करते थे. तो यह अनुभव कलाकार के तौर पर हम रोकना चाहें,तो भी अभिनय में कहीं न कहीं आ ही जाएगा. जिंदगी का अनुभव रोचक होगा ही होगा.

फिल्म ‘न्यूटन’ के किरदार को निभाते समय तो निजी जिंदगी का अनुभव नहीं रहा होगा?

-जी हॉ! उस किरदार में मेरे निजी जीवन का कोई अनुभव नहीं था. मगर मेरे फूफा जी,जो कि नेवी में अफसर हैं, उन दिनों यहीं नजदीक में ही ‘आई एन एस हमला’ में थे. तो मैं उनके पास चला गया था और उनसे ंलबी चैड़ी बातें की थी. लेफ्टीनेंट कमांडेट और उनकी हैरायकी,सब सुना. मैं उनकी कैंटीन में भी जाता था,तो बहुत कुछ देखता था. तो ‘न्यूटन’ के वक्त मैंने कल्पना की कि मेरा किरदार आज न्यूटन से मिल रहा है,पर आज शाम के बाद दोबारा कभी नही मिलेगा. पहले पटकथा में था कि मेरे किरदार को न्यूटन के ेप्रति बड़ी खुन्नस है. कुंठा है. मैने निर्देशक से कहा कि काहे को एरोगेंट या कुंठा? उसे तो पता है कि आज शाम को वोटिंग खत्म होने तक ही इस आदमी को झेलना है,फिर तो मिलना नही है.  तो फिर सिनीकलकाहे को? मेरा किरदार आत्मा सिंह समझ गया कि न्यूटन जिद्दी है,तो उसने तय किया कि इसका मजा लो,इसे खिलाओ. मैने निर्देशक अमित मसुरकर से कहा कि मैं तो ऐसा सोच रहा हूं. उन्होने कहा कि ठीक है,कुछ करो, देखते हैं. आप जो कह रहे हैं,वह दृश्य में किस तरह नजर आता है,वह देखने पर अंतिम निर्णय करते हैं. मैं अपने हिसाब से एक दृश्य में अभिनय करता हूं. आत्मा सिंह, न्यूटन को देखता रहता है. न्यूटन  हाथ से इशारा करता है,तो आत्मा सिंह भी हाथ दिखाता है. तो आत्मा सिंह व न्यूटन के बीच दिनभर चूहे बिल्ली का खेल चलता रहता है. नक्सली इलाका है,इसलिए तनाव भी है. तो कलाकार के जीवन के अनुभव और कल्पनाशक्ति न चाहते हुए भी किरदारों में आ ही जाता है.

‘मिर्जापुर’ के कालीन भैया की प्रेरणा कहां से ली थी?

-मैं एक आध बार पूर्वांचल के बाहुबलियों से मिला था,उनसे मिला भी था. उन्हे देखकर मेरी समझ में आया कि इन्हे दक्षिण भारत जाने वाली किसी ट्ेन में बैठा दिया जाए,तो कोई भी इंसान इनसे डरेगा नही. बल्कि कहेगा कि ,‘जरा सरकिए. मुझे भी बैठना है. ’क्योंकि हर बाहुबली के बारे में लोगो के दिमाग में मीडिया के माध्यम से एक ईमेज है,इसलिए लोग उनसे डरते हैं. अन्यथा वह भी एक इंसान ही है. इसलिए मेरे दिमाग में आया कि बाहुबली कालीन भैया को मैं थोड़ा साफ्ट स्पोकेन व अपप्रिडिक्टेबल बनाता हूं. उनकी नाराजगी या खुशी जल्दी समझ में  न आए.  कालीन भैया हंसकर अपनी खुशी या गुस्सा होकर अपना गुस्सा व्यक्त नहीं करते हैं.

आपने अब तक कई किरदार निभाए. क्या किसी किरदार ने आपकी निजी जिंदगी पर असर किया?

-फिल्म ‘गुड़गांव’ के किरदार ने थोड़ा सा असर किया था. बहुत ही कॉम्पलेक्स किरदार था. इस फिल्म को करते हुए और उसके बाद भी पंद्रह दिनों तक मैं परेशान रहा था.

ऐसे में परेशानी से मुक्त होने के लिए क्या करते हैं?

-कुछ खास नही. घूमना शुरू कर देते हैं. कुछ दिन अलग माहौल में रहते हैं. अथवा दूसरी फिल्म के किरदार की तरफ दिमाग को मोड़ते हैं. जब हम पत्नी व बेटी के साथ घूमने जाते हैं,तो पारिवारिक माहौल में रहते ही दिमाग पूरी तरह से पिछले किरदार से मुक्त हो जाता है. यानी कि उस किरदार का बोझ धीरे धीरे उतर जाता है. इसके अलावा जब नई फिल्म की पटकथा को पढ़ना व उस पर सोचना शुरू करते ेहैं,तब भी पिछला किरदार धीरे धीरे गायब हो जाता है.

बीच में आप फेशबुक पर किस्सा गोई के कुछ किस्से शुरू किए थे. फिर बंद क्यों कर दिया?

-एकमात्र वजह मेरी अति व्यस्तता है. इसके अलावा वीडियो फार्मेट में मेरे इतने इंटरव्यू आ रहे हैं. मेरी अपनी खुद की कहानियां वीडियो फार्मेट में आती हैं. मैने कुछ प्रशंसकों के कहने पर लॉकडाउन एक में ‘किस्सागोई ’ किया था. लोगो ने कहा था कि,‘ हम महामारी की वजह से घरांे में कैद हैं. आप कुछ किस्से सुनाइए. इससे हमारा मनोरंजन होगा और इस मुश्किल वक्त में हौसला मिलेगा. ’ऐसे में बतौर अभिनेता  हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि हम समाज का मनोबल बढ़ाने के लिए कुछ योगदान दें. तो मैंने सोचा कि अपने जीवन से जुड़े कुछ किस्से सुनाऊं,जो कि मनोरंजन के साथ-साथ कुछ प्रेरणादायक भी हों. इन कहानियों में एक संदेश छिपा है. मैं इसी तरह के किस्से सुनाने लगा था. इसलिए मैने छह सात सीरीज चलायी थी. अप्रत्याशित सफलता मिली थी.  मेरे फेश बुक पेज पर एक कहानी को दो करोड़ लोगोंे ने देखा था. पर कुछ माह बाद फिर से सुनाउंगा.

आपको नही लगता कि इंटरनेट के मकड़जाल में युवा पीढ़ी फंसकर रह गयी है?

-जी हॉ!फिलहाल युवा पीढी की समस्या यह है कि युवा पीढ़ी को इंटरनेट ने एक अंधेरे कंुएं में कैद कर लिया है और इंटरनेट कहता है कि सिर्फ वही देेखो,जो हम दिखा रहे हैं. इंटरनेट कहता है कि जो कुछ सीखना है,यहीं से सीखो. यह गलत है.  यदि आप वास्तव में कुछ सीखना चाहते हैं,तो लोगों से मिलना पड़ेगा. आप आसमान में देखोगे,तो सुंदर बादल व उड़ते पंछी भी काफी कुछ सिखाते हैं. बादल में कई तरह की आकृतियां हैं. किताबें पढ़ें. लोगों की पढ़ने की आदत ही खत्म हो गयी है. गलत है. हर इंसान को खासकर युवा पीढ़ी को ज्यादा से ज्यादा किताबें पढ़नी चाहिए.

बीच बीच में आप अपने गांव जाकर किसानी करने लगते हैं. इसके पीछे की सोच क्या है?

-मैं गांव से बहुत जुड़ा हुआ हूं. मेरे माता पिता गांव में ही रहते हैं. मंुबई की जीवन की आपाधापी से कुछ समय निकालकर गांव में समय बिताना सुखद अहसास देता है. फिल्मनगरी की दुनिया तो बनावटी है. गांव में जितने दिन रहता हूं,चप्पल नहीं पहनता हूं. मिट्टी पर नंगे पांच चलता हूं. मंुबई में मिट्टी से हमारा जुड़ाव ही नहीं होता. मुझे खेती, किसानी,खलिहानी बहुत अच्छा लगता है. इसलिए मैं हर तीन माह में कुछसमय के लिए गांव चला जाता हूं. दूसरी बात गांव जाने का मतलब जमीन व जड़ों से जुड़ना होता है. यही वजह है कि मेरा अभिनय अलग नजर आता है. मेरे अभिनय में रिलेटीविटी नजर आती है. देखिए,यदि आपका किसी चीज से या धरती से जुड़ाव नहीं रहेगा ,तब तो रिलेटीविटी का तार टूट जाएगा. मैं हर चीज से जुड़े रीने का प्रयास करता हूं. मुझे झुणका भाकर खाए हुए काफी दिन हो गए. पुणे के पास कैलाश प्रेम होटल है. बहुत अच्छा झुणका भाकर मिलता है. महाराष्ट्यिन भोजन बहुत अच्छा मिलता है.  कल ही हम पति पत्नी आपस में बात कर रहे थे कि एक दिन पुणे झुणका भाकर खाने के लिए चलते हैं. उसके मालिक से हमने बात भी की. मैं वाई से हलदी मंगाता हूं. तलेगांव से बाजरा व मक्का मंगाता हूं. नार्थ इस्ट से मिर्ची आयी है. कच्छ से कॉटन का कपड़ा मंगाता हूं.

2022 में बॉलीवुड फिल्में असफल हो रही हैं और दक्षिण की फिल्में सफल हो रही हैं. इसकी क्या वजह नजर आती है?

-मेरी समझ से लेखन की कमी हो सकती है. वैसे दक्षिण की भी सिर्फ तीन फिल्में ही सफल हुई है. हिंदी की भी दो तीन सफल रही हैं.

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