‘‘किताबों के बजाय युवाओं का झुकाव सिनेमा की ओर अधिक है.’’ यह बात जब साहित्य अकादमी व पदमश्री पुरस्कार से सम्मानित लेखक रस्किन ब्रैंड कहते हैं तो अंदाजा लग जाता है कि इस देश में फिल्मों को ले कर युवाओं में जबरदस्त क्रेज है. कुछ समय पहले पाकिस्तानी सांसदों ने भी कहा था कि उन के देश में हिंदी फिल्मों की बाढ़ आ गई है और इन्हें देख कर युवाओं का दिमाग खराब हो रहा है.
यह बातें 2 अहम मसलों की तरफ इशारा करती हैं. पहला यह कि यूथ व टीनेजर्स का फिल्मों से स्ट्रौंग कनैक्शन है और दूसरा यह कि ज्यादातर फिल्में युवाओं को मनोरंजन के नाम पर सिर्फ सैक्स, अपराध, नशा, कामचोरी के शौर्टकट्स और हिंसा का कू़ड़ा परोस रही हैं.
यूथ सिनेमा के नाम पर जिन फिल्मों को मल्टीप्लैक्स में बेचा जा रहा है उन में न तो यूथ या टीनेजर्स को इंस्पायर करने वाली कहानी या संदेश होते हैं और न ही उन में उन की उम्र के मुताबिक मुद्दे होते हैं. और तो और इन फिल्मों में काम करने वाले सारे ऐक्टर, अक्षय कुमार, सलमान खान, शाहरुख खान, संजय दत्त और आमिर खान सभी 40-50 साल से ऊपर के हैं, खुद को यूथ आइकन मानते हैं. जाहिर है यूथ को फिल्मों में उन की उम्र के हिसाब से न तो कहानियां मिल रही हैं, न ही ऐक्टर्स.
औप्शंस से दूर युवा
इस साल रिलीज हुई फिल्मों का यूथ से दूरदूर तक का नाता नहीं था. इस के बावजूद अगर सिनेमाघरों में युवा लंबी कतारों में टिकट लेने के लिए खड़े होते हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन के पास कोई औप्शन नहीं बचा है. साल 2017 में रिलीज फिल्मों में कमाई के हिसाब से टौप ग्रोसर फिल्मों में ‘टौयलेट एक प्रेमकथा’, ‘बाहुबली 2’, ‘रईस’, ‘जौली एलएलबी 2’, ‘काबिल’, ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’, ‘हैरी मेट सेजल’ और ‘हिंदी मीडियम’ जैसे नाम प्रमुख हैं. इन फिल्मों में युवाओं के मतलब की कहानियां सिरे से गायब हैं.
कोई फिल्म शराब किंग की लाइफ को ग्लैमरस स्टाइल में पेश कर रही है तो कोई बीवी के रेप के रिवेंज पर बेस्ड है. कोई फिल्म कोर्टकचहरी के पेचीदा मसलों पर है तो कोई राजामहाराजाओं के फर्जी इतिहास में लिपटे धार्मिक अंधविश्वास को बढ़ावा देती है. यह बात सिर्फ इस साल रिलीज फिल्मों पर लागू नहीं होती, बल्कि हर साल ऐसी ही फिल्में रिलीज और कामयाब होती हैं. कुल मिला कर यूथ के पास जो भी फिल्में देखने के लिए बतौर विकल्प आती हैं, उन में उन की दिलचस्पी के फैक्टर्स बिलकुल ही गायब होते हैं.
यूथ की प्रौब्लम्स, इश्यूज और गाइडैंस
आज का यूथ किन समस्याओं से दोचार है? बेरोजगारी से परेशान है. उसे नौकरी मिल भी रही है तो उस की काबिलीयत के हिसाब से कमतर है. रोमांस और लव के मोरचे पर भी यूथ लड़खड़ा जाता है. लव, सैक्स और धोखे में गर्लफ्रैंडबौयफ्रैंड के उलझे रिश्ते कब अपराध या गलत रास्ते की तरफ मुड़ जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता.
इंटरनैट और सोशल मीडिया के जाल में फंस कर युवा किताबों और अपने सामाजिक व पारिवारिक जिम्मेदारियों से दूर हो रहा है. वह फेसबुक की दुनिया में फैले वर्चुअल रिश्तों को हकीकत मान कर असली रिश्तों व जिम्मेदारियों से कट रहा है. जौब और एजुकेशन के बढ़ते तनाव के चलते वह सुसाइड कर रहा है. मोबाइल गैजेट से घिरा युवा कम उम्र में ही वयस्कों को होने वाली बीमारियों को न्योता दे रहा है. ‘ब्लू व्हेल्स’ सरीखे हिंसक वीडियो गेम्स में उलझ कर युवा जान गंवा रहा है. पौकेटमनी के लिए वह गलत संगत में लूटपाट करने से नहीं चूकता है. कोचिंग, कैरियर के मकड़जाल में फंस कर युवा अपने भविष्य को ले कर पसोपेश में है.
अब जरा सोच कर देखिए, इन में किस मुद्दे पर युवाओं के लिए किसी फिल्मकार या सुपरस्टार ने कोई फिल्म बनाई है? उपरोक्त तमाम समस्याओं या उलझनों से निकालने के सुझाव देती कोई फिल्म याद नहीं आती. कोई फिल्म यह नहीं बताती कि बेहतर कैरियर की दिशा में क्या करना चाहिए. न यह बताती है कि प्रेम के पेचीदा रिश्तों की गांठ कैसे सुलझाई जाए. शिक्षा और रोजगार के बढ़ते बोझ और डिप्रैशन से बाहर निकलने का सही रास्ता भी नहीं दिखाती कोई फिल्म. टूटते रिश्तों, दोस्ती के सही माने और परिवार को जोड़ कर साफसुथरा मनोरंजन दिखाने वाली फिल्में नहीं बना रहा कोई.
फिल्म ‘हिंदी मीडियम’ को अपवाद मान सकते हैं, लेकिन ऐसी फिल्में हमेशा ऊंट के मुंह में जीरा समान ही होती हैं. कभीकभार 10 साल में एक बार ‘थ्री इंडियट्स’ या ‘ओह माई गौड’ सरीखी फिल्में आ जाना या ‘कच्चा लिम्बू’, ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘मुझ से फ्रैंडशिप करोगे’, ‘गिप्पी’, ‘चारफुटिया छोकरे’ और ‘पुरानी जींस’ जैसी अननोटिस फिल्में देश के इतने बड़े यूथ के लिए ना काफी हैं.
ऐसे में किस तरह उम्मीद की जा सकती है कि युवाओं को सार्थक मनोरंजन मिलेगा? दरअसल, फिल्मकार आज के यूथ और टीनेजर की समस्या समझना ही नहीं चाहते. और जब तक वे उन की समस्या समझेंगे नहीं, तब तक मनोरंजन के साथ सही गाइडैंस, सही रास्ता दिखाने वाली फिल्में कैसे बनाएंगे?
मौजमस्ती, दारू, जुआ, अपराध और कैजुअल सैक्स
युवाओं के लिए सकारात्मक और सार्थक मनोरंजन से लैस, गाइड करने वाली फिल्मों का न बनना जितनी बड़ी समस्या है, उस से भी बड़ी समस्या यह है कि बौलीवुड समेत हर रीजन या लैंग्वेज का सिनेमा यूथ को 4 बोतल वोडका पी कर सारी रात पार्टी करने की सलाह दे रहा है.
फिल्मों के गाने हों या कहानी, हर जगह यूथ को रेव पार्टियों में दारू पी कर गर्लफ्रैंड की बांहों में झूमते ऐसे दिखाया जाता है मानो देश का हर युवा बड़ी आसानी से इतने महंगे शौक पाल सकता है. इन फिल्मों की देखादेखी यूथ भी ऐसे शौक पालने के चक्कर में कभी घर में चोरी करता है तो कभी बाहर.
एक बार नशे और सैक्स की बदनाम गली में फंसा युवा जब तक संभलता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है. फिल्म ‘बेफिक्रे’ से ले कर ‘नील और निक्की’ तक ‘उड़ता पंजाब’ से ले कर ‘आशिकी 2’, ‘ये जवानी है दीवानी’ के नशेड़ी हीरो आज युवाओं के आइक्रेस हैं तो समझा जा सकता है कि इन आइकंस से युवा भला क्या सबक लेते होंगे.
युवाओं को भटकाएं नहीं
फिल्मकार युवाओं के लिए बेहतर फिल्में नहीं बना सकते तो न सही, लेकिन जिंदगी को लड़की, दारू और पार्टी में डुबाने की फिलौसफी बेचना कहां तक जायज है? सलमान खान से ले कर संजय दत्त और शाहरुख खान सरेआम नशा करते हैं, धूम्रपान करते हैं. सोशल मीडिया पर नशे में गालियां देते और अश्लील हरकतें करते इन के वायरल वीडियो हर युवा के स्मार्टफोन पर जमा हैं.
नतीजतन, युवा भी ऐसे ही लाइफस्टाइल को फौलो करने लगते हैं. रातभर गर्लफ्रैंड के साथ रेव पार्टी करना, सैक्स पार्टीज में पैसे और समय बरबाद करना, कहीं न कहीं वे फिल्मों से ही सीखते हैं. फिल्मों में तो हीरो तमाम गलतियां कर आखिर में सुधर जाता है और हैपी एंडिंग हो जाती है, लेकिन असल जिंदगी में हैपी एंडिंग नहीं होती. कोई युवा फिल्मी स्टाइल में बैंक या एटीएम लूट रहा है तो कोई अपनी नकली किडनैपिंग का प्लौट रच रहा है. फिल्में जो उन्हें दिखाती हैं, वे वही सीख लेते हैं.
स्क्रीन कौर्नर में चेतावनी काफी नहीं
धूम्रपान या शराब पीने वाले सीन में स्क्रीन के कौर्नर में सिर्फ चेतावनी देना काफी नहीं होता. युवा जब अपने चहेते फिल्मस्टार्स को नशे में डूबा हुआ देखते हैं तो वे उन के हेयरस्टाइल, फैशन और हर शौक को फौलो करने की आदत के चलते इस गलत शौक को भी अपना लेते हैं. आशा है कि पहलाज निहलानी की जगह आए प्रसून जोशी इस बात को समझेंगे.
सामान्यतया बड़ों की तुलना में छोटे बच्चे, किशोर और युवा फिल्मेनिया की चपेट में आते हैं. कुछ फिल्मों से समाज तथा युवावर्ग पर अच्छा प्रभाव भी पड़ता है लेकिन ज्यादातर फिल्में उलटा और शौर्टकट रास्ता ही सुझाती हैं. जिन फिल्मों में युवावर्ग में देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता और मानव मूल्यों का प्रसार करने वाला कथानक होना चाहिए, उन में अश्लील डांस और नशे की वकालत होती है. जिन फिल्मों में जातिप्रथा, दहेजप्रथा, भ्रष्टाचार, कामचोरी और भाईभतीजावाद जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर करने की प्रेरणा होनी चाहिए, वहां संपत्ति विवाद, गुलामी, लंपट चरित्रचित्रण और धर्म व अपराध का महिमामंडन होता है. यही वजह है कि आज यूथ को सही दिशा देने वाला सिनेमा कहीं नहीं दिखता.
दायित्व समझें फिल्मकार
फिल्मकारों को यह पता होना चाहिए कि युवा देश का भविष्य निर्माता है, उन पर फिल्मों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ऐसी फिल्मों का निर्माण होना चाहिए, जिन में मनोरंजन व मार्गदर्शन दोनों का सम्मिलित पुट हो. युवाओं के अति संवेदनशील मन को सामाजिक व नैतिक गुणों से भरपूर फिल्मों के माध्यम से जिम्मेदार नागरिक के रूप में तैयार किया जा सकता है. जब तक फिल्म निर्माता युवापीढ़ी के प्रति अपने इस दायित्व को नहीं समझेंगे तब तक युवाओं के लिए मनोरंजन की दुनिया सिवा अंधेरे और बर्बादीभरे रास्तों के कुछ भी नहीं होगी.