‘‘निल बटे सन्नाटा’’ फेम निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी की त्रिकोणीय प्रेम कहानी वाली फिल्म ‘‘बरेली की बर्फी’’ बहुत ज्यदा उम्मीद नहीं बंधाती है. इस तहर के विषय पर हजारों फिल्में बन चुकी हैं. मगर फिल्मकार अश्विनी अय्यर तिवारी ने इसमें नयापन लाने के लिए बरेली नामक छोटे शहर या यूं कहें कि कस्बे की लड़की बिट्टी को सिगरेट पीने वाली, रात में घर से बाहर मोटर सायकल पर घूमने से लेकर कई बुराईयों से युक्त बताकर यह दिखाने का प्रयास किया है कि आज का नवयुवक ऐसी लड़की से शादी करना चाहता है, उसे लड़की की इन आदतों में बुराई नजर नहीं आती. काश! आज के समय में भारत के गांवों, कस्बों व छोटे शहरों  में निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी और लेखक नितीश तिवारी की सोच वाले लोग मौजूद हों.

फिल्म ‘‘बरेली की बर्फी’’ की कहानी बरेली के एक मिठाई विक्रेता मिश्रा (पंकज त्रिपाठी) की बेटी बिट्टी (कृति सैनन) के इर्द गिर्द घूमती है. बिट्टी में बरेली के लोगों को कई बुराइयां नजर आती हैं. वह मोटर सायकल पर चलती है. बिट्टी सिगरेट पीती है. बिट्टी रात रात भर घूमती रहती है. बिट्टी की मां (सीमा पाहवा) तो उसे रात रात भर घर से बाहर घूमने वाली चुड़ैल कहती हैं. मगर मिश्रा को अपनी बेटी बिट्टी में कोई बुराई नजर नहीं आती है. जब उनकी सिगरेट खत्म हो जाती है, तो उन्हें बिट्टी से मांगकर सिगरेट पीने में बुराई नजर नहीं आती. मगर बिट्टी की मां उससे परेशान रहती है. मां के ताने सुनते सुनते थक चुकी बिट्टी एक रात अपनी मां के दो हजार रूपए चुरा अपना सामान बांधकर बरेली से बाहर जाने के रेलवे स्टेशन पहुंच जाती है. रेलवे स्टेशन की बुकस्टाल से वह प्रीतम विद्रोही लिखित उपन्यास ‘बरेली की बर्फी’ खरीदती हैं. जिसे पढ़कर बिट्टी को अहसास होता है कि लेखक ने तो उसकी कहानी लिख डाली. अब वह घर वापस आ जाती है और उस लेखक की तलाश शुरू करती है.

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