हिंदी की नई अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘पीकू’ के गुणगान हो रहे हैं जिस में नायिका पीकू अपने बूढ़े सिरफिरे पिता के कब्ज के वहम की शिकार है पर प्यार के कारण उन के सारे नखरे सहती है. फिल्म ने यह संदेश कहीं नहीं दिया कि गलत पिता है. बेटी भी पिता को खरीखरी नहीं सुनाती या सुनाती है तो पिता सुनीअनसुनी कर देता है और हार कर पीकू को जिद्दी पिता की बात माननी पड़ती है. फिल्म की कहानी का संदेश यही है कि इस तरह के बूढ़ों के खब्तीपन को सहो और हंस कर सहो और चाहे उस पर कैरियर, अपने दोस्त, अपने सुख निछावर करने पड़ जाएं. कहानीकार ने अमिताभ बच्चन को खब्ती तो दिखाया पर उस की इतनी जम कर आलोचना नहीं की कि उसे खलनायक बना दिया जाता.
अगर पीकू बेटी की जगह बहू होती तो क्या होता? पीकू और उस का पति क्या इस तरह के आतंकवादी पिता को सहन कर पाते या उन्हें करना चाहिए? बीमार वृद्ध, चाहे पिता हो या ससुर, मां हो या सास, उस की देखभाल जरूर करनी चाहिए पर इस तरह के जिद्दी वृद्ध की हरगिज नहीं. यह तो रिश्तों में तेजाब डालने वाला काम है. फिल्म निर्माता ने बजाय इस बूढ़े को अक्ल सिखाने के उसे मरता दिखा दिया ताकि पीकू अपने लेटैस्ट प्रेमी के साथ विवाह कर के खुश रह सके. पर क्या हर गृहस्थी में इस तरह हो सकता है? जो बूढ़े अपने बेटेबेटियों और बहुओं को कोसते हैं उन में से बहुतों में इस भास्कर का दंश मौजूद रहता है जो अपनी मरजी अपने बच्चों पर थोपना चाहते हैं. अगर वृद्धाश्रम भर रहे हैं तो इसलिए कि संपत्ति, बचपन के प्यार, फर्ज आदि का नाम ले कर बच्चों को जबरन जिद्दी मातापिताओं की सेवा करने को कहा जाता है. फिल्मकार का काम केवल हास्य पैदा करना नहीं और कब्ज की शिकायत को डाइनिंग टेबल पर बिछा कर हंसाना नहीं हो. सुजीत सरकार की यह फिल्म बेवकूफियों भरी बडे़ सितारों वाली फिल्म है जो दिशाहीन ही नहीं पथभ्रष्टक भी है.