कहानीकार मुकुल शर्मा ने सत्तर के दशक में एक लघु कहानी लिखी थी, जिस पर उनकी बेटी व अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा बतौर निर्देशक फिल्म ‘‘डेथ इन ए गंज’’ लेकर आयी हैं,जो कि बंगला फिल्मों की परिपाटी वाली फिल्म कही जा सकती है.
जब इंसान को बार बार अपमानित किया जाए या कुचला जाए, तो यह सब किसी भी इंसान के लिए भुलाना मुश्किल होता है. ऐसे में इंसान डिप्रेशन का शिकार हो खुद को ही खत्म कर लेता है. इस बात को यह फिल्म बेहतरीन ढंग से चित्रित करती है.
कहानी 1979 की रांची के पास मैक्लुस्की गंज में रहने वाले ओ पी बख्शी (ओमपुरी) और मिसेस अनुपमा बख्शी (तनूजा) के घर पर छुट्टी बिताने आने वाले रिश्तेदारों में से एक नंदू (गुलशन देवैया) के भाई शुतु (विक्रांत मैसे) के इर्द गिर्द घूमती है. इस घर में नंदू (गुलशन देवैया), बोनी (तिलोत्मा शोम), मिमी (कलकी कोचलीन), ब्रायन (जिम सर्भ), तानी (आर्या शर्मा) व शुतु (विक्रांत मैसे) जमा हुए हैं.
इस परिवार में रहने आने वाले यह सभी एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं. मगर इनके बीच जो संबंध हैं, उससे एहसास होता है कि इनमें आपस में आत्मीयता का अभाव है. इन सभी की अपनी समस्याएं और परेशानियां हैं, जिन्हें कोई दूसरा समझ नहीं पाता. यह सभी पिकनिक मनाने आए हैं, मगर सभी तन्हा व परेशान हैं.
शुतु अपनी समस्याओं से जूझ रहा है. वह पढ़ाई में असफल हो चुका है, तो कहीं न कहीं डिप्रेशन का शिकार है. उसकी मां भी उसके बर्ताव से परेशान है और अपनी बहन अनुपमा बख्शी को पत्र लिखकर मदद मांगती है. शुतु को सभी अपमानित व कुचलने का ही प्रयास करते हैं. सभी उस पर अपनी धौंस जमाते हैं. कहानी आगे बढ़ती है, तो पता चलता है कि गर्म दिमाग के विक्रम की शादी हो गयी है और विक्रम ने अपनी पत्नी को सोने की पायल पहनने के लिए दी है. इसके बावजूद विक्रम व मिमी के बीच अवैध संबंध हैं.
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