बौलीवुड में एक गंभीर राजनीतिक फिल्म की कल्पना करना बेवकूफी ही है. ऐसे में 1975 से 1977 के बीच के21 माह के आपाकाल के दिनों में घटे घटनाक्रमों पर बनी मधुर भंडारकर की फिल्म ‘‘इंदू सरकार’’ से बहुत ज्यादा उम्मीदें करना निरर्थक ही है. क्योंकि हमारे देश का राजनीतिक माहौल ही कुछ इस तरह का है. यदि फिल्मकार अपनी फिल्म को सत्यपरक बनाने के लिए फिल्म में किसी नेता का नाम ले ले, तो राजनेता उसकी चमड़ी ही नहीं मांस तक उधेड़ने में कसर बाकी नहीं रखेंगे. यही समस्या फिल्म ‘‘इंदू सरकार’’ के साथ भी है. वैसे मधुर भंडारकर उस वक्त इस फिल्म को बना पाए हैं, जब ‘कांग्रेस’ विरोधी सरकार है. फिर भी इस फिल्म को कांग्रेस का कोपभाजन बनना पड़ा.
फिल्म ‘‘इंदू सरकार’’ की कहानी इंदू नामक महिला के नजरिए से चलती है. इंदू (कीर्ति कुल्हारी) एक अनाथ लड़की है. वह कवितांए लिखती है, मगर हकलाती भी है. उसकी जिंदगी में एक पुरुष नवीन सरकार (तांता रायचौधरी) आता है, जिसकी महत्वाकांक्षा एक बहुत बड़ा ब्यूरोक्रेट्स बनना है. वह एक चाटुकार है. नवीन सरकार के साथ शादी कर वह इंदू सरकार बन जाती है. 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लग जाता है. फिर विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, तुर्कमानगेट कांड, नसबंदी जैसे कई घटनाक्रम घटित होते हैं. नवीन सरकार नेताओं की हां में हां मिलाना शुरू करते हैं. मगर इंदू सरकार नैतिकता व एक स्वस्थ विचारधारा के साथ अपनी अलग राह चुनती है. परिणामतः उसकी खूबसूरत जिंदगी बदल जाती है. वह भी नानाजी (अनुपम खेर) के साथ अंडरग्राउंड होकर आपातकाल के खिलाफ जंग का हिस्सा बनती है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः 21माह बाद आपातकाल खत्म होता है.
यूं तो आपातकाल के 21 माह के दौरान घटित घटनाक्रमों पर कई किताबें उपलब्ध हैं, फिर भी वर्तमान पीढ़ी के लिए आपातकाल की भयावहता को समझने मे यह फिल्म अच्छा साधन बन सकती है. क्योंकि मधुर भंडारकर ने तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश पर आपातकाल थोपे जाने के बाद जिस तरह से आम लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन किया गया, से लेकर इंदिरा गांधी की उनके बेटे संजय गांधी रूपी कमजोरी व संजय गांधी के दुःखद व गलत निर्णयों, जबरन नसबंदी, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, पूरे देश में आतंक का माहौल जैसे घटनाक्रमों व भयावहता का अपनी फिल्म में बेहतरीन चित्रण किया है.
मधुर भंडारकर ने बड़ी चालाकी से कहानी का केंद्र इंदू सरकार (कीर्ति कुलहारी) नामक एक अनाथ व साधारण मगर बहुत ही ज्यादा साहसी व दिलेर महिला के इर्द गिर्द बुना है. हम जानते हैं कि इंदिरा गांधी को एक खास इंसान ‘इंदू’ नाम से बुलाता था. इसी तरह फिल्म में संजय गांधी का किरदार तो रखा है, मगर उसे ‘चीफ’ (नील नितिन मुकेश) नाम दिया है. इसी तरह से दूसरे वास्तविक किरदारों के नाम बदले गए हैं. यदि मधुर भंडारकर ने इन नामों को फिल्म में रखा होता और इंदू सरकार के इर्द गिर्द के किरदारों को सही रूपों में अहमियत के साथ पेश किया होता, तो आपातकाल की पृष्ठभूमि पर ‘इंदू सरकार’ ज्यादा बेहतर फिल्म हो सकती थी. कुल मिलाकर मधुर भंडारकर ‘फैशन’ या ‘पेज थ्री’ जैसा जादू रचने में असफल रहे हैं. ‘इंदू सरकार’ बहुत ज्यादा गहरा प्रभाव छोड़ने मे असफल रहती है.
फिल्म की कहानी व पटकथा कुछ कमजोरियों के बावजूद बेहतर है. इंटरवल के बाद फिल्म निर्देशक के हाथ से फिसलती हुई नजर आती है. लगता है कि इस कमी को पूरा करने के लिए जबरन कव्वाली ठूंसी गयी है. फिल्म कई जगह इतनी तेज भागती है कि कुछ संवाद उसमें खो जाते हैं. आपातकाल के समय छोटे शहरों व गांवों में घटित घटनाक्रम ज्यादा भयावह थे, जिनकी उपेक्षा की गयी है. फिल्मकार मधुर भंडारकर जिस तरह के कथा कथन के लिए जाने जाते हैं, उसका अभाव फिल्म ‘‘इंदू सरकार’’ में नजर आता है.
फिल्म के एडीटर की अपनी कमियों के चलते भी फिल्म कमजोर हुई है. फिल्म के कैमरामैन कीयको नकहरा बधाई के पात्र हैं. फिल्म का गीत संगीत उत्तम है. इंदू सरकार के चुनौतीपूर्ण किरदार में कीर्ति कुल्हारी ने जबरदस्त परफार्मेंस दी है. अपनी भावनाओं, जिंदगी की दुविधाओं के बीच के संघर्ष के दृश्यों में उनकी अभिनय क्षमता इस तरह से निखर कर आयी है कि यदि उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाए, तो गलत नहीं होगा. तांता राय चौधरी ने भी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है.
दो घंटे 19 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘इंदू सरकार’’ का निर्माण भरत शाह और भंडारकर इंटरटेनमेंट द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है. फिल्म के निर्देशक मधुर भंडारकर, लेखक मधुर भंडारकर, पटकथा लेखक अनिल पांडेय व मधुर भंडाकर, संवाद संजय छैल, संगीतकार अनु मलिक, कैमरामैन कीयको नकहरा तथा कलाकार हैं-कीर्ति कुल्हारी, नील नितिन मुकेश, सुप्रिया विनोद, तांता राय चौधरी, अनुपम खेर आदि.