फ्रांस के मशहूर लेखक मोलियर द्वारा लिखित नाटक ‘द बोर्जिवा जेंटलमैन’ में एक गरीब इंसान जब अमीर बन जाता है, तब उसकी जिंदगी की जो त्रासदियां होती हैं, उसका चित्रण है. उसी से प्रेरणा लेकर स्व. ओम पुरी की पूर्व पत्नी द्वारा लिखित व निर्देशित फिल्म ‘मि. कबाड़ी’ अपना प्रभाव छोड़ने में पूरी तरह से नाकामयाब रहती है. भारतीय समाज पर हास्यव्यंग युक्त यह फिल्म अपने मकसद से भटकी हुई नजर आती है.
यह कहानी है कबाड़ी का काम करने वाले कल्लू (अन्नू कपूर) की, जो छोटा सा स्क्रैप डीलर है. उसका जीवन एक दिन रंक से राजा में बदल जाता है. उसके बाद कल्लू मुस्कुराते हुए अपनी प्रेमिका चंदो (सारिका) से शादी करता है. कल्लू अपने दादा की जमीन के टुकड़े का मालिक है. जमीन की कीमतें आसमान छू रही हैं, क्योंकि इस पर राजमार्ग का निर्माण किया गया है. इस जमीन के टुकड़े से मिले धन से कल्लू अमीर हो जाता है, तब वह अपने अतीत को अलविदा कह कर एक नए अध्याय की शुरूआत करता है.
वह अपनी पिछली दोस्त गरीब दुःखी मलिन बस्ती वाले जीवन को हमेशा के लिए मिटाकर एक भव्य जिंदगी जीना चाहता है. इसलिए वह दिल्ली के पौश इलाके में बंगला खरीद कर रहने लगता है. अब तक उसका बेटा चमन स्कूल नहीं जाता था, पर अब वह उसे एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में प्रवेश दिला देता है. मगर बेटा चमन (राजवीर सिंह) पांचवीं से ज्यादा पढ़ नहीं पाता. उसके बाद उनके जीवन की त्रासदियों का सिलसिला शुरू होता है. उसका केवल एक ही सपना है उसकी गिनती एक सफल उद्योगपति के रूप में हो. मगर सम्मानित व्यवसाय चलाने के लिए उसके पास आवश्यक अनुभव या शिक्षा नहीं है. इसलिए वह राज्य के 150 से ज्यादा निजी शौचालयों का मालिक है, कल्लू का बेटा चमन इन शौचालयों को चलाता है और साप्ताहिक पैसा इकट्ठा करता है.
मगर चमन अपने इस पेशे से शर्मिंदा है. कल्लू और चमन सहित पूरा परिवार कहता है कि वह 150 होटलों की श्रृंखला के मालिक हैं पर जब जब चमन की शादी इस आधार पर तय होती है, तब तब सच सामने आ जाता है और चमन की शादी टूट जाती है. कल्लू का सपना समाज के उच्च लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना है, वह अपने बेटे चमन और बेटी मीठी (उल्का गुप्ता) की शादी अमीर परिवार में करने की इच्छा रखता है.
चंदो की मूर्खता के कारण कल्लू और चमन के सपने नीचे आते हैं. कहानी एक महत्वपूर्ण मोड़ पर तब पहुंचती है, जब चमन, शैली के साथ प्यार में पड़ जाता है. शैली के पिता मि. अरोड़ा (ब्रजेंद्र काला) को कबाड़ियों से नफरत है क्योंकि उनकी बहन कल्लू के साले यानी कि चमन के मामा भूरिया मदारी (विनय पाठक) के साथ भाग गई थी. पर अंत में चमन की शादी होती है. कल्लू को अहसास होता है कि उसे अपने अतीत से नफरत नहीं करनी चाहिए. मि. अरोड़ा की समझ में आता है कि काम छोटा या बड़ा नहीं होता है.
कमजोर व भटकी हुई पटकथा के चलते गरीब इंसान के अमीर बनने की त्रासदी पर बहुत अच्छे हास्य दृश्य रचे जा सकते थे, पर ऐसा नहीं हो पाया. फिल्म की पटकथा का कोई ओर छोर ही नहीं है. दिग्गज अभिनेताओं की मौजूदगी के बावजूद यह फिल्म प्रभावित नहीं करती. विनय पाठक के किरदार को बहुत दबा हुआ दिखाया गया है. सारिका का किरदार महज कैरीकेचर बनकर रह गया है. लेखक व निर्देशक के तौर पर सीमा कपूर ने फिल्म में लव जेहाद, शौचालय सहित बहुत कुछ पिरो दिया है. पर कुछ भी दर्शक के दिमाग तक नहीं पहुंचता. फिल्म मनोरंजक होने की बजाय बोर ही करती है. लेखक व निर्देशक के तौर पर सीमा कपूर निराश करती है.
जहां तक अभिनय का सवाल है, तो हास्य में माहिर कलाकार अन्नू कपूर ने काफी लाउड अभिनय किया है, जो कि मजा किरकिरा करता है. ऐसा लगता है कि बहन सीमा कपूर के संग रिश्ता निभाने के लिए अन्नू कपूर ने इस फिल्म में काम किया है. सरिका व विनय पाठक बंधक बनाए हुए लगते हैं. ओम पुरी कुछ हद तक प्रभावित करते हैं. इसके अलावा किसी भी कलाकार का अभिनय प्रभावित नहीं करता.
फिल्म में शौचालय के उद्घाटन समारोह में अनूप जलोटा का भजन भी असरदार नहीं है. पर एक शायरी ‘आंखों पर कभी न बांधो पट्टियां, ओ जाने वालों खुले में कभी ना जाओ टट्टियां..’’ से खुले में शौच न जाने की सलाह जरूर दी गयी है. फिल्म का संगीत पक्ष भी अति साधारण है.
कुल मिलाकर ‘मि. कबाड़ी’ ऐसी फिल्म है, जिसके लिए समय व धन बर्बाद करना मूर्खता ही कहलाएगी. ‘अनूप जलोटा फिल्मस’ और ‘ओम छानगानी फिल्मस’ एंड साधना टीवी के बैनर तले बनी फिल्म ‘मि. कबाड़ी’ के निर्माता अनूप जलोटा, सह निर्माता राकेश गुप्ता व ओम छानगानी, लेखक निर्देशक सीमा कपूर तथा कलाकार हैं- स्व. ओम पुरी, अन्नू कपूर, सारिका, विनय पाठक, ब्रजेंद्र काला, उल्का गुप्ता, राजवीर सिंह, कशिश वोरा व अन्य.