पुरस्कृत फिल्म ‘तारे जमीन पर’ के लेखक तथा ‘स्टेनली का डिब्बा’ और ‘हवा हवाई’ जैसी उत्कृष्ट फिल्मों के सर्जक अमोल गुप्ते इस बार बाल जासूस फिल्म ‘‘स्निफ’’ लेकर आए हैं, जो कि बहुत निराश करती है.
‘‘हर बच्चे में कोई न कोई काबीलियत होती है.’’ इस मूल मुद्दे के साथ बाल जासूस वाली फिल्म ‘स्निफ’ देखकर मन में एक ही सवाल उठता है कि क्या इस फिल्म के सर्जक वही अमोल गुप्ते हैं, जिन्हें फिल्म ‘‘तारे जमीन पर’’जैसी फिल्म के लेखन के लिए कई पुरस्कार मिले थे? क्या ‘स्निफ’ के लेखक व निर्देशक वही अमोल गुप्ते हैं, जो अतीत में ‘‘स्टेनली का डिब्बा’’ और ‘‘हवा हवाई’’ जैसी फिल्म का सृजन कर चुके हैं.
फिल्म की कहानी मुंबई की एक कास्मोपोलीटीन इमारत की है, जिसमें हर प्रांत, हर भाषा के लोग रहते हैं. इसी इमारत में एक सरदार परिवार रहता है, जिनका अचार का व्यापार है. उनका बेटा सनी (खुशमीत गिल) अभी तीसरी कक्षा का छात्र है. मगर सनी की दादी (सुरेखा सीकरी) परेशान है कि सनी कुछ भी सूंघ नहीं पाता. यहां तक कि डाक्टर भी कह देते हैं कि सनी की नाक में एक ऐसी व्याधि है, जिसके चलते वह कुछ भी सूंघ नहीं सकता. पर अचानक एक दिन स्कूल की लैबोरेटरी में दो रासायनिक पदार्थों के मिश्रण से एक गैस निकलती है,जो कि सनी की नाक में चली जाती है. सनी को जोर की छींक आती है और फिर उसे अद्भुत चमत्कारिक सूंघने की शक्ति मिल जाती है. वह दो किलोमीटर दूर तक सूंघ सकता है. एक दिन इस इमारत के निवासी कुमार (राजेश पुरी) की कार चोरी हो जाती है. कार को ढूढ़ने के प्रयास में पुलिस लगी हुई है. पर सनी अपने तरीके से प्रयास करता है. अंततः कुमार की कार वापस मिल जाती है.
बौलीवुड में फिल्म ‘‘स्निफ’’ के निर्देशक अमोल गुप्ते की गिनती श्रेष्ठ बाल फिल्मकार के रूप में होती है. मगर‘स्निफ’ में वह बुरी तरह से विफल हुए हैं. अनूठी विषयवस्तु के बावजूद पटकथा की तमाम गड़बड़ियों के चलते फिल्म स्तर हीन हो जाती है. अफसोस की बात यह है कि बालक सनी न सुपर हीरो और न ही एक जासूस/डिटेक्टिव के रूप में उभर पाता है. इतना ही नहीं फिल्म के एक भी किरदार का सही ढंग से चित्रण ही नहीं हुआ. सभी किरदार बंगाली या महाराष्ट्यिन या सिंधी या गुजराती समुदाय के लोगों के कैरीकेचर मात्र हैं. फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो दर्शक के दिमाग में याद रह जाए. ‘स्निफ’ ऐसी फिल्म है, जिसे न देखने का अफसोस नहीं हो सकता.