‘‘यशराज फिल्मस’’ की फिल्म ‘‘इश्कजादे’’ से करियर शुरू करने वाले अर्जुन कपूर अब तक आठ नौ फिल्में कर चुके हैं. वह हर बार अलग निर्देशक व अलग हीरोईन के साथ ही नजर आते हैं. मगर प्रसिद्ध उपन्यासकार चेतन भगत के साथ उनका जुड़ाव हो चुका है. चेतन भगत के उपन्यास ‘‘टू स्टेट्स’’ पर बनी फिल्म में अभिनय करने के बाद अब अर्जुन कपूर अब चेतन भगत के ही उपन्यास ‘‘हाफ गर्लफ्रेंड’’ पर बनी इसी नाम की फिल्म में श्रद्धा कपूर के साथ नजर आएंगे. मोहित सूरी निर्देशित यह फिल्म 19 मई को प्रदर्शित होगी.

आपके अनुसार फिल्म ‘‘हाफ गर्लफ्रेंड’’ क्या है?

चेतन भगत के उपन्यास पर आधारित यह फिल्म यूं तो एक प्रेम कहानी वाली फिल्म है. मगर इसमें भाषा का टकराव भी है. इस टकराव ने इंसानो को कई तरीकों से जकड़ कर रखा हुआ है. इमोशन के माध्यम से वह निकल कर चर्चा शुरू हो, तो बहुत अच्छी बात होगी. इस तरह का कंफलिक्ट अब तक सिनेमा में आया नहीं है. जबकि कम से कम भारत में तो यह कंफलिक्ट सदियों से चला आ रहा है.

क्या ‘‘हाफ गर्लफ्रेंड’’ में इस कंफलिक्ट की वजहों पर भी बात की गयी है?

सच कहूं तो इस फिल्म की पटकथा को पढ़ने से पहले मैंने भाषा के मुद्दे पर कभी भी गंभीरता से नहीं सोचा था. मेरी परवरिश बड़े शहर में, बड़े व अमीर घर में हुई है. हमारा उठना बैठना एक तरीके से हुआ. हम अपने घर में अंग्रेजी ज्यादा और हिंदी कम बोलते हैं. मैं अपने आपको खुश किस्मम समझता हूं कि मेरी हिंदी अच्छी है और यह मेरे घर के माहौल के चलते ही संभव हो पाया.

कलाकार बनने के बाद तो मैंने यह तय कर लिया कि हिंदी अच्छी होनी ही चाहिए. इसलिए मैं ज्यादा से ज्यादा हिंदी भाषा में बात करता हूं. हिंदी पत्र पत्रिकाएं पढ़ता हूं. टीवी पर हिंदी समाचार वाले चैनल देखता हूं. पर ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि भाषा की वजह से लोगों की जिंदगी में किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इस फिल्म में अभिनय करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश के दो हिस्से हैं- एक ‘भारत’ और एक ‘इंडिया’. भाषा की वजह से कुछ बंटवारा हो जाता है.

इस फिल्म में अभिनय करने के बाद आपकी सोच में क्या बदलाव आया?

मेरी सोच यह बदली कि बिहार को लेकर हमारे दिमाग में कुछ चीजें भरी हुई हैं, जो कि गलत है. मैं तो मुंबई में रहता हूं, बिहार के गांवों में क्या होता है, वह मुझे पता नहीं. उनकी कठिनाईयों की मैं चाहकर भी अंदाजा नहीं लगा सकता. अब बिहार को लेकर मेरी थॉट प्रोसेस काफी बदल चुका है.

बिहार को जिस समस्या ने जकड़ कर रखा है, उसे मैं कुछ हद तक समझ पाया हूं. बिहार में समझदारों की कमी नहीं है, मगर भाषा की वजह से लोग उन्हें महत्व नही देते. वहां पर हिंदी में पढ़ाई ज्यादा होती है. जबकि आप नालंदा विश्वविद्यालय से लेकर देखें, तो बिहार की शिक्षा उच्च स्तर की है. वहां शिक्षा की समस्या नहीं है. देखिए ज्यादातर आईएएस वहां से निकलते हैं.

मैं कुछ हद तक वहां की समस्या समझ पाया हूं, पर उसका हल मेरी समझ में नहीं आ रहा. पर यह समझा कि बिहार की जो ईमेज बनी है, वह क्यों बनी है, जिसे तोड़ना बहुत जरुरी है. कई बार हम सिनेमा के माध्यम से जो किरदार देखते हैं, हम उन्हें ही सच मानने लगते हैं, मुझे लगता है कि हमारी फिल्म के बाद वह सोच की धारा बदलेगी.

मुझे तो यह भी याद नहीं कि किस फिल्म में बिहार के गांव के पात्र को फिल्म का मुख्य किरदार बनाया है. जबकि हमारी फिल्म का किरदार बिहार के गांव का है. दूसरी बात मैं समझ पाया कि भाषा से कितना कुछ बदल जाता है. वह कुछ कहना चाहता है, पर उसके दिमाग में भय बैठा दिया गया है कि अंग्रेजी में बात नहीं करोगे, तो तुम्हें कोई गंभीरता से नहीं लेगा. इसी तरह रिश्ते में समस्याएं आती हैं.

कई बार होता है कि लड़के व लड़की के बीच कोई इक्वेशन है, मगर भाषाएं अलग होने की वजह से वह दोनों सही तरह से अपनी बात सामने वाले से कह नहीं पाते. भाषा एक बाधा बन जाती है. जबकि प्यार में भाषा की बाधा नहीं आनी चाहिए.

क्या बॉलीवुड में भाषा की समस्या नहीं है?

अब बॉलीवुड में देवनागरी में पटकथा लिखी जाने लगी है. रोमन में लिखी जाने लगी है. मैं हमेशा मानता हूं कि पटकथा चाहे हिंदी में हो या अंग्रेजी में हो या रोमन में, मगर उसका उच्चारण सही होना चाहिए. अंग्रेजी के चक्कर में हमारी हिंदी की स्पष्टता कम होती जा रही है. कैमरे के पीछे आज की नयी पीढ़ी अंग्रेजी में ही बात करती है. अंग्रेजी में ही चर्चा करते हैं. सोशल मीडिया भी अंग्रेजी में काम करता है. दुर्भाग्यवश हमारा उठना बैठना अंग्रेजी माहौल में ही होता है. इस तरह कहीं न कहीं हम सभी पर पष्चिमी प्रभाव है. लेकिन हम कैमरे के सामने शुद्ध हिंदी बोलना जरुरी मानते हैं.

लेकिन कैमरे के पीछे जब आप अंग्रेजी अंग्रेजी करते रहते हैं. तो उसका प्रभाव कैमरे के सामने जाने पर नहीं पड़ता?

मैं ऐसा नहीं होने देता. अन्यथा आप लोग पकड़ लेते. आपसे पहले कैमरा पकड़ लेता. मेरी पूरी कोशिश रहती है कि कैमरे के सामने साफ जबान में बात करुं. कोई कलाकार मातृभाषा या हिंदी बोलने में सहज है या नहीं, यह फिल्म देखते देखते साफ साफ पता चल जाता है. यदि कैमरे के सामने पष्चिमी प्रभाव का असर किसी कलाकार पर पड़ता है, तो गलत है. मैंने अपने उपर कभी भी पष्चिमी प्रभाव को हावी नहीं होने दिया.

आपको चेतन भगत के लेखन में क्या खास पसंद आया?

मैं कहना चाहूंगा कि चेतन भगत जो किरदार या कहानी लिखते हैं, उसमें आवाम की रिलेटीबिलिटी होती है. लोग उनकी किताब के किरदारों व कहानी के साथ रिलेट करते हैं. खासकर मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी. मैं उनकी कोई भी कहानी संक्षेप में आपको सुनाउं, तो आप यह जरुर कहेंगें कि ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ है अथवा मेरे किसी मित्र या मेरे एक पड़ोसी ने ऐसा कुछ वाक्या सुनाया था. उनकी कहानियों में रिश्तों को लेकर अपनापन होता है, जिससे लोग खुद ब खुद उसके साथ जुड़ जाते हैं. मैं तो पढ़कर समझ सकता हूं कि इन किरदारों के साथ क्या बीती और कलाकार काम तो इसीलिए करता है कि वह खुद किरदार के साथ कनेक्ट कर सके. जब कलाकार को ऐसी सामग्री मिल जाती है, तो यह उसके लिए सोने पे सुहागा हो जाता है. ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ में ऐसा ही कुछ रहा, जिससे मेरा जुड़ाव हो गया.

चेतन भगत से आपकी क्या क्या बातें हुई?

मैंने पहली बार चेतन भगत के उपन्यास ‘टू स्टेट्स’ पर बनी फिल्म में अभिनय किया था. उस वक्त उनसे हमारी एक दो बार बात हुई थी. पर अब जब मैंने उनके दूसरे उपन्यास ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ पर यह फिल्म की है, तो उनके साथ मेरी बहुत चर्चा हुई. क्योंकि वह इस फिल्म के निर्माता भी हैं.

चेतन की आदत है कि वह आपके साथ बैठेंगे, तो आपको कुरेंदेगे और आपके संबंध में सब कुछ जानना चाहते हैं. क्योंकि वह हमारे या आपकी जिंदगी से प्रेरणा लेकर कहानी या किरदार लिखते हैं. वह जिसके साथ भी बैठते हैं, सभी के साथ बात करते हैं. वह हर किसी को परखने की कोशिश करते हैं. हर किसी की जिंदगी में घुसने की कोशिश करते हैं. फिर वह उसे अपनी अपनी कहानी का हिस्सा बनाते हैं. वह इमोशन के साथ लोगों से जुड़ी हुई कहानियों को मिश्रित कर किरदार व कहानियां गढ़ते हैं.

शिक्षा की हर जगह व हर किसी को जरूरत है. उन्होंने शिक्षा और प्यार दोनों की मिलावट बहुत अच्छे ढंग से की है. इस कहानी में उन्होंने हर बच्चे की इस कमजोरी को पकड़ा है कि हर बच्चे के लिए अच्छे कॉलेज में पढ़ने जाना महत्व रखता है. फिर कॉलेज में प्यार के चक्कर भी चलते हैं. उसमें लड़का हो या लड़की दोनों बर्बाद भी होते हैं. फिर चाहे वह तीन माह के लिए हो या तीन साल के लिए. पर इस तरह के पड़ाव आते हैं. उन्होंने इन दोनों चीजों का जो मिश्रण किया है, वह काबिले तारीफ है. चेतन भगत ने सिनेमा का जो असली दर्शक हैं यानी कि मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी को बहुत बारीकी से समझ गए हैं.

फिल्म ‘‘हाफ गर्लफ्रेंड’’ के अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगे?

मैंने बक्सर, बिहार के रहने वाले युवक माधव झा का किरदार निभाया है. जो कि समझदार, ईमानदार, मेहनती और संजीदा इंसान है. उसने अपने गांव का विकास करने का तोड़ निकाल लिया है. उसे पता है कि उसकी अंग्रेजी कमजोर है, इसलिए वह राज्य स्तर व राष्ट्रीय स्तर पर बास्केटबॉल खेलता है, जिसके चलते स्पोर्ट्स कोटा में वह दिल्ली के किसी अच्छे विश्वविद्यालय में एडमीशन पा ले, जिससे वह ऐसी पढ़ाई पढ़ सके, जिसकी मदद से वह अपने गांव का भला कर सके. वह सोसियोलॉजी पढ़ना चाहता है. अब दिल्ली पहुंचने पर जाने अनजाने रिया सोमानी के साथ उसका रिश्ता कायम हो जाता है. उसके बाद माधव झा की जिंदगी की यात्रा है. फिल्म देखेंगे तो समझ में आएगा कि माधव झा की हाफ गर्ल फ्रेंड कौन और क्यों है.

आपके निजी जीवन की हाफ गर्लफ्रेंड कौन है?

यह ऐसा रिश्ता होता है जिसमें भावनाएं नहीं जुड़ी होती हैं. कॉलेज में पढ़ाई के दौरान तीन माह या साल भर के लिए इस तरह के कुछ रिश्ते बनते हैं. पर तब हम अभिनय करियर को संवारने में लगे हुए हैं.

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