15 वर्ष के संघर्ष के बाद जब नवाजुद्दीन सिद्दिकी को सफलता नसीब हुई, तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि हर फिल्म में उनके अभिनय के नए रंग नजर आएंगे. पर अब नवाजुद्दीन सिद्दिकी को भारतीय फिल्म आलोचकों व दर्शकों से शिकायते हैं. नवाजुद्दीन सिद्दिकी के अनुसार विदेशों में उनकी तुलना महान कलाकारों के साथ की जाती है, जबकि भारतीय फिल्म आलोचक उनकी बैंड बजाते रहते हैं. फिलहाल वह फिल्म ‘‘मंटो’’ को लेकर चर्चा में हैं, जिसमें उन्होंने एक रुपया पारिश्रमिक राशि लेकर शीर्ष भूमिका निभायी है.

प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के अंश..

फिल्म ‘‘जीनियस’’ करने का आपका निर्णय कितना सही रहा?

बहुत सही निर्णय रहा. मैंने यह फिल्म देखी भी है. मैं यह भी मानता हूं कि फिल्म को बाक्स आफिस पर सफलता नहीं मिली. मैं जानता हूं कि यह फिल्म बहुत बड़ी असफल फिल्म है. पर इसके यह मायने नहीं हैं कि यह खराब फिल्म हो गयी. जो हिट हो जाती है, वह अच्छी फिल्म हो जाती है. मैं यह कह सकता हूं कि फिल्म ‘जीनियस’ असफल है. पर मैंने अपना काम इमानदारी से किया. अब लोगों को फिल्म पसंद नहीं आयी, तो यह उनकी पसंद की बात है या कुछ पत्रकारों को पसंद नहीं आयी, तो यह उनका मसला है. कुछ पत्रकारों को फिल्मों की बैंड बजाने में ही मजा आता है.

पर दर्शकों को भी यह फिल्म पसंद नहीं आयी?

देखिए, मैं अपने काम की बात कर रहा हूं. दर्शकों को यह फिल्म पसंद नहीं आयी, ठीक है. उन्होंने फिल्म को अस्वीकार कर दिया, यह भी अच्छी बात है. पर मुझे किरदार पसंद आया, मैंने पूरी ईमानदारी के साथ किरदार को निभाया. अपने काम को ईमानदारी व लगन से अंजाम दिया. मेरे काम को लेकर दर्शक खुलकर अपनी राय दें. पत्रकारों को तो मेरा काम भी नहीं पसंद आया होगा. पर दर्शकों को मेरा काम बहुत पसंद आया.

आपके काम को लेकर कहा गया कि कुछ दृश्यों में निर्देशक ने आपसे मिमिक्री करवा ली?

नहीं..नहीं…मैंने कोई मिमिक्री नहीं की. यहां कौन सा थिएटर का शिक्षक बैठा है, जो मेरे अभिनय में गलती निकालेगा. मेरे अभिनय में गलती निकालने वाले पत्रकार को सबसे पहले पांच साल की ट्रेनिंग लेकर आना चाहिए. मैने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पांच साल अभिनय की ट्रेनिंग हासिल की है. हर पत्रकार को किसी के भी बारे में बोलने से पहले सोचना चाहिए कि आप किस निर्देशक के बारे में बात कर रहे हैं. ‘जीनियस’के निर्देशक अनिल शर्मा ने कई बेहतरीन व सफल फिल्में दी हैं. एक फिल्म असफल हो गयी, तो वह खराब निर्देशक हो गया. सभी उनकी गलती निकालने लगे. आप भूल गए कि उसने कितनी बड़ी बड़ी सफल फिल्में दी हैं. मैं मानता हूं कि दर्शकों को ‘जीनियस’ पसंद नहीं आयी. कोई बात नहीं. ऐसा अक्सर हो जाता है. पर इसके मायने यह नहीं कि निर्देशक खराब हो गया.

पर यह फिल्म दर्शकों को क्यों नहीं पसंद आयी?

दर्शकों को तो वह फिल्में भी पसंद आती हैं, जो कि गुड़ गोबर होती हैं. कितनी घटिया फिल्मों को दर्शकों ने हिट कराया है. दर्शकों की पसंद को कोई नहीं जान पाया. यदि मैं दर्शकों की पसंद को समझ जाता, तो मेरी हर फिल्म हिट होती.

मैं आपको यहां बताना चाहूंगा कि मैंने ‘जीनियस’ में बहुत अच्छी परफार्मेंस दी है. मै रियालिस्टिक फिल्मों में भी उतनी बेहतरीन परफार्मेस नहीं दे पाता, जितनी बेहतरीन परफार्मेंस मैंने ‘जीनियस’ में दी है. वह असफल हो गयी, तो आपको उसमें भी गलती दिखने लगी. आज कल जो पत्रकार खुद को फिल्म आलोचक मानते हैं, उनमें से चंद को आप छोड़ दें, तो यह सारे बौलीवुड में कुछ और करने आए हैं. कुछ अच्छे भी हैं. पर आजकल यह जो फिल्मों की बैंड बजाते हैं, वह सिनेमा को खत्म कर रहे हैं. आप मेरी बात पर यकीन कीजिए.

‘नेटफ्लिक्स’ पर वेब सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ को दर्शकों ने काफी पसंद किया. भारत ही नहीं पूरे विश्व में इसे काफी पसंद किया गया. मेरे पास तमाम बधाई के संदेश आए. मगर हमारे देश के कितने फिल्म आलोचकों ने ‘सेक्रेड गेम्स’को लेकर अच्छा लिखा. इसके बावजूद दर्शकों ने इसे सफल बनाया. हमारे यहां के अलोचकों के दिमाग में रचनात्मकता की बजाय नकारात्मकता आ चुकी है. यह तो सिनेमा को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं. छोटी फिल्मों को तो यह बिलकुल सपोर्ट नहीं करते. मैं एकदम सच कह रहा हूं, हमारे यह फिल्म आलोचक सिनेमा को मार रहे हैं.

तो आप फ्रंट न्यूडिटी के दृश्यों को जायज मानते हैं?

देखिए, फ्रंट न्यूडिटी के दृश्य हैं. पर इसकी वजह भी इसमें बतायी गयी है. हम सभी पाखंडी हैं. हमारे समाज में यह सब होता है. ‘मंटो’ आज के समाज पर एकदम सटीक है. उन्होंने समाज के पाखंड को बहुत अच्छे तरीके से एक्सपोज किया है. यह जो व्हाइट कौलर वाले बनकर बैठे हैं, यह सब रंडी हाउस में जाते थे और वहां सब कुछ करके आते थे. ‘मंटो’ ने वही तो लिखा है. हमारा समाज बहुत ही ज्यादा हिप्पोक्रेट है. करते सब वही हैं, मगर हम फिल्म वालों पर दोषारोपण करते हैं कि इससे समाज पर गलत असर पड़ता है. ऐसा फिल्मों में नहीं दिखाया जाना चाहिए. यह सब वही करते हैं जो कि व्हाइट कौलर हैं. मंटो ने ऐसे लोगों की बैंड बजायी है.

मंटोकी किस बात ने आपको इंस्पायर किया?

‘मंटो’ने एकदम बेरोटोक सच लिखा है. समाज उन्हें व उनके लेखन को झेल नही पाया. मंटो ने अपने जीवन में सिर्फ सच लिखा. जो देखा, वही लिखा.

आपने मंटो के किरदार को निभाया और निभाने से पहले मंटो को काफी पढ़ा. तो मंटो का आपके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?

मुझ पर असर यह हुआ कि मैंने आज तक ऐसा निडर व निष्पक्ष लेखक नहीं देखा. आज कल के सभी लेखक मीडियोकर, समझौता वादी लेखन कर रहे हैं. आज कल के लेखकों का कोई आब्जर्वेशन नहीं है. मंटो का आब्जर्वेशन कमाल का था. 1940 में भी उनके अंदर साहस व निडरता थी. उस वक्त समाज ने देश ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था. मगर आज सभी मंटो को पढ़ना चाहते हैं. मंटो पर फिल्में बन रही हैं. मंटो की कहानियों पर नाटक हो रहे हैं. जो अपने समय से आगे होता है, उसकी कद्र नहीं होती. मंटो की भी उस वक्त कद्र नहीं हुई थी.

लोग मंटो के लेखन की तारीफ कर रहे हैं. लोग उन्हें पढ़ना चाहते है. पर आज का लेखक मंटो जैसा लेखक क्यों नही बन पा रहा है?

हमारा आज का समाज किसी भी लेखक को मंटो जैसा लेखक बनने नहीं दे रहा है. समाज में इतना भ्रष्टाचार व पाखंड है कि हम समझ नहीं पाते हैं. अब समाज में सच को सुनने का माद्दा किसी में नहीं रहा. परिणामतः हर लेखक समझौतावादी लेखन ही कर रहा है. जैसा कि मैंने पहले कहा कि आज का दर्शक गुड़गोबर वाली फिल्मों को सफल बना रहा है. सिनेमाघर से निकलते समय कहता है कि बहुत घटिया फिल्म है. अरे भाई, तू ऐसी फिल्म देखने क्यों गया था, जिसे देखने के बाद उसकी बुराई कर रहा है. पर तूने फिल्म देखकर उसका बिजनेस तो बढ़ा दिया. ऐसे ही दर्शक गुड़ गोबर वाली फिल्मों को हिट करवा देते हैं. ईमानदारी से कह रहा हूं, मैं इस तरह के दर्शकों का हिस्सा नहीं बनना चाहता. मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म को दस लोग देखें, पर वह समझदार व संजीदा हों. मैं मूर्ख दर्शकों के लिए गुड़गोबर वाली फिल्म नही करना चाहता. हमारे देश में तमाम संजीदा लोग हैं, जो कि हमारे जैसे संजीदा कलाकार की संजीदा फिल्म देखना चाहते हैं. यदि इस तरह के दर्शक ना होते, तो वेब सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ को सफलता ना मिलती.

‘‘सेक्रेड गेम्स’’को देखकर लोगों ने क्या कहा?

लगभग हर दर्शक को लगा कि इसमें एक सच्चाई बयां की गयी है. यह वेबसीरीज विश्वसनीय नजर आयी. कुछ पत्रकारों ने चर्चा की कि इसमें न्यूडीटी है. अश्लीलता है. जबकि हर दर्शक ने इसके न्यूडीटी की नहीं कंटेंट की चर्चा की. 1984 में शेखर कपूर की फिल्म ‘‘बैंडिट क्वीन’’ आयी थी. उस फिल्म में कम अश्लीलता/न्यूडीटी थी, पर किसी ने भी इस फिल्म को देखकर न्यूडीटी की चर्चा नहीं की थी. जबकि इसमें घर से कुएं तक एकदम नग्न अवस्था में वह महिला जाती है. पर फिल्म देखकर किसी ने भी अश्लीलता या नंगेपन की चर्चा नहीं की. यह निर्देशक और कंटेंट का कमाल है. जबकि कुछ फिल्मों में जब हीरोइन टांगे फैलाकर नृत्य करती हैं, तो उसमें अश्लीलता नजर आती है. क्योंकि वहां निर्देशक का मकसद ही अश्लीलता दिखाना है. मैं इसके सख्त खिलाफ हूं.

आपको लगता है कि यदि लेखक समझौतावादी ना हो तो समाज व सिनेमा में तेजी से बदलाव आएगा?

देखिए, हर तरह का युग आता व जाता है. हर वक्त अलग होता है. मसलन, अगर अनुराग कश्यप जैसा निर्देशक हो, तो सिनेमा कहीं से कहीं चला जाएगा. मैं अनुराग कश्यप का नाम उदाहरण के रूप में ले रहा हूं. बौलीवुड में पांच अच्छे निर्देशक हैं, पर हमें उनके जैसे 20 निर्देशक चाहिए. तब सिनेमा सुधरेगा. सिर्फ एक अच्छे लेखक या एक अच्छे निर्देशक से सिनेमा नहीं बदलेगा. उदरहण के तौर पर रेनेंसा टाइम ले, 15 सदी में, उस युग में मार्किंग एंजीलो लीना दोवेंची, शेक्सपियर सहित कई महान हस्तियां पैदा हुई. तो उस काल में सिर्फ लेखक ही नहीं, आर्कीटेक्चर सहित हर क्षेत्र में पूरे विश्व में महान इंसान निकल रहे थे. साहित्य, थिएटर पेंटिंग हर क्षेत्र में तमाम महान हस्तियां पैदा हुई थीं. कहानी हो या उपन्यास हो एक से एक विद्वान निकल रहा था. उसी दौरान सर्वश्रेष्ठ भवन बने. सर्वश्रेष्ठ पेंटिग्स बनीं. तो यह युग की बात होती है. कोई युग ऐसा होता है, जहां सिर्फ विद्वान ही विद्वान पैदा होता है. आज का युग एकदम अलग है. आज के युग में कोई सच बोलना चाहे, तो उसकी बैंड बजा दी जाती है. एक दौर होता है, जहां हमाम में सब नंगे होते हैं.

आपने भी तो अपनी किताब में सच लिखा था?

समाज ने सच को दबा दिया. हमारा समाज पाखंड की नींव पर खड़ा हुआ है. अब इसी समाज का हिस्सा आप और हम सभी हैं. तो हमें भी समझौतावादी होना पड़ता है. हम अपने आपको कोई तुर्रमखां नहीं मानते, हम भी वही हैं, सर..

यानी कि मंटो ने आपकी जिंदगी पर असर डाला. आपने सच लिखा पर आपको उसे वापस लेना पड़ा?

सर सबकुछ आपके सामने है आज का समाज हमें बहुत कुछ करने पर मजबूर कर देता है. मैंने अपनी किताब निकाली आप यानी समाज ने विद्रोह किया, तो मुझे अपनी किताब वापस लेनी पड़ी.

इसके मतलब, समाज से उठे विरोध से हम डर जाते हैं?

जी हां! ऐसा ही है. हम सभी कहीं न कहीं किसी न किसी मुकाम पर डर जाते हैं. इसलिए समझौता करते हैं.

अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में मंटो को बहुत सराहा गया. वहां किस तरह की प्रतिक्रिया मिली?

वहां पर तो फिल्म‘मंटो’में मेरे अभिनय की तुलना हौलीवुड रिपोर्टर ने इटालियन अभिनेता मार्सेलो मास्ट्रोयानी से की. अब आप सोचिए, जहां सिनेमा सबसे ज्यादा समझा जाता है, फ्रांस जहां सिनेमा पैदा हुआ, वहां मुझे बहुत सम्मान मिला. पर जब वही सिनेमा हम भारत में प्रदर्शित करते हैं, तो हमारी बैंड बजा दी जाती है.

पर यह जरूरी नहीं कि ऐसा आपकी फिल्ममंटोके साथ भी हो?

भारत में कुछ भी हो सकता है. हौलीवुड रिपोर्टर ने मेरी फिल्म ‘‘रामन राघव 2’’ में मेरे अभिनय की तुलना एंथौनी हमील्टन से की थी. हौलीवुड रिपोर्टर ने लिखा था कि इस अभिनेता से नवाजुद्दीन किसी भी मामले में कमतर नहीं हैं. मैं मनगढंत बात नहीं कह रहा हूं. हौलीवुड रिपोर्टर ने यह बात लिखी हुई है, कोई भी पढ़ सकता है. लेकिन जब भारत में ‘रामन राघव 2’ रिलीज हुई, तो एक दो फिल्म आलोचकों को छोड़कर सभी ने मेरी बैंड बजा दी.

फ्रांस या इटली और भारत के लोगों की संजीदगी में भी तो अंतर हो सकता है?

देखिए, सिनेमा की संजीदगी युनिवर्सल है. सिनेमा की कोई सीमा नहीं होती. सिनेमा की कोई भाषा नहीं होती. विश्व में यदि कोई अच्छा सिनेमा है, तो उसे अमरीकन भी पसंद करता है और हम भारतीय भी पसंद करते हैं. अच्छा सिनेमा हमेशा युनिवर्सल होता है. सिनेमा को इंसान की संजीदगी से तुलना करना गलत है.

आप रजनीकांत के साथ फिल्म पेट्टाकर रहे हैं?

जी हां! मैंने इस फिल्म के लिए 15 दिन चेन्नई में रजनीकांत सर के साथ शूटिंग भी कर ली है. उनके साथ मेरी लंबी चौड़ी बातचीत भी हुई. उनके साथ काम करते हुए मैंने समझा कि वह दुनिया के सबसे बड़े कलाकार हैं. पूरे विश्व में उनके जितने प्रशंसक किसी के नहीं हैं. वह मेगा स्टार हैं. लोग उनके पीछे दीवाने हैं. लेकिन जब आप उससे मिलते हैं, तो वह आपको अहसास करा देते हैं कि वह भी आपके जैसे दूसरे इंसान हैं. वह बहुत ही साधारण इंसान हैं.

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