रेटिंगः एक स्टार
निर्माताः संजय सिंघाला,प्रीति विजय जाजू,धवल जयंतीलाल गाड़ा
निर्देशकः अमजद खान
कलाकारः रीम शेख, ओम पुरी, आरिफ जाकरिया, अतुल कुलकर्णी,दिव्या दत्ता और अभिमन्यू सिंह
अवधिः दो घंटे, बारह मिनट
नोबल पुरस्कार से सम्मानित पाकिस्तानी लड़की मलाला युसुफजई की बायोपिक फिल्म के नाम पर फिल्म निर्देशक अमजद खान एक एजेंडे वाली फिल्म गुल मकई लेकर आए हैं, जिसमें उन्होंने यह साबित करने की पुरजोर कोशिश की है कि पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तान की आईएसआई एजेंसी पूरी ताकत के साथ आतंकवादियों का सफाया करने में जुटी हुई है.
कहानीः
फिल्म की कहानी के केंद्र में 2008 से 2009 तक का पाकिस्तान का स्वात इलाका, तालिबानी आतंकवाद, मलाला युसुफजई तथा उनके पिता जियाउद्दीन के इर्द गिर्द घूमती है. फिल्म शुरू होती है तालिबानी आतंकियों के जुल्मों के चित्रण से. उधर जियाउद्दीन (अतुल कुलकर्णी) पाकिस्तान के स्वात इलाके में खुशाल हाई स्कूल नामक एक अंग्रेजी माध्यम का स्कूल चला रहे हैं, जिसके वह प्रधानाध्यापक भी है. इस स्कूल में लड़के व लड़कियां दोनों पढ़ते हैं और इसी स्कूल में उनका बेटा अटल व बेटी मलाला (रीम शेख) भी पढ़ती है. तालिबानियों के जुल्म, लड़कियों की शिक्षा के खिलाफ नित नए नए आदेशों का असर खुशाल स्कूल पर भी पड़ता है. स्कूल की तरफ से लड़कियों की पोशाक बदली जाती है. उधर तालिबानी आए दिन निर्दोष लोगों की हत्या कर रहे हैं. जियाउद्दीन शांति कमेटी के माध्यम से एक मुहिम चलाते हैं. पाकिस्तानी सेना भी तालिबानियों के खात्मे में जुटी है. इसी बीच प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो मारी जाती हैं. जरदारी प्रधानमंत्री बन जाते हैं. बीबीसी और जियो टीवी तालीबानियों की हर हरकत को लोगों तक पहुंचाने में जुटे हैं.पाकिस्तानी सेना और आई एस आई अपने काम में लगी हुई है. जियाउद्दीन भी तालिबानियों के खिलाफ इंटरव्यू देकर तालिबानियों के निशाने पर आ जाते हैं. उधर बीबीसी के लिए मलाला अपनी पहचान छिपाकर गुल मकाई के नाम से तालिबानियों के खिलाफ ब्लॉग लिखने लगती हैं और जल्द ही चर्चा में आ जाती हैं. पर पहचान छिप नहीं पाती. एक दिन तालिबानी अपने एक आतंकी को भेजकर स्कूल बस के अंदर ही मलाला पर गोली चलवा देते हैं. मलाला का इलाज पेशावर के सैनिक अस्पताल में होता है और फिर उन्हें नोबल पुरस्कार से नवाजा जाता है.
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लेखन व निर्देशनः
फिल्म की पटकथा अति बचकानी और निर्देशन भी अति बचकाना है. फिल्म में मलाला के व्यक्तित्व को लेकर फिल्म बहुत कुछ नहीं कहती. बल्कि मलाला को एक डरपोक, बुरे-बुरे सपने देखकर डरने वाली लड़की के रूप में ही ज्यादा पेश करती है. कहने का अर्थ यह कि मलाला की पूरी सही तस्वीर उभरती ही नही है. मलाला के व्यक्तित्व, उसके कृतित्व पर यह फिल्म रोशनी डालने में बुरी तरह से विफल रही है, पर कुरान को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी गयी है.
लेखन व निर्देशन की कमजोरियों के चलते मलाला बहादुर और मुखर किशोरी की बजाय, धार्मिक कट्टरवाद के खिलाफ लड़ाई में पोस्टर बनकर रह जाती है. लेखक व निर्देशक उन बारीकियों को भी रेखांकित करने में विफल रहे,जिसके चलते उस पर तालीबान ने जानलेवा हमला किया. फिल्म में सिर्फ गोली व खून-खराबा ही ज्यादा दिखाया गया है. निर्देशक का सारा ध्यान तालिबान के अत्याचार और उनके सफाए में जुटी पाकिस्तानी सेना व आईएसआई को महिमामंडित करने में ही ज्यादा नजर आता है. फिल्म देखते हुए कई झटके लगते हैं, जिससे पता चलता है कि फिल्म लंबे समय में रुक-रुक कर बनायी गयी है और एडिटर की गलतियों के चलते कई बार कोई सीन कैसे आ गया, यह समझ में नही आता. तालिबान के अड्डे पर कुछ लोग गोली चला रहे हैं, तो उनके पीछे कुछ लोग कराटे करते नजर आ जाते हैं.
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अभिनयः
जहां तक अभिनय का सवाल है तो मलाला के पिता जियाउद्दीन के किरदार में अतुल कुलकर्णी ने बड़ा सधा हुआ अभिनय किया है. पटकथा लेखक की कमजोरी के चलते मलाला के किरदार में रीम शेख की मेहनत जाया हो गयी. अन्य कलाकार प्रभावित नहीं करते. दिव्या दत्ता सहित कई कलाकारों की प्रतिभा को जाया किया गया है.