रेटिंगः पांच में से डेढ़ स्टार

निर्माताः जियो स्टूडियो और मैडॉक फिल्मस

लेखकः लक्ष्मण उतेकर, मैत्रेयी बाजपेयी और रामिज इल्हाम खान

निर्देशकः लक्ष्मण उतेकर

कलाकार: विक्की कौशल,सारा अली खान, राकेश बेदी, सुष्मिता मुखर्जी, इनामुल हक, नीरज सूद, शारिब हाशमी व अन्य

अवधि: दो घंटे 12 मिनट

2007 में ‘‘खन्ना एंड अय्यर’’ से बतौर कैमरामैन कैरियर की शुरूआत करने वाले लक्ष्मण उतेकर बाद में ‘इंग्लिश विंग्लिश’,‘डिअर जिंदगी’,‘हिंदी मीडियम’ और ‘ 102 नॉट आउट’ में बतौर कैमरामैन काम करते नजर आए. इस बीच उन्होने दो मराठी फिल्मों ‘टपाल’ व ‘लालबागची राणी’ का निर्देश किया.

2109 में उन्होने हिंदी फिल्म ‘लुका छिपी’ का निर्देशन किया. फिर ‘मिमी’ निर्देशित की. अब वह ‘जरा हटके जरा बच के ’’ लेकर आए हैं. इस फिल्म में विक्की कौशल और सारा अली खान की जोड़ी है.बतौर निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने फिल्म ‘‘लुका छिपी’’ में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने वाले कपल की कहानी पेश की थी,जो कि अपने माता पिता को झांसा देने के लिए नकली शादी करते हैं. अब उन्होने नई फिल्म ‘‘जरा हटके जरा बच के’’ में ऐसे शादीशुदा जोड़े की काहनी बयां की है,जो कि मकान के लिए तलाक ले लेता है. उनके माता पिता को सिर्फ यह पता है कि बेटे ने बहू को तलाक दे दिया. मजेदार बात यह है कि ‘जरा हटके जरा बचके’ में मकान के लिए तलाक का नाटक करने वाले विक्की कोशल ने नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही फिल्म  ‘‘लव पर स्क्वायर फुट’’ में मकान के लिए सुविधाजनक शादी करते हैं. मतलब इंसानी रिश्ते और विवाह संस्था इतनी कमजोर है कि ‘मकान’ की अहमियत बढ़ गयी है. तीन तीन लेखकों ने मिलकर फिल्म का सत्यानाश कर दिया है.वैसे फिल्मकार ने सरकार द्वारा मुफ्त में बांटे जा रहे पक्के मकान पर माफिया की पकड़ की पोल खेली है,पर बात जमी नहीं.

कहानीः

फिल्म की कहानी शुरू होती है इंदौर में अपनीं मां ममता( अनुभा  ) व पिता वेदप्रकाश दुबे(आकाश खुराना ) के साथ रहे रहे कपिल दुबे(विक्की कौशल ) की दूसरी शादी की दूसरी सालगिरह के दिन से.कपिल दुबे ने सौम्या आहुजा(सारा अली खान ) से प्रेम विवाह किया है. इंदौर में मकान छोटा है.अब उसी मकान में कपिल के मामा(नीरज सूद ) व मामी (कनुप्रिया पंडित ) भी रहने आ गए हैं, जिसके चलते कपिल व सौम्या को अपना कमरा मामा मामी को देना पड़ा है और अब उनकी अपनी प्रायवेसी खत्म हो गयी है. छह माह हो गए पर मामा मामी जाने का नाम नही ले रहे. उपर से कपिल व सौम्या के खिलाफ कपिल के माता पिता को भड़काते रहते हैं.कपिल योगा शिक्षक है. सौम्या  एक कोचिंग क्लास में पढ़ाती हैं.कपिल व सौम्या नया मकान खरीदना चाहते हैं,पर पैसे नही है. तभी ‘जन सुविधा आवास योजना’ का पता चलता है,पर कपिल के पिता के नाम पर पक्का मकान है. इसलिए एक एजेंट की सलाह पर कपिल व सौम्या अजीबीगरीब तरीके से तलाक लेते हैं.सौम्या किराए के मकान में रहने जाती है और ‘जन सुविधा आवास योजना’ में आवेदन करती हैं. लाटरी में नाम आ जाए इसके लिए एजेंट भगवानदास (इनामुल हक )को चार लाख रूपए दिए जाते हैं.

अब कपिल,सौम्या का भाई बनकर सौम्या से मिलने जाते रहते हैं.सौम्या जिस कालोनी में किराए के मकान में है,उसके चौकीदार (षाबिर हाषमी  ) को दाल में काला नजर आता है. खैर,कई घटनाक्रम बदलते हैं और फिर सौम्या को ‘‘जन सुविधा आवास योजना’ से मकान मिल जाता है.पर कपिल के मामा का सच जानने के बाद कपिल व सौम्या को शर्मिंदगी होती है और वह प्र्रायष्चित के तौर पर अपना ‘जन सुविधा आवास योजना’ का मकान चौकीदार को देकर पुनः शादी के बंधन में बंध जाते हैं.

लेखन व निर्देशनः

बतौर निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने अपनी पहली फिल्म ‘‘लुका छिपी’’ में संकेत दे दिया था कि उन्हे विवाह संस्था में यकीन नही है. पर अब लग रहा है कि लक्ष्मण उतेकर व उनके लेखकों को भारतीय समाज व रिष्तों की भी समझ नही है. बहरहाल,लक्ष्मण उतेकर ने इस बार अपने आपस पास घट रहे घटनाक्रमों को पकड़ते हुए सरकार द्वारा मुफ्ट में बांटे जा रहे पक्के मकान पर किस तरह माफिया का कब्जा है,इसकी पोल डरते डरते खोलने का प्रयास किया है.

इसे वह सही ढंग से फिल्म में चित्रित नही कर पाए.पर इसके लिए उन्होने बहुत ही अजीबोगरीब कहानी बुनी है,जो कि दर्शकों को निराश करती है. वास्तव में समाज के किसी मुद्दे को उठाना आसान है,पर उस मुद्दे के इर्द गिर्द सही पटकथा लिखना आसान नही होता. फिल्म में अदालत के दृष्य में वकील मनोज(हिमांशु कोहली),वकील की बजाय अपराधी गिरोह का सरगाना/ड्ग माफिया ही नजर आता है. लोगों को हंसाने के मकसद से जिस तरह से अदालत की काररवाही रखी गयी है,वह लेखकों व निर्देशक के दिमागी दिवालियापन का प्रतीक है.

फिल्म का गलत ढंग से किया गया प्रचार भी इस फिल्म को ले डूबा. फिल्म में रोमांस या प्यार तो नही है. कुछ जगहों पर हवश का नजारा मिल सकता है.पर फिल्म को प्रेम कहानी के तौर पर प्रचारित किया गया.लेखक व निर्देशक देश की जनता को मूर्ख समझते हैं. तभी तो जो फिल्म मे नही है,उसी का प्रचार किया गया.ट्रेलर लांच के दौरान एंकर ने जमकर तलाक की तारीफें की थीं. आखिर किस तरह का समाज लेखक व निर्देशक चाहते हैं? सच यह है कि आज की तारीख में अच्छे लेखकों, निर्देषकों के साथ ही फिल्म प्रचारको का घोर अभाव है. फिल्म प्रचारक का काम होता है कि वह फिल्म को इस तरह से प्रचारित करे कि दर्षक के मन में उस फिल्म को देखने की उत्सुकता जागृत हो. हो सकता है कि फिल्म प्रचारक की बात निर्माता व निर्देशक सुनने की बजाय अपने इशारे पर उन्हे नचाते हो.

महज कालेज के मैदान या सिनेमाघरों के अंदर कुछ लोगों के बीच हीरो हीरोइन के नाचने गाने या कुछ संवाद बोलने से  फिल्म के प्रति दर्शकों के मन में उत्सकुता जागृत नही होती. लोग भूल जाते हैं कि सोशल मीडिया युग में इस तरह के प्रचार इवेंट में सेल्फी खींचने भीड़ आती हैं और उस सेल्फी को सोशल मीडिया पर डालकर अपने दोस्तों के बीच चर्चा का विषय बनने के बाद वह फिल्म को भूल जाता है. यह उसी तरह से होता है जैसे कि चुनाव की सभा में चंद पैसे लेकर इकट्ठा हुई भीड़ वोट नहीं देती.वोट देने के लिए तो जेब से पैसे नही खर्च होेते,पर फिल्म देखने के लिए दर्षक को अपनी जेब से पैसे खर्च करने पड़ते हैं.फिल्मकार व प्रचारक को फिल्म की विषयवस्तु को इस तरह से प्रचारित करना चाहिए कि दर्शके अपनी जेब से पैसे निकालने के लिए उत्सुक हो जाए.इस तर्ज पर भी ‘जरा हट के जरा बच के’ मार खा गयी. फिल्म का गलत प्रचार भी इसे ले डूबा. इन दिनों हर प्रेस  में कलाकार के फैंस के नाम पर भाड़े के लोग बुलाए जाते हैं,जो कि सिनेमाघर में नकली हंसी हंसने से लेकर फिल्म के बेहतर होने का गुणगान तक करते हैं. सिनेमाघर में मेरे पीछे बैठ कर खूब हंस रहे चार लड़के प्रेस शो खत्म होने के बाद बस में हमारे साथ थे और वह अपने दोस्तांे को फोन पर बता रहे थे कि उनका वक्त बर्बाद हो गया.वह लोग अपना पैसा व वक्त बर्बाद न करे.टिकट खरीदकर इस फिल्म को न देखें…यह है कड़वा सच..

फिल्मकार ने बेवजह के बाथरूम में विक्की कौशल के अर्धनग्न नहाने के दृष्य रखकर लोगों को जबरन हंसाने का प्रयास किया है,पर वह असफल ही रहते हैं.

पूरी फिल्म देखकर अहसास होता है कि फिल्म के तीनो लेखक व निर्देषक देश व समाज से पूरी तरह कटे हुए हैं. उन्हे यही नही पता कि किसी भी सरकारी योजना के मकान को वह यॅूं ही किसी को नही दे सकते. इस तरह की योजना के अंतर्गत मिले मकान के मालिक का नाम नही बदलता. ईएमआई व किश्ते भरना आसान नही होता. मुंबई में म्हाड़ा के मकान जिन्हे पूरा पैसा देकर खरीदा जाता है,उन्हे भी मकान मालिक कई वर्षों तक बेच या दूसरो को नही दे सकता.

किसी भी सरकारी योजना के मकान की चाभी पोस्ट आफिस या कूरियर के माध्यम से नही भेजे जाते. लाभार्थी को स्वयं लेने जाना पड़ता है. फिल्मकार ने फिल्म के अंदर इंदौर की आंचलिक भाषा मालवी व निमाड़ी  में कलाकारों से संवाद बुलवाकर इंदौर शहर को स्थापित करने में सफल रहे हैं.  इसके अलावा फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसने की जरुरत थी. पता नही क्यो निर्देशक ने बेवजह कुछ दृष्यों को रबर की तरह खींचा है.फिल्म के संवाद भी प्रभावषाली नही है. शुरू से फिल्म जिस टोन मे चलती रहती है,क्लायमेक्स में जाकर वह टोन एकदम से हास्य से इमोशनल हो जाता है. उन दृष्यों को देखकर दर्षक सोचता है कि क्ष इतनी बड़ी बीमारी की षिकार मामी अपने भांजे के परिवार को बर्बाद करने के लिए हमेशा उल्टा सुल्टा बोलती रह सकती हैं? छह माह के दौरान घर में कोई भांप नही पाया कि वह इस कदर बीमार हैं. उन्हे दर्द तक नही हुआ. यहां आकर निर्देशक व लेखक एक बार फिर बुरी तरह से मात खा जाते हैं.

अभिनयः

विक्की कौशल को यह समझ लेना चाहिए कि अपने शारीरिक सौश ठव का प्रदर्शन कर वह अच्छे अभिनेता नही बन सकते. यदि वह अपने अभिनय कैरियर को डूबने से बचना चाहते है तो उन्हे अपनी अभिनय शैली पर विचार करने के साथ ही बेहतरीन कथानक वाली फिल्में चुननी पड़ेंगी.बड़े बड़े स्टूडियो के नाम के झांसे या निर्देशक की चिकनी चुपड़ी बातों से उन्हे बचना होगा.

चेहरे पर काला बिंदू चिपका लेने या दो बड़े दांत चिपका लेने से वह अच्छे कलाकार कभी नही बन सकते. विक्की कौषल को अभिनेता गुलषन ग्रोवर से कुछ सीखना चाहिए कि नकली बड़े दांतों का उपयोग किस तरह से कर अपने अभिनय का जलवा विखेरते थे. यूं तो यह फिल्म सारा अली खान के किरदार सौम्या के ही इर्द गिर्द घूमती है. विक्की का कपिल का किरदार तो महज उसका सहायक ही है.जब शुरूआत में साड़ी पहने हुए बिंदी लगाए सौम्या के किरदार  में सारा अली खान परदे पर नजर आती हैं,तो अहसास होता है कि इसमें सारा अली खान के अभिनय का जादू नजर आएगा.मगर चंद दृष्यों बाद यह भ्रम दूर हो जाता है.वह साड़ी में न सिर्फ सुंदर बल्कि ग्लैमरस भी नजर आती हैं. मगर अंतरंग दृष्यों मेें उनका अभिनय शून्य है. गुस्सा तो वह हो ही नही सकती. उनके चेहरे पर गुस्से के भाव आते ही नही है.

सौम्या के पिता आहुजा के किरदार में राकेश बेदी और मां के किरदार मे सुष्मिता मुखर्जी अपने अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं.सरकारी मकान दिलाने वाले एजेंट भगवानदास के किरदार में इनामुल हक के अभिनय में वह चमक नजर नही आती,जिसे वह अपनी पिछली फिल्मों में दिखा चुके हैं.वाचमैन के किरदार में षारिब हाषमी का अभिनय ठीक ठाक है. कपिल की मामी के किरदार में कनुप्रिया पंडित जमी हैं.मगर मामा के किरदार मंे नीरज सूद निराष करते हैं.वकील मनोज के किरदार में हिमांषु कोहली ने महज ओवर एक्टिंग की है.उन्हे समझना चाहिए कि अदालत में अंडरवर्ल्ड सरगना की तरह दहाड़ना अभिनय नही है.

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