रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः राइजिंग सन और कीनो वक्र्स

निर्देशकः शूजीत सरकार

कलाकारः विक्की कौशल, स्टीफन होगन,  शॉन स्कॉट,  कर्स्टी एवर्टन,  एंड्रयू हैविल,  बनिता संधू,  अमोल पाराशर व अन्य.

अवधिः दो घंटे 43 मिनट 50 सेकंड

ओटीटी प्लेटफार्मः अमैजान प्रइम वीडियो

13 अ्रपैल 1919 के दिन ब्रिटिश हुकूमत के समय पंजाब प्रांत के गर्वनर माइकल ओ डायर ने रोलिड एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण विरोध दर्ज करा रहे निहत्थे भारतीयों पर पंजाब के जलियां वाला बाग में जघन्य नरसंहार करवाया था, जिसमें बीस हजार से अधिक लोग मारे गए थे. इससे क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह का खून खौल उठा था, उसके बाद वह माइकल ओडायर की हत्या करने के मकसद से लंदन पहुॅचे और कई प्रयासों के बाद 13 मार्च 1940 को लंदन के कार्टन हाल में माइकल ओ डायर की हत्या कर जलियांवाला बाग कांड का बदला लिया था, जिसे सरदार उधम सिंह ने खुद ही अपना क्रांतिकारी फैसला बताया था और खुद को क्रांतिकारी होने की बात कही थी. जिसकी वजह से ब्रिटिश सरकार ने उन्हे फांसी पर लटका दिया था. पर आज तक ब्रिटेन ने इस दुष्कृत्य के लिए माफी नही मांगी है. भारत में राजनीतिक रस्साकशी के चलते हाशिए पर ढकेल दिए गए क्रांतिकारी उधम सिंह के जीवन को विस्तार से लोगों के सामने रखने के लिए फिल्मकार शूजीत सरकार ऐतिहासिक फिल्म ‘‘सरदार उधम’’ लेकर आए हैं, जो कि 16 अक्टूबर से अमैजान प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानीः

फिल्म की कहानी 1931 में पंजाब में जेल से शेर सिंह उर्फ उधम सिंह (विक्की कौशल) के जेल से रिहा होने से शुरु होती है, जो कि जेल से निकलकर खैबर गेस्ट हाउस पहुंचता है. जहां नंदा सिंह उन्हे सलाह देते है कि वह अफगानिस्तान पहुंचे जहां उन्हे पिस्तौल मिल जाएगी. फिर यूएसएसआर रूस होते हुए वह 1934 में लंदन पहुंचे. लंदन पहुंचकर उधम सिंह वहंा मौजूद कुछ ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ यानी कि ‘एच एस आर ए’ से जुड़े खोपकर सहित कई लोगों से मिलते हैं. एक ब्रिटिश महिला एलीन (कर्स्टी एवर्टन) से दोस्ती करते हैं. उधम सिंह लंदन में जनरल माइकल ओ ड्वायर (शॉन स्कॉट) की तलाश करते है. अंततः उधम सिंह इस सिरफिरे अंग्रेज को ढूंढ निकालते हंै और एक दिन सेल्समैन बनकर उन्हे मुफ्त में पेन का बैग देते हैं. फिर कुछ दिन जनरल माइकल ओड्वायर से के घर मे नौकरी करते हुए उनके जूते पॉलिश करते हैं. जनरल ओडायर के मन में जलियावाला बाग कंाड के लिए कोई अपराध बोध नही है, वह बार बार उधम सिंह से कहते हैं कि वह भारतीय जनता को सबक सिखाना चाहते थे.  फिर 13 मार्च 1940 को कॉर्टन हाल के जलसे में जनरल ड्वायर को उधम सिंह गोली मार देते हैं. पर भागते नहीं है और पुलिस को गिरफ्तारी देते हैं.  इसके बाद उधम पर अंग्रेज पुलिस के जुल्म और अदालती मुकदमा चलता है. पुलिस के पूछताछ के ही दौरान उधम सिंह के जीवन के कई घटनाक्रम फ्लैशबैक में आते हैं. तभी वह बताते है कि किशोर वय में उन्होने जलियंावाला बाग कांड देखा था, जिसकी वजह से उनके अंदर जनरल ओड्वायर की हत्य कर बदला लेने का गुस्सा पनपा था. उनके पास कई नाम के पासपोर्ट भी होते हैं. अंत में उधम बताते है कि जलियांवाला बाग कांड के कारण उन्होने जनरल ड्वायर को मारने का संकल्प लिया था. अदालत में उधम सिंह ‘हीर रांझा’ किताब पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाते हैं. फिर बिना ज्यादा बहस के अंग्रेज न्यायाधीश फांसी का फैसला लिख देता है.

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लेखन व निर्देशनः

दो घंटे 44 मिनट लंबी अवधि की अति धीमी गति से कम संवादो वाली इस फिल्म को देखने के लिए धैर्य की जरुरत है. फिल्म की कहानी धीरे धीरे आगे बढ़ती है, जिसमें संवाद कम हैं. फिल्मकार ने इसे दृश्यों के माध्यम से चित्रित करने का प्रयास किया है.  वैसे फिल्मकार ने इस ऐतिहासिक फिल्म को पेश करते हुए फिल्म का नाम सरदार उधम सिंह की बजाय सिर्फ सरदार उधम ही रखा है और शुरूआत में ही डिस्क्लैमर देकर सारी मुसीबतों व विवादों से छुटकारा भी पाया है. डिस्क्लैमर काफी लंबा चैड़ा है. इसमें फिल्मकार ने घोषित किया है कि यह फिल्म सत्य एैतिहासिक घटनाक्रमांे प आधारित है, मगर ऐतिहासिक तथ्यों को इसमें न खोजा जाए. फिल्म सरदार उधम सिंह के जीवन पर जरुर आधारित है, मगर इसे सरदार उधम सिंह की बायोपिक फिल्म के तौर पर न देखा जाए. ‘रचनात्मक स्वतंत्रता और सिनेमाई अभिव्यक्ति के लिए घटनाओं को नाटकीय बनाने‘ के सामान्य अस्वीकरण के साथ फिल्मकार हमेशा अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास क्या करते हैं. यदि वह सच कहने से डारते हैं,  तो फिल्म ही नही बनानी  चाहिए. हम सभी जानते है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के कई शहीदों को अभी न्याय और सम्मान मिलना बाकी है. कई क्रातिकारी इतिहास के पन्नों में कुछ पंक्तियों में सिमट गए और वह भी जो राजनीतिक रस्साकशी में हाशिये पर ढकेल दिए गए.  इस लिहाज से सरदार उधम की कहानी विस्तार से बताने के लिए शुजित सरकार का यह एक बड़ा कदम माना जा सकता है. क्योंकि उन्होंने इसे सिर्फ फिल्म न रखते हुए किसी दस्तावेज की तरह पर्दे पर उतारा है.

फिल्मकार ने उधम सिंह के अफगानिस्तान व रूस होते हुए इंग्लैंड पहंॅुचने को बहुत विस्तार से चित्रित किया है. फिल्म के अंतिम चालिस मिनट में जब जलियांवाला बाग कांड आता है, तब अंग्रेजों के अत्याचार आदि की कहानी नजर आती है.

फिल्म में तमाम ऐसे घटनाक्रम हैं, जिनका इतिहास में कहीं जिक्र नही है. फिल्मकार का दावा है कि उधम सिंह से संबंधित तमाम तथ्य अभी तक सार्वजनिक नही किए गए हैं. फिल्मकार ने फिल्म में उस दौर में चल रही वैश्विक उथल-पुथल और आंदोलनों का भी चित्रण किया है. फिल्मकार ने इस बात पर रोशनी डालने का प्रयास किया है कि आजादी की लड़ाई कई अलग-अलग स्तरों पर चल रही थी. देश में आजादी के दीवाने सड़कों पर उतर कर जेल जा रहे थे तो कई विदेश में रह कर मदद कर रहे थे या फिर मदद हासिल करने के लिए प्रयासरत थे.

फिल्मकार एक जगह यह बताते हैं कि उधम सिंह को अंग्रेजी  भाषा का ज्ञान था, तो फिर पुलिस पूछताछ के दौरान अनुवादक रखने की जरुरत क्यों महसूस की गयी?क्या यह निर्देशक की कमजोर कड़ी का परिचायक नही है?

फिल्मकार ने उधम और प्यारी रेशमा (बनिता संधू) के बीच रोमांस को ठीक से चित्रित नही किया है, जबकि फ्लैशबैक में कई बार इसका संकेत देते हैं. पर फिल्मकार ने जलियांवाला बाग हत्याकांड का आदेश देने वाले पुरुषों की क्रूर क्रूरता, भीड़ पर लगातार गोलीबारी, अपने जीवन को बचाने की कोशिश कर रहे निहत्थे भारतीय,  मृतकों और मरने वालों की हृदय विदारक दृश्यों का यथार्थपरक चित्रण किया है. शूजित ने अपनी इस फिल्म में 1919 से 1941 के दौर में भारत और लंदन को जीवंतता प्रदान की है,  फिर चाहे रूस के बर्फीले जंगल व पहाड़ी हों या भारत व लंदन की  जगहें-इमारतें-सड़कें हों,  सभा भवन हों,  किरदारों के परिधान हों,  उस समय का माहौल हो या दृश्यों में नजर आने वाली तमाम प्रॉपर्टी.  जी हॉ!1933 से 1940 के लंदन का सेट,  विंटेज एम्बुलेंस,  डबल डेकर बस,  पुलिस वैन,  हाई हील्स के साथ दौड़ती महिलाएं,  सबकुछ प्रामाणिकता का एहसास कराती हैं.

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अभिनयः

जलियावाला बाग कांड के गवाह बने उधम सिंह की पीड़ा,  क्रांतिकारी बनने, बदला लेने के जोश आदि को विक्की कौशल ने परदे पर अपने उत्कृष्ट अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. 19 वर्षीय किशोर वय में जलियांवाला बाग के घायलों को अस्पताल पहुॅचाते वक्त चेहरे  पर आ रही पीड़ा व गुस्सा हो अथवा जासूस की तरह रहस्यमय इंसान की तरह लंदन की सड़कों पर चलना हो, माइकल ड्वायर पर गोली चलाने से लेकर पुलिस की यातना सहने तक के हर दृश्य में विक्की याद रह जरते हैं. विक्की कौशल का अभिनय व हावभाव काफी सधे हुए हैं. भगतसिंह के किरदार में अमोल पाराशर के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. उधम सिंह की प्रेमिका रेशमा के भोलेपन व मासूमियत को बनिता बंधू ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. वह बिना संवाद महज हाव-भाव से असर पैदा करने में कामयाब रहती हैं.  माइकल ओ डवायर के किरदार में शॉन स्कॉट का अभिनय काफी दमदार है.  उधम के वकील के रूप में स्टीफन होगन का अभिनय ठीक ठाक है.

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