फिल्म अभिनेता, लेखक, गीतकार, निर्देशक, निर्माता, समाज सेवक और तेलुगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता आदित्य ओम लगातार सामाजिक सारोकारों से जुड़े विषयों पर फिल्मों का निर्माण व निर्देशन कर अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. जबकि दक्षिण भारत में उनकी पहचान अभिनेता के तौर पर है. अब तक वह 25 सफलतम तेलगु फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं.
तेलगू फिल्मों में अभिनय से धन कमाते हुए वह सामाजिक सरोकारों वाली हिंदी फिल्में बना रहे हैं. उन्होने सबसे 2012 में फिल्म‘‘शूद्र‘‘ का सह निर्माण किया था. फिर ‘बंदूक’का निर्माण व निर्देशन किया. उसके बाद मूक फिल्म ‘‘मिस्टर लोनली मिस प्यारी‘‘ का निर्देशन किया. उनके द्वारा निर्देशित लघु फिल्मों ‘‘माया मोबाइल‘‘ और ‘‘मेरी मां के लिए‘‘को काफी सराहा गया. आदित्य ओम द्वारा लिखित और निर्देशित अंगे्रजी भाषा की फीचर फिल्म‘‘द डेड एंड‘‘को अंतरराष्ट्ीय फिल्म समारोहो में काफी पुरस्कार मिले हैं. सिनेमा व्यवसाय में बढ़ते एकाधिकार के खिलाफ लड़ाई वह लड़ाई लड़ चुके हैं. इन दिनों आदित्य ओम अपनी शिक्षातंत्र पर आधारित हिंदी फिल्म ‘‘मास्साब‘‘ को लेकर चर्चा में हैं, जिसने विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में 48 पुरस्कार जीते हैं. आदित्य ओम की तीन पटकथाएं प्रतिष्ठित औस्कर पुस्तकालय का हिस्सा हैं. जबकि उनकी बहुभाषी फीचर फिल्म‘बंदी’ भी चर्चा में है.
आदित्य ओम सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं. उन्होने तेलंगाना में चेरूपल्ली व आंध्रा में चार गॉंव गोद ले रखे हैं. वह अपने एनजीओ ‘एडुलाइटमेंट‘ (म्कनसपहीज उमदज) के तहत पिछले दस वर्षों से साथ शैक्षिक सुधारों के लिए भी काम कर रहे हैं. गॉंवो में आदित्य ओम ने एक पुस्तकालय के अलावा डिजिटल सेवा केंद्र खोला है. गाँव के स्कूल और लोगों को लैपटॉप और सोलर लाइट दी है. वह अपने एनजीओ ‘एडुलाइटमेंट‘ (म्कनसपहीजउमदज) के तहत शैक्षिक सुधारों के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं. कोरोना के समय में पॉंच सौ किसानों को आम व नारियल के बीज उपलब्ध कराए.
प्रस्तुत है आदित्य ओम से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. . .
फिल्म‘‘बंदूक’’से लेकर अब तक की आपकी निर्देशक के तौर पर जो यात्रा है, उसे लेकर क्या कहना चाहेंगें?
-इमानदारी से कहूं तो जब मैंने फिल्म ‘बंदूक’बनायी थी, उस वक्त सिनेमा उद्योग बदल रहा था. कारपोरेट युग अपने उफान पर था और सिंगल निर्माता खत्म हो रहे थे. कारपोरेट ही सारी चीजें अपने अधिकार में लेता जा रहा था. तो वहीं दर्शकों की सिनेमा को लेकर रूचि बदल रही थी. उस वक्त मुझे बतौर निर्देशक अहसास नही था कि हालात इतने बदल गए हैं. अब स्वतंत्र रूप से फिल्म बनाना और उसे प्रदर्शित करना आसान नही रहा. प्रचार में भी अब काफी धन खर्च होने लगा है, एक हजार से कम सिनेमाघरों में फिल्म के प्रदर्शित होने पर लोग फिल्म का प्रदर्शित होना भी नहीं मानते हैं. वगैरह वगैरह. . इस तरह की चीजो की समझ नही थी. लेकिन फिल्म‘बंदूक’बनाने के बाद मैने यह सारे सबक सीखे कि हिंदी सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में दो तरह का ही सिनेमा बचा है. एक वह जो शुद्ध व्यावसायिक सिनेमा है, जो कि पचास करोड़ से अधिक के बजट मंे बनता है. दूसरा ऐसा सिनेमा बचा है, जो कि अवार्ड या यूं कहें कि फिल्म फेस्टिवल वाला सिनेमा है, जिसे कम से कम बजट में बनाया जाना चाहिए. मेरे उपर कोई भी कारपोरेट पैसा लगाने को तैयार नही है, कोई बड़ा स्टार मेरे निर्देशन में काम करने को तैयार नहीं है या यूं कहें कि कोई मुझ पर यकीन करने को तैयार न था. ऐसे में मैंने छोटी फिल्मों का सहारा लिया. उस कड़ी में मैने ‘बंदूक’ के बाद सबसे पहले ‘मास्साब’बनायी. जिसका निर्माण ‘पुरूषोत्तम स्टूडियो’ने किया है. सबसे बड़ी बात यह है कि ‘पुरूषोत्तमस्टूडियो’ किसानों की कोआपरेटिब सोसायटी है. मैं गामीण पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाने की सोच रहा था. मैने ‘पुरूषोत्तम स्टूडियों वालों को कहानी सुनायी, तो उन्हे कहानी अच्छी लगी और उन्होने कहा कि हम इसे बंुदेलखंड में फिल्माए, तो हमने इस फिल्म को बुंदेलखंड में ही फिल्माया. यह बात है 2017 की. 2018 तक इसकी शूटिंग और प्रोडक्शन का काम पूरा हो सका. फिर यह फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में घूमती रही. दो वर्ष के अंदर तकरीबन 35 फिल्म समारोहों में इसे 48 राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. जिस तरह से अब यह फिल्म 29 जनवरी 2021 को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है. वहीं इस फिल्म को ओटीटी प्लेटफार्म से अच्छे आफर आ रहे हैं, उससे मुझे यही सीख मिली है कि आप कम बजट में अच्छा कंटेंट बनाएं. सीमित साधन में रहकर बनायी जाने वाली बेहतरीन फिल्मों के लिए जगह है. ऐसा नही है कि किसी कारपोरेट ने आपके कंधे पर हाथ नहीं रखा या किसी स्टार कलाकार ने आपके साथ काम करने को तैयार नहीं हुआ, तो आपके लिए सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. पर ऐसे हालात में यात्रा थोड़ी लंबी और कष्टकारी जरुर जाती है. तो सबक लेते हुए मैने अपनी दूसरी फिल्म ‘मैला’भी बना ली है, यह फिल्म बुंदेलखड में अभी भी सतत जारी‘मैला प्रथा’पर हैं. यह फिल्म अभी ‘ईफ्फी’के बाजार सेक्शन में थी. तो मेरा सबक यही है कि हर फिल्मकार को बजट की चिंता किए बगैर सामाजिक सारोकार से जुडे़ विषयों पर सिनेमा बनाना चाहिए, सार्थक सिनेमा बनाना चाहिए, जो कि शायद समाज में कुछ कर जाए. ऐसे सिनेमा को जितने भी लोग देखंे, उनके जीवन में बदलाव आए. मेरी राय में सिनेमा हमेशा के लिए होता है, तो हम आज जो सिनेमा बना रहे हैं, उसे पांच वर्ष बाद भी यदि कोई देखे, तो वह कहे कि इस फिल्मकार ने अच्छा काम किया है.
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फिल्म‘मास्साब’का विषय क्या है. और इसकी प्रेरणा कहां से मिली?
-एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर मुझे छोटे शहरों और गांवों की कहानियां, उनकी समस्याएं हमेशा झिंझोड़ती रहती है. मगर ‘मास्साब’का विषय फिल्म के नायक शिवा सूर्यवंशी मेरे पास लेकर आए थे. उनके पास कहानी की एक पंक्ति थी कि एक शिक्षक दूर दराज के गांव में जाकर वहां की शिक्षा और फिर गॉंव की शक्ल ही बदल देता है. इस पर मैने नए सिरे कहानी व पटकथा लिखी. मैने उसे शिक्षक की बजाय एक आईएएस अफसर बनाया. एक आईएएस अफसर अशीश कुमार शिक्षा के प्रति इस कदर समर्पित है कि वह आईएस की नौकरी छोड़कर दूर दराज के गांव में शिक्षा बांटने के लिए पहुंच जाता है. हमारी फिल्म मे एक दृश्य है जब अशीश कुमार को बड़े बड़े स्कूल व कॉलेज से जुड़ने के लिए आफर आते हैं, तो वह कहता है-‘‘शिक्षा व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, जिसे आप लोगो ने व्यवसाय बना रखा है. शिक्षा आपके लिए धन कमाने का जरिया है. लेकिन मेरे लिए शिक्षा ही धन है. ’गांव वालों को यह बात बहुत अच्छी लगती है. वह गॉंव वालों से कहता है-‘‘शिक्षा तो खुला खजाना है. लेकिन इसे बांटने वालों की कमी है. मैं यहां इस खजाने को बांटने के लिए आया हॅूं. बटोरने वालों को भेजने की जिम्मेदारी आपकी है. ’’
जैसा कि आप खुद जानते है कि मैं एक समाज सेवक भी हूं. आपको पता है कि मैने शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है. शिक्षा के क्षेत्र में काम करते समय मुझे जो जो खामियां लगती थी, उन सभी को मैने अपनी फिल्म‘मास्साब’में पिरोया है. जो मैं चाहता था कि शिक्षा को लेकर सरकार की नीति का हिस्सा होना चाहिए, वह सब मैंने अपनी फिल्म के नायक अशीश कुमार के माध्यम से कहने का प्रयास किया है. मैने अपनी फिल्म ‘मास्साब’में प्रायमरी स्कूल के अंदर जो प्रयोग कराएं, वह सारे प्रयोग मैं निजी स्तर पर अपने गोद लिए गए गांवों के स्कूलों में करवा चुका हॅूं, जिसके बेहतरीन परिणाम आए हैं. हमारी फिल्म का नायक गॉंव में हठधर्मिता, अंधविश्वास, अज्ञानता और भ्रष्टाचार में डूबी हुई ताकतों से लड़ता है.
जैसा कि मैने बताया कि मैंने अपनी इस फिल्म को 2017 में लिखा था और इसे हमने 2018 में फिल्मा लिया था. दो वर्ष से यह फिल्म, फिल्म फेस्टिवल में घूम रही थी. पर आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सरकार अपनी नई शिक्षा नीति में मेरी फिल्म में उठाए गए कई मुद्दों को शामिल कर रही है.
आपने अपनी फिल्म‘‘मास्साब’’में शिक्षा नीति में किस तरह के बदलावों की बात की है?
-वर्तमान समय में जिस तरह की शिक्षा नीति है या सरकारी प्रायमरी स्कूलों मंे जिस तरह से पढ़ाई हो रही है, उसमें ‘सीखने की खुशी’गायब है. सीखने की अपनी खुशी होती है, जब बच्चे को वह खुशी मिलती है, तभी वह पढ़ना चाहता है. वर्तमान समय में जिस तरह की शिक्षा प्रणाली है, वह बच्चों से सीखने की खुशी छीन लेती है. बच्चे स्कूल जाने से डरते है और बच्चे स्कूल न जाने के बहाने बनाते हैं. मैने अपनी फिल्म में सबसे पहला यही मुद्दा उठाया है. इसके अलावाबच्चों को सवाल पूछने की आजादी होनी चाहिए. सवाल पूछने के लिए उनका हौसला बढ़ाया जाना चाहिए. उनके अंदर की हिचक दूर करनी चाहिए. इसके अलावा समाज के अंदर निहित जो जाति, धर्म, उंच नीच, छुआछूत पर भी बात की है, यह सारी बातें किस तरह स्कूल या गांव के स्तर पर प्रभावित करती है. कुछ उंची जाति के बच्चे अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते हैं, तो छोटी जाति का बच्चा स्कूल इसलिए नहीं जाना चाहता कि नीची जाति का होने की वजह से शिक्षक उन्हे ही डांटते या पीटते है. शिक्षा को ‘फन’बनाने को लेकर भी हमने बात की है. बच्चों के ‘मिड डे मील’में भ्रष्टाचार से लेकर स्कूलांे मंे शिक्षकों के फर्जीवाड़े के मुद्दे को भी उठाया है. हमने शिक्षा के क्षेत्र में विज्युअल को महत्व देने की बात की है, जिससे बच्चों को सिखाने की जरुरत न पड़े, बच्चा खुद ब खुद देखकर सीख जाए. हमारी फिल्म कहती है कि शिक्षा में नीरसता की वजह से बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता. इसके अलावा आज भी कुछ गांवों व समाज में लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नही है, तो उस पर भी मंैने कटाक्ष किया है. प्रायमरी में ही बच्चों को कम्प्यूटर शिक्षा की उपयोगिता पर भी रोशनी डाली है. मैने फिल्म में व्यावहारिक रूप से दिखाया है कि जिस गांव के बेटे ठीक से हिंदी नही बोलते थे, वह फर्राटेदार अंग्रेजी कैसे बोलने लगे. सरकारी प्रायमरी स्कूल के बच्चे किस तरह हाई फाई पब्लिक स्कूल में जाकर वाद विवाद प्रतियोगिताएं जीतने लगे. बच्चों के आत्म विश्वास को कैसे बढ़ाया जाए, इस पर भी बात की है.
जब मैं अपनी इस फिल्म की शूटिंग बंुदेलखंड के एक गांव में कर रहा था, तब मैने स्वयं इस बात को अनुभव किया. मैने वास्तविक सरकारी प्रायमरी स्कूल में वास्तविक विद्यार्थियों के साथ इस फिल्म की शूटिंग कर रहा था. तीसरे दिन से वह बच्चे एक्शन व कट बोलने लगे थे. यदि हमसे गलती हो जाती थी, तो बच्चे बताते थे कि सर पिछली बार छड़ी इस जगह पर नहीं, वहां पर थी. आप मानकर चले कि भारत के बच्चों में असीमित प्रतिभा है, मगर इनकी नब्बे प्रतिशत प्रतिभाएं सरकारी प्रायमरी स्कूलों की व्यवस्था और जो हमारे देश की शिक्षा प्रणाली है, उसकी भेंट चढ़ जाती है. दसवीं की परीक्षा पास करते करते बच्चे की सारी प्रतिभा को मार दिया जाता है. सभी को यहां एक ही दौड़ में दौड़ा दिया जाता है. जरुरत यह होती है कि बच्चे के अंदर विद्यमान प्रतिभा को कितनी जल्दी तलाशा जाए और फिर उसे निखारा जाए. जिस बच्चे का दिमाग गणित में नही चलता, उस पर गणित जबरन क्यों थोपी जाए?
आप समाज सेवा के रूप में जो काम कर रहे हैं, उसका जुड़ाव इस फिल्म के साथ कैसे हुआ?
-जो जो मेरे अरमान हैं, मतलब समाज सेवक के रूप में मैं जो कुछ शिक्षा जगत में देखना चाहता था, उन सभी अरमानों को मैने अशीश कुमार के किरदार के माध्यम से पूरा किया है. फिल्म में अशीश कुमार की फिलोसफी मेरे अपने अनुभव हैं. फिल्म के अंत में अशीश कुमार गांव वालों से कहता है-‘‘दुनिया की चार पांच बातें सीखकर मुझे लगा कि मैं बहुत बड़ा शिक्षक बन गया, पर मैं जब इस गॉंव में आया, तो मैंने सीखा कि सबसे बड़ी शिक्षा प्रेम की है, और मैं यही शिक्षा भूल गया. मैं यहां शिक्षक बनकर आया था, पर यहां से जा रहा हूं एक विद्यार्थी बनकर. . ’’इस फिल्म के लेखन व निर्देशन में मेरे समाज सेवा के अनुभवों का अमूल्य योगदान रहा.
इस फिल्म को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शन के दौरान किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?
-इस फिल्म को 48 पुरस्कार मिले हैं. लगभग 35 फिल्म फेस्टिवल में जा चुकी है. जो चार बहुत नामचीन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह हैं, वहां मेरी फिल्म नहीं पहुंच पायी, क्योंकि इसी विषय पर उनके पास पहले से फिल्में थीं. ‘कॉन्स अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’के निदेशक बेंजामिन एलोस ने हमारी फिल्म का एक पेज का रिव्यू समीक्षा लिखी और बताया कि इस विषय को वह लोग पहले ही डील कर चुके हैं, इसलिए इसे नही ले पा रहे हैं. जबकि अमरीका सहित कई देशों में यह फिल्म दिखायी जा चुकी है और हर जगह इसे सराहा गया. मेरा मानना है कि अच्छी फिल्में बनायी नहीं जाती, मगर फिल्म बन जाती हैं. यह फिल्म सामूहिक चेतना वाली है. वैसे कुछ लोगो ने कहा कि फिल्म लंबी हो गयी है. अमरीका में फिल्म के नायक शिवा सूर्यवंशी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिला. पर मैं यह नहीं कहता कि इसमें खामियां नहीं है. इसकी प्रोडक्शन वैल्यू कमतर है, पर कंटेंट जबरदस्त है.
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दक्षिण भारत में किस तरह की गतिविधियां हो रही हैं?
-दक्षिण भारत में बतौर अभिनेता इस वर्ष मेरी पांच फिल्में प्रदर्शित होने जा रही हैं. इसमें से कुछ कोरोना की वजह से 2020 में प्रदर्शित नहीं हो पायी. पॉंच फरवरी को मेरी तेलगू भाषा की फिल्म प्रदर्शित हो रही है. इसके अलावा मैने बतौर अभिनेता दो हिंदी फिल्मों की शूटिंग पूरी की है. जसमें से एक है- ‘शूद्र-भाग दो’, जो कि 2012 में प्रदर्शित हिंदी फिल्म ‘शूद्र’ का सिक्वअल है. इसमें मैने रजनीश दुग्गल के साथ अभिनय किया है. दूसरी फिल्म रोहित वेमुला की आत्महत्या पर बनी है, जिसका नाम है-‘कोटा’. फिल्म ‘कोटा’शैक्षिक संस्थानों में जातिगत आरक्षण और भेदभाव के विषय पर निर्भीकता से बात करती है. इसमें मैंने एक दलित नेता का किरदार निभाया है, यह किरदार कुछ हद तक भीम पार्टी के चंद्रशेखर पर आधारित है. उनकी बौडी लैंगवेज वगैरह नजर आएगी. इसके अलावा मैने तेलुगू और हिंदी दो भाषाओं में बनी फिल्म ‘बंदी’की है. राघव टी निर्देशित इस फिल्म में मैं अकेला हीरो हॅूं. यह एक प्रयोगात्मक फिल्म है. मैं इस प्रयोगात्मक फिल्म का हिस्सा बनकर उत्साहित हूं, जो तेलुगु, तमिल और हिंदी में एक साथ बनी है.
फिल्म वन्यजीव संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के इर्द-गिर्द घूमती है. यह फिल्म मई या जून में प्रदर्शित की जाएगी.
हिंदी की व्यावसायिक फिल्मों में अभिनय करते नजर नहीं आते हैं?
-सच यही है कि हिंदी की व्यावसायिक फिल्मों में मुझे कोई बड़ा व अच्छा किरदार नहीं दे रहा है. मैं सिर्फ हीरो का दोस्त या पांच मिनट का नगेटिब किरदार नहीं निभाना चाहता. पर मैने अेन सपने को जिंदा रा है. जब तक हिंदी की व्यावसायिक फिल्में नहीं मिलती, तब तक मैं अपनी छोटे बजट की अच्छे कंटेंट वाली फिल्में निर्देशित करता रहूंगा. तेलगू फिल्में तो कर ही रहा हॅूं. हॉं. . कुछ अच्छी वेब सीरीज के आफर आए हैं, शायद इनमें से किसी में अभिनय करुंगा.
शिक्षा तंत्र पर फिल्म बनाने के बाद ‘मैला(टट्टी) उठाने वालों’पर फिल्म बनाने का ख्याल कैसे आया?
-सिर पर मैला(टट्टी) उठाने की परंपरा बहुत गलत है. भारत में 1993 में कानून बनाकर ‘‘ सिर पर मैला(टट्टी) उठाने’’की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसके विपरीत भारत के कई ग्रामीण और शहरी हिस्सों में यह एक आम बात है. मगर इस तरह के विषयों व कहानियों पर कोई भी फिल्मकार फिल्म नहीं बनाना चाहता. बड़े फिल्म निर्माता व निर्देशक तो नंबर गेम में फंसे हुए हैं, जबकि यह चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं. फिलहाल हम तो नंबर गेम नही खेल सकते, तो कम से कम सार्थक काम ही करें. मैं लबे समय से शहर व महानगरो में गटर साफ करने वालों पर फिल्म बनाना चाहता था. मैंने ‘सुलभ शौचालय’ के पाठक जी से इस संबंध में मुलाकात की. फिर मुझे ‘बुंदेलखंड अधिकार मंच’ के कुछ लोग मिले. उन्होने हमें बताया कि उनके क्षेत्र में आज भी ‘सिर पर मैला उठाने’की परंपरा चल रही है. उनकी सलाह थी कि इस फिल्म को शहरी परिवेश की बजाय ग्रामीण परिवेश में बनाया जाए. फिर उनके साथ मैं चंबल के इलाके, मैनुपरी व जालौन के इलाकों में गया. और मैला उठाने वालों की कालोनी में गया, कईयों से मिला, उनकी निजी व सामाजिक जिंदगी का अध्ययन किया. मैने उनके हालात, उनकी गरीबी आदि देखी और मैंने पाया कि वह लगभग‘टट्टी’घर में रहते हैं. उनके बच्चों की हालत देखी. उनका एक भी बच्चा मुझे ऐसा नही मिला, जिसे चर्म रोग न हुआ हो. उनकी औरतें लड़ाका हो गयी हैं. मर्द हमेशा दारू पीकर रहते है. बहुत दयनीय हालत है. मुझे लगा कि इन लोगों के लिए कुछ न कुछ किया जाना चाहिए. मैने उनसे बात की और उनसे कहा कि मैं उन पर फिल्म बनाना चाहते हैं. उनकी मदद के बिना, तो मैं यह फिल्म नहीं बना सकता था. उन्होने मुझे हर चीज व जगह दिखायी, जो वह करते हैं. वह मुझे अपने घर के अंदर भी ले गए. उन्होने अपने उस टसले, जिसमें वह लोगों की टट्टी भरते है, वह टसला और वह लकड़ी भी दिखायी, जिसकी मदद से वह टसले में टट्टी भरकर सिर पर रखकर ढोते हैं. बारिश में किस तरह से वह ले जाते हैं. जब वह सिर पर टट्टी से भरा टसला ले जा रहे होते है, तो बारिश शुरू हो जाने पर अक्सर टट्टी उन पर ही बहती है. किस तरह लोग दो रोटियां दूर से फेंककर दे देते हैं. तो उनकी इस दयनीय स्थिति को देखकर खुद को यह फिल्म बनाने से रोक न पाया. मैं वहां पर 22 दिन रहकर फिल्म बनायी. मेरा दावा है कि कोई भी सामान्य इंसान इन जगहों पर एक घंटे भी नहीं रह सकता. वहा इतन बदबू आती है कि कोई खड़ा नहीं रह सकता.
क्या आपने अपनी फिल्म में इनके प्रति सरकारी रवैए को लेकर भी कुछ कहा है?
-जी नहीं. मैं इसे राजनीतिक हथकंडा नहीं बनने देना चाहता था. आजकल राजनीति बहुत गड़बड़ है. हम अगर फिल्म में कोई इन्नोसेंट कमेंट करते हैं, तो हर पार्टी उसे अपने हिसाब से भुनाना शुरू कर देती है. मेरी दोनों फिल्मों ‘मास्साब’और‘मैला’ के विषय राजनीतिक होते हुए मैने राजनीति से दूर रखने का पूरा प्रयास किया है. मैंने किसी पर भी दोषारोपण नहीं किया है. मैने दोनो फिल्मों में इस बात को रेखंाकित किया है कि हमारे समाज की अपनी कुछ अंदरूनी समस्याएं हैं, हमारे समाज के कुछअंदरूनी दायरे हैं, समाज की कुछ अंदरूनी विसंगतियां हैं, जिसके चलते यह सारी चीजें आज भी विद्यमान हैं. समाज जिस तरह से जाति, धर्म, उंच नीच आदि में बंटा हुआ है, उसके चलते भी यह समस्याएं हैं. इसकी एक वजह यह है कि अधिकांश लोगों के पास उपलब्धि नही बची है, तो गर्व के नाम पर, उपलब्धि के नाम पर दोबारा अपनी जाति व धर्म को ही पकड़ रहे हैं. इतिहास पर गर्व करना अलग बात है. मगर आज के बच्चों का पृथ्वीराज चैहाण या राणाप्रताप की जय करते रहना ठीक नही है. उन्हें वर्तमान में जीना चाहिए. किसी की जयंती पर कहना जय के नारे लगाना ठीक है. मेरा मानना है कि अगर आजादी के 72 साल बाद भी हम लोग पहले ठाकुर या ब्राम्हण या श्रीवास्तव या हिंदू ही रहे, तो फिर हमारी आजादी ही बेमतब है. हम लोगो ने एक संविधान बनाया है, तो उसे लेकर चलना पडे़गा अन्यथा अंदरूनी समस्याएं बहुत है. आप मानेंगे नहीं मगर जब हम मुंबई में शूटिंग करते हैं, तो स्थानीय लोगो से हमें काफी समस्याएं होती हैं. हर वर्ग से होती थीं. छोटे लोगों को लगता था उनकी कहानी को सही संदर्भ में नहीं दिखा रहे हैं. कुछ लोग सोचते थे कि हमारी कहानी पर फिल्म बनाकर करोड़पति बन जाएंगे. बड़े लोग सोचते थे कि यह इन पर फिल्म क्यों बना रहा है?यह हमारी दबंगई पर फिल्म क्यों नहीं बना रहा.
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अपनी समाज सेवा के कार्यों पर कुछ रोशनी डाल दें. . ?
-सर. . . आपको सब कुछ पता है. आप यह भी जानते हैं कि मैं समाज सेवा के कार्यों को प्रचारित करने में यकीन नहीं रखता. मैने आंध्र्रा के चार और तेलंगाना में चेरूपल्ली गांव गोद लिए हुआ है, वहां पर कुछ काम करवाता रहता हूं. वहा पर इलेक्ट्रीसिटी मुहैया कराने से लेकर एम्बूलेंस वगैरह भी चलती हैं. चारों गॉवों के स्कूलों में शिक्षा को लेकर भी सारे प्रयोग करता रहता हूं. स्कूल में सोलार एनर्जी व कम्प्यूटर आदि उपलब्ध कराए हैं.
दक्षिण भारत के कई कलाकार सामाजिक कार्य करते रहते हैं. पर बौलीवुड कलाकार दूर रहते हैं?
-इसकी मूल वजह यह है कि दक्षिण भारत के सभी कलाकारों का समाज से सीधा जुड़ाव रहता है. यहां नकलीपन हावी है. वहां पर छोटी इंडस्ट्री है. वहां कलाकार क्या करते हैं, यह मायने रखता हैं. वहां हर कलाकार को अपनी भाषा, अपने गांव, अपने लोगों के लिए कुछ न कुछ करना ही होता है. यहां पर ऐसा नही है. बौलीवुड के कलाकार इतने बड़े बन गए हैं कि उन्हे किसी से मतलब नहीं है. उन्हे अपने शहर, अपने गांव के लोगों से भी कोई मतलब नही है.