फिल्म: तर्पण
निर्देशक: नीलम आर सिंह
कलाकार: नंद किशोर पंत, नीलम कुमारी, संजय कुमार, अरूण शेखर और अन्य
अवधि: दो घंटे, छह मिनट
रेटिंग: ढाई स्टार
डिजिटल युग में पहुंचने के बावजूद हमारे देश में लड़कियों और औरतों को वह सम्मान नहीं मिल पाया है, जिसकी वह हकदार हैं. इस मुद्दे को उठाने के लिए लेखक व निर्देशक नीलम आर सिंह ने शिवमूर्ति के उपन्यास ‘‘तर्पण’’ पर इसी नाम की फिल्म बना डाली, जिसमें जात-पात के भेदभाव और उसके लिए होते संघर्ष के बीच फंसी एक नारी की पीड़ा की मार्मिक दास्तान है.
कहानी
शिवमूर्ति के उपन्यास ‘तर्पण’ पर आधारित फिल्म ‘‘तर्पण’’ की कहानी युगों से भारत में चले आ रहे जातिगत संघर्ष और सामाजिक विसंगतियों की गाथा है. ग्रामीण परिवेश की यह कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव की है, जो कि दो टोलों में बंटा हुआ है. एक टोला ब्राम्हणों का यानी कि ऊंची जाति का है तो दूसरा टोला हरिजनों यानी नीच जाति का है.
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हरिजन टोला में रहने वाली रजपतिया (नीलम कुमारी) एक दिन घूमते-घूमते गन्ना चूसने के लिए गांव के रसूखदार ब्राम्हण धर्मदत्त उपाध्याय( राहुल चैहाण) के खेतों के अंदर चली जाती है, जहां धर्मदत्त के बेटे चंदर उपाध्याय (अभिषेक मदरेचा)उसका शारीरिक शोषण करने का प्रयास करता है. पर गांव की दो औरतों के आ जाने से वह रजपतिया को छोड़ देता है.
जब इस घटना की खबर भीम पार्टी के भाई जी (संजय कुमार) तक पहुंचती है, तो वह अपने स्वार्थ के चलते गांव पहुंचकर रजपतिया के पिता प्यारे (नंद किशोर पंत) को समझाकर पुलिस में रपट लिखाने के लिए कहते हैं. भीम पार्टी के नेता खुद साथ में पुलिस स्टेशन जाते हैं. फिर शुरू होता है जातिगत संघर्ष को उजागर करने वाला बदसूरत शीतयुद्ध.
निर्देशन...
फिल्म की निर्देशक नीलम आर सिंह ने इस फिल्म को डाक्यू ड्रामा और यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ बनाया है. कहीं कोई बेवजह का मेलो ड्रामा या छाती पीट-पीटकर रूदन नहीं है. पूर्वाग्रह से बचते हुए दो समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखना एक फिल्मकार के लिए टेढ़ी खीर होती है, इसमें नीलम आर सिंह पूरी तरह से सफल रही हैं. फिल्म इस बात को उकेरने में सफल रहती है कि समाज में किस तरह राजनेता अपनी नेतागीरी को चमकाने के लिए दो जातियों व समुदायों के बीच संघर्ष कराते रहते हैं.